उत्तराखण्ड के पूर्वी सीमान्त जिलों- पिथौरागढ़ एवं चम्पावत, जो संयुक्त रूप से काली नदी के जलागम क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं, का विविध संस्कृतियों एवं पुरा मानव समूहों की विचरण व निवास स्थलों के रूप में विशिष्ट स्थान रहा है। इन जनपदों मेें पुराकालीन मानव-संस्कृति के अस्तित्व को पुरातात्विक स्रोत प्रमाणित कर चुके हैं, यथा-देवीधुरा (चम्पावत) व विशाड़ (पिथौरागढ़) के निकट महाष्म संस्कृति के स्मारक नैनीपातल व बनकोट से प्राप्त ताम्र-मानवाकृतियाँ(आद्य ऐतिहासिक ताम्र संचय संस्कृति से सम्बन्ध) आदि। वैदिक वाङ्मय में वर्णित अनेक ऋषियों से साम्य स्थापित करते स्थल-नामों के मिथक भी इन जनपदों में प्रचलित रहे हैं। वैदिक ऋषियों द्वारा नदी-तटों एवं गिरि-शिखरों पर स्थापित तत्कालीन आश्रम, वर्तमान तीर्थ-स्थलों के रूप में विकसित हुए। पूर्व मध्यकालीन मानसखण्ड (स्कन्दपुराणान्तर्गत) इन तीर्थ-स्थलों (धार्मिक स्थलों) की महत्ता को प्रतिपादित करता है।
पशुपति रुद्र की निवास स्थली के रूप में विख्यात ‘कैलास-मानसरोवर’ का प्राचीन यात्रा मार्ग भी इन दोनों जनपदों से होकर गुजरता है। चम्पावत जनपद में स्थित पूर्णागिरि से पर्वतीय क्षेत्र में प्रारम्भ होने वाली इस तीर्थ यात्रा के अनेक स्थल-पड़ावों पर अधिसंख्य मन्दिरों, नौलो, धर्मशालाओंं का निर्माण मध्यकालीन स्थानीय शासकों ने धर्म पालन हेतु किया एवं इन देवालयों में वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त आदि विविध मतावलम्बियों ने अपने सम्प्रदायों से सम्बन्धित देव प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया।
वैदिक आश्रमों की पृष्ठभूमि एवं पावन यात्रा पथ के समीप निर्मित उक्त जनपदद्वय के देवालय परिसरों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-1.देवकुल, 2.आश्रम, 3.पंचायतन
देवकुल परिसर में मुख्य देव मन्दिर के समीप ही सम्पूर्ण देव परिवार अथवा अन्य देवों हेतु लघु देवालय एक परिसर में निर्मित होते हैं। इन जनपदों में प्रमुख देवकुल-बालेश्वर मन्दिर समूह (चम्पावत), बालेश्वर मन्दिर समूह थल (पिथौरागढ़), लक्ष्मी नारायण मन्दिर समूह, गंगोलीहाट (पिथौरागढ़), नारायण मन्दिर समूह, कासनी (पिथौरागढ़) आदि हैं।
आश्रम शैली में मुख्य मन्दिर का निर्माण एक चाहरदीवारी के मध्य किया जाता है, जिससे स्वतः ही वाह्र प्रदक्षिणापथ का निर्माण हो जाता है, पिथौरागढ़ जनपद के कनेड़ा में निर्मित ‘पुंगेश्वर महादेव मन्दिर’ इसका उदाहरण है।
मुख्य मन्दिर (प्रमुख देवता) के वाह्र चारों कोणों में चार अन्य मन्दिरों की निर्माण-योजना, पंचायतन कहलाती है। देव प्रासादों के निर्माण के सन्दर्भ में शिव पंचायतन, देवी पंचायतन, विष्णु पंचायतन, सूर्य पंचायतन आदि के निर्माण की परम्परा रही है। चम्पावत जनपद में चैकुनी का शिव पंचायतन व मनटाण्डे का शिव पंचायतन एवं पिथौरागढ़ जनपद में मर्सोली का विष्णु पंचायतन प्रमुख हैं।
उत्तर भारतीय वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में वर्णित पंच आधारभूत स्वरूपों (चतुरस्र, आयतास्र, वृत्त, वृत्तायत एवं अष्टास्र) के पंच विमानों की 45 अथवा 64 प्रासाद-जातियाँ गृहित की गई हैं। मध्य हिमालय के सन्दर्भ मेें कठोच द्वारा प्रस्तुत प्रासाद-भेद तर्कसंगत प्रतीत होता है। उक्त वर्गीकरण को दृष्टिगत रखते हुए पिथौरागढ़ व चम्पावत जिलों मेें निर्मित देव प्रासादों को चतुरस्र (बैराज विमान) एवं आयतास्र (पुष्पक विमान) में वर्गीकृत किया जा सकता है। चतुरस्र स्वरूप वाले देव-प्रासाद उक्त जनपदों में रेखा शिखर प्रासाद एवं फांसणा शिखर प्रासाद (पीढ़ादेवल), दो वर्गों में निर्मित हुए तथा आयतास्र स्वरूप वाले बलभी प्रासाद के रूप में। इन जनपदों में सर्वाधिक संख्या रेखा शिखर प्रासादों की है, जो 11वीं सदी से 16वीं सदी के मध्य निर्मित हुए। रेखा शिखर प्रासादों के तीन प्रकार इन जनपदों में अस्तित्व में आए
(i) रुचक प्रासाद, जिनकी तलछन्द योजना में गर्भगृह, कपिली व स्तम्भों पर आधारित मुखमण्डप एवं ऊर्ध्वछन्द मेें पीठ, कपिली संयुक्त कटि व शिखर होते हैं। उत्तराखण्ड का एकमात्र शिला प्रसाधित एकाश्मक देवालय ‘एक हथिया देवाल’ अम्लिय-थल (पिथौरागढ़) एवं चम्पावत घाटी में निर्मित प्रारम्भिक चन्दकालीन देवालय (शिव पंचायतन चैकुनी, शिव मन्दिर सिट्यूड़ा शिव मन्दिर जूप, शिव मन्दर कफलांग आदि) रूचक देवालयों के प्रतिनिधि हैं। इस रूचक देवालयों में प्रयुक्त रूचक व मिश्रक स्तम्भों द्वारा द्विस्तम्भीय ( शिव मन्दिर देवलना), चतुर्स्तम्भीय (शिव मन्दिर चैकुनी, शिव मन्दिर सट्यूड़ा, शिव मन्दिर जूप, एक हथिया देवाल-दो अग्र मिश्रक स्तम्भ व दो भित्ति स्तम्भ) एवं अष्टस्तम्भीय (शिव मन्दिर कफलांग) मुखमण्डपों का निर्माण किया गया है, जिन्हें मुख्यतः छाद्य द्वारा छादित किया गया है। अपवाद स्वरूप एक हथिया देवाल के अग्रमण्डप में पिढ़ा शैली का शिखर निर्मित है। प्रारम्भिक चन्दकालीन रूचक देवालयों, जिनके विविध प्रासादांगों (वेदीबंध, जंघा, शिखर, प्रवेश द्वार, वितान आदि) को अनेक अलंकरण अभिप्रायों से अलंकृत किया गया, के अतिरिक्त प्रायः रूचक रेखा प्रासाद अल्प अलंकृत हैं।
(ii) स्तम्भ हित रेखा प्रासाद, इस श्रेणी के देवालयों की तलछन्द योजना में दो भागों का विधान किया गया है। गर्भगृह एवं अन्तराल एवं ऊर्ध्वछन्द योजना में वेदीबंध, जंघा। दोनों जिलों में विद्यमान लगभग समस्त मन्दिरों में त्रिरथ विन्यास की जंघा निर्मित है एवं ‘शिखर’ का क्रम है। पुंगेश्वर महादेव कनेड़ा, कासनी के मन्दिर समूह के तीनों देवालय, बालेश्वर मन्दिर समूह थल के चार देवालय, सूर्य मन्दिर चौपाता, मर्सोली के देवालय, शिव मन्दिर पाताल भुवनेश्वर, शिव मन्दिर देवलपाटा आदि (जिला पिथौरागढ़ में), शिव मन्दिर बसान, शिव मन्दिर पटोली आदि (चम्पावत में) में स्थित प्रमुख स्तम्भ रहीक रेखा शिखर मन्दिर हैं। वस्तुतः पिथौरागढ़ में इस प्रकार के रेखा शिखर अधिक निर्मित हुए हैं, जो रूचक रेखा प्रासादों की अपेक्षा अधिक बड़े आकार के हैं। इस कोटि के देवालय प्रायः त्रिरथ, व चतुष्भूम हैं।
(iii) चम्पावत के मध्य बालेश्वर मन्दिर समूह परिसर में निर्मित दो द्विपुरुष देवालय (बालेश्वर-सुग्रीवेश्वर मन्दिर एवं रत्नेश्वर-चम्पावती मन्दिर) मध्य हिमालय के सन्दर्भ में अपवादिक ही हैं। इन द्विपुरुष देवालयों की तलछन्द योजना में एक क्षैतिज धुरी के दोनों छोरों में आमने सामने मुँह किए एक-एक‘गर्भगृह, उनके सम्मुख संगमण्डप, एवं दोनों को संयुक्त करता मुखमण्डप, निर्मित है। ऊर्ध्वछन्द में नौ विविध अत्यधिक अलंकृत पट्टियों द्वारा निर्मित प्रासाद-पीठ, वेदीबंध तदुपरान्त त्रिअंगी-पंचरथ अलंकृत जंघा भाग, निर्मित हैं। दोनों द्विपुरुष देवालयों का छाद्य उपरि शिखर भग्न हो चुका है। एक द्विपुरुष देवालय के शेष बचे रंगमण्डप मेें उत्तरी व दक्षिणी भाग में प्रक्षिप्त प्रलिन्द का विधान है, जिससे स्वतः भद्र उपरि भद्रवलोकन का निर्माण हो गया है। इसी स्वरूप के शेष अन्य रंगमण्डप भी निर्मित हुए होंगे, जो वर्तमान में ध्वस्त हो चुके हैं। आमने-सामने निर्मित दोनों रंगमण्डपों को संयुक्त करता चतुर्स्तम्भीय मध्यवर्ती मुखमण्डप एक द्वि-पुरुष देवालय में शेष है। लगभग 13-14वीं सदी में निर्मित इन देवालयों में अत्यधिक अलंकरण अभिप्रायों का समावेश शिल्पियों द्वारा किया गया है।
पिढ़ा शिखर मन्दिर (फांसना शिखर प्रासाद), जो संख्या की दृष्टि से दोनों जिलों में द्वितीय क्रम में हैं, रेखा शिखर प्रासादों से पूर्वकालिक स्थापत्यिक संरचनाएँ हैं। पिढ़ा शिखर देवालयों की तलछन्द योजना में चतुरस्र गर्भगृह एवं अन्तराल निर्मित हैं, ऊर्ध्वछन्द योजना मेें वेदीबंध, रथविहीन जंघा भाग, एवं पिरामिड़ स्वरूपा,उत्तरोत्तर घटता, क्षितिज पट्टियों (पिढ़ों) से निर्मित शिखर,। मध्य हिमालय क्षेत्र में निर्मित पिढ़ा शिखर देवालयों का निर्माण काल छठी से दसवीं सदी तक निर्धारित किया जाता है। दोनों जिलों के प्रमुख पिढ़ा शिखर देवालय हैं- बालेश्वर मन्दिर गोलनसेरी, भगवती मन्दिर बिगराकोट, शिव मन्दिर मजपीपल, वैष्णवी मन्दिर मड़लक, शिव मन्दिर वसकुनी, आदित्य मन्दिर मड़, नलयादित्य मन्दिर खेतीखान (समस्त चम्पावत जिले में), विष्णु मन्दिर समूह के आठ मन्दिर घुंसेरा गुफा के मन्दिर (पिथौरागढ़ जिले में) दोनों जिलों में स्थित पिढ़ा शिखर देवालयों में जंघा में निर्मित उद्गम युक्त रथिकाओं (नलयादित्य खेतीखान, आदित्य देवालय मड़, बालेश्वर मन्दिर गोलनसेरी) व शुकनास मेें अलंकृत चैत्यगवाक्षों (आदित्य मन्दिर मड़) के अतिरिक्त अलंकरणों का अभाव है।
आयतास्र बलभी शैली वाले दो देवालय दोनों जिलों में स्थित हैं- चण्डिका मन्दिर पाताल भुवनेश्वर (पिथौरागढ़) एवं बारही मन्दिर देवीधुरा (चम्पावत)। बलभी शैली के अधिकांश मन्दिर शक्ति, को समर्पित हैं (अखिल भारतीय सन्दर्भ में) एवं मुख्य मन्दिर के रूप में नहीं वरन परिवार मन्दिर के रूप में निर्मित हुए हैं। परन्तु दोनों जिलों में दोनों बलभी मन्दिर मुख्य मन्दिर के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनमें से वर्तमान मेें बाराही मन्दिर देवीधुरा आधुनिक स्वरूप ग्रहण कर चुका है। दोनों मन्दिर लगभग आठवीं-नवीं सदी में निर्मित माने जाते हैं, जिनमें आयताकार गर्भगृह के ऊर्ध्वछन्द में वेदीबंध, जंघा भाग एवं स्कन्ध उपरि धनुषाकार या गजपृष्ठाकृति शिखर का निर्माण किया गया है, परन्तु चण्डिका मन्दिर पाताल भुवनेश्वर में तल व ऊर्ध्व छन्द में भद्र एवं शिखर में फांसणा व लतिन मिश्रक कूट प्रदर्शित हैं। दोनों मन्दिरों में शिखर के दोनों पार्श्वों में निर्मित चैत्यगवाक्ष अत्यधिक अलंकृत है, शेष प्रासादांग प्रायः अलंकरणविहीन हैं। दोनों जिलों में विद्यमान देवालयों में पिढ़ा शिखर देवालय एवं बलभी प्रासाद पूर्वकालिक हैं जबकि रेखा शिखर प्रासाद परवर्ती संरचनाएँ हैं। सामान्यतः समस्त देवालय सादी प्रासाद-पीट पर निर्मित हैं (अपवाद स्वरूप बालेश्वर-सुग्रीवेश्वर व रत्नेश्वर-चम्पावती देवी दोनों द्विपुरुष देवालय पूर्ण विकसित नौ विविध पट्टियों निर्मित प्रासाद-पीठ पर निर्मित हैं)। वेदीबंध-खुर, कुम्भ, कलश, कपोताली (हनुमान मन्दिर थल, शिव मन्दिर चैकुनी) जाङयकुम्भ, कर्णिका, कलश, कुम्भ, कलश (सूर्य मन्दिर चौपाता), कुम्भ, कलश, कपोताली (शिव मन्दिर जूप), खुर, कुम्भ,कर्णिका (शिव मन्दिर मनटाण्डे) आदि विविध गढ़नों द्वारा निर्मित हैं। लगभग समस्त रेखा शिखर प्रासादों के जंघा भाग त्रिरथ हैं, जबकि पिढ़ा शिखर प्रासादों के जंघा भाग रथविहीन एवं उद्गमयुक्त रथिकाओं से सज्जित हैं। रेखा शिखर प्रासादों में रूचक प्रासादों के जंघा भाग को अलंकृत किया गया है, जबकि स्तम्भरहित रेखा प्रासाद प्रायः वेदीबंध से शिखर पर्यन्त अलंकरणविहीन हैं। जनपदों में स्थित दोनों द्विपुरुष देवालयों के अत्यन्त अलंकृत जंघा भाग पंचरथ हैं। इसी प्रकार त्रिरथ रेखा शिखर प्रासादों के शिखरों को तीन या पाँच भूमि आमलकों द्वारा चार या छः भागों में विभक्त किया गया है। समस्त रेखा शिखर प्रासाद, पिढ़ाशिखर प्रासाद एवं बलभी प्रासादों के शिखर शीर्ष ग्रीवा- आमलक, ग्रीवा- आमलक- कलश, ग्रीवा- आमलक, आकाशलिंग आदि विधानों से भारित हैं। पूर्ववर्ती सभी देवालयों में अन्तराल के ऊपर चैत्यगवाक्षयुक्त शुकनास निर्मित है, शिव मन्दिर चैकुनी, शिव मन्दिर मनटाण्डे, शिव मन्दिर सिटयूड़ा, चण्डिका मन्दिर पाताल भुवनेश्वर, सूर्य मन्दिर मड़ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं, परन्तु परवर्ती देवालयों में (मुख्यतः स्तम्भ देवालयों) में शुकनास उपरि गजसिंह प्रतिमा स्थापित है। इसी प्रकार चम्पावत के परितः निर्मित रूचक प्रासादों व द्विपुरुष प्रासादों के अतिरिक्त समस्त मन्दिरों के प्रवेश द्वारसादे व अलंकरण विहीन हैं। प्रवेश द्वार के ललाटबिम्ब में अधिकाशतः वामावर्ती गणपती विराजमान हैं एवं पेद्या में द्वारपाल, मकरारूढ़ गंगा, आदि का अंकन हैं। गर्भगृह एवं अन्तराल के आन्तरिक भाग प्रायः समस्त देवालयों में सादे हैं, जबकि देवालयों के वितानों में विविधता दृष्टिगोचर होती है, यथा- नाभिछन्द वितान (बालेश्वर-सुग्रीवेश्वर देवालय का रंगमण्डप), तीन संकेन्द्रित वत्तों युक्त गोलाकार वितान, (शिव मन्दिर चैकुनी) द्वि-पंक्ति वितान,(हनुमान व पार्वती मन्दिर थल), ‘चतुष्पंक्ति वितान’ (शिव मन्दिर जूप)। प्रायः मन्दिरों के वितान फुल्ल-पद्म से सज्जित हैं।
उक्त स्थापात्यिक विधानों से निर्मित ऐतिहासिक देवालयों के अतिरिक्त जमपदद्वय के लगभग प्रत्येक गाँव में स्थानीय लोक देवताओं के मन्दिर (थान) हैं, जो मुख्यतः दो स्वरूपों में निर्मित हैं-दो या तीन पार्श्व एवं पृष्ठ प्रस्तरों को छादित करता महाप्रस्तर। लघु स्वरूप वाले ये देवालय थान कहलाते हैं। भूमिया, सैम, हरू गंगानाथ आदि स्थानीय देवी-देवताओं के ये अर्चना-स्थल लगभग प्रत्येक गाँव में स्थित हैं, परन्तु इन्हें अब सीमेंट निर्मित देवालयों में परिवर्तित किया जा रहा है।
द्वितीय कोटि के स्थानीय देवों के मन्दिर, पर्वतीय ढालूदार छतवाले भवन सदृश्य हैं। अपेक्षाकृत बड़े आकार के इस श्रेणी के देवालयों का प्रतिनिधित्व- ‘चौमू देवता’ का चौपखिया मन्दिर (पिथौरागढ़) एवं गोरिल देवता का मन्दिर (चम्पावत) करते हैं। चौपखिया (चार पाख-छत वाला) मन्दिर शीर्ष धुरी से चतुर्दिक ढालूदार छत द्वारा छादित है, जो मध्यवर्ती गर्भगृह एवं वाह्रतः निर्मित प्रदक्षिणा पथ (मूलतः चतुर्दिक निर्मित बरामदा) को छादित किए है।
देवालय
दोनों जिलों के देवालयों के उपरान्त देव प्रतिमाओं का भी परिचय प्रस्तुत करना श्रेयस्कर होगा। वस्तुतः प्रतिमा विज्ञान (प्रतिमाओं का सांगोपांग शास्त्रीय अध्ययन) भारतीय वास्तुविद्या का अभिन्न अंग रहा है। विविध स्वरूप वाले देवालयों का निर्माण ही देव प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हेतु हुआ।आराध्य देव का प्रतीक अथवा रूप प्रदान करने हेतु प्रतिमाएँ निर्मित हुईं। उत्तर वैदिक काल के उपरान्त ब्राह्मण (सामान्यतः हिन्दू) धर्म में देव संख्या में अतीव वृद्धि के परिणामतः विविध देव प्रतिमाओं ने स्वरूप ग्रहण किया। भारतीय वाङमय में गुण (सत्व, रजस, तमस) द्रव्य (प्रस्तर, धातु, काष्ठ आदि) स्वरूप (अरूप सरूप) आदि आधार पर देव प्रतिमाओं के विशद भेदों का उल्लेख किया गया है।
पिथौरागढ़ एवं चम्पावत मेें स्थित देव प्रतिमाओं के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है कि दो प्रमुख देवताओं- विष्णु एवं शिव की प्रतिमाओं में, सर्वाधिक संख्या विष्णु प्रतिमाओं की है। इनके अतिरिक्त शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित महिषासुर मर्दिनी आदि देवी-प्रतिमाएँ एवं विविध स्वरूपा ‘सौर प्रतिमाएँ’ इन जिलों से प्राप्त हुई हैं। दोनों जिलों में विद्यमान प्रतिमाओं का निर्माण-काल कला एवं शैली की दृष्टि से नौवीं से सोलहवीं सदी के मध्य अनुमानित किया जाता है। नकुलेश्वर (जनपद पिथौरागढ़) में स्थित ‘विष्णु प्रतिमा’ पाँचवी सदी में निर्मित हुई प्रतीत होती हैं।
वैदिक वाङमय में द्युस्थान के देव (ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ-देव) (पुराणों मेें त्रिदेव) के रूप में वर्णित विष्णु का प्रतिमांकन- स्थानक, आसन एवं शयन तीन मुद्राओं में किया जाता है। दोनों जिलों में विष्णु के पर रूप की प्रतिनिधि ‘स्थानक प्रतिमाओं’ की संख्या सर्वाधिक है। इन प्रतिमाओं में पद्म पीठ (अधिकांशतः) या पादपीठ पर समभंग (समपाद) मुद्रा में स्थानक विष्णु किरीट, मुकुट, वृत्त, कुण्डल ,कण्ठाहार, ग्रैवेयक, बाजूबन्ध, कंकण, उदरबन्ध, कटिसूत्र, मेखला, उत्तरीय, बैजयन्तीमाला, आदि आभूषणों से सुसज्जित हैं। विष्णु के वक्ष पर श्रीवत्स या कौस्तुभ मणि एवं मस्तक पार्श्व में पद्म प्रभामण्डल शोभायमान है। चतुर्भुजी विष्णु, गदा (कौमोदकी), चक्र (सुदर्शन), पद्म(कमल) एवं शंख,(पांचजन्य) हस्तायुधों को चतुष्हस्तों में धारण करने के विविध क्रम के कारण चौबीस विष्णु नामों (यथा- त्रिविक्रम, जनार्दन, पुरुषोत्तम, विष्णु, आदि) से जाने जाते हैं। अधः हस्तों के निम्न, उभय पार्श्वों मेें चामरधारी चक्र-पुरुष, त्रिभंग मुद्रा में खड़ी गदा-देवी, शंख-पुरुष, पद्म-पुरुष, आदि आयुध पुरुषों (द्विभुज गरुड़ आदि अनुचरों एवं करब उपासकों) का भी इन प्रतिमाओं में निरुपण किया जाता है। त्रिविक्रम स्वरूपी प्रतिमाएँ (दक्षिण अधः हस्त में पद्म या वरद मुद्रा, दक्षिण ऊर्ध्व हस्त में गदा, वाम ऊर्ध्व में चक्र, वाम अधः हस्त में शंख)-पुंगेश्वर महादेव मन्दिर कनेड़ा, नकुलेश्वर महादेव मन्दिर, ग्वाड़ी (समस्त जनपद पिथौरागढ़) तथा महादेव मन्दिर सिटयूड़ा, घटोत्कच मन्दिर चौकी, झाली-माली मन्दिर फूंगर बोरा, सदाशिव मन्दिर रौलमेल, बालेश्वर मन्दिर कोलनसेरी (समस्त जनपद चम्पावत) वामन स्वरूपी प्रतिमाएँ (दक्षिण अधः हस्त में शंख, दक्षिण ऊर्ध्व हस्त में चक्र, वाम ऊर्ध्व हस्त में गदा, वाम अधः हस्त में पद्म) बालेश्वर मन्दिर थल, ग्वाड़ी, औलिया गाँव(जिला पिथौरागढ़) विष्णु स्वरूपी प्रतिमाएँ (दक्षिण अधः हस्त में गदा, ऊर्ध्व हस्त में पद्म,वाम ऊर्ध्व हस्त में शंख वाम अधः हस्त में चक्र-नकुलेश्वर मन्दिर, लक्ष्मी नारायण मन्दिर गंगोलीहाट, लक्ष्मी नारायण मन्दिर मर्सोली(जिला पिथौरागढ़), शिव पंचायतन मन्दिर चैकुनी (जिला चम्पावत) में प्रतिष्ठित हैं। लाल बालुकाश्म निर्मित नकुलेश्वर महादेन मन्दिर में स्थित विष्णु प्रतिमा आरम्भिक गुप्तकालीन लांछनों युक्त पाँचवी सदी में निर्मित जपनदद्वय में प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन विष्णु प्रतिमा है, जिसमें गदा देवी एवं चक्र- पुरुष दो ही सहचारों का अंकन है।
संख्या की दृष्टि से स्थानक विष्णु प्रतिमाओं के उपरान्त शेषशायी या अनन्तशायी विष्णु प्रतिमाओं का स्थान है। शयम मुद्रा की ये विष्णु प्रतिमाएँ जलाशय या पद्मनाभमूर्ति भी कहलाती हैं। पूर्वोल्लेखित समस्त वस्त्राभूषणों से आभूषित चतुर्भुजी विष्णु, इन प्रतिमाओं मेें दक्षिण अथवा वाम शीर्ष किए हुए हैं। दक्षिण शीर्ष शयन किए विष्णु का दक्षिण ऊर्ध्व हस्त सदैव शीर्ष को सहारा दिए एवं दक्षिण अधःहस्त में पद्म या गदा प्रदर्शित है। शेष दो वाम हस्तों में चक्र एवं शंख हस्तायुध प्रदर्शित हैं। इन शयन प्रतिमाओं में विष्णु का वाम पाद आजानु से कुंचित एवं दक्षिण पाद संवाहन मुद्रा में बैठी लक्ष्मी या श्रीदेवी के अंक में शोभित है। जबकि वाम शीर्ष किए विष्णु को उपरोक्त स्थिति से प्रतिलोम निरूपित किया गया है। विष्णु के नाभिकमल पर चतुरानन आसनस्थ ब्रह्म, पार्श्व मेें शस्त्रधारी मधु-कैटभ, परिकर उपरि नवग्रह, मालाधारी विद्याधर एवं अधो परिकर में मत्स्य, व्याल, गज आदि का अंकन है। दोनों जिलों में स्थित विशिष्ट शेषशायी विष्णु प्रतिमाएँ है-शिव मन्दिर मौनकाण्डे (चम्पावत) की शेषशायी विष्णु प्रतिमा, जिसमें सप्तफण युक्त शेषशैय्या को विशाल पलंग का स्वरूप दिया गया है; शिव मन्दिर खरही (चम्पावत) की शेषशायी प्रतिमा में लक्ष्मी को विष्णु के पद प्रक्षालित करते हुए निरूपित किया गया है (इस प्रतिमा में लक्ष्मी का अत्यन्त सुन्दर लावण्यम रूप निरूपित है), नागनौला डंगरासेठी(चम्पावत) की शेषशायी प्रतिमा मेें विष्णु टोपीनुमा किरीट धारण किए हैं, जो स्थानीय कला का प्रभाव प्रदर्शित करता है। उपरोक्त दक्षिण शीर्ष शयन विष्णु प्रतिमाओं के अतिरिक्त देवी मन्दिर मढ़-चमदेवल(चम्पावत) की वाम शीर्ष शयन अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा है, जिसमें चतुष्हस्त एवं पादद्वय का क्रम परिवर्तित हो गया है। पुंगेश्वर महादेव मन्दिर कनेड़ा नकुलेश्वर मन्दिर, महादेव मन्दिर विशाड़, घुसेरा गुफा, जाखनी, बजेठी, रावल गाँव (समस्त जिला पिथौरागढ़),शिव मन्दिर बसकुनी, कोलीढेक, काकड़ (समस्त जिला चम्पावत) आदि गाँवों में स्थित देवालयों में भी शेषशामयी विष्णु प्रतिमाएँ अवस्थित हैं।
ऋगुवेद में उल्लेखित एक वृतान्तानुसार श्वर द्वारा सर्वप्रथम जल को जन्म देकर उसे ‘नार’ की संज्ञा दी गई एवं उसमें अपना बीज छोड़ा गया जो ‘नारायण’ कहलाया। परवर्ती साहित्य में भी इस वृतान्त की पुनरावृत्ति की गई है। उक्त वृतान्तानुरूप जल को विष्णु से सम्बन्ध करते हुए मध्य हिमालय के अधिकांश नौलों की आन्तरिक भित्ति में रथिका अथवा कोष्ठक में मुख्यतः शेषशायी विष्णु प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करने की परम्परा इन दोनों जिलों में भी दृष्टिगोचर होती है. नागलौला डूंगरासेठी तथा कैड़ा गाँव के नौलों में प्रतिष्ठित शेषशायी विष्णु प्रतिमाएँ इस परम्परा की प्रतिनिधि प्रतिमाएँ हैं।
गुप्तकाल में भागवत धर्म में अवतारवाद का वृहत्त प्रचलन हुआ। वैष्णव साहित्य में पूर्णावतार, अंशवतार एवं आवेशावतार का उल्लेख है। मुख्यतः दश-अवतार(मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नृसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध,एवं कल्कि) प्रख्यात रहे। कला में दशावतारों का अंकन स्वतन्त्र एवं विष्णु-पट्ट के परिकर में किया जाता है। उत्तराखण्ड में विष्णु की विशिष्ट दशावतार प्रतिमाएँ विष्णु पट्ट में संयुक्त भी प्रकाश में आईं हैं। कासनी (जिला पिथौरागढ़) की हरित प्रस्तर निर्मित विष्णु दशावतार प्रतिमा(1.30x.78), बयाला (अल्मोड़ा), कुंवाली(अल्मोड़ा), आदिबद्री (चमोली) की दशावतार विष्णु प्रतिमाओं की भाँति (कतिपय लांछनों मेें अन्तर) उत्तराखण्ड की अनन्यतम प्रतिनिधि प्रतिमा है। समस्त वस्त्राभूषणों से सज्जित चतुर्भुजी विष्णु के हस्तीयुधों का क्रम गदा, पद्म, शंख, चक्र है। अधो पार्श्व में गदादेवी, चक्रपुरुष के अतिरिक्त उपासक व मानवरूपी द्विभुज गरुड़ ऊर्ध्व परिकर में मालाधारी विद्याधर प्रदर्शित हैं। परिकर के उभय पार्श्वों में दशावतारों का अंकन है। मत्स्यावतार में मत्स्य के ऊपर चार मानव मुख, कच्छपातवार (कूर्मावतार) में कच्छप पीठ पर समुद्र मंथन,बराहावतार, द्वारा वाम हस्त से भू देवी का आरोहण, नृसिंह द्वारा हिरण्यकाशिपु के उदर विदीर्ण का अंकन है। दाशरथी राम दक्षिण हस्त मेें तूणीर व वाम हस्त में धनुष धारण कि भार्गव राम दक्षिण में परशु धारी एवं वाम हस्त कटिहस्त मुद्रा में अंकित है, द्विभुजी हलधर बलराम का दक्षिण हस्त अभय मुद्रा, में वामनवतार का भी दक्षिण हस्त अभय मुद्रा में व वाम हस्त छत्र धारण किए, द्विभुज बुद्ध का दक्षिण हस्त अभय मुद्रा में जबकि वाम हस्त में पुस्तक है एवं अश्वारूढ़ कल्कि अश्व की रास पकड़े प्रदर्शित हैं। सम्पूर्ण पट्ट विविध देवों, नवग्रहों एवं देवोत्तर आकृतियों से परिपूर्ण है। यह भव्य प्रतिमा 12वीं सदी से परवर्ती कलाकृति प्रतीत नहीं होती है।
बराह (औलिया गाँव,देवराड़ी बोरा, जजुट, कोटली-समस्त जिला पिथौरागढ़ में), गोवर्धनधारी कृष्ण,(बनकोट पिथौरागढ़), हलधर बलराम, (ग्वाड़ी-पिथौरागढ़) आदि कतिपय स्वतन्त्र विष्णु दशावतार विग्रह भी प्रकाश में आए हैं।
लक्ष्मी नारायण युगल की अधिसंख्यक प्रतिमाएँ भी जनपदद्वय के विभिन्न स्थलों में विद्यमान हैं। इन युगल प्रतिमाओं का निर्माण उमा-महेश्वर युगल प्रतिमाओं के अनुरूप किया गया प्रतीत होता है। प्रायः उत्तर मध्य काल में निर्मित लक्ष्मी-नारायण प्रतिमाओं का अंकन दो रूपों में किया गया है-
(i) स्थानक मुद्रा में (शिव मन्दिर खरही, शिव मन्दिर चौड़पिता, शिव मन्दिर मनटाण्डे-समस्त जनपद चम्पावत)।
(ii) गरुड़ासीन मुद्रा में (शिव मन्दिर देवलनाद, शिव मन्दिर मनटाण्डे-चम्पावत, लक्ष्मी नारायण मन्दिर मरसोलि, पितरौटा-पिथौरागढ़)।
जजुट, सिलोनो, मल्ली बड़ालू, देवराड़ी पन्त (समस्त जिला पिथौरागढ़ में) आदि गाँवों में भी लक्ष्मी-नारायण प्रतिमाएँ अवस्थित हैं। इन युगल प्रतिमाओं में विष्णु एवं लक्ष्मी परम्परागत वस्त्राभूषणों एवं हस्तायुधों से सुसज्जित हैं। पार्श्व अनुचर एवं वाहन गरुड़ भी प्रतिमा परिकर में स्थान पाए हैं।
कैलास भूमि के समीपस्थ इन जनपदों मेें शिव परिवार की प्रतिमाओं की संख्या पर्याप्त है, जिसमें उमा महेश की युगल प्रतिमाएँ एवं गणेश प्रतिमाएँ सर्वाधिक हैं। परन्तु पूर्व में शिव के प्राचीनतम रूप लिंग की चर्चा करना यथेष्ट होगा। लिंग उपासना की प्राचीनता को पुरातत्व एवं साहित्य दोनों को ही सिद्ध कर चुके हैं। शैवागमों एवं शिल्पग्रन्थों में शिव की प्रतीक लिंग के तीन रूप माने जाते हैं-निष्कल लिंग, सकल लिंग एवं मिश्र लिंग।
निष्कल लिंग-सरल होते हैं, जिनकी संख्या सर्वाधिक है। सकल लिंग- एकमुखी, चतुर्मुखी एवं पंचमुखी होते हैं। एकमुखी लिंगों में शिव मन्दिर विशाड़, शिव मन्दिर बिलई (पिथौरागढ़), देवी मन्दिर मड़-चमदेवल (चम्पावत) के शिवालिंग, एवं चतुर्मुखी शिवलिंगों में शिव मन्दिर बिलई,घुंसेरा गुफा, शेराघाट के शिवलिंग प्रमुख हैं। बिलई, का कांस्य निर्मित चतुर्मुखी शिवलिंग मध्यकाल की उल्लेखनीय कृृति हैं। शिव मन्दिर टकाना(पिथौरागढ़) एवं बालेश्वर मन्दिर, गोलनसेरी, (चम्पावत) के सहस्रलिंग भी विशिष्ट हैं। इसके अतिरिक्त अधिसंख्यक स्वयंभू लिंग (प्राकृतिक लिंग) भी जनपदद्वय के शिवालयों मेें प्रतिष्ठित हैं।
लिंग के अतिरिक्त शिव रूपाकिंत विविध स्वरूप वाली (वीणाधर शिव,नृत्यरत शिव, उमा-महेश्वर युगल, अंधकासुर वध आदि) मूर्तियाँ दोनों जिलों के कतिपय देवालयों में विद्यमान हैं। जहाँ वीणाधर शिव, नृत्यरत शिव एवं उमा-महेश मूर्तियाँ शिव के शान्त स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती हैं, वहीं अन्धाकासुर वध प्रतिमा उनके संहारक रूप का शिव मन्दिर वसकुनी, चमदेवल (चम्पावत) की वीणाधार शिव प्रतिमा में स्थानक व चतुर्भुजी शिव के अग्रहतों में वीणा एवं पृष्ठ दक्षिण हस्त में डमरू व पश्च वाम हस्त नाग वेष्ठित है। जटा, मुकुल, वलय-कुंडल, अधोवस्त्र धारी देव त्रिभंग मुद्रा में हैं।
नाट्यशास्त्र के प्रतिष्ठापक शिव के नृृत्यरूप की दो प्रतिनिधि प्रतिमाएँ शिव मन्दिर देवलनाद (चम्पावत) एवं भगवती मन्दिर,बालाकोट (पिथौरागढ़) में अवस्थित हैं। देवलनाद मन्दिर की प्रतिमा में अष्टभुजी शिव दक्षिण पाद उठाए नृत्यरत हैं। पादपीठ पर स्थित वाम पाद घुटने से मुड़ा है। शीर्ष पर जटा मुकुट, कणों में पुष्प कुण्डल, ग्रैवेयक, कंकण केयूर आभूषणों से भूषित शिव अधोवस्त्र रूपी धोती एवं उभय पार्श्व के दो ओर लहराता उत्तरीय धारण किए हैं। अष्ट भुजाओं में से पृष्ठ द्वय में सर्प (शीर्ष दक्षिण हस्त में एवं पूंछ नाग हस्त में) धारण है। शेष दक्षिण हस्तों में क्रमशः डमरू, घंटा, पद्म, एवं वाम हस्तों में खटवाण, सर्प एवं गज मुद्रा प्रदर्शित है। अधो दक्षिण पार्श्व में ढोलक बजाता गण एवं वाम पार्श्व में नृत्यालीन शिव को निहारता नन्दी स्थित है। बलुए प्रस्तर से निर्मित यह प्रतिमा अंलकरण एवं कला की दृष्टि से 12 वीं सदी की प्रतीत होती है। जबकि बालाकोट की प्रतिमा, अंग-प्रत्यंग के असंगत सन्तुलन व रुढ़शैली की दृष्टि से लगभग 16वीं सदी का निर्माण प्रतीत होती हैं।
भारत के समस्त भागों की भाँति जनपदद्वय में भी उमा-महेश या हरगौरी की बहुसंख्यक प्रतिमाएँ पाई जाती हैं। शिव मन्दिर टकाना, कौशल्या देवी गुफा, शिव मन्दिर पप्द्यों, पाताल भुवनेश्वर, नकुलेश्वर, विष्णु मन्दिर समूह कोटली (पिथौरागढ़), शिव पंचायतन मन्दिर चैकुनी, घटोत्कच मन्दिर चौकी, शिव मन्दिर वसकुनी (चम्पावत) आदि देवालयों में प्रतिष्ठित, उमामहेश्वर युगल प्रतिमाएँ इसकी उदाहरण हैं। सामान्यतः पद्मपीठ में ललितासनासीन शिव जटा मुकुट, कुण्डल, कंकण, वनमाला आदि समस्त आभूषणों से सुसज्जित चतुर्भुजी हैं। कतिपय प्रतिमाओं में शिव योग पट्ट सहित आपादावृत्त धोती पहने हुए हैं।
चतुर्भुजी शिव का अधो दक्षिण हस्त प्रायः व्याख्यान-मुद्रा में अक्षमाला धारण किए है, परन्तु नकुलेश्वर की प्रथम प्रतिमा में मातुलिंग एवं द्वितीय प्रतिमा में केवल अक्षमाला का अंकन है। दक्षिण ऊर्ध्व हस्त में सामान्यतः पुष्प गुच्छ या सनाल कमल का अंकन है। महेश्वर के अधोवाम हस्त की स्थिति में पुनः विविधता दृष्टिगोचर होती है,यथा- उमा केशों में (नकुलेश्वर द्वितीय व तृतीय प्रतिमा), उमा वक्ष में (नकुलेश्वर प्रथम प्रतिमा), उमा स्कन्ध पर (घटोत्कच मन्दिर, चौकी) परन्तु वाम ऊर्ध्व में देव लगभग सभी प्रतिमाओं में त्रिशूलधारी निरूपित हैं। प्रलम्बपाद मुद्रा में आसनस्थ वामांगी उमा सुन्दर केशा विन्यास युक्त, पुष्प या वृत कुंडल, ग्रैवेयक, स्तन हार, कंकण आदि आभूषणों से भूषित सौन्दर्य एवं लावण्य से ओत-प्रोत निरूपित की गयी हैं। द्विमुखी उमा के हस्तों में धारित वस्तुओं व स्थितियों में भी विविधता के दर्शन होते हैं। उमा का दक्षिण हस्त कभी महेश्वर की वाम जंघा पर (अधिकांश प्रतिमाओं मेें) एवं कभी महेश्वर के दक्षिण स्कन्ध पर (नकुलेश्वर प्रथम प्रतिमा में)। इसी वाम हस्त अक्षमाला (पाताल भुवनेश्वर) या दर्पण (नकुलेश्वर प्रथम प्रतिमा) या पद्म (घटोत्कच मन्दिर, नकुलेश्वर द्वितीय प्रतिमा) धारण किए या स्व जंघा पर संस्थित निरूपित हैं। उमा महेश्वर प्रतिमाओं में अधो भाग में पुत्र मयूरारूढ़ कार्तिकेय व गणेश, भृगी, गण, उमा वाहन सिंह एवं कतिपय मूर्तियों में अन्य देवगणों व विद्यधरों का भी अंकन हुआ है।
शिव का संहारक रूप की अन्धकासुर वध शिव प्रतिमा’ शिव मन्दिर कफलांग (चम्पावत) के गर्भगृह में अवस्थित हैं।अधोभाग से आंशिक खण्डित इस प्रतिमा में षष्टभुजी शिव के अग्रहस्तों में त्रिशूल है, जिससे वह अंधासुर कोपराभूत प्रतीत होता विद्ध किए हुए हैं। करबद्ध मुद्रा में अंधकासुर पराभूत प्रतीत होता है। देव के शेष दक्षिण हस्तों में खडग व डमरू एवं वाम हस्तों में ढाल व खर्पर हैं। टोपी सदृश्य मुकुट, कुण्डल व कंठ में सर्प-मालाधारी शिव मुख मुद्रा अत्यन्त भयकारी है।
शिव के अट्ठाइसवें अवतार एवं पाशुपत शैव सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य लकुलीश को द्विभुजी एवं ऊर्ध्वलिंगी निरूपित करने का विधान रहा है। पाताल भुवनेश्वर (पिथौरागढ़), कुमाल गाँव डीडीहाट (पिथौरागढ़) एवं मडलक (चम्पावत) से लकुलीश की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ प्रकाश में आई हैं। इन प्रतिमाओं मेें कुचित केशी, लम्बकर्ण, द्विभुजी, लकुलीश के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मस्तक पार्श्व में वलयाकार गढनों से अंलकृत प्रभामण्डल है। पाताल भुवनेश्वर प्रतिमा में लकुलीश कण्ठहार एवं यज्ञोपवीतधारी है, जबकि कुमाल गाँव प्रतिमा में इनका अभाव है। पाताल भुवनेश्वर प्रतिमा में लकुलीश के दक्षिण हस्त में मातुलिंग एवं वाम हस्त में सर्प वेष्ठित लकुड है, जबकि कुमाल गाँव प्रतिमा में लकुलीश का दक्षिण हस्त अक्षमाला धारण किए अभय मुद्रा में एवं वाम हस्त लकुड धारण किए है। पाताल भुवनेश्वर प्रतिमा उपरि पार्श्व में विद्याधर एवं अधो पार्श्व में करबद्ध उपासक (शिष्य) निरूपित हैं। कुमाल गाँव प्रतिमा में करबद्ध शिष्यों का अंकन उपरि परिकर में हैं।
पंचदेवोपासना में गणेश का महत्त्वपू्र्ण स्थान रहा है। उत्तर गुप्तकाल मे गणापत सम्प्रदाय के प्रसार के उपरान्त गणपति का विधिवत रूपांन प्रारम्भ हुआ, प्रतीत होता है। पौराणिक विवरण में गणेश, शिव एवं पार्वती के पुत्र वर्णित हैं। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की भाँति पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिलों में भी गणेश-स्वतन्त्र प्रतिमाओं, देवालयों व नौलों के ललाटबिम्ब, मातृका पट्टों, शिव व पार्वती प्रतिमाओं के पार्श्व में विद्यमान हैं। प्रायः वामावर्ती (सूंड वामावर्त), चतुर्भुज, लम्बोदर, गणेश, सूर्पकर्ण, एकदन्त, गजबदन, आदि लाछनों से युक्त मुकुट, कण्ठहार, बाजूबन्ध, सर्प यज्ञोपवीत से आभूषित एवं हस्तों में परशु, अंकुश, मोदक, आदि धारण किए निरूपित हैं। अधो पार्श्व में वाहन- मूषक का अंकन भी बहुधा दृष्टिगोचर होता है।
दोनों जिलों के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट स्वतन्त्र गणपति प्रतिमाओं का उल्लेख यथेष्ट होगा, जिनमें गणेश- आसनस्थ, स्थानक एवं नृत्यरत रूप में निरूपित हैं। आसनस्थ गणपति प्रतिमाएँ, जिनकी संख्या अधिक है, में गणपति ललितासनस्थ (शिव मन्दिर देवलनाद, डिप्टेश्वर, रक्षा देवी मन्दिर गड़सारी-समस्त चम्पावत जिले में) हैं, परन्तु घटोत्कच मन्दिर चौकी (चम्पावत) की प्रतिमा में गणपति सुखासनस्थ हैं। उक्त प्रतिमाओं में हस्तों में धारित आयुधों व पात्रों में कतिपय भिन्नता है। नकुलेश्वर प्रतिमा में दक्षिण हस्त में क्रमशः मातुलिंग व अक्षमाला एवं वाम ऊर्ध्व हस्त खंडित व वाम अधः हस्त में मोदक पात्र है। देवलनाद प्रतिमा का अधो दक्षिण हस्त खंडित, ऊर्ध्व में परशु, वाम ऊर्ध्व मेें पुष्प एवं वाम अध में मदक पात्र प्रदर्शित हैं, जबकि डिप्टेश्वर प्रतिमा में वाम ऊर्ध्व हस्त में मोदक पात्र है। गणपति की स्थानक प्रतिमा, शिव पंचायतन मन्दिर मनटाण्डे (चम्पावत) में स्थित है। इस प्रतिमा में गणपति विविध वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं, मुख्यतः शीर्ष पर जटामुकुट धारण किए। इसके अतिरिक्त गणपति के वाम ऊर्ध्व हस्त में विकसित पद्म फुल्ल का अंकन भी विशिष्ट है। नृत्यरत गणपति की एक प्रतिमा शिव मन्दिर टकाना (पिथौरागढ़) में प्रतिष्ठित है। त्रिभंग मुद्रा में गणपति पद्मपीठ में नृत्यरत हैं। उक्त विशिष्ट प्रतिमाओं के अतिरिक्त गैडना, विशाड, कौशल्या देवी गुफा, घुंसेरा गुफा, विलई, द्योत, जाखपन्त, गुरूपड़ा, रावलगाँव, देवराड़ी पन्त, पीपलखेत (पिथौरागढ़), पटोली,मडलक,(चम्पावत) आदि गाँवों में स्थित देवालयों में गणपति प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं।
देवसेनानी एवं शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कन्द), उमा-महेश प्रतिमाओं मे बहुधा अधो पार्श्व में अंकित हुए हैं, परन्तु कार्तिकेय की स्वतन्त्र प्रतिमाओं की संख्या इन जनपदों में अति अल्प है। केदारेश्वर मन्दिर परस्यूड़ा, शिव मन्दिर वास्ते, विष्णु मन्दिर समूह कोटली एवं शिव मन्दिर वसकुनी में स्थित प्रतिमाओं में कार्तिकेय मयूरारूढ़, त्रिशालायुक्त द्विभुजी हैं।
वैष्णव एवं शैव प्रतिमाओं के अतिरिक्त जनपदद्वय में अधिसंख्यक देवी प्रतिमाएँ प्रकाश में आई हैं, जिनमें महिषासुर मर्दिनी एवं पार्वती प्रतिमाओं की संख्या सर्वाधिक है। महिषासुर का वध करते रूपाकिंत दुर्गा महिषासुर-मर्दिनी के नाम के विख्यात है। पुराणों में चण्डी, चण्डिका, कात्यायनी, आदि नामों से उल्लेखित महिषासुर मर्दिनी की चतुर्भुजा, षडभुजा, अष्टभुजा, दशभुजा प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। इन प्रतिमाओं में सर्वाभरण भूषित देवी जटा-मुकुट, वृत्त कुण्डल, कण्ठाहार, स्तनसूत्र, भुजबन्द, कंगन आदि आभूषण एवं अलंकृत साड़ी धारण किए निरूपित हैं। जनपदद्वय के सन्दर्भ मेें चतुर्भुजा महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाओं की अधिकता है, जिनमें प्रमुख हैं- महादेव मन्दिर विशाड़, केदारेश्वर मन्दिर तपस्यूड़ा, देवकटया, विण, दुलेश्वर महादेव मन्दिर द्यारी, ग्राम-देवलाल, नकुलेश्वर, विष्णु मन्दिर कासनी (समस्त पिथौरागढ़ जिले में), भगवती मन्दिर चौड़ाकोट, रक्षादेवी मन्दिर गड़सारी, बालेश्वर मन्दिर गोलनसेरी, देवी मन्दिर मढ़, पऊ की महिषासुर मर्दिनी प्रतिमाएँ। इन प्रतिमाओं में चतुर्भुज देवी खडग, (दक्षिण पृष्ठ हस्त में), त्रिशूल (दक्षिण अग्र हस्त में), वाम पृष्ठ हस्त में खेटक एवं वाम अग्र हस्त में महिषासुर की पूँछ (गोलनसेरी,देवालाल) या महिषासुर के केश (चौड़ाकोट, देवलनाद, नकुलेश्वर, कासनी, पऊ, गढसारी) पकड़े निरुपित हैं। इन प्रतिमाओं में त्रिशूल के अग्र भाग द्वारा अर्द्ध निष्क्रान्त अवस्था मेें स्थित महिषासुर के विदीर्ण अंगों में भी भिन्नता है। कुछ प्रतिमाओं में त्रिशूल से महिषासुर की ग्रीवा (गोलनसेरी,देवलनाद, पऊ, देवलाल) एवं कुछ में महिषासुर के पृष्ठ (कासनी, नकुलेश्वर) को विदीर्ण करते प्रदर्शित किया गया है। चौड़ाकोट की प्रतिमा में महिष के शरीर में रश्मियों युक्त अर्द्ध सूर्य का अंकन है, जो अन्य प्रतिमाओं में अंकित नहीं है। इसी प्रकार पादद्वय की स्थितियों में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्यालीढ़ मुद्रा में त्रिभंग स्थानक देवी, कुछ प्रतिमाओं में वाम पाद से (गढ़सारी) एवं कुछ प्रतिमाओं में दक्षिण पाद से (चौड़ाकोद, पऊ, गोलनसेरी) महिष को दबाती हुई अंकित हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपरि परिकर में विद्याधर का भी निरूपण है।
अष्टभुजी महिषासुर मर्दिनी की दो विशिष्ट प्रतिमाएँ भी इन जनपदों में स्थित हैं। चण्डिका मन्दिर पाताल भुवनेश्वर (पिथौरागढ़) एवं घटोत्कच मन्दिर चौकी (चम्पावत) की प्रतिमाओं में अष्टभुच देवी के हस्तायुधों में अवश्यमेव वृद्धि (यथा-दक्षिण हस्त में घण्टा, खेटक, धनुष, महिष केश आदि कतिपय विविधताओं सहित) हुई है, परन्तु अन्य रूपाकिंत लगभग समान ही हैं। पाताल भुवनेश्वर की प्रतिमा धातु निर्मित होने के कारण महत्त्वपूर्ण है, जिसमें सिंहारूढ़ देवी महिष वध में रत है।
शिव पत्नी पार्वती की प्रतिमाएँ देवी मन्दिर पुटान,पमस्थारी, माझिरकांडा,औलिया गाँव, कूना, नौखाना(समस्त जिला पिथौरागढ़); सदाशिव मन्दिर रौलमेल, पटोली, शिव मन्दिर देवलनाद(चम्पावत) में स्थित हैं। चतुर्हस्ता देवी गोधिका उत्कीर्ण पादपीठ पर समपाद स्थानक निरूपित की गई हैं। देवी का अधोदक्षिण हस्त प्रायः(वरद मुद्रा में, ऊर्ध्व दक्षिण हस्त में पुष्प गुच्छ), (देवलनाद) या दर्पण,(रौलमेल) अधोवाम में कमण्डलु (जलपात्र) एवं ऊर्ध्ववाम हस्त में अग्निपात्र है। सर्वाभूषण धारी पार्वती के उभय पार्श्व में परिचारिकाएँ (जया-विजया) भी प्रायः उपस्थित हैं। आपाद वलयाकार अलंकृत साड़ी में निरूपित देवी प्रायः अर्द्धनिमीलित नेत्रों से प्रत्यक्षतःदेखती हुई प्रतीत होती हैं।
मातृका पूजन की प्राचीन एवं लोकप्रिय परम्परा के द्योतक अनेक आयता कार मातृका पट्ट दोनों जिलों में भी विद्यमान हैं। जिनमें प्रायः ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, चामुण्डा, वैष्णवी आदि मातृकाएँ मुख्य रूप से उत्कीर्ण हैं। इन मातृका पट्टों में मातृकाएँ स्ववाहनारूढ़ प्रदर्शित हैं। मातृकाओं के साथ वीरभद्र (टकाना) एवं गणेश (पाताल भुवनेश्वर) भी उपस्थित हैं। विविध मातृकाओं में चामुण्डा, की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ प्रकाश में आईं हैं। आभूषणों से अलंकृत त्रिनेत्रधारी रौदरूपी चतुर्भुजा या अष्टभुजा चामुण्डा शवारूढ़ ललितासनस्थ निरूपित हैं। हस्तों में कपाल, शूल, खड्ग, खेटक, सर्पवेष्ठित खट्वांग, नरमुण्ड, धारी देवी के अधो पार्श्व में मुण्ड से टपकते रक्त का पान करते श्रृगाल का चित्रण बीभत्स रस का वातावरण सृजित करता है।
घटकेश्वर मन्दिर गुरूपड़ा-बाँस(पिथौरागढ़) मेें स्थित माहेश्वरी कौमारी की (दो-दो), इन्द्राणी, एवं ब्रह्माणी का (एक-एक) स्वतन्त्र प्रतिमाएँ इस स्थल को मध्यकालीन शाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध करती हैं। उक्त प्रतिमाओं में से ब्राह्मण, की प्रतिमा उल्लेखनीय है। इस प्रतिमा में चतुर्भुजा देवी पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। देवी के दक्षिण पृष्ठ हस्त में शुक्र, दक्षिण अग्र हस्त अक्षमाला सहित अभय मुद्रा में, वाम अग्रहस्त मेें कमण्डलु स्थित है। पीठिका के नीचे परस्पर प्रतिलोम संयुक्त हंसों का अंकन है। ब्रह्माणी की एक अन्य प्रतिमा शिवमन्दिर टकाना में भी प्रतिष्ठित है।
वैदिक देवमंडल में द्युस्थानीय, चराचर विश्व की आत्मा, जगत के कारण एवं ब्रह्म, नवग्रहों में प्रमुख, पंचदेवों में एक, सूर्य देव, की उपासना पुराकाल से ही भारत में प्रचलित रही है। सूर्य की प्रारम्भिक प्रतिमाओं में देव का रूपांकन पूर्णतः भारतीय रूप में हुआ है। परन्तु प्रथम ईसवी शती से सूर्य प्रतिमांकन में स्पष्टतः भारतीय उप महाद्वीप के बाहर का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। कलाविद ईरानियों या सीथियन या कुषाणों को इसका श्रेय देते हैं। सूर्य को लम्बा-सा चोला पहने एवं घुटनों तक आवृत बूटों (उपानह) में मुख्यतः दो अनुचरों दण्डी व पिंगल के साथ निरूपित किया जाने लगा। सूर्य का यह रूपायन उदीच्यवेशी था। पूर्व मध्यकाल तक सूर्य प्रतिमाओं में विदेशी एवं भारतीय मिश्रित प्रभाव प्रदर्शित होने लगा। इस काल की सूर्य प्रतिमाओं में अधोवस्त्री धोती एवं यज्ञोपवीत सदृश भारतीय वेशभूषा धारण करते निरूपित सूर्य देव के पार्श्व में पत्नियों, पुत्रों, अनुचरों, आठ अन्य ग्रहों एवं अन्य देवों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी।
मध्य हिमालय की अधिकांश सूर्य प्रतिमाएँ विदेशी प्रभावयुक्त गुप्तोत्तर काल के उपरान्त की हैं। इतिहासकार अधिसंख्यक सूर्य मूर्तियों की प्राप्ति के विविध कारण कल्पित करते हैं, यथाः- हिमालय में शक या खश प्रवजन व अधिपत्य, उत्तराखण्ड में सूर्यवंशीय कत्यूरी शासकों का दीर्घकालीन शासन आदि। पिथौरागढ़ व चम्पावत में भी उसी काल के अनेक स्वतन्त्र सूर्य देवालय एवं स्वतन्त्र सूर्य प्रतिमाएँ अवस्थित हैं। चंडिका मन्दिर, पाताल भुवनेश्वर, पुंगेश्वर महादेव मन्दिर कनेड़ा, सूर्य मन्दिर चौपाता, नकुलेश्वर, सूर्य मन्दिर मड़-चौबाटी, महादेव मन्दिर विशाड़, गैडना, नकीना, कुमौड़, घुंसेरा गुफा, नैनी, लून्ठयूड़ा, द्यारी, चौपखिया मन्दिर, जगदम्बा मन्दिर जाखपन्त, पुटान, भगवती मन्दिर मौथाना, देवराड़ी पन्त (पिथौरागढ़ जिले), घटोत्कच मन्दिर चौकी, नलयादित्य मन्दिर खेतीखान, सदाशिव मन्दिर रौलमेल, रक्षादेवी मन्दिर गड़सारी, सूर्य मन्दिर रमक, सूर्य मन्दिर मड़- चमदेवल, वसकुनी( चम्पावत जिले) में स्थित स्वतन्त्र सूर्य विग्रह इसके उदाहरण हैं।
दोनों जिलों में स्थित स्वतन्त्र प्रतिमाओं में सूर्य प्रायः उदीच्यवेशी निरूपित हुए हैं। पद्म पीठिका में समपाद स्थानक (मड़-चमदेवल, चौकी,रोलमेल, नकुलेश्वर आदि) या चतुरश्वारूढ़ रथ (खेतीखान) में या सप्ताश्वारूढ़ रथ में सुखासन (मड़-चौबाटी) उत्कूटास (जगदम्बा मन्दिर जाखपन्त, भगवती मन्दिर मैथाना) मुद्रा में आसनस्थ हैं। द्विभुजी देव स्कन्ध तक उठे हस्त द्वय में सनाल पद्म पुष्प (अधिकांश प्रतिमाओं में) या फुल्ल पद्म गुच्छ (गड़सारी द्वितीय प्रतिमा में) धारण किए हैं। एकल सूर्य (गड़सारी,चौकी), दो पार्श्व अनुचर,- दण्डी, व पिंगल, सहित सूर्य देव (नकुलेश्वर, पुंगेश्वर) एवं अनुचर एवं परिवार सहित सूर्य देव (रौलमेल,रमक,चौपाता,मड़-चौबाटी) की विविध सूर्य प्रतिमाओं में सूर्य टोपी सदृश्य मुकुट, उगरबंध से बंधा आपाद चोलक, उदरबंध से वाम पार्श्व में बंधी कटार, ऊँचे उपानह पहने निरूपित हैं। चौपाता की सूर्य प्रतिमा में सूर्य योद्धाओं की भाँति हाथों में चढ़ा रक्षा कवच, रौलमेल की प्रतिमा में यज्ञोपवीत, एवं गड़सारी की प्रतिमा में मोतियों की लड़ियों का पायजामा पहने निरूपित हैं। सूर्य देव के अधो दक्षिण पार्श्व में स्थित त्रिभंग मुद्रा में द्विभुजी कूर्चधारी पिंगल पत्र व लेखनी लिए एवं अधो वाम पार्श्व में त्रिभंग द्विभुजी दण्डी, के दक्षिण हस्त में खडग, व वाम हस्त कटयालम्बित है। सूर्य देव के पादद्वय के मध्य महाश्वेता देवी, का अंकन (रौलमेल, रमक, चौपाता) किया गया है। अनेक प्रतिमाओं में सूर्य के उभय पार्श्वों में चामरधारी एवं धनुर्धारी स्त्रियाँ भी हैं, जिनका साम्य सूर्य पत्नियों निक्षुमा-राज्ञी व उषा-प्रत्यूषा से किया जाता है। सप्ताश्व रथारूढ़ प्रतिमा(मड़-चौबाटी) में सारथी अरुण, अश्वों की रास पकड़े निरूपित है।
उपरोक्त परिचयात्मक विवरण से स्पष्ट है कि पूर्व मध्यकाल से उत्तर मध्यकाल तक वाङमय में वर्णित लांछनो व रूपांकन विदेशों एवं कतिपय स्थानीय कला-प्रभावों के अनुरूप निर्मित देवालयों एवं प्रतिमाओं के सन्दर्भ में दोनोें जिले अत्यन्त समृद्ध हैं, आवश्यकता है-इन अमूल्य पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक धरोहरों के विधिवत अध्ययन व प्रलेखीकरण करने एवं संरक्षण व मौलिक स्वरूप बनाए रखने की।