बस्तर देश के वनवासी-बहुल क्षेत्रों में बचा हुआ आखिरी बड़ा हिस्सा है। देश के बड़े जिलों में वह तीसरे स्थान पर है। वह पूरे केरल राज्य से कुछ बड़ा ही है। उसका क्षेत्रफल 39,060 वर्ग किलोमीटर है, लेकिन 1981 की जनगणना के अनुसार उसकी जनसंख्या 18.4 लाख से कुछ ही ज्यादा है। दो-तिहाई से ज्यादा लोग वनवासी हैं जिले में केवल पांच बड़े कस्बे हैं। जिले भर में पक्की ओर कच्ची दोनों प्रकार की सड़कों की कुल लंबाई 3,300 किलोमीटर है। जिले के कुल 3,683 गांवों में से केवल 270 गांव ठीक किस्म की सड़कों से जुड़े हैं। एक रेलवे लाइन है जो बेलाडीला से पूर्वी तट के विशाखापत्तनम तक कच्चा लोहा ढोने के काम आती है।
भौगोलिक दृष्टि से बस्तर दंडकारण्य का एक भाग है। यह चार भागों में बंटा है-एक, कांकेर का उत्तर पूर्वी मैदान जिसमें महानदी बहती है, दूसरा, बस्तर का पठार जो उत्तर पश्चिम छोर से पूर्वी सीमा तक ढलावदार है, तीसरा है अबूझमाड़, और चौथा, दक्षिणी बस्तर के पहाड़ और मैदान। इंद्रावती नदी पड़ोसी राज्य उत्काल से निकलकर पूर्व से पश्चिम की ओर बस्तर के बीच में से जिले को उत्तर और दक्षिण भागों में बांटती हुई बहती है। दक्षिणी बस्तर में बहने वाली शबरी नदी दूसरी प्रमुख नदी है। यहां स्थायी और मौसमी नदियां बड़ी संख्या में हैं।
बस्तर का प्राकृतिक भंडाकर काफी समृद्ध है यद्यपि यह पहले जितना समृद्ध नहीं रहा। इसे बांसतरी यानी बांसों वाली घाटी कहते थे। अब भी कुल वनों में लगभग 20 प्रतिशत पेड़ बांस के हैं। देश का सबसे बड़ा नमीदार पतझरी पेड़ों से भरा जंगल यही है, जिसमें साल, सागौन, जापत्र तथा दूसरे 15 प्रमुख प्रकार के पेड़ हैं। देश के कच्चे लोहे का 10 प्रतिशत भंडार इस जिले में है, एक करोड़ टन सीमेंट लायक चूना पत्थर, इस्पात में काम आने वाले डोलोमाइट का भारी भंडार और टीन के अयस्क का भी काफी संचय यहां है। बस्तर में जल विद्युत उत्पादन की 2000 मेगावाट से भी ज्यादा की क्षमता बताई जाती है।
इन्हीं समृद्धियों ने बस्तर को आधुनिक शोषण के लिए स्वर्ग बना दिया है। और अब ये उसे बस्तरवासियों के लिए नरक बनाए दे रहे हैं। जिले के सबसे प्रमुख प्राकृतिक भंडार वन को लीजिए। 54 प्रतिशत भूमि में फैला हुआ वन प्रति व्यक्ति के हिसाब से 1.14 हेक्टेयर पड़ता है। यह राज्य के औसत 0.3 हेक्टेयर से और देश के औसत 0.11 हेक्टेयर से कहीं ज्यादा है। इस समय बस्तर के कुल वन क्षेत्र का चौथा भाग पर्याप्त ढका हुआ है। लेकिन बाकी लगभग 400,000 हेक्टेयर सुरक्षित वन भूमि की हालत एकदम खस्ता है और ऊपरी मिट्टी की सतह मुश्किल से थोड़ी-बहुत ही बच पाई है।
बस्तर के वनों में ‘गौण वन उपजों’ का खास उत्पादन होता है जिसे वनवासी शहरों में बेचते हैं। अभी हाल तक सिर्फ निजी व्यापारी इन गौण वन उपजों का मूल्य जानते थे, लेकिन 1970 के दशक में मध्य प्रदेश सरकार ने तेंदू पत्ते, हरड़ और साल बीजों के व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया। तेंदू पत्ते बीड़ी बनाने के काम आते हैं और हरड़ का इस्तेमाल चमड़ा कमाने में होता है। साल बीज से निकलने वाला तेल साबुन बनाने के काम आता है। कैडबरीज चॉकलेट लि. कंपनी इसका उपयोग चॉकलेट बनाने में भी करती है। यह तेल जापान और पश्चिमी जर्मनी भी भेजा जाता है। 1981-82 में जगदलपुर वन प्रभाग ने गौण वन उपज के व्यापार से 1.46 करोड़ रुपये और 1983 में 1.88 करोड़ कमाए थे।
जगदलपुर, कांकेर और किरिदल जैसे शहरी इलाकों के चारों ओर खराब होते जा रहे जंगलों के बड़े-बड़े हिस्से देखने को मिलते हैं। जगदलपुर वन मंडल के एक भूतपूर्व अधिकारी का कहना है, “जगदलपुर से चित्रकूट जलप्रपात तक और जगदलपुर-दांतेवाड़ा सड़क के किनारे लगभग 40 किलोमीटर तक जंगलों से लकड़ी का उत्पादन 120,000 घनमीटर और बांस का 1,800 टन रिकार्ड किया गया था। 1980-81 में लकड़ी 250,000 घन मीटर और ईंधन की लकड़ी 167,400 टन तथा बांस का 48,600 टन उत्पादन हुआ।”
वन विनाश के अनेक कारण हैं। अंग्रेजों ने अपने समय में सारा दोष वनवासी की उस झूम की खेती को दिया, जिस पर उनका जीवन टिका था। आजादी मिलते-मिलते खेती और जीवन की वह शैली ज्यादातर भागों से उठ गई थी। आज वह बस अबूझमाड़ जैसे कुछ सुदूर क्षेत्र में कहीं-कहीं प्रचलित है। लेकिन बरबादी तो अंग्रेजों की सागौन की लकड़ी की भूख ने शुरू की। दूर-दूर तक जंगलों को अंधाधुंध तबाह किया गया। फिर जब देश में रेलवे लाइन बिछने लगी तो साल की लकड़ी के स्लीपरों की मांग बढ़ी। आज भी रेलवे विभाग के लिए साल की कुल लकड़ी का आधा भाग बस्तर से ही आता है। फिर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण लकड़ी की बढ़ती मांग नें यहां के जंगलों पर दबाव और बढ़ाया।
कटाई आज भी जारी है। बस्तर के दम पर ही पड़ोसी जिलों रायपुर और दुर्ग में आबादी और उद्योगों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। देश भर में फैली ईंधन की भूख भी एक खास कारण है- ईंधन की लकड़ी से लदे ट्रक के ट्रक बस्तर की सीमा से बाहर जाते हुए कभी भी देखे जा सकते हैं। वन-अधिकारी बताते हैं कि बहुत जल्दी दिल्ली जैसे दूर-दूर के शहरों तक बस्तर से ईंधन की आपूर्ति होने लगेगी। लेकिन खुद बस्तर में ईंधन की कमी पड़ने लगी है। जगदलपुर मंडल में 1975 और 1983 के बीच व्यापारिक ईंधन के दाम में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। निस्तारी डिपो तक में लकड़ी के दाम 130 प्रतिशत बढ़ गए हैं।
भोले-भाले वनवासी चालाक ठेकेदारों और व्यापारीयों के जाल में जल्दी फंस जाते हैं। अक्टूबर 1959 में सरकार ने सभी भूस्वामियों को अपनी जमीन पर खड़े पेंड़ो के स्वामित्व का अधिकार दे दिया तो चारों तरफ से ठेकेदार फौरन बस्तर पहुंच गए और उन वनवासियों से नाममात्र के दाम पर लाखों पेड़ खरीद लिए। इस भगदड़ में सरकारी जंगलों का बहुत-सा इलाका भी उजड़ गया।
दूसरा बड़ा घातक कारण है विकास। बस्तर के वन विभाग के एक प्रकाशन के अनुसार 1956 और 1981 के बीच विभिन्न विकास परियोजनाओं के निमित्त 125,483 हेक्टेयर जंगल साफ किए गए। जिले में कुल जितना जंगल नष्ट हुआ। उसका यह एक-तिहाई हिस्सा है। इसके अलावा कोई 31,000 हेक्टेयर जंगलों को जल-विद्युत परियोजनाओं और दूसरी योजनाओं ने निगल लिया।
कभी-कभी परियोजनाएं बीच में ही ठप्प हो जाती हैं। लेकिन उनके कारण वन को हुई क्षति तो स्थायी हो जाती है। उसे फिर ठीक किया नहीं जा सकता। 1958 में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाने के लिए बनाई गई दंडकारण्य परियोजना के साथ ऐसा ही हुआ था। वह योजना उत्कल और बस्तर दोनों क्षेत्रों को जोड़कर बनाई गई थी। राज्य सरकार ने 60,000 हेक्टेयर साल के पेड़ काटने पड़े थे। फिर जले पर नमक छिड़कने जैसा काम यह हुआ कि इस क्षेत्र की योजना बंद कर दी गई। लाभ का जो वचन दिया गया था, वन न नए बसे लोगों को मिला न वनवासियों को, वन अलग उजाड़ दिया गया।
बेलाडीला की कच्चे लोहे की परियोजना दूसरा उदाहरण है। इससे विदेशी मुद्रा की अच्छी कमाई होने की उम्मीद की गई थी। बेलाडीला रेंज की 48 किलोमीटर की पट्टी में उत्तम किस्म के लोहे के 14 भंडारों को खोजा गया था। यह भंडार एशिया भर की कच्चे लोहे की खदानों में सबसे बड़ा है। वहां से कच्चे लोहे का उत्पादन 1970-71 में 33 लाख टन था, जो 1982-83 तक बढ़कर 52 लाख टन हो गया। उसी अवधि में विदेशी मुद्रा की आय 23.70 करोड़ से बढ़कर 116 करोड़ रुपयों की हुई और राज्य सरकार की रायल्टी में कुल मिलाकर 450 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।
पर लाभ के नीचे छिपा है नुकसान का बहुत बड़ा ढेर। बेलाडीला के आसपास के जंगलों में नाना प्रकार के दुर्लभ फूलों के पौधे और जड़ी-बूटियों का भंडार था। कुरंग जाति के हिरण, जंगली भैंसे, हिरन, भालू और बाघ जैसे बड़े जानवर भी बड़ी संख्या में रहते थे। लेकिन अब जंगल खत्म हो रहे हैं, पानी दूषित हो रहा है और हवा धूल से भारी हो गई है। होना तो यह चाहिए था कि वन संपदा की रक्षा के लिए समुचित योजना बनती। एक पेड़ कटता तो उसकी जगह दूसरा लगाया जाता, भूक्षरण रोकने के लिए मेंड़बंदी होती और नए जंगल लगाकर हरियाली कायम रखी जाती। लेकिन हो उलटा ही रहा है। जंगल के जंगल साफ किए जा रहे हैं। उस क्षेत्र के मारिया जाति के वनवासी एक जमाने में शान से रहते हैं। आज खदानों में काम पाने वाले इने गिने लोगों को छोड़ सब कंगाल हो चुके हैं।
1968 से किरिदल के स्क्रीनिंग प्लांट के बारीक लौहकणों को सीधे शंखिनी नदी में ढेर किया जा रहा है। नदी का सारा पानी लाल, गंदा कीचड़ बन गया है। किनारे बसे 51 गांवों के लगभग 40,000 वनवासियों को नहाने-धोने और पीने के लिए सा पानी मिलना बंद हो गया। लेकिन किरिदल की उद्योगनगरी में बसे 20,000 लोगों के लिए छना साफ पानी मुहैया किया जाता है।
कंगाल होते बस्तरवासी के घर में एक खजाना मिल गया। जून 1982 में राष्ट्रीय धातु विकास निगम ने जगदलपुर तहसील में डोलोमाइट की खुदाई की योजना बनाई। इसमें एक ओर ड्रेसिंग लगाने का और घने जंगल के बीच से रेलवे लाइन बिछाने का भी इरादा था। खनन के पट्टे के लिए दिन आवेदन में कांगर घाटी के 775 हेक्टेयर आरक्षित वन भूमि की और भावी विकास के लिए 1,675 हेक्टेयर वन भूमि की मांग की गई थी। प्रारंभिक क्षेत्र में ही कोई 300,000 साल वृक्ष कटते।
वनवासियों ने और जगदलपुर स्थित बस्तर सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के सदस्यों ने इस योजना का कड़ा विरोध किया। उस क्षेत्र में घना जंगल है। इसी क्षेत्र को कुछ ही पहले चीड़ परियोजना के लिए चुना गया था। पर इस संगठन ने उसे चलने नहीं दिया। उन खानों से कांगर अभ्यारण्य के लिए भी खतरा था। यह अभ्यारण्य देश का सबसे हाल में बना आरक्षित वन खंड है। बस्तर के वन विभाग ने भी योजना का विरोध किया, पर इसलिए कि जंगलों पर उनका जो आधिपत्य है वह ऐसी विकास योजना के आगे फीका पड़ जाता। नतीजा यह हुआ कि राज्य सरकार ने राष्ट्रीय निगम का आवेदन अस्वीकार कर दिया और उसके बदले में बिलासपुर जिले में जमीन देने की बात की। निगम अब इस विवाद को केंद्र सरकार के सामने रख रहा है। राज्य सरकार जीते या निगम जीते, मुसीबत तो बस्तर पर ही आएगी। इस बहाने न सही, किसी और बहाने।
और वह बहाना भी आ गया। राज्य सरकार यहां बांध बनाने जा रही है। इंद्रावती नदी पर 500 मेगावाट क्षमता वाला बोधघाट पन-बिजली घर बनाने की योजना है। पर यह भी पिछले कुछ समय से विवाद में पड़ी है। योजना में कुल 12,640 हेक्टेयर जमीन डूबेगी, जिसमें 5,676 हेक्टेयर में खूब घना जंगल है। 1971 की जनगणना के अनुसार 34 गांवों के 8,350 लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था करनी होगी।
योजना आयोग द्वारा 1979 में मंजूरी की गई इस योजना को विश्व बैंक 413 करोड़ रुपये के कुल खर्च का आधा देने को तैयार है। योजनाकार किस तरह आंखें बंद करके चलते हैं, उसका यह एक नमूना है। परियोजना का असर हजारों लोगों पर प्रतिकूल पड़ रहा है। गांवों को बिजली देने की कहीं कोई बात नहीं है। सारी बिजली राज्य के ग्रिड में जाएगी और शायद सब बेलाडीला समवाय के ही काम आएगी।
बोधघाट बांध उन नौ पनबिजली परियोजनाओं में से एक है, जो बस्तर की नदी इंद्रावती पर बनाई जाएंगी। ये सब बांध बन जाने के जगह-जगह धारा रुकती जाएगी। नदी का उन्मुक्त प्रवाह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
भौगोलिक दृष्टि से बस्तर दंडकारण्य का एक भाग है। यह चार भागों में बंटा है-एक, कांकेर का उत्तर पूर्वी मैदान जिसमें महानदी बहती है, दूसरा, बस्तर का पठार जो उत्तर पश्चिम छोर से पूर्वी सीमा तक ढलावदार है, तीसरा है अबूझमाड़, और चौथा, दक्षिणी बस्तर के पहाड़ और मैदान। इंद्रावती नदी पड़ोसी राज्य उत्काल से निकलकर पूर्व से पश्चिम की ओर बस्तर के बीच में से जिले को उत्तर और दक्षिण भागों में बांटती हुई बहती है। दक्षिणी बस्तर में बहने वाली शबरी नदी दूसरी प्रमुख नदी है। यहां स्थायी और मौसमी नदियां बड़ी संख्या में हैं।
बस्तर का प्राकृतिक भंडाकर काफी समृद्ध है यद्यपि यह पहले जितना समृद्ध नहीं रहा। इसे बांसतरी यानी बांसों वाली घाटी कहते थे। अब भी कुल वनों में लगभग 20 प्रतिशत पेड़ बांस के हैं। देश का सबसे बड़ा नमीदार पतझरी पेड़ों से भरा जंगल यही है, जिसमें साल, सागौन, जापत्र तथा दूसरे 15 प्रमुख प्रकार के पेड़ हैं। देश के कच्चे लोहे का 10 प्रतिशत भंडार इस जिले में है, एक करोड़ टन सीमेंट लायक चूना पत्थर, इस्पात में काम आने वाले डोलोमाइट का भारी भंडार और टीन के अयस्क का भी काफी संचय यहां है। बस्तर में जल विद्युत उत्पादन की 2000 मेगावाट से भी ज्यादा की क्षमता बताई जाती है।
इन्हीं समृद्धियों ने बस्तर को आधुनिक शोषण के लिए स्वर्ग बना दिया है। और अब ये उसे बस्तरवासियों के लिए नरक बनाए दे रहे हैं। जिले के सबसे प्रमुख प्राकृतिक भंडार वन को लीजिए। 54 प्रतिशत भूमि में फैला हुआ वन प्रति व्यक्ति के हिसाब से 1.14 हेक्टेयर पड़ता है। यह राज्य के औसत 0.3 हेक्टेयर से और देश के औसत 0.11 हेक्टेयर से कहीं ज्यादा है। इस समय बस्तर के कुल वन क्षेत्र का चौथा भाग पर्याप्त ढका हुआ है। लेकिन बाकी लगभग 400,000 हेक्टेयर सुरक्षित वन भूमि की हालत एकदम खस्ता है और ऊपरी मिट्टी की सतह मुश्किल से थोड़ी-बहुत ही बच पाई है।
बस्तर के वनों में ‘गौण वन उपजों’ का खास उत्पादन होता है जिसे वनवासी शहरों में बेचते हैं। अभी हाल तक सिर्फ निजी व्यापारी इन गौण वन उपजों का मूल्य जानते थे, लेकिन 1970 के दशक में मध्य प्रदेश सरकार ने तेंदू पत्ते, हरड़ और साल बीजों के व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया। तेंदू पत्ते बीड़ी बनाने के काम आते हैं और हरड़ का इस्तेमाल चमड़ा कमाने में होता है। साल बीज से निकलने वाला तेल साबुन बनाने के काम आता है। कैडबरीज चॉकलेट लि. कंपनी इसका उपयोग चॉकलेट बनाने में भी करती है। यह तेल जापान और पश्चिमी जर्मनी भी भेजा जाता है। 1981-82 में जगदलपुर वन प्रभाग ने गौण वन उपज के व्यापार से 1.46 करोड़ रुपये और 1983 में 1.88 करोड़ कमाए थे।
उजड़ती बांसतरी
जगदलपुर, कांकेर और किरिदल जैसे शहरी इलाकों के चारों ओर खराब होते जा रहे जंगलों के बड़े-बड़े हिस्से देखने को मिलते हैं। जगदलपुर वन मंडल के एक भूतपूर्व अधिकारी का कहना है, “जगदलपुर से चित्रकूट जलप्रपात तक और जगदलपुर-दांतेवाड़ा सड़क के किनारे लगभग 40 किलोमीटर तक जंगलों से लकड़ी का उत्पादन 120,000 घनमीटर और बांस का 1,800 टन रिकार्ड किया गया था। 1980-81 में लकड़ी 250,000 घन मीटर और ईंधन की लकड़ी 167,400 टन तथा बांस का 48,600 टन उत्पादन हुआ।”
वन विनाश के अनेक कारण हैं। अंग्रेजों ने अपने समय में सारा दोष वनवासी की उस झूम की खेती को दिया, जिस पर उनका जीवन टिका था। आजादी मिलते-मिलते खेती और जीवन की वह शैली ज्यादातर भागों से उठ गई थी। आज वह बस अबूझमाड़ जैसे कुछ सुदूर क्षेत्र में कहीं-कहीं प्रचलित है। लेकिन बरबादी तो अंग्रेजों की सागौन की लकड़ी की भूख ने शुरू की। दूर-दूर तक जंगलों को अंधाधुंध तबाह किया गया। फिर जब देश में रेलवे लाइन बिछने लगी तो साल की लकड़ी के स्लीपरों की मांग बढ़ी। आज भी रेलवे विभाग के लिए साल की कुल लकड़ी का आधा भाग बस्तर से ही आता है। फिर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण लकड़ी की बढ़ती मांग नें यहां के जंगलों पर दबाव और बढ़ाया।
कटाई आज भी जारी है। बस्तर के दम पर ही पड़ोसी जिलों रायपुर और दुर्ग में आबादी और उद्योगों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। देश भर में फैली ईंधन की भूख भी एक खास कारण है- ईंधन की लकड़ी से लदे ट्रक के ट्रक बस्तर की सीमा से बाहर जाते हुए कभी भी देखे जा सकते हैं। वन-अधिकारी बताते हैं कि बहुत जल्दी दिल्ली जैसे दूर-दूर के शहरों तक बस्तर से ईंधन की आपूर्ति होने लगेगी। लेकिन खुद बस्तर में ईंधन की कमी पड़ने लगी है। जगदलपुर मंडल में 1975 और 1983 के बीच व्यापारिक ईंधन के दाम में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। निस्तारी डिपो तक में लकड़ी के दाम 130 प्रतिशत बढ़ गए हैं।
भोले-भाले वनवासी चालाक ठेकेदारों और व्यापारीयों के जाल में जल्दी फंस जाते हैं। अक्टूबर 1959 में सरकार ने सभी भूस्वामियों को अपनी जमीन पर खड़े पेंड़ो के स्वामित्व का अधिकार दे दिया तो चारों तरफ से ठेकेदार फौरन बस्तर पहुंच गए और उन वनवासियों से नाममात्र के दाम पर लाखों पेड़ खरीद लिए। इस भगदड़ में सरकारी जंगलों का बहुत-सा इलाका भी उजड़ गया।
सुनियोजित आधुनिक विनाश
दूसरा बड़ा घातक कारण है विकास। बस्तर के वन विभाग के एक प्रकाशन के अनुसार 1956 और 1981 के बीच विभिन्न विकास परियोजनाओं के निमित्त 125,483 हेक्टेयर जंगल साफ किए गए। जिले में कुल जितना जंगल नष्ट हुआ। उसका यह एक-तिहाई हिस्सा है। इसके अलावा कोई 31,000 हेक्टेयर जंगलों को जल-विद्युत परियोजनाओं और दूसरी योजनाओं ने निगल लिया।
कभी-कभी परियोजनाएं बीच में ही ठप्प हो जाती हैं। लेकिन उनके कारण वन को हुई क्षति तो स्थायी हो जाती है। उसे फिर ठीक किया नहीं जा सकता। 1958 में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाने के लिए बनाई गई दंडकारण्य परियोजना के साथ ऐसा ही हुआ था। वह योजना उत्कल और बस्तर दोनों क्षेत्रों को जोड़कर बनाई गई थी। राज्य सरकार ने 60,000 हेक्टेयर साल के पेड़ काटने पड़े थे। फिर जले पर नमक छिड़कने जैसा काम यह हुआ कि इस क्षेत्र की योजना बंद कर दी गई। लाभ का जो वचन दिया गया था, वन न नए बसे लोगों को मिला न वनवासियों को, वन अलग उजाड़ दिया गया।
बेलाडीला की कच्चे लोहे की परियोजना दूसरा उदाहरण है। इससे विदेशी मुद्रा की अच्छी कमाई होने की उम्मीद की गई थी। बेलाडीला रेंज की 48 किलोमीटर की पट्टी में उत्तम किस्म के लोहे के 14 भंडारों को खोजा गया था। यह भंडार एशिया भर की कच्चे लोहे की खदानों में सबसे बड़ा है। वहां से कच्चे लोहे का उत्पादन 1970-71 में 33 लाख टन था, जो 1982-83 तक बढ़कर 52 लाख टन हो गया। उसी अवधि में विदेशी मुद्रा की आय 23.70 करोड़ से बढ़कर 116 करोड़ रुपयों की हुई और राज्य सरकार की रायल्टी में कुल मिलाकर 450 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।
पर लाभ के नीचे छिपा है नुकसान का बहुत बड़ा ढेर। बेलाडीला के आसपास के जंगलों में नाना प्रकार के दुर्लभ फूलों के पौधे और जड़ी-बूटियों का भंडार था। कुरंग जाति के हिरण, जंगली भैंसे, हिरन, भालू और बाघ जैसे बड़े जानवर भी बड़ी संख्या में रहते थे। लेकिन अब जंगल खत्म हो रहे हैं, पानी दूषित हो रहा है और हवा धूल से भारी हो गई है। होना तो यह चाहिए था कि वन संपदा की रक्षा के लिए समुचित योजना बनती। एक पेड़ कटता तो उसकी जगह दूसरा लगाया जाता, भूक्षरण रोकने के लिए मेंड़बंदी होती और नए जंगल लगाकर हरियाली कायम रखी जाती। लेकिन हो उलटा ही रहा है। जंगल के जंगल साफ किए जा रहे हैं। उस क्षेत्र के मारिया जाति के वनवासी एक जमाने में शान से रहते हैं। आज खदानों में काम पाने वाले इने गिने लोगों को छोड़ सब कंगाल हो चुके हैं।
1968 से किरिदल के स्क्रीनिंग प्लांट के बारीक लौहकणों को सीधे शंखिनी नदी में ढेर किया जा रहा है। नदी का सारा पानी लाल, गंदा कीचड़ बन गया है। किनारे बसे 51 गांवों के लगभग 40,000 वनवासियों को नहाने-धोने और पीने के लिए सा पानी मिलना बंद हो गया। लेकिन किरिदल की उद्योगनगरी में बसे 20,000 लोगों के लिए छना साफ पानी मुहैया किया जाता है।
कंगाल होते बस्तरवासी के घर में एक खजाना मिल गया। जून 1982 में राष्ट्रीय धातु विकास निगम ने जगदलपुर तहसील में डोलोमाइट की खुदाई की योजना बनाई। इसमें एक ओर ड्रेसिंग लगाने का और घने जंगल के बीच से रेलवे लाइन बिछाने का भी इरादा था। खनन के पट्टे के लिए दिन आवेदन में कांगर घाटी के 775 हेक्टेयर आरक्षित वन भूमि की और भावी विकास के लिए 1,675 हेक्टेयर वन भूमि की मांग की गई थी। प्रारंभिक क्षेत्र में ही कोई 300,000 साल वृक्ष कटते।
वनवासियों ने और जगदलपुर स्थित बस्तर सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के सदस्यों ने इस योजना का कड़ा विरोध किया। उस क्षेत्र में घना जंगल है। इसी क्षेत्र को कुछ ही पहले चीड़ परियोजना के लिए चुना गया था। पर इस संगठन ने उसे चलने नहीं दिया। उन खानों से कांगर अभ्यारण्य के लिए भी खतरा था। यह अभ्यारण्य देश का सबसे हाल में बना आरक्षित वन खंड है। बस्तर के वन विभाग ने भी योजना का विरोध किया, पर इसलिए कि जंगलों पर उनका जो आधिपत्य है वह ऐसी विकास योजना के आगे फीका पड़ जाता। नतीजा यह हुआ कि राज्य सरकार ने राष्ट्रीय निगम का आवेदन अस्वीकार कर दिया और उसके बदले में बिलासपुर जिले में जमीन देने की बात की। निगम अब इस विवाद को केंद्र सरकार के सामने रख रहा है। राज्य सरकार जीते या निगम जीते, मुसीबत तो बस्तर पर ही आएगी। इस बहाने न सही, किसी और बहाने।
और वह बहाना भी आ गया। राज्य सरकार यहां बांध बनाने जा रही है। इंद्रावती नदी पर 500 मेगावाट क्षमता वाला बोधघाट पन-बिजली घर बनाने की योजना है। पर यह भी पिछले कुछ समय से विवाद में पड़ी है। योजना में कुल 12,640 हेक्टेयर जमीन डूबेगी, जिसमें 5,676 हेक्टेयर में खूब घना जंगल है। 1971 की जनगणना के अनुसार 34 गांवों के 8,350 लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था करनी होगी।
योजना आयोग द्वारा 1979 में मंजूरी की गई इस योजना को विश्व बैंक 413 करोड़ रुपये के कुल खर्च का आधा देने को तैयार है। योजनाकार किस तरह आंखें बंद करके चलते हैं, उसका यह एक नमूना है। परियोजना का असर हजारों लोगों पर प्रतिकूल पड़ रहा है। गांवों को बिजली देने की कहीं कोई बात नहीं है। सारी बिजली राज्य के ग्रिड में जाएगी और शायद सब बेलाडीला समवाय के ही काम आएगी।
बोधघाट बांध उन नौ पनबिजली परियोजनाओं में से एक है, जो बस्तर की नदी इंद्रावती पर बनाई जाएंगी। ये सब बांध बन जाने के जगह-जगह धारा रुकती जाएगी। नदी का उन्मुक्त प्रवाह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।