विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष
बस्तर के एक गाँव में चल रहे इस विद्यालय ने करीब 15 हजार की लागत से बस्तर का पहला ‘वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट’ यहाँ बनाया गया है। इस प्लांट में उपयोग हो चुके पानी को फिर से भूमि के अन्दर इस्तेमाल करने लायक बनाया जाता है। इससे आश्रम में कभी पानी की कमी नहीं होती। प्लांट में शुद्ध हुए पानी को फिर दैनिक कर्मों में इस्तेमाल किया जाता है।
बस्तर के अत्यधिक नक्सल प्रभावित इलाकों से गुजरते वक्त क्या ये कल्पना सम्भव है कि यहाँ कुछ सुखद, दिल को आनन्द देने वाला और सन्तोषजनक भी मिल सकता है। इसका जवाब है हाँ। बस्तर में भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जो हमें सुकून दे सकता है।
फिलवक्त तो हम बात कर रहे हैं लंजोडा नामक गाँव में बनाए गए “वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट” की, जो शौचालय में इस्तेमाल होने वाले पानी को न केवल दोबारा उपयोग के लायक बना रहा है, बल्कि कुछ लोग इसका लाभ भी उठा रहे हैं।
जब कांकेर और कोंडागाँव जैसे आदिवासी जिलों में पानी का संकट गहराने लगता है तो इन दोनों जिलों के मध्य स्थित लंजोड़ा गाँव का सदा हराभरा रहने वाले एक कोना सहज ही राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर से गुजरने वाले यात्रियों का ध्यान खींच लेता है।
जी हाँ रायपुर से जगदलपुर जाते वक्त जैसे ही केशकाल घाटी पार होती है, वैसे ही एक गाँव आता है ‘लंजोडा’। लजोंडा में संचालित हो रहे 400 बच्चों के आवासीय ऋषि विद्यालय ने एक मिसाल कायम की है। ‘शौच’ जैसे दैनिक कर्म में इस्तेमाल हो चुके पानी को पुनः उपयोग लायक बनाने की मिसाल।
बस्तर के एक गाँव में चल रहे इस विद्यालय ने करीब 15 हजार की लागत से बस्तर का पहला ‘वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट’ यहाँ बनाया गया है। इस प्लांट में उपयोग हो चुके पानी को फिर से भूमि के अन्दर इस्तेमाल करने लायक बनाया जाता है। इससे आश्रम में कभी पानी की कमी नहीं होती। प्लांट में शुद्ध हुए पानी को फिर दैनिक कर्मों में इस्तेमाल किया जाता है।
बच्चे पानी के कुछ अंश का उपयोग आवासीय विद्यालय के लिये सब्जियाँ उगाने में भी करते हैं। आश्रम का बगीचा भी इसी पानी की बदौलत साल भर हरा-भरा बना रहता है।
लंजोडा का वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट इसलिये भी प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि बस्तर के ही दंतेवाड़ा, सुकमा, नारायणपुर और कोंडागाँव जैसे जिलों में आदिवासी कल्याण विभाग और शिक्षा विभाग के तहत चलने वाले 10 हजार 436 शालाओं में से एक चौथाई विद्यालयों में पेयजल जैसी अतिआवश्यक सुविधा भी मौजूद नहीं है।
स्कूल प्रबन्धन तथा विद्यार्थियों के लिये पीने के पानी का बन्दोबस्त करना सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। आँकड़ों पर नजर डालें तो बस्तर के 6 जिलों के 10 हजार 436 स्कूलों में से 7 हजार 545 स्कूलों में ही पेयजल सुविधा उपलब्ध है।
“वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट” ही लंजोडा की पहचान बन चुका है। गायत्री परिवार से जुड़े बी.आर. साहू ने इस विद्यालय की संकल्पना की और अपने सहयोगी नकुल नेताम के साथ इसे साकार रूप दिया। वर्ष 1995 से लंजोडा में चल रहा ऋषि विद्यालय इसलिये भी चर्चित है, क्योंकि यहाँ बस्तर के दूर-दराज के आदिवासी बच्चों को लाकर जीवन का पाठ पढ़ाया जा रहा है।
इन आदिवासी बच्चों के माता-पिता या तो नक्सल हिंसा में अपनी जान गवाँ चुके हैं या फिर वे पुलिस और नक्सलियों के गोलियों की आवाज सुनकर बड़े हुए हैं।
इन बच्चों को सुदूर आदिवासी इलाकों से लाकर उन्हें लंजोडा में पढ़ाया लिखाया तो जाता ही है, उन्हें स्वावलम्बन का पाठ भी पढ़ाया जा रहा है। पहली से दसवीं तक संचालित इस आवासीय विद्यालय में पढ़ाने वाले नवयुवक और नवयुवतियाँ भी बस्तर के ही हैं।
ऋषि विद्यालय के सलाहकार सदस्य हरिसिंह सिदार बताते हैं कि वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट में शौचालय और स्नानगृह में इस्तेमाल हुए पानी को दोबारा उपयोग के लायक बनाया जाता है। इसके बारे में हमें कुछ सरकारी विभागों से पता चला, फिर हमने इसे अपने विद्यालय में बनवाया। यह एक अंडरग्राउंड प्लांट है, जो नालियों के द्वारा शौचालय और स्नानगृह से जुड़ा हुआ है। इस्तेमाल हो चुका पानी इसमें आता है और उसके दोबारा शुद्ध होने की प्रक्रिया शुरू होती है।
सिदार बताते हैं कि यदि हमारे शौचालयों में फ्लश सिस्टम होता तो शायद यह हम नहीं कर पाते, उल्टे रोज हजारों लीटर पानी व्यर्थ ही गवाँ देते। लेकिन पारम्परिक शौचालयों के कारण ही हम इसमें सफल हो पाये हैं। हम इस पानी को दोबारा तो उपयोग करते ही हैं, साथ ही इससे विद्यालय के छात्र कई वर्षों से सब्जियों की भरपूर पैदावार भी ले रहे हैं।
विद्यालय के बगीचे में बैंगन, टमाटर, पालक, लाल भाजी, धनिया, करेला, लौकी की भरपूर पैदावार होती है। यहाँ पैदा होने वाली सब्जियों का उपयोग विद्यालय के छात्रावास की रसोई में नियमित रूप से किया जा रहा है। सब्जियाँ पहले बाजार से लानी पड़ती थी।
गौर करने लायक बात यह भी है कि अप्रैल-मई के मध्य बस्तर में सूखे जैसे हालात हो जाते हैं। मध्य बस्तर में करीब 28 छोटे-बड़े नदी-नाले हैं। लेकिन गर्मी के मौसम में यहाँ पानी केवल वहीं नजर आता है, जहाँ एनीकट बने हुए हैं। एनीकट में भी पानी केवल एक ही तरफ दिखाई देता है, जिस तरफ से वह बहकर आ रहा होता है।
मध्य बस्तर की तीन प्रमुख नदियाँ अप्रैल शुरू होते ही सूख सी जाती हैं। बस्तर और कोंडागाँव में बहने वाली नदी नारंगी, दूसरी प्रमुख नदी मार्कंडेय भी केशकाल के नजदीक जीवन से संघर्ष करती दिखाई देने लगती है। वहीं इन्द्रावती की हालत भी कुछ ऐसी ही होने लगती है। नदियों में सतही जल की कमी के कारण अधिकांश इलाकों में निस्तार के लिये भी पानी उपलब्ध नहीं रह पाता। नदियों से बुरी हालत नालों की हो जाती है।
गोरियाबहार, रायकोट, रायकेला, पेटफूली जैसे प्रमुख नाले पूरी तरह सूख जाते हैं। इन्द्रावती परियोजना मंडल के अधीक्षण यंत्री पीके वर्मा बताते हैं कि पिछले पाँच सालों से नदी नालों में गर्मियों में सतही जल की कमी देखी जा रही है। मौसम का बदलाव और पर्यावरण परिवर्तन इसकी वजह हो सकता है।
पानी का संकट केवल बस्तर का ही नहीं पूरे छत्तीसगढ़ की परेशानी का सबब है। यही कारण है कि केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने जलक्रान्ति अभियान की शुरुआत की है। इसके तहत प्रदेश में पानी की सबसे ज्यादा कमी वाले 54 गाँवों को चुना गया है। जिसमें बस्तर के 14 गाँव भी शामिल हैं। इसमें सूबे के 27 जिलों के दो-दो गाँव शामिल किये गए हैं।
इन ग्रामों को जलग्राम नाम दिया गया है। ये ऐसे गाँव हैं, जहाँ के रहवासी एक से लेकर कई किलोमीटर दूर जाकर पीने का पानी लाने को मजबूर हैं। इन गाँवों में सरकार योजनाबद्ध तरीके से जल संकट को दूर करने की योजना पर काम करेगी।
लेकिन इन सबके बीच लंजोडा का ऋषि विद्यालय उस जलते हुए दीपक की तरह आलोकित हो रहा है, जिसका प्रकाश हमें यही सिखा रहा है कि पानी का संकट हम सबका ही बनाया हुआ है और हम एक छोटे से प्रयास से ही इस संकट उबर भी सकते हैं। जरूरत है तो बस एक दृढ़ संकल्प की।