नदी जोड़ परियोजना : जबर्दस्त भूल

Submitted by Shivendra on Thu, 01/08/2015 - 16:13
Source
परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004

यदि यह योजना सचमुच आम जन को लाभ पहुंचाने वाली है तो क्यों नहीं उन लोगों और उन राज्यों को इस बहस में शामिल किया जाए, जो जलसंपन्न हैं? क्या आप ऐसे क्षेत्रों के उन विशेषज्ञों और सामान्य जनों के दृष्टिकोणों पर विचार करेंगे, जो अपने क्षेत्रों को तो भली-भांति जानते हैं मगर जिनका दृष्टिकोण आपसे बिल्कुल भिन्न है? क्या आपने तटीय राज्यों एवं वहां के समाज पर पड़ने वाले असर पर विचार किया है?

सुखाड़ से देश को निजात दिलाने के लिए भारत की नदियों का कंठहार पहनाने की प्रधानमंत्री वाजपेयी की इच्छा विश्वसनीय घोषणा की शक्ल लेने लगी है। हाल के दिनों में तो इसे अवश्यंभावी कर्तव्य के रूप में लिया जा रहा है और उनके जल संसाधन मंत्री इसे आरंभ करने और भारतीय उपमहाद्वीप की नदियों को जोड़ने की कालावधि योजना की घोषणा करने लगे हैं। इसके लिए दसियों हजार करोड़ रुपये का खर्च आएगा और तैयार होने में तकरीबन चालीस वर्ष लग सकते हैं।

हम भारतवासियों का मुकदमों के प्रति लगाव, जैसा कि कावेरी मामले पर तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच सौ साल से ज्यादा चले झगड़े से स्पष्ट है, और परियोजना के क्रियान्वयन में होने वाली देरी, भ्रष्टाचार आदि के कारण यह अवधि आसानी से अगले पचास या सौ वर्षों तक बढ़ सकती है। कोई भी यह गारंटी दे सकता है कि हममें से कोई भी तब तक जिंदा नहीं रहेगा।

इंटरलिंकिंग परियोजना को कुछ लोग बहुत अच्छा बता रहे हैं। मगर इसमें कुछ भी नया नहीं है। 1950 के दशक में गारलैंड कैनाल वाली दस्तूर प्लान आई थी, जो लगभग इसी तरह की थी। उस समय जल विज्ञानियों, इंजीनियरों और योजनाकारों ने महसूस किया कि इसमें काफी व्यय होगा और इससे जितनी समस्याओं का समाधान होगा, इससे कहीं अधिक समस्याएं पैदा हो जाएंगी, इससे निश्चय ही देश का भूगोल बदल जाएगा, जिसके कारण कई लघु और दीर्घकालीन प्रभाव पैदा हो जाएंगे।

इसी को ध्यान में रखकर दस्तूर प्लान को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वास्तव में, हर किसी को पर्याप्त पेयजल चाहिए। मगर क्या नदियों को जोड़ देने से यह हो जाएगा? फिर जलसंभर (वाटरशेड) व्यवस्था का क्या होगा? स्थानीय संसाधनों के बेहतर व्यवस्थापन का क्या होगा? वर्षा-जल कृषि का क्या होगा? दरअसल जरूरत ऐसी परियोजनाओं की है, जो जनता और पर्यावरण की हितसाधक हो वरना प्रतिरोधरहित बड़े-बड़े नौकरशाही प्रस्तावों से तो विनाश का मार्ग ही प्रशस्त होगा। आजकल पूरी दुनिया में विशालकाय योजनाओं के स्थान पर छोटी योजनाएं अपनाई जा रही हैं, इसलिए यह संकेन्द्रित महाकाय योजना तो निश्चय ही भयंकर भूल साबित होगी।

यह गारलैंड कैनाल पारिस्थितिकीय असंतुलन को जन्म देगा, जिसका सबसे बड़ा नुकसान गरीब लोगों को उठाना पड़ेगा। इसमें संदेह नहीं कि इससे विकास के अवसर पैदा होंगे, मगर यह विकास होगा भ्रष्टाचार का। जिसमें बड़े पैमाने पर ताकतवर लोग गरीब और हाशिये पर रहने वाले लोगों को परेशान करेंगे।

प्रधानमंत्री जी! यदि यह योजना सचमुच आम जन को लाभ पहुंचाने वाली है तो क्यों नहीं उन लोगों और उन राज्यों को इस बहस में शामिल किया जाए, जो जलसंपन्न हैं? क्या आप ऐसे क्षेत्रों के उन विशेषज्ञों और सामान्य जनों के दृष्टिकोणों पर विचार करेंगे, जो अपने क्षेत्रों को तो भली-भांति जानते हैं मगर जिनका दृष्टिकोण आपसे बिल्कुल भिन्न है? क्या आपने तटीय राज्यों एवं वहां के समाज पर पड़ने वाले असर पर विचार किया है? उन्हें क्या फायदा मिलने वाला है? लाभार्थी राज्यों को पानी के लिए मूल्य चुकाना पड़ेगा या उन्हें घलुए में मिलेगा? उनके बारे में भी कुछ बताइए जो विस्थापित हो जाएंगे या और तरह का नुकसान उठाएंगे।

आजीविका के लिए उन्हें कौन से काम या कौशल सिखाए जाएंगे? क्या किसी ने इन सारी चीजों के बारे में सोचा है?

कृपा करके इतनी बड़ी परियोजना को बगैर बहस-मुबाहिसे और जांच-पड़ताल के अपनाने की अधीरता मत दिखाएं। केवल अपने विशेषज्ञों, मीडिया प्रशस्ति या ऐसी परियोजना के हिमायतियों पर ही भरोसा न करें। स्थानीय निवासियों के प्रति संवेदनशील और छोटे फंड की बदौलत भी एक छोट-सा हस्तेक्षेप लोगों की जिंदगी को बदलकर रख सकता है। बड़ी परियोजनाओं में अब भारतीयों का भरोसा नहीं रहा। उन्हें वैसी चीज चाहिए, जिसमें बड़ी परियोजनाओं या फंड का वादा नहीं हो, मगर जो काम करे।