जोड़ना नदियों को

Submitted by Shivendra on Mon, 12/29/2014 - 15:28
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परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004
.नदियों को जोड़ने की अवधारणा यानी इंटरलिंकिंग आमजन एवं नीति-निर्माताओं के एक अच्छे-खासे हिस्से को अपील करती रही है। तीन दशक से ज्यादा हुए, जब केएल राव ने गंगा एवं कावेरी को जोड़ने का सुझाव दिया था। इस सुझाव का हामी दस्तूर प्लान का गार्डेन कैनाल बना, जिसमें देश की सभी प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात कही गई थी। दोनों ही सुझावों ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। मगर उनकी व्यवहार्यता, औचित्य और उपयोगिता को लेकर उठ खड़े हुए व्यापक विवाद के कारण यह मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

उन्नीस सौ नब्बे के दशक में सरकार ने नदियों को आपस में जोड़ने की संभाव्यता के साथ-साथ जल संसाधन विकास की रणनीति की जांच के निमित्त एक आयोग का गठन किया।आमजन के लिए अनुपलब्ध इसकी रिपोर्ट में इसके समर्थन की बात के साथ इस सतर्कता पर जोर डाला गया है कि नदियों को जोड़कर जलाधिक्य वाले क्षेत्र से जलाभाव वाले क्षेत्र में अतिरिक्त जल को भेजने से पूर्व सभी संबंधित पहलुओं पर भली-भांति विचार कर लिया जाए।

इसी बीच, एक जनहित याचिका के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमुख नदियों को जोड़ने की योजना तैयार कर उसे 2015 तक क्रियान्वित करने का केन्द्र को निर्देश दे डाला। इसके परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री ने न्यायालय के निर्देश के अनुपालन के केन्द्र सरकार के फैसले की घोषणा करते हुए 2015 तक इस योजना का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए एक कार्यबल की नियुक्ति की है। श्री सुरेश प्रभु के नेतृत्व में यह कार्यबल सक्रिय भी हो गया है।

इंटरलिंकिंग की बात आमजन को पसंद इस तथ्य को लेकर है कि हमारी नदियों का काफी पानी समुद्र में चला जाता है और उसे यदि रोक लिया गया तो पानी की प्रचुरता वाली नदियों से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में पानी पहुंचाया जा सकेगा, जिससे देश के हरेक भाग में हर किसी को समुचित जलापूर्ति हो पाएगी। दूसरी तरफ, इसे राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने और देश की प्राकृतिक जल संपदा के न्यायसंगत उपभाग को बढ़ावा देने वाली योजना के रूप में भी देखा जा रहा है। दोनों धारणाएं अपनी जगह पर महत्वपूर्ण हैं।

यह एक विचारणीय सवाल है कि इंटरलिंकिंग से राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलेगी या विवाद और तनाव बढ़ेंगे। इसके अलावा, इस योजना के क्रियान्वयन से पहले उन सवालों पर भी संजीदगी से विचार करना जरूरी है, जो इसकी व्यवहार्यता, औचित्य और उपयोगिता को लेकर उठते रहे हैं। यह धारणा कि हर किसी तक समुचित और सुरक्षित जलापूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए नदियों को आपस में जोड़ना जरूरी है, निहायत ही अनुचित है। हाल के आंकड़े बताते हैं कि नहरों, तालाबों, कुओं और नलकूपों से एकत्र पानी का महज पांच प्रतिशत हिस्सा ही घरेलू उपयोग में लाया जाता है।

निस्संदेह जरूरतें दिनानुदिन बढ़ रही हैं, मगर इसके अन्य दूसरे उपयोगों की तुलना में अभी भी यह कम ही रहेगी। इस समस्या के समाधान के लिए इंटरलिंकिंग शायद ही उचित साबित हो। दूसरे कारणों से यदि यह उचित भी हो, तो भी केन्द्रीयकृत वितरण नेटवर्क में बगैर व्यापक पूंजी निवेश के हर दरवाजे तक पानी की आपूर्ति कर पाना असंभव ही है। वर्षा के जल को विकेन्द्रित स्तर पर पारंपरिक तरीके से संचित करने की तकनीक का परिष्कार कर घरेलू जरूरत को कम कीमत पर अधिक प्रभावशाली ढंग से पूरा किया जा सकता है।

संचित जल के इस्तेमाल का सबसे बड़ा क्षेत्र कृषि है। इस समय नहरों, कुओं और नलकूपों के जल का पचासी प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सिंचाई के काम आता है। यह मांग अभी बढ़ेगी और उपलब्ध जल का सबसे बड़ा हिस्सा इसी के काम आएगा। अपव्यय को कम कर एवं बेहतर जल प्रबंधन के के जरिये मौजूदा सिंचाई प्रणाली की क्षमता में सुधार की काफी गुंजाइश है। मगर इसके लिए जरूरी वस्तुगत और संस्थागत सुधार उपायों की ओर लोगों का पर्याप्त ध्यान नहीं जा रहा है।

फसलें उगाने और समुचित पैदावार हासिल करने के लिए सिंचाई की जरूरत तब पड़ती है, जब बरसात पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाती। खरीफ की पैदावार के लिए तो देश के एक बड़े हिस्से में बरसात का पानी कम पड़ जाता है। बरसात के दिनों में अगर सूखे का दौर चलता है तो अपर्याप्त मृदा नमी को बढ़ाने के लिए अनिवार्य रूप से सिंचाई की जरूरत पड़ती है। वास्तविकता यह है कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के कुछ हिस्सों और तमिलनाडु में खरीफ फसल के दौरान सिंचाई की जरूरत पड़ती है।

इससे भी बड़ी वास्तविकता यह है कि देश के उत्तर-पश्चिमी भाग सहित प्रायः हर कहीं नवंबर और जून के बीच सिंचाई की आवश्यकता पड़ती ही है। अब तक ऐसे असंतुलन से मुकाबला करने के लिए अतिरिक्त वर्षाजल का भंडारण और भूजल के दोहन का सहारा लिया जाता रहा है। तमिलनाडु जैसे कुछ क्षेत्रों में सतही प्रवाह के इस्तेमाल की संभावना तलाशी जा चुकी है जबकि अन्य कई क्षेत्रों में भंडारण की गुंजाइश सीमित है। भूजल संसाधन पर वैसे भी अत्यंत दबाव है और विस्तार की संभावना अत्यल्प है। अनेक क्षेत्रों में समस्या इस विस्तार को रोकने और दोहन की दर को सीमित करने की है। सचमुच इस संदर्भ में इंटरलिंकिंग को एक समाधान के रूप में देखा जा रहा है।

इंटरलिंकिंग पर यदि गंभीरता से विचार करें तो कई सारे सवाल सिर उठाते नजर आते हैं। पहला, यह इस अवधारणा पर टिकी हुई है कि कुछ थालों (बेसिन) में बड़ी मात्रा में अतिरिक्त जल उपलब्ध है जिसे भौतिक अभियंत्रण के जरिये स्थानांतरित किया जा सकता है और आर्थिक रूप से बगैर किसी प्रतिकूल प्रभाव के इसे सम्पन्न भी किया जा सकता है।

मगर किस आधार पर और कौन यह तय करेगा कि किसी थाले में अतिरिक्त जल मौजूद है और उसकी क्या मात्रा है? बाढ़ के समय प्रवाह की मात्रा से अतिरिक्त जल को लेकर राय निर्धारित करना भ्रामक हो सकता है। साथ ही, बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों के बारे में यह सोच लेना कि ये जलाधिक्य वाले क्षेत्र हैं, अयुक्तिसंगत है। कई तो ऐसे क्षेत्र होंगे जहां मानसून के दिनों में तो बाढ़ की स्थिति होती है जबकि शुष्क समय में पानी की मात्रा अपर्याप्त होती है और सिंचाई की सहूलियत नहीं हो पाती है। ‘राष्ट्रीय जल विकास एजेन्सी’ जैसी केन्द्रीय एजेन्सियों के द्वारा किए जाने वाले अतिरिक्त जल के आकलन को लेकर राज्यों में गहरा मतभेद है।

इससे भी अधिक परेशानी इस तथ्य को लेकर पैदा होती है कि प्रायः सभी नदियों में दक्षिण-पश्चिमी मानूसन के दौरान जल का प्रवाह पाया जाता है। सरकारी स्रोतों के आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण भारत की नदियों में 90 प्रतिशत प्रवाह मई और नवंबर के मध्य देखा जाता है। सिंधु-गांगेय और ब्रह्मपुत्र नदी थालों के बारे में आंकड़े आमजन के लिए अनुपलब्ध हैं। हमेशा प्रवाहमान इन नदियों में इन महीनों में प्रवाह की मात्रा थोड़ी कम होती है। उदाहरण के लिए, कोसी के कुल वार्षिक प्रवाह का 80 प्रतिशत मई और नवंबर माह में होता है और उसमें भी जून और अक्तूबर के बीच लगभग तीन-चौथाई।

इंटरलिंकिंग की बात आमजन को पसंद इस तथ्य को लेकर है कि हमारी नदियों का काफी पानी समुद्र में चला जाता है और उसे यदि रोक लिया गया तो पानी की प्रचुरता वाली नदियों से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में पानी पहुंचाया जा सकेगा, जिससे देश के हरेक भाग में हर किसी को समुचित जलापूर्ति हो पाएगी। लेकिन हाल के आंकड़े बताते हैं कि नहरों, तालाबों, कुओं और नलकूपों से एकत्र पानी का महज पांच प्रतिशत हिस्सा ही घरेलू उपयोग में लाया जाता है।

मानूसन ही वह समय होता है जब फसल की वृद्धि के लिए समुचित पानी बरसात के रूप में उपलब्ध रहता है। वास्तव में, कुछ क्षेत्रों में, जैसे राजस्थान व गुजरात के कुछ क्षेत्र और दक्कन में खरीफ के समय भी वर्षा बहुत कम हो पाती है जिसके चलते उत्पादक कृषि प्रभावित होती है। जबकि ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां वर्षा की अधिकता के कारण फसल प्रणाली में बदलाव की जरूरत पड़ जाती है। न्यून वर्षा वाले ऐसे क्षेत्र अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों से इतनी दूरी पर होते हैं कि परिवहन की कठिनाई विचारणीय हो जाती है।

फिर, चूंकि जलाधिक्य बरसात के दिनों में होता है और जल की तीव्र जरूरत शुष्क दिनों में होती है, इसलिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जल की ढुलाई भर से बात नहीं बनने वाली है। बड़े पैमाने पर जल का भंडारण काफी जरूरी है। पानी की कितनी मात्रा का भंडारण हो पाएगा, कहां-कहां भंडारण किए जा सकेंगे और पर्यावरण व लोगों के विस्थापन पर इसका कैसा असर होगा, ये सारी जानकारियां आम आदमी के सरोकार की हैं।

हम आमजन के पास मीडिया में प्रकाशित कुछ नक्शे वगैरह हैं, जिनमें इस बात के संकेत हैं कि किन नदियों से किन-किन स्थानों पर अतिरिक्त जल लिया जाएगा और उसे फिर किन-किन स्थानों पर किन नदियों में डाला जाएगा। माना जाता है कि ये नक्शे हाशिम रिपोर्ट से लिए गए हैं। ऐसी जानकारी नहीं है कि कितना पानी किन लिंक कैनालों से स्थानांतरित किया जाएगा, कितने बड़े क्षेत्र को इससे लाभ होगा या किस वितरण प्रणाली के द्वारा इस क्षेत्र को पानी मिलेगा। मीडिया में प्रकाशित अधूरी जानकारी और सरकार की घोषणाओं के बावजूद काफी कुछ अस्पष्ट रह जाता है।

अगर इंटरलिंकिंग की योजना के बारे में इन जानकारियों को आधार बनाकर विचार किया जाए तो यह तथ्य सामने आएगा कि अब तक जो अतिरिक्त जल गंगा, ब्रह्मपुत्र और महानदी के रास्ते बंगाल की खाड़ी में बह जाता रहा है वह आगे से कृष्णा, गोदावरी, पेन्नार या अन्य किसी नदी के रास्ते समुद्र में बहता रहेगा।

नदियों की इंटरलिंकिंग के पैरोकार इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि इस योजना के क्या-क्या पर्यावरणीय और मानवीय दुष्प्रभाव होंगे। उनका मानना है कि ऐसी आशंकाओं को खाहमखाह अतिरंजित किया जा रहा है। वे यह भी मानते हैं कि ‘विकास’ की कोई कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी और इन्हें इस योजना की राह का रोड़ा नहीं बनाया जाना चाहिए। मगर कोई असाधारण रूप से संवेदनाशून्य आदमी ही जल संसाधन योजना द्वारा विगत में की गई ऐसी भूलों को नजरअंदाज कर पाएगा जो विस्थापितों से किए गए बेदर्द बर्ताव, जल के गलत उपयोग से भूमि में आए उर्वरता ह्रास, भूजल के स्तर में गिरावट और प्रदूषित जल स्रोतों के माध्यम से हमारे सामने हैं। इंदिरा गांधी कैनाल का अनुभव इसका कटु उदाहरण है।

इंटरलिंकिग की योजना की हो रही तैयारी को लेकर भी संशय की पर्याप्त गुंजाइश है। भाखरा नांगल और सरदार सरोवर परियोजना की जानकारी रखने वाले यह जानते हैं कि इसकी डिजाइन की शुरुआत के लिए विस्तृत अन्वेषण अैर स्थल निरीक्षण तथा वास्तविक डिजाइन तैयार करते समय अध्ययन-विश्लेषण के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की मदद, आर्थिक व्यय और वर्षों का समय जरूरी होते हैं। फिर इंटरलिंकिंग जैसी मेगा परियोजना की जटिलता को देखते हुए तो पहले की तुलना में काफी बड़ी तैयारी अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त, कई सिंचाई एवं जल संसाधन परियोजनाओं के आरंभिक अन्वेषण और सर्वेक्षणों के स्वरूप में खामियां रह जाती हैं। नाकाफी पड़ताल, कार्यक्षेत्र एवं डिजाइन में परिवर्तन, व्यय में व्यापक बढ़ोत्तरी और परियोजना के पूर्ण होने में बेहिसाब देरी जैसे कई लक्षण हाल की सिंचाई परियोजनओं के साथ जुड़ रहे हैं।

ऐसी परिस्थिति में यह उम्मीद करना कि इंटरलिंकिंग की योजना की विस्तृत संपरीक्षा की जा चुकी है, ठीक नहीं हैं, आसान नहीं है। फौरी तौर पर इस पर कार्रवाई की तो बात भी अभी दूर है। इसलिए आशंका को निर्मूल केवल इस योजना से संबंधित अध्ययनों, विश्लेषणों और रिपोर्टों के सार्वजनिकीकरण के द्वारा किया जा सकता है, ताकि आमजन इसकी भली-भांति जांच कर सके।

इस योजना और इससे जुड़े पहलुओं पर क्या संभावित खर्च आएगा, इस बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कहा जा रहा है कि 5600 अरब रुपये व्यय होंगे, मगर विस्तृत ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। यह व्यय दसवीं योजना के तहत चलने वाली जल संसाधन विकास परियोजनाओं पर होने वाले व्यय की तुलना में 50 गुना ज्यादा है।

एक ऐसे समय में, जब संसाधन का भारी अभाव चल रहा हो, यह सवाल पूरी तरह प्रासंगिक है कि जो परियोजनाएं चल रही हैं उन्हें शीघ्र पूरा करने के लिए प्राथमिकता में परिवर्तन किया जाए या उन मेगा परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जाए जो खुद सवालों के घेरे में आ चुके हैं। इस विषय पर गंभीरता से बहस होनी चाहिए।

इंटरलिंकिंग के लिए फंड की व्यवस्था कहां से होगी, इस सवाल को टाल दिया जाता है। इसके लिए पैसे निजी स्रोतों से आ जाएंगे, ऐसा सोचना तो नासमझी की हद होगी। जो सरकार ऋण के भारी बोझ तले दबी हो, जिसकी राजकोषीय स्थिति निरंतर बिगड़ रही हो, वह भला कैसे उम्मीद लगाएगी कि वित्तीय संस्थान वैसी परियोजना पर अपने पैसे फेकेंगे जिसकी आर्थिक उपयोगिता के बारे में सही आकलन भी नहीं हो गया है।

कई ऐसे महत्वपूर्ण संस्थागत और कानूनी मसले हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलगाना होगा। फिलहाल अंतर-बेसिन स्थानांतरण की युक्ति का कोई प्रावधान नहीं है। केन्द्र को इस मसले पर निर्णय लेने की कोई वैधानिक अधिकारिता नहीं है और न ही कोई राज्य केन्द्र को ऐसी आधिकारिता दिए जाने का पक्षधर है। ऐसी चर्चा है कि राज्यों के बीच परस्पर मंत्रणा और सर्वसम्मति से ऐसे मसलों पर फैसले लिए जाएं। लेकिन इसे कोई गंभीरता से लेगा इस बारे में संदेह है, क्योंकि एक ही बेसिन के अंतर्गत आने वाले राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर फिलहाल जो कानून एवं प्रक्रिया उपलब्ध है उसके बारे में हमारे अनुभव अच्छे नहीं हैं।

अब तक एक ही नदी बेसिन के अंतर्गत आने वाले तटवर्ती राज्यों के अधीन आपसी बातचीत से तय होने वाली वैधानिक सहमतियों, संधियों और न्यायाधिकरण जैसे अदालती एवं न्यायिक कल्प से हासिल युक्तियों को आधार बनाया जाता रहा है। अपने अनुभव से हम भली-भांति जानते हैं कि यह प्रक्रिया कितनी कलहपूर्ण, विलंबकारी और कठिन है।

मीडिया या आमजन के स्तर पर जो चर्चा इधर चल रही है उसमें इन बातों पर शायद ही फोकस किया जाता है और इसके चलते आशंकाओं का समाधान नहीं हो पाता। इस मामले से संबंधित तथ्यों और विश्लेषणों पर आधारित एक गंभीर खुली बहस की इस समय जरूरत है। दरअसल, हाशिम रिपोर्ट के कुछ नक्शे की बात को अगर जाने भी दें, तो इस परियोजना की डिजाइन, पर्यावरण पर पड़ने वाला असर, विस्थापन और संभावित व्यय एवं इससे होने वाले लाभ आदि पहलुओं पर आमजन को कुछ भी जानकारी नहीं है।

अब तक तो पंचाटों को केन्द्र और राज्यों पर समान रूप से बाध्यकारी स्वीकार किया जाता रहा है, मगर इन पंचाटों के क्रियान्वयन से कई ऐसे अंतरराज्यीय संघर्ष पैदा हुए हैं, जिन्हें केन्द्र अपनी सारी कानूनी और वित्तीय शक्तियों के बावजूद रोक पाने में विफल रहा है। ऐसे विवादों से मुकदमेबाजी बढ़ती है। न्यायालय ऐसे मुकदमों के प्रति सचेत रहते हैं और खुद कोई फैसला देने से पहले इस बात का सुझाव देते हैं कि आपसी बहस-मुबाहिसे, पंच-निर्णय, केन्द्र की मध्यस्थता या गैर अदालती युक्तियों से इन्हें सुलझा लिया जाए।

न्यायालय की यह सावधानी बुद्धिमतापूर्ण एवं समझदारी भरी है, क्योंकि अक्सर ऐसे मामले पेचीदे होते हैं, साथ ही, वे इस तथ्य से वाकिफ हैं कि उनके पास फैसलों को लागू कराने का कोई साधन नहीं है और सरकारों भी का उन फैसलों को लेकर मिला-जुला रवैया होता है। कोई भी फैसला या पंचाट सभी पक्षों को संतुष्ट नहीं कर सकता। वास्तव में, इधर राज्य इन फैसलों को अपना यहां लागू करने में इस आधार पर लाचारी व्यक्त करते हैं कि ये पक्षपातपूर्ण होने के कारण कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा करने वाले हैं। जल के बंटवारे में संबंधित अपने यहां के कानून को नजरअंदाज करने वाले या उनके उल्लंघन की अनदेखी करने वाले राज्यों के बढ़ते उदाहरण परेशानी पैदा करने वाले हैं।

इंटरलिंकिंग की परियोजना का मूल्यांकन करते समय ऐसे प्रासंगिक और आधारभूत सवालों पर विचार करना होगा और संतोषप्रद उत्तर नहीं मिलने की स्थिति में इस परियोजना को लागू करने के निर्णय की आलोचना अनुचित नहीं मानी जाएगी। मीडिया या आमजन के स्तर पर जो चर्चा इधर चल रही है उसमें इन बातों पर शायद ही फोकस किया जाता है और इसके चलते आशंकाओं का समाधान नहीं हो पाता। इस मामले से संबंधित तथ्यों और विश्लेषणों पर आधारित एक गंभीर खुली बहस की इस समय जरूरत है। दरअसल, हाशिम रिपोर्ट के कुछ नक्शे की बात को अगर जाने भी दें, तो इस परियोजना की डिजाइन, पर्यावरण पर पड़ने वाला असर, विस्थापन और संभावित व्यय एवं इससे होने वाले लाभ आदि पहलुओं पर आमजन को कुछ भी जानकारी नहीं है।

कथित तौर पर सशुक्ल उपलब्ध आयोग की मुख्य रिपोर्ट न तो संबंधित मंत्रालय में और न ही प्रकाशन विभाग से उपलब्ध हो पाई। इस रिपोर्ट के एनेक्सर में इन सबके बारे में विस्तृत जानकारी होने की बात कही जा रही है, मगर इसे गोपनीय माना गया है। एक समय था जब सरकार के सिंचाई प्रतिष्ठानों की राय बगैर किसी शंका के स्वीकार की जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

लोगों की जानकारी काफी बढ़ी है और ऐसा सोचा जाने लगा है कि बांध या कैनाल बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण जल संसाधन का विकास है। यह भी माना जाने लगा है कि जांच और मूल्यांकन की प्रक्रिया संकुचित, ढीली-ढाली और ज्यादा गोपनीय है, साथ ही, जल संसाधन प्रबंधन के बारे में जानकारों की संख्या सरकार से बाहर भी अच्छी-खासी है। इंजीनियरिंग प्रतिष्ठानों के द्वारा किए गए मूल्यांकन को लेकर भी चुनौतियां आ रही हैं।

‘नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान (नदियों को जोड़ने से संबंधित) वैज्ञानिक एवं पेशेवर संगठन द्वारा तैयार किया गया है, जिसे वैचारिक एवं तकनीकी तौर पर जल संसाधन मंत्रालय की तकनीकी परामर्शदातृ समिति, केन्द्रीय जल आयोग और समेकित जल संसाधन विकास योजना का अनुमोदन प्राप्त है’ तथा कि ‘...विश्लेषणों का इंजीनियरों, समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों द्वारा अनुसमर्थन किया गया है‘ - जैसे जुमलों को न तो कोई गंभीरता से लेता है और न ही ऐसे दावों पर भरोसा करता है। अगर यह बात सही है तो फिर ऐसे विश्लेषणों और मूल्यांकनों के ब्योरों का आमजन के सामने रखकर बहस आमंत्रित करने की बजाय क्यों इन्हें अत्यंत गोपनीय बनाकर रखा जाना चाहिए?

नदियों की इंटरलिंकिंग मुहिम के मुखिया सुरेश प्रभु कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि सभी संबंधित रिपोर्टों और कागजात को आमजन को उपलब्ध करा दें ताकि जो दांव पर चढ़ने वाले हैं उन्हें अपनी चिन्ताओं को व्यक्त करने का अवसर मिल सके।

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