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2015-16 जल संरक्षण वर्ष होगा। इस वर्ष के दौरान “हमारा जिला : हमारा जल’’ के नारे को लेकर जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा सरंक्षण मंत्रालय, हर जिले में पहुंचेगा। भारत के प्रत्येक जिले में पानी की दृष्टि से एक संकटग्रस्त गांव को ‘जलग्राम’ के रूप में चुनकर जल संकट से मुक्त किया जाएगा। भारत जल सप्ताह के सालाना आयोजन की अगली तारीखें 13-17 जनवरी, 2015 तय की गईं हैं।
इन तारीखों तक मंत्रालय, जलग्राम की सूची तैयार कर लेगा। प्रत्येक जिले की जल संरचनाओं को चिन्हित करने का काम भी इन तारीखों तक पूरा हो जाएगा। मंत्रालय चाहता है कि भारत का कोई प्रखंड ऐसा न छूट जाए, जिसके बारे में यह ज्ञात न हो कि उसमें कितनी जल संरचना, कहां-कहां और किस स्थिति में हैं। इस समूची तैयारी के लिए जल संसाधन मंत्रालय के अधिकारी, प्रधानमंत्री कार्यालय की रफ्तार में काम कर रहे हैं।
भारत की वर्तमान केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती जी ने ‘जल मंथन’ कार्यक्रम के तीसरे दिन ये घोषणाएं की। उमा जी के मुंह से उक्त घोषणाओं को सुनना, मेरे लिए एक उम्मीद जगाने वाला पल था। उमा जी ने कहा कि जैसे अफीम की लत लग जाती है, वैसे ही समाज को भी लत लग गई है कि हर काम सरकार करेगी। हालांकि यह लत लगाने के लिए न सिर्फ स्वयं राजनेता, बल्कि कई आर्थिक, सामाजिक और नैतिक कारण जिम्मेदार हैं; बावजूद इसके मुझे उनके इस बयान से आज भी कोई गुरेज नहीं है। किंतु उमा जी ने जिन गैर सरकारी संगठनों से ‘नदी जोड़ परियोजना’ पर न तो सहमति ली और न ही ‘जल मंथन’ के दूसरे दिन आयोजित चर्चा में उन्हें शामिल करना उचित समझा, उनसे अपेक्षा ऐसी, गोया गैर सरकारी संगठन ‘नदी जोड़ परियोजना’ की पी आर एजेंसी हों। उमा जी ने मंथन के तीसरे दिन बुलाए गैर सरकारी संगठन प्रतिभागियों से कहा कि नदी जोड़ परियोजना के पक्ष में माहौल। यह बयान न सिर्फ हास्यास्पद है, बल्कि निराश करने वाला भी।
‘जल मंथन’ का दूसरा दिन नदी जोड़ पर चर्चा का दिन था। इस दौरान लेखक-डॉ. भरत झुनझुनवाला और कानून विशेषज्ञ-विदेह उपाध्याय अधिकारिक तौर पर चर्चा का हिस्सा जरूर थे, किंतु टाटा एनर्जी एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ. आर. के. पचौरी को छोड़कर, कोई गैर सरकारी संगठन प्रतिनिधि नदी जोड़ विषय पर चर्चा के पैनल में नहीं था।
सच पूछें, तो नदी जोड़ पर असल चर्चा, सिर्फ और सिर्फ केंद्र और राज्यों के संबंधित अधिकारियों और मंत्रियों के बीच ही हुई। चर्चा का असल उद्देश्य भी नदी जोड़ परियोजनाओं को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों में सहमति बनाना ही था। बकौल उमा जी, राज्यों द्वारा कुछ आंशकाएं जताई गईं हैं। उनके निराकरण तथा कुछ सावधानियों के मंत्रालयी आश्वासन के बाद दो-एक राज्यों को छोड़कर सभी राज्य नदी जोड़ने हेतु सहमत हैं। हो सकता है कि यह सच हो। किंतु प्रश्न तो यह है कि वे क्या किसान व ग्रामीण सहमत हैं, जिनके खेतों को सींचने और पेयजल मुहैया कराने की ओट में इस कृत्य को अंजाम देने की कोशिश की जा रही है?
उमा जी ने प्रधानमंत्री के उस बयान का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि विकास के कई पहलुओं की अनदेखी की गई है। यह सच है। विकास के पहलुओं की ही नहीं, विकास की असल परिभाषा और समग्र सोच की भी अनदेखी की गई है। किंतु सबसे ज्यादा अनदेखी उसकी राय की हुई है, जिसके लिए विकास की तमाम सरकारी योजना-परियोजनाएं बनाई जाती हैं।
नदियां किसी एक धर्म या वर्ग का विषय नहीं है। नदियों के साथ मर्यादित व्यवहार का दायित्व प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। अतः एक मंत्री के नाते उमा जी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वह मुनाफाखोर निवेशकों के पक्ष में कार्य करेंगी अथवा मातृ सरीखी नदियों और देव सरीखे के पक्ष में? वे नदी के किनारे निवेश बढ़ाने का काम करना चाहती हैं अथवा नदी में प्रवाह बढ़ाने का कार्य? वह पानी का बाजार बढ़ाना चाहती हैं अथवा भू-भंडार? इन सवालों का जवाब तलाशने में यदि देरी हुई अथवा अनैतिकता बरती गई, तो तय मानिए कि उमा जी, पानी का मंत्री बनने के जिस अवसर को ईश्वर का वरदान कह रही हैं, भविष्य उसे भारत की नदियों के लिए अभिशाप मानकर याद करेगा।नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाने से पहले क्या भाजपानीत इस सरकार को उन किसानों से जाकर पूछना नहीं चाहिए कि वे इस परियोजना के पक्ष में हैं अथवा नहीं? क्या यह जानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि भारतीय कृषि खुद नहरी सिंचाई के पक्ष में है अथवा भूजल सिंचाई के?
भारत, व्यापक भू-सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। यहां हर इलाके में सिंचाई और पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु एक जैसी तकनीक अथवा माध्यम अनुकूल नहीं कहे जा सकते। ऐसे देश में हर इलाके के किसान और खेती के जवाब भिन्न हो सकते हैं। जन सहमति बनाए बगैर नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाना, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तंत्र द्वारा लोक की अनदेखी नहीं, तो और क्या है? उस पर विरोधाभास यह कि उमा जी ने उन प्रयासों की तारीफ की, जिनसे सूखी नदियां पानीदार हुईं हैं।
गौरतलब है कि उमा जी ने उत्तराखंड के जगतसिंह जंगली, सच्चिदानंद भारती और गुजरात के मनसुख भाई पटेल के काम को सराहा। राजस्थान की सूखी नदी के सदानीरा होने का भी एक पंक्ति में जिक्र किया। मनसुख भाई पटेल का काम, खारे पानी के इलाके में मीठे पानी के इंतजाम की स्वयंसेवी व स्वावलंबी काम की दास्तान है। जगतसिंह ‘जंगली’ ने एक छोटे पहाड़ को अकेले जुनून के दम पर हरा-भरा कर दिखाया है।
जंगल लगाने के जुनून ने ही उन्हें तारीफ और ‘जंगली’ का उपनाम दिया है। पौड़ी-गढवाल के उफरैखाल इलाके में सच्चिदानंद भारती जी का काम गवाह है कि यदि समाज चाहे तो, वह अपने पानी का इंतजाम खुद कर सकता है। यह प्रयास इस बात का भी गवाह है कि छोटी-छोटी जलसंचनाओं का संजाल, सूख गई जो नदी को जिंदा कर सकता है। पंजाब में बाबा बलबीर सिंह सींचवाल द्वारा कालीबेई नदी की प्रदूषण मुक्ति का प्रयास, कारसेवा के करिश्मे को सिद्ध करता है। राजस्थान के अलवर, जयपुर और करौली जिले में तरुण भारत संघ के साथ मिलकर ग्रामीणों द्वारा किए गए संगठित प्रयास, सात छोटी-छोटी नदियों के सदानीरा बनने की कहानी कहते हैं।
एक ओर स्थानीय प्रयास से नदियों के पुनर्जीवन के प्रयासों की तारीफ करना; यह मानना कि जल संरक्षण के स्थानीय प्रयासों से देश के कम वर्षा वाले भूभाग में भी नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, वहीं कम पानी की उपलब्धता वाले इलाके में विकल्प के रूप में दूसरे इलाके की नदियों को खींचकर ले आने के विध्वंसक काम को आगे बढ़ाना? किसी ने इसे दोमुंही बात कहा। मैं, इसे उमा जी के बयान और सोच का विरोधाभास मानता हूं। यह पानी के बाजार और निवेशकों का दबाव भी हो सकता है।
सैद्धांतिक प्रश्न यह है कि यदि अत्यंत काम में जल संरक्षण के छोटे-छोटे काम करके नदियों को पानीदार बनाना संभव है; उमा जी को ये प्रयास प्रेरक और दोहराए जाने लायक लगते हैं, तो फिर नदियों को जोड़ने की जरूरत ही कहां है? पिछले एक दशक के दौरान कई प्रमाणिक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है, नदी जोड़ परियोजना, बड़े पैमाने पर कर्ज और भौगोलिक बिगाड़ लाने वाली साबित होगी।
नदी जोड़ के व्यावहारिक अनुभवों को देखते हुए ही दुनिया के कई देशों ने इससे तौबा की है। भारत सरकार एक भी ऐसा अध्ययन नहीं पेश कर सकी है, जो यह कहता हो कि ‘नदी जोड़ परियोजना,’ लाभ की तुलना में, कम नुकसानदायक सिद्ध होगी। हकीकत यह है कि यह परियोजना लाभ की तुलना में कई गुना ज्यादा नुकसान करेगी’ ऐसा नुकसान, जिसकी भरपाई कई पीढ़ियां नहीं कर सकेंगी। ऐसी खतरनाक परियोजना को लाने की जिद्द क्यों? इस प्रश्न का उत्तर अपने आप में कई सवाल समेटे है और सरकार द्वारा अब तक आयोजित ‘जल मंथन’ और ’गंगा मंथन’ भी।
‘जल मंथन’ के दौरान उमा जी ने कहा - “जो संस्तुतियां आप देंगे, मंत्रालय भारत जल सप्ताह-2015 से उन पर अमल शुरू कर देगा। गंगा मंथन के दौरान भी नदी जोड़, बांध और बैराजों को लेकर नीति तय करने की मांग उठी थी। इलाहाबाद से हल्दिया तक जल परिवहन के लिए गंगा में प्रस्तावित बैराजों को लेकर स्वयं बिहार के गैर सरकारी संगठनों और राज्य सरकार के मुख्यमंत्री ने सरकार को अलग आगाह किया है।
‘जल मंथन’ के दौरान नदी पुनर्जीवन से जुड़े समूह की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए आशीष गौतम ने स्पष्ट संकेत दिया कि जल प्रवाहों को मर्जी मुताबिक ढोकर ले जाना भारतीय संस्कृति नहीं है। क्या भागीदारों की ऐसी राय, मंत्रालय मानेगा अथवा मंत्रालय जिन संस्तुतियों को अपने अनुकूल समझेगा, उन्हें ही दर्ज करेगा और मानेगा?
उमा जी एक हिंदू साध्वी भी हैं और भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की मंत्री भी। दोनों ही जिम्मेदारियां उन्हें नदियों के साथ अमर्यादित व्यवहार की अनुमति नहीं देती। मुझे ताज्जुब है कि उन्हें कैसे याद नहीं कि हिंदू संस्कृति के मुताबिक, नदियों को अप्राकृतिक तौर पर तोड़ना, जोड़ना, मोड़ना, बांधना और रोकना धर्म सम्मत नहीं है? वे कैसे भूल गई हैं कि मनुस्मृति में नदी के बहाव को मोड़ने वाले तथा रोकने वाले का श्राद्ध आदि कर्म से त्याज्य बताकर दंड देने का प्रावधान है।
यदि उमा जी के मंत्रित्व काल में नदियों के साथ उक्त में से एक भी दुर्व्यवहार होता है, तो उन्हे हिंदू धर्म की वाहिका कहलाने का हक तो कतई नहीं रहेगा। ऐसे में क्या उक्त दंड का प्रावधान स्वयं उमा जी पर भी लागू नहीं होना चाहिए? हिंदू धर्मसत्ता के शीर्ष पर आसीन माननीय शंकराचार्य विचार करें।
हालांकि, नदियां किसी एक धर्म या वर्ग का विषय नहीं है। नदियों के साथ मर्यादित व्यवहार का दायित्व प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। अतः एक मंत्री के नाते उमा जी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वह मुनाफाखोर निवेशकों के पक्ष में कार्य करेंगी अथवा मातृ सरीखी नदियों और देव सरीखे के पक्ष में? वे नदी के किनारे निवेश बढ़ाने का काम करना चाहती हैं अथवा नदी में प्रवाह बढ़ाने का कार्य? वह पानी का बाजार बढ़ाना चाहती हैं अथवा भू-भंडार?
इन सवालों का जवाब तलाशने में यदि देरी हुई अथवा अनैतिकता बरती गई, तो तय मानिए कि उमा जी, पानी का मंत्री बनने के जिस अवसर को ईश्वर का वरदान कह रही हैं, भविष्य उसे भारत की नदियों के लिए अभिशाप मानकर याद करेगा। मुनाफाखोरी आधारित कामों के आगे बढ़ाने के चक्कर में ‘जलग्राम’ जैसे अच्छे विचारों और कार्यों की कीर्ति भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
इन तारीखों तक मंत्रालय, जलग्राम की सूची तैयार कर लेगा। प्रत्येक जिले की जल संरचनाओं को चिन्हित करने का काम भी इन तारीखों तक पूरा हो जाएगा। मंत्रालय चाहता है कि भारत का कोई प्रखंड ऐसा न छूट जाए, जिसके बारे में यह ज्ञात न हो कि उसमें कितनी जल संरचना, कहां-कहां और किस स्थिति में हैं। इस समूची तैयारी के लिए जल संसाधन मंत्रालय के अधिकारी, प्रधानमंत्री कार्यालय की रफ्तार में काम कर रहे हैं।
नदी जोड़: न चर्चा, न सहमति, उम्मीदें लोक सहयोग की
भारत की वर्तमान केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती जी ने ‘जल मंथन’ कार्यक्रम के तीसरे दिन ये घोषणाएं की। उमा जी के मुंह से उक्त घोषणाओं को सुनना, मेरे लिए एक उम्मीद जगाने वाला पल था। उमा जी ने कहा कि जैसे अफीम की लत लग जाती है, वैसे ही समाज को भी लत लग गई है कि हर काम सरकार करेगी। हालांकि यह लत लगाने के लिए न सिर्फ स्वयं राजनेता, बल्कि कई आर्थिक, सामाजिक और नैतिक कारण जिम्मेदार हैं; बावजूद इसके मुझे उनके इस बयान से आज भी कोई गुरेज नहीं है। किंतु उमा जी ने जिन गैर सरकारी संगठनों से ‘नदी जोड़ परियोजना’ पर न तो सहमति ली और न ही ‘जल मंथन’ के दूसरे दिन आयोजित चर्चा में उन्हें शामिल करना उचित समझा, उनसे अपेक्षा ऐसी, गोया गैर सरकारी संगठन ‘नदी जोड़ परियोजना’ की पी आर एजेंसी हों। उमा जी ने मंथन के तीसरे दिन बुलाए गैर सरकारी संगठन प्रतिभागियों से कहा कि नदी जोड़ परियोजना के पक्ष में माहौल। यह बयान न सिर्फ हास्यास्पद है, बल्कि निराश करने वाला भी।
घोषित लाभार्थी की राय की अनदेखी
‘जल मंथन’ का दूसरा दिन नदी जोड़ पर चर्चा का दिन था। इस दौरान लेखक-डॉ. भरत झुनझुनवाला और कानून विशेषज्ञ-विदेह उपाध्याय अधिकारिक तौर पर चर्चा का हिस्सा जरूर थे, किंतु टाटा एनर्जी एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ. आर. के. पचौरी को छोड़कर, कोई गैर सरकारी संगठन प्रतिनिधि नदी जोड़ विषय पर चर्चा के पैनल में नहीं था।
सच पूछें, तो नदी जोड़ पर असल चर्चा, सिर्फ और सिर्फ केंद्र और राज्यों के संबंधित अधिकारियों और मंत्रियों के बीच ही हुई। चर्चा का असल उद्देश्य भी नदी जोड़ परियोजनाओं को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों में सहमति बनाना ही था। बकौल उमा जी, राज्यों द्वारा कुछ आंशकाएं जताई गईं हैं। उनके निराकरण तथा कुछ सावधानियों के मंत्रालयी आश्वासन के बाद दो-एक राज्यों को छोड़कर सभी राज्य नदी जोड़ने हेतु सहमत हैं। हो सकता है कि यह सच हो। किंतु प्रश्न तो यह है कि वे क्या किसान व ग्रामीण सहमत हैं, जिनके खेतों को सींचने और पेयजल मुहैया कराने की ओट में इस कृत्य को अंजाम देने की कोशिश की जा रही है?
उमा जी ने प्रधानमंत्री के उस बयान का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि विकास के कई पहलुओं की अनदेखी की गई है। यह सच है। विकास के पहलुओं की ही नहीं, विकास की असल परिभाषा और समग्र सोच की भी अनदेखी की गई है। किंतु सबसे ज्यादा अनदेखी उसकी राय की हुई है, जिसके लिए विकास की तमाम सरकारी योजना-परियोजनाएं बनाई जाती हैं।
नदियां किसी एक धर्म या वर्ग का विषय नहीं है। नदियों के साथ मर्यादित व्यवहार का दायित्व प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। अतः एक मंत्री के नाते उमा जी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वह मुनाफाखोर निवेशकों के पक्ष में कार्य करेंगी अथवा मातृ सरीखी नदियों और देव सरीखे के पक्ष में? वे नदी के किनारे निवेश बढ़ाने का काम करना चाहती हैं अथवा नदी में प्रवाह बढ़ाने का कार्य? वह पानी का बाजार बढ़ाना चाहती हैं अथवा भू-भंडार? इन सवालों का जवाब तलाशने में यदि देरी हुई अथवा अनैतिकता बरती गई, तो तय मानिए कि उमा जी, पानी का मंत्री बनने के जिस अवसर को ईश्वर का वरदान कह रही हैं, भविष्य उसे भारत की नदियों के लिए अभिशाप मानकर याद करेगा।नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाने से पहले क्या भाजपानीत इस सरकार को उन किसानों से जाकर पूछना नहीं चाहिए कि वे इस परियोजना के पक्ष में हैं अथवा नहीं? क्या यह जानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि भारतीय कृषि खुद नहरी सिंचाई के पक्ष में है अथवा भूजल सिंचाई के?
भारत, व्यापक भू-सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। यहां हर इलाके में सिंचाई और पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु एक जैसी तकनीक अथवा माध्यम अनुकूल नहीं कहे जा सकते। ऐसे देश में हर इलाके के किसान और खेती के जवाब भिन्न हो सकते हैं। जन सहमति बनाए बगैर नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाना, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तंत्र द्वारा लोक की अनदेखी नहीं, तो और क्या है? उस पर विरोधाभास यह कि उमा जी ने उन प्रयासों की तारीफ की, जिनसे सूखी नदियां पानीदार हुईं हैं।
सोच का विरोधाभास
गौरतलब है कि उमा जी ने उत्तराखंड के जगतसिंह जंगली, सच्चिदानंद भारती और गुजरात के मनसुख भाई पटेल के काम को सराहा। राजस्थान की सूखी नदी के सदानीरा होने का भी एक पंक्ति में जिक्र किया। मनसुख भाई पटेल का काम, खारे पानी के इलाके में मीठे पानी के इंतजाम की स्वयंसेवी व स्वावलंबी काम की दास्तान है। जगतसिंह ‘जंगली’ ने एक छोटे पहाड़ को अकेले जुनून के दम पर हरा-भरा कर दिखाया है।
जंगल लगाने के जुनून ने ही उन्हें तारीफ और ‘जंगली’ का उपनाम दिया है। पौड़ी-गढवाल के उफरैखाल इलाके में सच्चिदानंद भारती जी का काम गवाह है कि यदि समाज चाहे तो, वह अपने पानी का इंतजाम खुद कर सकता है। यह प्रयास इस बात का भी गवाह है कि छोटी-छोटी जलसंचनाओं का संजाल, सूख गई जो नदी को जिंदा कर सकता है। पंजाब में बाबा बलबीर सिंह सींचवाल द्वारा कालीबेई नदी की प्रदूषण मुक्ति का प्रयास, कारसेवा के करिश्मे को सिद्ध करता है। राजस्थान के अलवर, जयपुर और करौली जिले में तरुण भारत संघ के साथ मिलकर ग्रामीणों द्वारा किए गए संगठित प्रयास, सात छोटी-छोटी नदियों के सदानीरा बनने की कहानी कहते हैं।
एक ओर स्थानीय प्रयास से नदियों के पुनर्जीवन के प्रयासों की तारीफ करना; यह मानना कि जल संरक्षण के स्थानीय प्रयासों से देश के कम वर्षा वाले भूभाग में भी नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, वहीं कम पानी की उपलब्धता वाले इलाके में विकल्प के रूप में दूसरे इलाके की नदियों को खींचकर ले आने के विध्वंसक काम को आगे बढ़ाना? किसी ने इसे दोमुंही बात कहा। मैं, इसे उमा जी के बयान और सोच का विरोधाभास मानता हूं। यह पानी के बाजार और निवेशकों का दबाव भी हो सकता है।
नदी पुनर्जीवन सहज, तो फिर नदी जोड़ क्यों?
सैद्धांतिक प्रश्न यह है कि यदि अत्यंत काम में जल संरक्षण के छोटे-छोटे काम करके नदियों को पानीदार बनाना संभव है; उमा जी को ये प्रयास प्रेरक और दोहराए जाने लायक लगते हैं, तो फिर नदियों को जोड़ने की जरूरत ही कहां है? पिछले एक दशक के दौरान कई प्रमाणिक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है, नदी जोड़ परियोजना, बड़े पैमाने पर कर्ज और भौगोलिक बिगाड़ लाने वाली साबित होगी।
नदी जोड़ के व्यावहारिक अनुभवों को देखते हुए ही दुनिया के कई देशों ने इससे तौबा की है। भारत सरकार एक भी ऐसा अध्ययन नहीं पेश कर सकी है, जो यह कहता हो कि ‘नदी जोड़ परियोजना,’ लाभ की तुलना में, कम नुकसानदायक सिद्ध होगी। हकीकत यह है कि यह परियोजना लाभ की तुलना में कई गुना ज्यादा नुकसान करेगी’ ऐसा नुकसान, जिसकी भरपाई कई पीढ़ियां नहीं कर सकेंगी। ऐसी खतरनाक परियोजना को लाने की जिद्द क्यों? इस प्रश्न का उत्तर अपने आप में कई सवाल समेटे है और सरकार द्वारा अब तक आयोजित ‘जल मंथन’ और ’गंगा मंथन’ भी।
मंथन: कितना दिखावा, कितना हकीकत
‘जल मंथन’ के दौरान उमा जी ने कहा - “जो संस्तुतियां आप देंगे, मंत्रालय भारत जल सप्ताह-2015 से उन पर अमल शुरू कर देगा। गंगा मंथन के दौरान भी नदी जोड़, बांध और बैराजों को लेकर नीति तय करने की मांग उठी थी। इलाहाबाद से हल्दिया तक जल परिवहन के लिए गंगा में प्रस्तावित बैराजों को लेकर स्वयं बिहार के गैर सरकारी संगठनों और राज्य सरकार के मुख्यमंत्री ने सरकार को अलग आगाह किया है।
‘जल मंथन’ के दौरान नदी पुनर्जीवन से जुड़े समूह की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए आशीष गौतम ने स्पष्ट संकेत दिया कि जल प्रवाहों को मर्जी मुताबिक ढोकर ले जाना भारतीय संस्कृति नहीं है। क्या भागीदारों की ऐसी राय, मंत्रालय मानेगा अथवा मंत्रालय जिन संस्तुतियों को अपने अनुकूल समझेगा, उन्हें ही दर्ज करेगा और मानेगा?
धर्म सम्मत नहीं, नदी जोड़-तोड़
उमा जी एक हिंदू साध्वी भी हैं और भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की मंत्री भी। दोनों ही जिम्मेदारियां उन्हें नदियों के साथ अमर्यादित व्यवहार की अनुमति नहीं देती। मुझे ताज्जुब है कि उन्हें कैसे याद नहीं कि हिंदू संस्कृति के मुताबिक, नदियों को अप्राकृतिक तौर पर तोड़ना, जोड़ना, मोड़ना, बांधना और रोकना धर्म सम्मत नहीं है? वे कैसे भूल गई हैं कि मनुस्मृति में नदी के बहाव को मोड़ने वाले तथा रोकने वाले का श्राद्ध आदि कर्म से त्याज्य बताकर दंड देने का प्रावधान है।
यदि उमा जी के मंत्रित्व काल में नदियों के साथ उक्त में से एक भी दुर्व्यवहार होता है, तो उन्हे हिंदू धर्म की वाहिका कहलाने का हक तो कतई नहीं रहेगा। ऐसे में क्या उक्त दंड का प्रावधान स्वयं उमा जी पर भी लागू नहीं होना चाहिए? हिंदू धर्मसत्ता के शीर्ष पर आसीन माननीय शंकराचार्य विचार करें।
निवेशक नहीं, पानी के पक्ष में खड़ी हों पानी मंत्री
हालांकि, नदियां किसी एक धर्म या वर्ग का विषय नहीं है। नदियों के साथ मर्यादित व्यवहार का दायित्व प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। अतः एक मंत्री के नाते उमा जी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वह मुनाफाखोर निवेशकों के पक्ष में कार्य करेंगी अथवा मातृ सरीखी नदियों और देव सरीखे के पक्ष में? वे नदी के किनारे निवेश बढ़ाने का काम करना चाहती हैं अथवा नदी में प्रवाह बढ़ाने का कार्य? वह पानी का बाजार बढ़ाना चाहती हैं अथवा भू-भंडार?
इन सवालों का जवाब तलाशने में यदि देरी हुई अथवा अनैतिकता बरती गई, तो तय मानिए कि उमा जी, पानी का मंत्री बनने के जिस अवसर को ईश्वर का वरदान कह रही हैं, भविष्य उसे भारत की नदियों के लिए अभिशाप मानकर याद करेगा। मुनाफाखोरी आधारित कामों के आगे बढ़ाने के चक्कर में ‘जलग्राम’ जैसे अच्छे विचारों और कार्यों की कीर्ति भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।