गाँधी जी का पर्यावरण मंत्र संयम, स्वावलम्बन और सोनखाद

Submitted by RuralWater on Thu, 10/01/2015 - 10:13

स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


. कचरा, पर्यावरण का दुश्मन है और स्वच्छता, पर्यावरण की दोस्त। कचरे से बीमारी और बदहाली आती है और स्वच्छता से सेहत और समृद्धि। ये बातें महात्मा गाँधी भी बखूबी जानते थे और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भी। इसीलिये गाँधी जी ने स्वच्छता को स्वतंत्रता से भी ज्यादा जरूरी बताया। मैला साफ करने को खुद अपना काम बनाया।

गाँवों में सफाई पर विशेष लिखा और किया। कुम्भ मेले में शौच से लेकर सुर्ती की पीक भरी पिचकारी से हुई गन्दगी से चिन्तित हुए। श्रीमान मोदी ने भी स्वच्छता को प्राथमिकता पर रखते हुए स्वयं झाड़ू लगाकर अपने प्रधानमंत्रित्व काल के पहले ही वर्ष 2014 में गाँधी जयन्ती को ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की।

वर्ष-2019 में गाँधी जयन्ती के 150 साल पूरे होने तक 5000 गाँवों में दो लाख शौचालय तथा एक हजार शहरों में सफाई का लक्ष्य भी रखा। स्वच्छता सप्ताह के रूप में बाल दिवस से स्कूलों में विशेष स्वच्छता अभियान भी चलाया, किन्तु यदि मुझसे पूछे कि पर्यावरणीय अनुकूलता की दृष्टि से गाँधी और मोदी के स्वच्छता विचार में फर्क क्या हैं? ..तो मेरा जवाब यूँ होगा - “मोदी का स्वच्छता विचार, कचरा एकत्र करना तो जानता है, किन्तु उसका प्रकृति अनुकूल उचित निष्पादन करना नहीं जानता। गाँधी, दोनों जानते थे। गाँधी जानते थे कि यदि कचरे का निष्पादन उचित तरीके से न हो, तो ऐसा निष्पादन पर्यावरण का दोस्त होने की बजाय, दुश्मन साबित होगा।”

मोदी जी ने खुले शौच से होने वाली गन्दगी से निजात का उपाय सेप्टिक टैंक अथवा सीवेज पाइपों में कैद कर मल को बहा देने में सोचा। संप्रग सरकार की निर्मल ग्राम योजना में भी बस गाँव-गाँव शौचालय ही बनाए गए थे, किन्तु यह सिद्धान्ततः गाँधी विचार के खिलाफ थे।

शौचालय नहीं, सोनखाद


शहरों के मामले में गाँधी की यह राय अवश्य थी कि शहरों की सफाई का शास्त्र हमें पश्चिम से सीखना चाहिए; किन्तु वह गाँवों में खुले शौच का विकल्प शौचालय की बजाय, शौच को एक फुट गहरे गड्ढे में मिट्टी से ढँक देना मानते थे। ‘मेरे सपनों के भारत’ पुस्तक में वह सफाई और खाद पर चर्चा करते हुए लिखते हैं - “इस भयंकर गन्दगी से बचने के लिये कोई बड़ा साधन नहीं चाहिए; मात्र मामूली फावड़े का उपयोग करने की जरूरत है।’’ दरअसल, गाँधी जी, शौच और कचरे को सीधे-सीधे ‘सोन खाद’ में बदलने के पक्षधर थे। वह जानते थे कि मल को सम्पत्ति में बदला जा सकता है। श्री मोदी जी को भी यह जानना चाहिए।

गाँधी कहते थे कि इससे अनाज की कमी पूरी की जा सकती है। इस सच्चाई को गाँव के लोग अपने अन्दाज में साबित कर सकते हैं कि बसावट की बगल के खेत की पैदावार अन्य खेतों की तुलना में ज्यादा क्यों होती है।

आधुनिक भारत का सपना लेकर चलने वाले नेहरू से लेकर ‘हरित क्रान्ति के योजनाकारों ने इसे नहीं समझा। वे विकल्प में रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशक ले आये। जिसका ख़ामियाज़ा प्राकृतिक जैवविविधता की हत्या, मिट्टी की दीर्घकालिक उपजाऊ क्षमता में कमी और सेहत के सत्यानाश के रूप में हम आज तक झेल रहे हैं। मोदी जी, ऐसा न होने दें।

इस बात को वैज्ञानिक तौर पर यूँ समझना चाहिए। गाँधी जी लिखते हैं - “मल चाहे सूखा हो या तरल, उसे ज्यादा-से-ज्यादा एक फुट गहरा गड्ढा खोदकर ज़मीन में गाड़ दिया जाय। ज़मीन की ऊपरी सतह सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण होती है और हवा एवं रोशनी की सहायता से, जो कि आसानी से वहाँ पहुँच जाती है; वहाँ जीव, मल-मूत्र को एक हफ्ते के अन्दर एक अच्छी, मुलायम और सुगन्धित मिट्टी में बदल देते हैं।’’

सोपान जोशी की पुस्तक ‘जल मल थल’ इस बारे में और खुलासा करती है। वह बताती है कि एक मानव शरीर एक वर्ष में 4.56 किलो नाइट्रोजन, 0.55 किलो फॉस्फोरस और 1.28 किलो पोटैशियम का उत्सर्जन करता है। 115 करोड़ की भारतीय आबादी के गुणांक में यह मात्रा करीब 80 लाख टन होती है। मानव मल-मूत्र को शौचालयों में कैद करने से क्या हम हर वर्ष प्राकृतिक खाद की इतनी बड़ी मात्रा खो नहीं देंगे?

त्रिकुण्डीय प्रणाली वाले ‘सेप्टिक टैंक’ तथा मल-मूत्र को दो अलग-अलग खाँचों में भरकर हम ‘इकोसैन’ के रूप में यह मात्रा कुछ बचा जरूर सकते हैं, लेकिन यह हम कैसे भूल सकते हैं कि खुले में पड़े शौच के कम्पोस्ट में बदलने की अवधि दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुँचे शौच की कम्पोस्ट में बदलने की अवधि महीनों में; क्योंकि इनमें कैद मल का सम्बन्ध मिट्टी, हवा व प्रकाश से टूट जाता है। इन्ही से सम्पर्क में बने रहने के कारण खेतों में पड़ा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना बड़ा कि शोधन संयंत्रों के बाद हमारी नदियों में पहुँचा मानव मल।

कचरा निष्पादन का सिद्धान्त


गाँवों में मानव मल निष्पादन का गाँधी तरीका, कचरा निष्पादन के सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त के पूरी तरह अनुकूल है। सिद्धान्त है कि कचरे को उसके स्रोत पर निष्पादित किया जाये। कचरा चाहे मल हो या मलबा, कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक पाप है। अनुभव बताता है कि शौचालय कभी कहीं अकेले नहीं जाता।

शौचालय के पीछे-पीछे जाती है मोटर-टंकी और बिजली-पानी की बढ़ी हुई खपत। एक दिन जलापूर्ति की पाइप लाइनें उस इलाके की जरूरत बन जाती है। राजस्व के लालच में सीवर की पाइप लाइनें सरकार पहुँचा देती है। इससे कचरा और सेहत के खतरे बिना न्योते ही चले आते हैं। दुनिया में हर जगह यही हुआ है। हमारे यहाँ यह ज्यादा तेजी से आएगा। क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने को पर्याप्त धन है और न इसे खर्च करने की ईमानदारी। हकीक़त यही है।

अभी शहरों के मल का बोझ हमारी नगरनिगम व पालिकाओं से सम्भाले नहीं सम्भल रहा। जो गाँव पूरी तरह शौचालयों से जुड़ गए हैं, उनका तालाबों से नाता टूट गया है। गन्दा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हे बर्बाद कर रहा है। जरा सोचिए! अगर हर गाँव-हर घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता और ‘सुनहली खाद’ कितनी बचेगी?

शौचालय नहीं, घर-घर कम्पोस्ट से बनेगी बात


समझने की बात है कि एकल होते परिवारों के कारण मवेशियों की घटती संख्या, परिणामस्वरूप घटते गोबर की मात्रा के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई है। कचरे से कम्पोस्ट का चलन अभी घर-घर अपनाया नहीं जा सका है। अतः गाँधी जयन्ती पर स्वच्छता, सेहत, पर्यावरण, गो, गंगा और ग्राम रक्षा से लेकर आर्थिकी की रक्षा के चाहने वालों को पहला सन्देश यही है कि गाँवों में ‘घर-घर शौचालय’ की बजाय, ‘घर-घर कंपोस्ट’ के लक्ष्य पर काम करें।

इसके लिये गाँधी जी ने कचरे को तीन वर्ग में छंटाई का मंत्र बहुत पहले बताया और अपनाया था: पहले वर्ग में वह कूड़ा, जिससे खाद बनाई जा सकती हो। दूसरे वर्ग में वह कूड़ा, जिसका पुनः उपयोग सम्भव हो; जैसे हड्डी, लोहा, प्लास्टिक, कागज़, कपड़े आदि। तीसरे वर्ग में उस कूड़े को छाँटकर अलग करने को कहा, जिसे ज़मीन में गाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। कचरे के कारण, जलाशयों और नदियों की लज्जाजनक दुर्दशा और पैदा होने वाली बीमारियों को लेकर भी गाँधी जी ने कम चिन्ता नहीं जताई।

गोरक्षा और सेवा के महत्त्व बताते हुए भी गाँधी जी ने गोवंश के जरिए, खेती और ग्रामवासियों के स्वावलम्बन का ही दर्शन सामने रखा। वह इसे कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे, आप इसका अन्दाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्होंने गोवंश रक्षा सूत्रों को बार-बार समाज के समक्ष दोहराया ही नहीं, बल्कि जमनालाल जी जैसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को गो-पालन कार्य को आगे बढ़ाने का दायित्व सौंपा। वह जानते थे कि जो खेती की रक्षा के लिये सच है, वही गोवंश की रक्षा के लिये भी सच है। व्यापक सन्दर्भ में गाँधी जी बार-बार कहते थे कि हमारे जानवर, हिंदुस्तान और दुनिया के गौरव बन सकते हैं। पर्यावरणीय गौरव इसमें निहित है ही।

सेप्टिक टैंक और बलवंत की झिड़की


बात फरवरी, 1941 की है। टाइफाइड नियंत्रण को लेकर डॉक्टरों की सलाह से गाँधी जी ने सेवाग्राम में सेप्टिक टैंक बनाने का निर्णय लिया। जानकरी मिली, तो बलवंत सिंह भड़क उठे। वह गाँव समसपुर, तहसील खुर्जा, जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। गाँधी ने बलवंत को उस समय सेवाग्राम में गोशाला आदि का जिम्मेदार नियुक्त किया हुआ था। बलवंत ने गाँधी जी को कड़ी चिट्ठी लिखी। उनकी बदली हुई नीति को लेकर दुख और आश्चर्य प्रकट किया। इसे सोने को पानी करने का काम बताया। पाखाना-सफाई और उसकी खाद से प्रकृति व जीव-जगत के स्वार्थ के घनिष्ठ सम्बन्ध के गाँधी सिद्धान्त की याद दिलाई।

अपने संस्मरणों पर आधारित पुस्तक ‘बापू की छाया में’ में श्री बलवंत सिंह जी ने लिखा - “जैसा कोई नचाये, वैसा ही नाच नाचते रहेंगे, तो शायद आपके सत्तर वर्ष के बूढ़े पैर जवाब दे बैठेंगे। किसी की भी अच्छी चीज को अपनाने या उसका प्रयोग करने का आपका स्वभाव है। जनसंग्रह करना तो आपका धंधा है।” लेकिन जैसा कहा जाता है कि - “जल लाये वो सोना, जिससे नाक छवे।’’ अब तक आप ढोल पीट-पीट कर कहते आएँ हैं कि यदि हिंदुस्तान के सात लाख गाँवों का पाखाना सुव्यवस्थित रूप खाद के काम में लाया जाये, तो उस का कीमिया बन सकता है। आपकी जिस बात को काटने की हिम्मत किसी में नहीं है और हो भी कैसे सकती है? जानवर, वनस्पति खाकर भी बेशकीमती खाद ज़मीन को वापस देते, तो मनुष्य ज़मीन की उत्पत्ति का सार यानी अनाज खाकर कितना कीमती खाद दे सकता है? इसीलिये तो पाखाने को सोनखाद कहा जा सकता है न?

बलवंत सिंह जी ने पाखाने को सेप्टिक टैंक में यूँ दफना देने को किसान और ज़मीन के साथ अन्याय माना। गाँधी ने बलवंत की झिड़की को उचित माना और उत्तर में आश्वस्त किया कि खाद को बर्बाद नहीं होने देंगे।

दिमाग शुद्ध, तो पर्यावरण शुद्ध


गाँधी साहित्य, पर्यावरण के दूसरे पहलुओं पर सीधे-सीधे भले ही बहुत बात न करता हो, लेकिन संयम, सादगी, स्वावलम्बन, और सच पर आधारित उनका सही मायने में सभ्य और सांस्कारिक जीवन दर्शन, पर्यावरण की वर्तमान सभी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर देता है।

एकादश व्रत भी एक तरह से मानव और पर्यावरण के संरक्षण और समृद्धि का ही व्रत है। “प्रकृति हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।’’ जब गाँधी यह कहते हैं, तो इसी से साथ आधुनिकता और तथाकथित विकास के दो पगलाये घोड़ों के हम सवारों को लगाम खींचने का निर्देश स्वतः दे देते हैं।

गन्दगी, अच्छाई या बुराई.... इस दुनिया में जो कुछ भी घटता है, वह हकीक़त में घटने से पहले किसी ने किसी के दिमाग में घट चुका होता है। यह बात पश्चिम ने भी समझी। गौर कीजिए कि उसने हमें पहली या दूसरी दुनिया न कहकर, तीसरी दुनिया कहा। इस शब्द से उसने हमें मुख्यधारा से पिछड़े, गँवार, दकियानूसी, अलग-थलग और अज्ञानी होने का एहसास कराने का शब्दजाल रचा। ह

मारे प्रकृति अनुकूल, समय-सिद्ध व स्वयं-सिद्ध ज्ञान पर से हमारे ही विश्वास को तोड़ा; फिर अपनी हर चीज, विधान व संस्कार को आधुनिक बताकर हमें उसका उपभोक्ता बना दिया। संयम, सादगी और सदुपयोग की जगह, सभ्यता के नाम पर अतिभोग तथा ‘उपयोग करो और फेंक दो’ का असभ्य सिद्धान्त थमा दिया।

सब संस्कार बदल गए। परमार्थ, फालतू काम है; स्वार्थ से ही सिद्धि है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’, दुनिया के लिये होगी, तुम्हारे लिये तो ए.सी. है। अपना कमरा.. अपनी गाड़ी के भीतर ठंडक की तरफ देखो; दुनिया जाये भाड़ में। घर का कचरा बाहर और अतिभोग का सुविधा-सामान अन्दर। इसके लिये अब सिर्फ पेट नहीं, तिजोरी भरो। इसीलिये खेती बाड़ी, निकृष्ट बता दी गई और दलाली, चाकरी से भी उत्तम। कहा कि गाँव हटाओ, शहर भगाओ। कर्ज लो, घी पियो।

नदियाँ मारने के लिये कर्ज लो। नदियों को जिलाने के लिये कर्ज लो। कुदरती जंगल काटो; खेत बनाओ या इमारती लगाओ। जानते हुए भी कि यह धरती का पेट खाली कर पानी की कंगाली का रास्ता है; हमने नदी-तालाब से सिंचाई की बजाय, नहर और धरती का सीना चाक करने वाले ट्यूबवेल, बोरवैल, समर्सिबल.. जेटपम्प को अपना लिया। सेप्टिक टैंकों से भी आगे बढ़कर सीवेज पाइपों वाले आधुनिक हो गए। यूकेलिप्टस याद रहा; पंचवटी भूल गए।

उलटबाँसियों में सीधी बात


इन सब उलटबाँसियों के बीच रास्ते बनाते हुए आज एक बार आया फिर दुबला-पतला बूढ़ा, सेवाग्राम संचालकों से कहना चाहता है - “खजूरी, गरीबों का वृक्ष है। उसके उपयोग तुम्हें क्या बताऊँ। अगर सब खजूरी कट जाये, तो सेवाग्राम का जीवन बदल जाएगा। खजूरी हमारे जीवन में ओतप्रोत है।..... खजूरी के उपयोग का हिसाब करो।’’ जिस महात्मा गाँधी को खजूरी जैसे सहज उपलब्ध दरख्त और छोटी-से-छोटी पेंसिल को सहेजने और उसका हिसाब रखने जैसी बड़ी-बड़ी आदतें थीं; पर्यावरण और स्वच्छता के उनके सिद्धान्तों को लिखकर या पढ़कर नहीं, बल्कि आदत बनाकर ही जिन्दा रखा जा सकता है। आइये, बनाएँ।