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ट्रेन की पटरियों के आसपास ज्यों ही कचरे के ढेर, मलबा व शौच करते लोग दिखाई देने लगे, यात्रियों को इशारा मिल जाता है कि वे किसी शहर के प्रवेश द्वार पर हैं। शहरीकरण की यह कैसी पहचान है? भारतीय सभ्यता के विकास का यह कैसा दौर है? जहां न कचरे के पुर्नोपयोग का सलीका है और न अपना घर साफ रखने के नाम पर दूसरों की दुनिया को कचरा घर में बदलने से परहेज। कचरा फेंकने के मामले में हमने जमीन, नदी, समुद्र.. यहां तक कि आकाश को भी नहीं छोड़ा। कौन नहीं चाहता कि उसके आसपास का नजारा खिलखिलाता रहे? घर-आंगन-सड़कें साफ हों! आबो हवा में खुशबुओं का वास हो! जहां तक नजर जाए, नजारा खास हो!!....कचरे का एक कतरा भी दिखाई न पड़े!! आसपास ही नहीं, नई दुनिया के शौकीन तो अपने एक-एक अंग को महकता देखना चाहते हैं। इसके लिए हमने कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों का एक पूरा बाजार ही खड़ा कर लिया है। कहना न होगा कि क्या शहर.. क्या गांव, गंदगी किसी को पसंद नहीं होती। सिर्फ इंसान या जीवों को ही नहीं, पौधों तक को गंदगी पसंद नहीं होती। निर्मलीकरण इस देश में धार्मिक आस्थाओं, जीवन शैलियों से लेकर बापू के आचरण और राष्ट्र की योजनाओं तक में खास हो गया है। देश का कितना बड़ा बजट आज सफाई के नाम पर ही खर्च हो रहा है। नदियों की सफाई से लेकर गलियों की सफाई तक। बावजूद इसके हमारे चारों ओर आज गंदगी का साम्राज्य है। क्यों? कहने को जो जितना ज्यादा विकसित, हकीकत में उसके घर से निकलने वाला कचरा उतना ज्यादा।
हो सकता है कि दुनिया के दूसरे देशों ने सफाई के मामले में अनुशासित जीवनशैली अपना कर इस लक्षण को झुठला दिया हो, लेकिन भारत में विकसित और कचरे के अंतर्संबंधों के बारे में यही सच है। ट्रेन की पटरियों के आसपास ज्यों ही कचरे के ढेर, मलबा व शौच करते लोग दिखाई देने लगे, यात्रियों को इशारा मिल जाता है कि वे किसी शहर के प्रवेश द्वार पर हैं। शहरीकरण की यह कैसी पहचान है? भारतीय सभ्यता के विकास का यह कैसा दौर है? जहां न कचरे के पुर्नोपयोग का सलीका है और न अपना घर साफ रखने के नाम पर दूसरों की दुनिया को कचरा घर में बदलने से परहेज। कचरा फेंकने के मामले में हमने जमीन, नदी, समुद्र.. यहां तक कि आकाश को भी नहीं छोड़ा। इसमें भी सबसे ज्यादा कचरा खनन, उद्योग व परमाणु संयंत्रों का है।
घरेलू कचरे में पॉली कचरे की मात्रा व खतरा... दोनों ही सबसे अधिक हैं। शुद्धता और आकर्षण के नाम पर बढ़ी पैकेजिंग ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। अन्य पॉली कचरा में सबसे प्रमुख कचरा हैं- झोले व कागज के लिफाफों के स्थान पर हर छोटी खरीद के लिए लाल-हरी पन्नियों का चलन; गुटखा खाने का आदत; पानी व शीतल पेयों का प्लास्टिक बोतलें, जूतों-चप्पलों के प्लास्टिक सोल आदि आदि।
इसी के मद्देनजर गुटखे और पॉली पन्नियों पर प्रतिबंध की आवाज यदाकदा उठती रही है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उ.प्र. सरकार इस वित्त वर्ष के अंत तक गुटखे पर प्रतिबंध लगा देगी। अन्य सरकारों के बाद दिल्ली सरकार ने भी फिलहाल गुटखे पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब पॉलीथीन थैलियों के निर्माण, भंडारण, आपूर्ति व उपयोग पर प्रतिबंध संबंधी अधिसूचना जारी कर दी गई है। तद्नुसार 22 दिसंबर, 2012 के बाद दिल्ली पॉलीथीन थैली के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होगी। पत्रिका, आमंत्रण पत्र, ग्रीटिंग कार्ड आदि पर प्लास्टिक कवर व पॉली पाउच इस्तेमाल नहीं किए जा सकेंगे। प्लास्टिक थैली बनाने वाली फैक्ट्रियों.. आपूर्ति करने वाली कंपनियों-गोदामों को अपना कारोबार दिल्ली से समेट लेने के आदेश दे दिए गये हैं। दुकानदार या खुदरा, पॉलीथैली के इस्तेमाल करने पर दोषी माने जायेंगे। दोषी को पांच साल की सजा या एक लाख रुपये तक का जुर्माना होगा।
... पर क्या वाकई ऐसा होगा? क्या वाकई दोषी दंडित होंगे? क्या वाकई यह प्रतिबंध हकीकत में लागू हो जायेगा? प्रतिबंध के बावजूद तंबाकू गुटखा आज भी जिस तरह खुलेआम बिक रहा है, उसे देखकर तो नहीं लगता कि प्रतिबंध लगाने के लिए अधिसूचना जारी कर देना भर काफी होता है। रेलवे स्टेशन व अंतर्राज्यीय बस अड्डे जैसी खुली व पुलिस की मौजूदगी वाली जगहों पर ही इनकी बिक्री खुलेआम जारी है, तो गली-मोहल्लों की गारंटी कौन लेगा? दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति के सचिव अकेले की निगरानी क्या यह गारंटी दे सकती हैं?
निगरानी के व्यापक तंत्र के बगैर यह गारंटी संभव नहीं हैं। न बगैर संकल्प के यह गारंटी संभव है। निगरानी का व्यापक तंत्र बनाना जनभागीदारी के बगैर परवान नहीं चढ़ सकता। पांवधोई नदी सफाई के मामले में सहारनपुर प्रशासन, उ. प्र. द्वारा अपनाया जननिगरानी मॉडल इसकी मिसाल है। सरकार यदि सचमुच प्रतिबंध को लेकर प्रतिबद्ध है, तो उसे जननिगरानी तंत्र का मजबूत खांचा तैयार करना होगा। संकल्प की जरूरत दोनों ओर से है। जनता व सत्ता..दोनों प्रतिबद्ध हों, तभी सच होगा सपना दिल्ली को कचरा मुक्त राजधानी बनाने का। आइये! इसे सच करें।
हो सकता है कि दुनिया के दूसरे देशों ने सफाई के मामले में अनुशासित जीवनशैली अपना कर इस लक्षण को झुठला दिया हो, लेकिन भारत में विकसित और कचरे के अंतर्संबंधों के बारे में यही सच है। ट्रेन की पटरियों के आसपास ज्यों ही कचरे के ढेर, मलबा व शौच करते लोग दिखाई देने लगे, यात्रियों को इशारा मिल जाता है कि वे किसी शहर के प्रवेश द्वार पर हैं। शहरीकरण की यह कैसी पहचान है? भारतीय सभ्यता के विकास का यह कैसा दौर है? जहां न कचरे के पुर्नोपयोग का सलीका है और न अपना घर साफ रखने के नाम पर दूसरों की दुनिया को कचरा घर में बदलने से परहेज। कचरा फेंकने के मामले में हमने जमीन, नदी, समुद्र.. यहां तक कि आकाश को भी नहीं छोड़ा। इसमें भी सबसे ज्यादा कचरा खनन, उद्योग व परमाणु संयंत्रों का है।
घरेलू कचरे में पॉली कचरे की मात्रा व खतरा... दोनों ही सबसे अधिक हैं। शुद्धता और आकर्षण के नाम पर बढ़ी पैकेजिंग ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। अन्य पॉली कचरा में सबसे प्रमुख कचरा हैं- झोले व कागज के लिफाफों के स्थान पर हर छोटी खरीद के लिए लाल-हरी पन्नियों का चलन; गुटखा खाने का आदत; पानी व शीतल पेयों का प्लास्टिक बोतलें, जूतों-चप्पलों के प्लास्टिक सोल आदि आदि।
इसी के मद्देनजर गुटखे और पॉली पन्नियों पर प्रतिबंध की आवाज यदाकदा उठती रही है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उ.प्र. सरकार इस वित्त वर्ष के अंत तक गुटखे पर प्रतिबंध लगा देगी। अन्य सरकारों के बाद दिल्ली सरकार ने भी फिलहाल गुटखे पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब पॉलीथीन थैलियों के निर्माण, भंडारण, आपूर्ति व उपयोग पर प्रतिबंध संबंधी अधिसूचना जारी कर दी गई है। तद्नुसार 22 दिसंबर, 2012 के बाद दिल्ली पॉलीथीन थैली के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होगी। पत्रिका, आमंत्रण पत्र, ग्रीटिंग कार्ड आदि पर प्लास्टिक कवर व पॉली पाउच इस्तेमाल नहीं किए जा सकेंगे। प्लास्टिक थैली बनाने वाली फैक्ट्रियों.. आपूर्ति करने वाली कंपनियों-गोदामों को अपना कारोबार दिल्ली से समेट लेने के आदेश दे दिए गये हैं। दुकानदार या खुदरा, पॉलीथैली के इस्तेमाल करने पर दोषी माने जायेंगे। दोषी को पांच साल की सजा या एक लाख रुपये तक का जुर्माना होगा।
... पर क्या वाकई ऐसा होगा? क्या वाकई दोषी दंडित होंगे? क्या वाकई यह प्रतिबंध हकीकत में लागू हो जायेगा? प्रतिबंध के बावजूद तंबाकू गुटखा आज भी जिस तरह खुलेआम बिक रहा है, उसे देखकर तो नहीं लगता कि प्रतिबंध लगाने के लिए अधिसूचना जारी कर देना भर काफी होता है। रेलवे स्टेशन व अंतर्राज्यीय बस अड्डे जैसी खुली व पुलिस की मौजूदगी वाली जगहों पर ही इनकी बिक्री खुलेआम जारी है, तो गली-मोहल्लों की गारंटी कौन लेगा? दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति के सचिव अकेले की निगरानी क्या यह गारंटी दे सकती हैं?
निगरानी के व्यापक तंत्र के बगैर यह गारंटी संभव नहीं हैं। न बगैर संकल्प के यह गारंटी संभव है। निगरानी का व्यापक तंत्र बनाना जनभागीदारी के बगैर परवान नहीं चढ़ सकता। पांवधोई नदी सफाई के मामले में सहारनपुर प्रशासन, उ. प्र. द्वारा अपनाया जननिगरानी मॉडल इसकी मिसाल है। सरकार यदि सचमुच प्रतिबंध को लेकर प्रतिबद्ध है, तो उसे जननिगरानी तंत्र का मजबूत खांचा तैयार करना होगा। संकल्प की जरूरत दोनों ओर से है। जनता व सत्ता..दोनों प्रतिबद्ध हों, तभी सच होगा सपना दिल्ली को कचरा मुक्त राजधानी बनाने का। आइये! इसे सच करें।