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तरुण भारत संघ
दूरी छोटा-सा शब्द है, लेकिन जब राज और समाज के बीच की दूरी बढ़ जाती है तो समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। अच्छे लोग भी जब राज के नजदीक पहुंचते हैं तो उनको विकास का रोग लगा जाता है, भूमंडलीकरण का रोग लग जाता है, उनको लगता है सारी नदियां जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें- बुलडोजर चला कर, उनमें खेती कर लेंगे। मात्र यही ख्याल प्रकृति के विरुद्ध है। मैं बार-बार कह रहा हूं कि यह प्रभू का काम है, सुरेश प्रभु सहित देश के प्रभु बनने के चक्कर में इसे नेता लोग न करें तो अच्छा है।
नदियां प्रकृति ही जोड़ती है। गंगा कहीं से निकली, यमुना कहीं से निकली। अगर ऊपर हेलिकॉप्टर से देखें तो एक ही पर्वत की चोटी से ठीक नीचे दो बिंदु से दिखेंगे। वहां उनमें गंगोत्री और यमुनोत्री में बहुत दूरी नहीं है। प्रकृति उन्हें वहीं जोड़ देती। लेकिन सब जगह अलग-अलग सिंचाई करके दोनों कहां मिलें, यह प्रकृति ने तय किया था। तब वहां संगम बना। उसके बाद डेल्टा की भी सेवा करनी है नदी को।
‘जब दामोदर नदी पर बांध बन रहा था, तब कपिल भट्टाचार्य नाम के इंजीनियर थे। वे किसी वैचारिक संगठन से नहीं जुड़े थे। लेकिन वे नदी से जुड़े हुए आदमी थे। उन्होंने अपने विभाग से अनुरोध किया कि दामोदर नदी घाटी योजना को रोक लें।लोगों ने कहा कि तुम क्यों इसे रोकना चाहते हो। इतने करोड़ की योजना है। इससे यह लाभ, वह लाभ होगा। इससे औद्योगिक विकास होगा।
भट्टाचार्य ने कहा था कि दामोदर का प्रवाह रोकोगे तो वहां से नीचे डेल्टा तक असर होगा। कोलकाता बंदरगाह नष्ट होगा। उसमें जहाज नहीं आ पाएंगे। उसकी गहराई कम हो जाएगी। जिस प्रवाह से सिल्ट बाहर आती है, उसे महंगे यंत्रों के जरिए बाहर निकालना पड़ेगा। करोड़ों रुपए खर्च होंगे, नदी की गहराई कृत्रिम तरीके से बढ़ाने के लिए।
यह भी चार-पांच साल कर पाओगे। फिर तब तक इतनी मिट्टी आ चुकी होगी कि यह भी बंद करना पड़ेगा। तब आपको बंदरगाह बदलना पड़ेगा। तब तक बांग्लादेश नहीं बना था। भट्टाचार्य ने यह भी कहा था कि इस बांध के कारण पड़ोसी देश के भी साथ आपके संबंध बिगड़ते जाएंगे।
दूरी छोटा-सा शब्द है, लेकिन जब राज और समाज के बीच की दूरी बढ़ जाती है तो समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है।तटबंध और टेक्नोलॉजी से समुद्र का कोई संबंध नहीं होता, वह अपनी विशेष शक्ति रखता है उसमें मनुष्य हस्तक्षेप करे, विज्ञान के विकास के नाम पर तो सचमुच प्रकृति उसे तिनके की तरह उड़ा देती है। सुंदरवन ऐसे ही समुद्री तूफानों को रोकते हैं। पाराद्वीप का सुंदरवन नष्ट हुआ इसलिए ओडीशा में चक्रवात आया। इसके आगे ‘सुपर’ विशेषण लगाना पड़ा था। अथाह जन-धन हानि हुई। अथाह बर्बादी।
यह सब देखकर लगता है कि प्रकृति के खिलाफ अक्षम्य अपराध हो रहे हैं। इनको क्षमा नहीं किया जा सकता। इसकी कोई सजा भी नहीं दी जा सकती। नदी जोड़ना उस कड़ी में सबसे भयंकर दर्जे पर किया जाने वाला काम होगा। इसको बिना कटुता के जितने अच्छे ढंग से समझ सकते हैं, समझना चाहिए। नहीं तो कहना चाहिए कि भाई अपने पैर पर तुम कुल्हाड़ी मारना चाहते हो तो मारो लेकिन यह निश्चित पैर कुल्हाड़ी है। ऐसा कहने वालों के नाम एक शिलालेख में लिख कर दर्ज कर देने चाहिए और कुछ विरोध नहीं हो सकते तो किसी बड़े पर्वत की चोटी पर यह शिलालेख लगा दें कि भैया आने वाले दो सौ सालों तक के लिए अमर रहेंगे ये नाम। इनका कुछ नहीं किया जा सका।
मैं सर विलियम वेलॉक नामक अंग्रेज अधिकारी को याद करना चाहूंगा। 1938 में बंगाल प्रेसीडेंसी के इंजीनियरों के सामने उन्होंने छः भाषण दिए। वेलॉक ने अपने सभी युवा अधिकारियों के सामने कहा था कि 70-80 साल में अंग्रेजों ने जो नहरें बनाई हैं, उनका आर्थिक लाभ एक पलड़े में रखो और नुकसान दूसरे पर, तो नुकसान का पलड़ा कहीं ज्यादा भारी है। हमने पूरे बंगाल की सोनार-संस्कृति को नष्ट किया है। वेलॉक ने कहा था कि उत्पादन घटा है नहरों के आने के बाद।
अकाल से भी ज्यादा भयंकर है अकेले पड़ जाना। संकट के समय समाज में एक दूसरे का साथ देने और निभाने वाली जो परंपराएं थीं अब वे नष्ट हो चली हैं। संवेदना की जिस पूंजी के सहारे समाज बड़े-बड़े संकट पार कर लेता था, क्या हम उस पूंजी को बचा पाएंगे? मध्य प्रदेश में तवा बंध को लेकर यही हुआ। 73-74 के समय विवाद के कारण नर्मदा पर बांध नहीं बन सकते थे तो तवा पर बांध बनाया गया। इस बांध के कारण खेतों में दलदल हो गया। खेती बर्बाद हो गई। काली मिट्टी वाले इलाके में, जहां अनाज भारी मात्रा में होता था, तबाही मच गई।
जर्मन विकास बैंक ने इस तबाही के कारण बदनामी को देखते हुए तवा बांध पर लगाए गए पैसे वसूलने की भी जरूरत नहीं समझी और चुपचाप खाता बंद कर दिया और दृश्य से ही गायब हो गया। उस समय अकेले गांधीवादी बनवारी लाल चौधरी ने तवा बांध का विरोध किया। फिर बांध के कारण आई विपदा से मुक्ति के लिए मिट्टी बचाओ आंदोलन शुरू किया। ऐसा ही अभियान अब नदियों की रक्षा के लिए चलाना होगा।
‘वेलॉक ने अस्सी-नब्बे साल पहले कहा था कि नदियों के प्रवाह कम होने से उत्पादन घटा है। बाढ़ की सम्भावना बढ़ी है। खारापन, लवणीकरण इस इलाके में बढ़ा है। उन्होंने एक और आश्चर्यजनक तथ्य बताया था कि मलेरिया का प्रकोप इस इलाके में केवल नदियों को छेड़ने के बाद आया है।
नदी जोड़ों योजना से पूरे डेल्टा के इलाके में यह सब कुछ और बढ़ेगा। आजादी से थोड़ा पहले बंगाल के सिंचाई विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने प्रो. मजूमदार का एक भाषण भी महत्वपूर्ण है। मजूमदार ने कहा था कि यह मानने की गलती या बेवकूफी न करो कि नदी का पानी समुद्र में ‘’बर्बाद’ जाता है। समुद्र में जाकर ये नदियां हम पर उपकार करती हैं, इसलिए इनको देवी माना गया है।
राज-रोग क्या होता है और इससे निपटने का एक ही तरीका होता है। जब राज हाथ से जाता है तो यह रोग भी चला जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण रामकृष्ण हेगड़े का है। कर्नाटक में पच्चीस साल पहले वेड़धी नदी पर एक बांध बनाया जा रहा था। किसानों को इस बांध के बनने से उनकी खेती के चक्र के नष्ट होने की आशंका हुई।
विकास ऐसा उत्पादन नहीं है जिसे आप आर्थिक उन्नति से हासिल कर रहे हैं। विकास वह प्रक्रिया है जो समाज के हर स्तर को-व्यक्ति, समाज और देश को पहले से अधिक स्वावलंबी बनाता है और उसे अपना भविष्य तय करने की और अधिक से अधिक आजादी देता है।उन्होंने इसका विरोध किया। कर्नाटक के किसानों ने संगठन बना कर सरकार से कहा कि उन्हें इस बांध की जरूरत ही नहीं है। संपन्नतम खेती वे बिना बांध के ही कर रहे हैं, और इस बांध के बनने से उनका सारा चक्र नष्ट हो जाएगा। हेगड़े उस आंदोलन के अगुवा बने। पांच साल तक वे इस आंदोलन एक छत्र नेता रहे। बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने।
मुख्यमंत्री बनने के बाद हेगड़े बेड़धी बांध बनाने के पक्ष में हो गए। लोगों ने कहा कि आप तो इस बांध के प्रमुख विरोधियों में से थे, उन्होंने कहा तब मैं सरकार में नहीं था। अभी मुझे पूरे कर्नाटक की जरूरत दिखाई देती है। क्षेत्र विशेष में अब मेरी दिलचस्पी नहीं है। उससे उनको नुकसान भी होगा तो भोगने दो। लेकिन कर्नाटक को इतनी बिजली मिलेगी जितनी जरूरत है। औद्योगीकरण होगा।
हेगड़े के पाला बदलने के बावजूद किसानों का आंदोलन चलता रहा। हेगड़े का राज चला गया। उनका राज-रोग भी चला गया। लेकिन किसानों का आंदोलन चलता रहा। आंदोलन के कारण ही वह बांध आज भी नहीं बन सका। देश में इस तरह का यह पहला उदाहरण है।
जो देश कभी खुद सोन चिरैया कहलाता था, उसका सोन तो लूट ही रहा है, चिरैयों के उड़ जाने के दिन भी दिखाई दे रहे हैं। जिनका दिल देश के लिए धड़कता है उन्हें नदी जोड़ो परियोजना पर प्रेमपूर्वक बात करनी चाहिए। जरूर कहीं कोई-न-कोई सुनेगा। यह दौर बहुत विचित्र है और इस दौर में सब विचारधाराएं और हर तरह का राजनीतिक नेतृत्व सर्वसम्मति रखता है सिर्फ विनाश के लिए, उन सब में रजामंदी है विनाश के लिए। और किसी चीज में एक दो वोट से सरकार गिर सकती है, पलट सकती है, बन सकती है, बिगड़ सकती है। लेकिन इस विकास और विनाश वाले मामले में सबकी गजब की सर्वसम्मति है।
इस सर्वसम्मति के बीच में हमारी आवाज दृढ़ता और संयम से उठनी चाहिए। जो बात कहनी है, वह दृढ़ता से कहनी पड़ेगी। प्रेम से कहने के लिए हमें तरीका निकालना पड़ेगा। हमें अब सरकार के पक्ष को समझने की कोई जरूरत नहीं है। उसे समझने लगें तो ऐसी भूमिका हमें थका देगी। हम कोई पक्ष नहीं जानना चाहते। हम कहना चाहते हैं कि यह पक्षपात है देश के साथ, देश के भूगोल के साथ, इतिहास के साथ-इनको रोकें।
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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