सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

Submitted by RuralWater on Sun, 01/22/2017 - 15:51
Source
साफ माथे का समाज, 2006

कुछ समर्पण, कुछ अकल, कुछ पसीना चाहिए देश का पर्यावरण सुधारने के लिये। कैलेंडर के पन्ने भी जुड़ जाएँ तो कोई हर्ज नहीं पर केवल कैलेंडर ताकते रहने से कुछ होगा नहीं। समय बीतते देरी नहीं लगती। सन 2000 भी देखते-देखते आएगा-जाएगा। कुछ करेंगे नहीं तो पर्यावरण की हालत जैसी की तैसी ही नहीं और भी खराब हो जाएगी। तब हमें सन 2000 में तीन शून्य भी दिख सकेंगे। अच्छा हो हम इन शून्यों को भरने का काम करें।

अच्छे काम कहीं से भी, किसी भी दिन से शुरू किये जा सकते हैं। यदि मुहूर्त ही देखना है, वह भी सन 2000 का तो पहले जनवरी से ही सही, अपने बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और सँवारने का काम शुरू किया जा सकता है। बीसवीं सदी में नहीं कर पाये तो चलिए इक्कीसवीं सदी में ही करें, पर करना तो पड़ेगा ही।

सन 2000 में पूरे देश का, आपके हमारे शहर का, कस्बे का, गाँव का पर्यावरण कैसा होगा? शायद वैसा ही होगा जैसा वह 1999 में रहा है। 19-20 का अन्तर पड़ सकता है 21वीं सदी में। उत्तर में जिन्हें निराशा का स्वर दिखता है, उनसे विनम्र अनुरोध है कि वे इस गम्भीर विषय में कैलेंडर के जादू से दूजा कुछ नहीं देख पा रहे हैं।

31 दिसम्बर 1999 की रात को लोग उसी तरह रजाई में दुबक कर सोए और उसी तरह अगले दिन सुबह उठे-जिस तरह वे इससे पहले सोते और जागते रहे हैं। तारीख जरूर बदली, 99 के बदले तीन शून्य। इससे ही पर्यावरण में कुछ बदलाव, सुधार आ जाएगा-इसकी गुंजाइश कम ही दिखती है।

बिगड़ते पर्यावरण के मामले में बाकी सभी मामलों की तरह एक रात बीतने से अगले दिन, अगले दौर में कुछ अभूतपूर्व हो जाएगा क्या? भास्कर अपनी दैनिक गतिविधि उसी तरह चलाएगा। मात्र कैलेंडर के पन्ने पलट कर हम अपना घटिया पर्यावरण नहीं बदल सकते। “हमने कुछ किया है बदलने लायक” इससे ज्यादा जोर इस बात पर है कि “कैलेंडर कुछ कर देगा बदलने लायक”। इस आशा में हम कुछ समय जरूर बिता देंगे। और फिर समय बीतते क्या देर लगती है। जनवरी, फरवरी गई नहीं कि मार्च में देश के लगभग हर भाग में पानी का संकट ठीक 1999 की तरह पलट कर वापस आ जाएगा जो फिर सन 2000 के मानसून से पहले मिटेगा नहीं।

तो क्या करें हम? अच्छा तो यही होगा कि तारीख या दिन गिनने के बदले हम अपने अच्छे कामों को गिनें। अच्छे काम कहीं से भी, किसी भी दिन से शुरू किये जा सकते हैं। यदि मुहूर्त ही देखना है, वह भी सन 2000 का तो पहली जनवरी से ही सही, अपने बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और उसे सँवारने का काम शुरू किया जा सकता है। बीसवीं सदी में नहीं कर पाये तो चलिए इक्कीसवीं सदी में ही करें, पर करना तो पड़ेगा ही।

अलवर (राजस्थान) के भाँवता गाँव ने सन 2000 से कोई 13 वर्ष पहले अपने आस-पास की पहाड़ियों पर, खेतों में गिरने वाली एक-एक बूँद को रोकने का काम शुरू किया था। अकाल का क्षेत्र था। कुओं में पानी 90 हाथ की गहराई पर। भाँवता ने तरुण भारत संघ के साथ मिलकर अपने हिस्से का पानी रोकने के लिये पसीना बहाया। आज पूरा गाँव छोटे तालाबों, बाँधों से घिरा है। यहीं से एक नदी बहती है जो अब वर्ष भर सूखती नहीं। इन 13 वर्षों में भाँवता गाँव ने अतिवृष्टि से उत्पन्न एक बड़ी बाढ़ को भी झेला है और एक अकाल को भी-अकाल और बाढ़ के मामलों में सरकार करोड़ों रुपया फूँकती है पर भाँवता जैसे कई गाँवों ने सरकार को राहत दी है- एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा वहाँ।

आज इस छोटे से गाँव में देश की जल संसाधन मंत्री बिना बुलाए वहाँ का काम देखने आई हैं। राष्ट्रपति भवन में भी भाँवता के काम की गूँज है। भाँवता का काम करने वाले दसवीं फेल श्री गोपाल सिंह राष्ट्रपति भवन में जल संकट दूर करने के लिये बुलाए गए हैं।

इसलिये कुछ समर्पण, कुछ अकल, कुछ पसीना चाहिए देश का पर्यावरण सुधारने के लिये। कैलेंडर के पन्ने भी जुड़ जाएँ तो कोई हर्ज नहीं पर केवल कैलेंडर ताकते रहने से कुछ होगा नहीं। समय बीतते देरी नहीं लगती। सन 2000 भी देखते-देखते आएगा-जाएगा। कुछ करेंगे नहीं तो पर्यावरण की हालत जैसी की तैसी ही नहीं और भी खराब हो जाएगी। तब हमें सन 2000 में तीन शून्य भी दिख सकेंगे। अच्छा हो हम इन शून्यों को भरने का काम करें।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत