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साफ माथे का समाज, 2006
आप सभी लोग मध्य प्रदेश के शहरों में एक मोहल्ला और गली को जानते होंगे, सर्राफा। वहाँ पर सवेरे जैसी झाड़ू लगती है वैसी झाड़ू शायद राष्ट्रपति भवन में भी नहीं लगती होगी। सर्राफे को साफ कौन करता है? म्युनिसिपेलिटी का सफाई कर्मचारी साफ नहीं करता। समाज के सबसे गरीब माने गए लोग तसला लेकर आते हैं, झाड़ू लेकर आते हैं। एक-एक कण साफ करते हैं क्योंकि उसमें छोटा-सा चाँदी और सोने का टुकड़ा मिल जाएगा उनको जो सुनार ने फूँक के इधर-उधर बिखेर दिया होगा। तो पानी को इस ढंग से देखने वाला समाज कि एक कण भी कहीं जाने न दें।बहुत अच्छा लिखने वाले भी जब बोलने खड़े होते हैं तो कमजोर बोलते हैं। मैं तो साधारण लिखने वाला हूँ। इसलिये मुझसे आप कोई अच्छे भाषण की उम्मीद न करें। मैंने लिखा भी बहुत कम है। जैसा आजकल लिखा जाता है, प्रायः हर हफ्ते हर महीने, लोगों के नाम देखने को मिलते हैं। मैंने तो 20-25 सालों में अगर 17 छोटी-छोटी या एकाध दो बड़ी किताबें लिख दीं तो कोई बड़ा काम नहीं है। ये तो तराजू पर एक-दो किलो के बांट से तुलने लायक है। इससे ज्यादा कुछ होगा नहीं। फिर आज जो प्रसंग है, उसके सिलसिले में भी बहुत संकोच के साथ कहना चाहूँगा कि जिन तीन विशिष्ट व्यक्तियों को ये सम्मान मिला उसमें चौथा नाम मेरा जो आप लोगों ने जोड़ा, ये चौथाई भी नहीं बैठता उनमें से। इसलिये इसको मैं ऐसा मानता हूँ कि आयोजकों की, आप सबकी और चयन समिति की बहुत उदारता ही माननी चाहिए कि उन्होंने मेरे थोड़े से लिखे को सामने रखा। इसका कारण मैं समझने की कोशिश कर रहा था। बूँद भर मैंने कुछ लिखा है पर्यावरण पर, जो बिन्दु बराबर है वह एक बड़े सिंधु का हिस्सा है।
उस सिंधु का दर्शन इस बिंदु में जरूर हो सके ऐसी कुछ-न-कुछ कोशिश मैंने की थी। तो शायद आप लोगों के ध्यान में वह समुद्र वह सिंधु रहा इसलिये आपने उसकी एक बूँद को भी इतना महत्त्व दिया है। पिछले लम्बे दौर से हम लोगों ने देखा है कि हमारे जैसे देश प्रायः अपने समाज को दुत्कारने का काम कर रहे हैं। ये एक सर्वसम्मत विचारधारा बन गई है, अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के नाम लेने की जरूरत मुझे नहीं दिखती। पर्यावरण का काम जो मैंने 30-35 साल में किया, मुझे लगा कि हम अपने समाज को पिछड़ा, अनपढ़ कहते हैं, उसके लिये साक्षरता की कैसी योजनाएँ बनाएँ, उसकी चेतना कैसे जगाएँ-इसी में चिन्तित रहते हैं। आप और हम बहुत सारी सामाजिक संस्थाओं के नामकरण भी देखेंगे तो उसमें ये चेतना वगैरह नाम आ ही जाते हैं। जागृति आएगी। बाकी सब सो रहे हैं, मैं जगा हूँ, इसलिये मैं आपको जगाऊँ। आप सबकी कोई चेतना नहीं है। मैं कोई चेतना का केन्द्र बनाऊँ। इस तरह के बहुत नामकरण जाने-अनजाने में, शायद अनजाने में ही हुए हैं। कोई दोष की तरह न भी देखें उसको, पर ये बहुत हुआ है। कितना बड़ा देश है। मैं तो पूरा घूमा नहीं।
हमारे पास कभी ऐसे साधन नहीं रहे। लेकिन, श्रद्धा से अगर देखें तो बहुत बड़ा है। हम चौथी हिंदी से पढ़ते रहे कि कुछ पाँच लाख गाँव हैं। इस सबको चलाने में हमें संविधान से जो कुछ चीजें मिली हैं तो प्रधानमंत्री तो उसमें से एक की ही गिनती में आता है। अभी तक सौभाग्य है। मन्त्री पहले कम होते थे, अब बहुत ज्यादा भी होने लगे हैं। गठबन्धन की मजबूरी वगैरह बताते हैं लोग, अच्छे-अच्छे लोग। तो इन सबकी संख्या भी अगर आप जोड़ लें तो जो शुभ संख्या है वह 101 हो भी जाए तो क्या यह पाँच लाख गाँवों के देश का संयोजन कर पाएँगे ये लोग? बहुत अच्छे अधिकारियों के भी नाम कभी-कभी हम अखबारों में सुनते हैं। इक्के-दुक्के नाम होते हैं। वे भी तबादलों में भागते-फिरते हैं यहाँ-से-वहाँ। कुछ समाज सेवकों के नाम कभी-कभी आपके सामने आ जाएँगे। कितने होंगे? इसलिये मुझे लगता है कि ये जो सारा ढाँचा है वह पाँच लाख गाँव के इस बड़े देश को संभालने में बहुत अक्षम है। फिर जैसा मैंने कहा कि पिछले डेढ़ सौ साल से एक प्रवृत्ति चली है कि हम अपने को ही चाबुक मारने का काम करते जा रहे हैं। अपने को नहीं तो अपने लोगों को “ये पिछड़े हैं, ये जानते नहीं इनको बताना है, इनको नई चीज समझानी है, नया संगठन बनाना है वगैरह।”
इसमें एक और विचारधारा के कारण एक शब्द आया है जो जाने-अनजाने हम सब लोगों ने अपनाया है वह है- ‘लोक’। किसी भी चीज के आगे लोक लगाओ, जन लगाओ सब ठीक हो जाएगा। मैं छोटे-से-छोटा रद्दी-से-रद्दी आन्दोलन चलाऊँ लेकिन उसके आगे जन लगाकर जन आंदोलन बनाकर आपको डराना चाहूँगा। ऐसे ही लोक शक्ति, लोक क्रांति, लोक चेतना ऐसी लिस्ट बनाएँगे तो आपको सौ-डेढ़-सौ नाम इसमें मिल जाएँगे।
मैंने पिछले तीस साल में अगर जो कुछ किया और उसके कारण आप लोगों ने अपने बीच में आज जो कुछ जगह दी है उदारतापूर्वक तो मुझे लगता है कि मैंने लोक बुद्धि को समझने का प्रयास किया है। अगर पाँच लाख गाँवों के इस देश को संभालना है तो अपने देश के लोगों से प्यार करना सीखना होगा। हम उसका एक हिस्सा हैं, उस सिंधु की एक बिंदु हैं। ये जब तक हमारे ध्यान में नहीं आएगा, तब तक हम उससे विशिष्ट हैं, हम उससे कुछ ज्यादा जानते हैं- यह घमंड बना रहेगा और इसमें से कुछ निकलेगा नहीं। इसलिये इस बुद्धि पर भरोसा करने लायक चीजें मुझे आप सबके आशीर्वाद से देखने का मौका मिला और उसी में से मैंने जो कुछ निकाला है तो मुझे लगता है कि ये जो लोक क्रांति की फुलझड़ी हम लोग जलाते हैं लोक शब्द लगाकर वो कुछ छुट-पुट कर उजेला फेंकती है, हम उससे सन्तुष्ट हो जाते हैं और उसके बाद जैसे ही फुलझड़ी समाप्त होती है। बहुत अंधेरा छा जाता है। तो ये फुलझड़ियाँ हम सौ डेढ़ सौ सालों से लोक शक्ति की लेकिन उसमें बुद्धि का भरोसा न रखकर हम जो जलाते रहे हैं, उससे बचने की कोशिश करनी पड़ेगी।
अभी तो आपके सामने जोशी जी ने भाषण के अन्त में एक बहुत बड़ी चेतावनी दी कि यह जनतंत्र बचेगा कि नहीं। यह भी कोई तंत्र है जिसके आगे हमने ‘जन’ लगाया और हमने सोचा सब कुछ ठीक हो गया। इसलिये उनकी इस चेतावनी को बहुत गहराई से समझें। ये उसी ‘जन’ और ‘लोक’ शब्द से खिलवाड़ का तरीका बनता चला जाएगा। मैं इसमें एक तर्क आपके सामने रखना चाहूँगा कि जिस टेक्नोलॉजी की आज हम लोग खूब वकालत कर रहे हैं, हममें से बहुत सारे लोग भूल गए हैं कि आज का जो हमारा पढ़ा-लिखा समाज है इसकी नींव में हमारे वे अनपढ़ लोग रहे हैं, जिनको हमने दुत्कार कर अलग कर दिया। आज हम जितने लोग भी बैठे हैं हमारे परिवार से कोई एक संतान लड़का-लड़की आई.आई.टी. में चला जाए इसका हमारे मन में बहुत बड़ा सपना होता है। उसके लिये किस तरह की परीक्षाएँ देनी होती हैं कैसी कोचिंग क्लास वगैरह में जाते हैं ये सब आपसे छिपा नहीं है। शिक्षा का वह ढाँचा अभद्र दुकानों तक में बदल गया है। लेकिन कभी हमारे सामने, हम पढ़े-लिखे, थोड़े से पढ़-लिख गए लोगों के सामने ये प्रश्न आया ही नहीं होगा कि इस देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज कहाँ खुला? कब खुला और किसने खोला या शायद किसके कारण से खुला?
ये बात कभी-कभी आज जैसा अवसर आप लोगों ने दिया ऐसा एकाध दो बार या चार बार देश में जो चार-पाँच आई.आई.टी. हैं, उनमें से एकाध को छोड़कर सबके सामने रखने का मुझे मौका मिला और मुझे आपको बताते हुए दुख होता है कि जिसको फैकल्टी कहते हैं, निदेशक कहते हैं वे भी इन संस्थाओं की तह तक शायद नहीं जा पाए। अपने कामों की व्यस्तता के कारण, कोई और दोष न दें। पहली तकनीकी संस्था हमारे देश में 1847 में दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, चेन्नई जैसे किसी बड़े शहर में नहीं खोली गई थी। 1847 में सरकार भी नहीं थी-हमारे पास अंग्रेज की ईस्ट इंडिया कम्पनी थी जो यहाँ उच्च शिक्षा का काम करने नहीं आई थी, साफ-साफ व्यापार करने या शुद्ध हिन्दी में कहें लूटने के लिये आई थी। इसलिये उसको उच्च शिक्षा का कोई केन्द्र खोलने की जरूरत ही नहीं थी। लेकिन उसने 1847 में हरिद्वार के पास रुड़की नाम के एक छोटे से गाँव में देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज खोला था, उस समय शायद रुड़की की आबादी अभी तक मैं ढूँढ नहीं पाया हूँ 700 या 750 लोगों की रही होगी।
वह पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था हमारे देश में और उसके खुलने का एकमात्र कारण था जो मैंने अभी संकेत किया कि जिस लोक बुद्धि को हम लोग भूल चुके हैं, वह उनके सामने मजबूरी में आ गई थी। प्रसंग यह था कि वहाँ अकाल चल रहा था। लोग मर रहे थे। लोग मरें इससे ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेजों को कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला था। लेकिन एक सहृदय अंग्रेज अधिकारी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को एक डिस्पैच भेजकर कहा कि जो लोग मर रहे हैं उनमें तो आप लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं होगी लेकिन यहाँ अगर आप एक नहर बनाएँगे तो आपको सिंचाई का कर मिलना शुरू हो जाएगा और अकाल से लोग निपट सकेंगे। तो आज जो हम एक बहुत प्रिय विभाग का नाम सुनते हैं-पी.डब्लू.डी. और उसके आगे ‘सी’ भी लग जाता है, हमारे दिल्ली में सी.पी.डब्ल्यू.डी. तब वह नहीं बना था देश में। कोई इंजीनियर नहीं था, कोई विभाग नहीं था पब्लिक वर्क्स करने वाला। लेकिन इस अंग्रेज ने वहाँ के लोगों को इकट्ठा करके पूछा था कि तुम लोग पानी का काम बहुत अच्छा जानते हो तो क्या ये नहर बना सकते हो?
200 किलोमीटर की यह नहर आज जिसको हम अनपढ़ कहते हैं उस समाज ने अंग्रेजों के सामने कागज बिना ड्राईंग बोर्ड के, कोई यन्त्र नहीं थे, इसको उन्होंने निकाल के रखा। कागज पर नहीं मन में उकेरा और फिर जमीन पर बनाया। उसमें उनको एक नदी पार करानी थी नहर को, जिसमें नदी से ज्यादा पानी गंगा का निकाल कर ले जाना था। आज हम अंग्रेजी में जिसे अक्वाडक कहते हैं वह भी बनाना था। तब मैं फिर आपके सामने एक और बात रख दूँ कि बिजली भी उस समय देश में कहीं नहीं थी। अभी भी कई जगह बिजली नहीं है यानी कई शहरों में आती है और जाती है। लेकिन तब तो आई ही नहीं थी देश में बिजली, और सीमेंट जैसी कोई चीज नहीं थी। गारा-चूना था जिसको आज हम ट्रेडीशनल बिल्डिंग मैटीरियल कहकर उड़ा देते हैं। उससे यह नहर बनने वाली थी पूरी-की-पूरी और इस नहर को एक नदी भी पार करनी थी, वो अक्वाडक भी उन लोगों ने डिजाइन की। वह नहर चालू हुई। 200 साल आज हो रहे हैं उसको, उससे भी ज्यादा, वह बराबर चलती रही है और उसमें कोई खराबी नहीं आई। उस नहर के कारीगरों को देखकर इस अंग्रेज सहृदय अधिकारी ने फिर से इस ईस्ट इंडिया कम्पनी को कहा कि एक छोटा-सा इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को और चमकाने के लिये क्यों नहीं बनाते। यहाँ पर तब तक भारत में कहीं कोई इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खुला था।
इन अनपढ़ लोगों की देन थी उनका ये चमत्कार था कि अंग्रेज अधिकारी जो लूटने आया था उसको एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोल कर देना पड़ा। और पुराना इतिहास अगर देखें तो पता चलता है तब तक भारत के अलावा एशिया में कोई ऐसा कॉलेज नहीं था। जिन देशों ने कोरिया ने, जापान ने इतनी तरक्की की है, वहाँ भी ऐसा कॉलेज नहीं था। तब हमारे यहाँ पहली बार यह कॉलेज खुला था, अनपढ़ लोगों की देन थी, उसके अलावा ऐसा भी कहा जाता है कि तब यूरोप में भी ऐसा कोई कॉलेज नहीं था। लेकिन सौभाग्य से ही कहना चाहिए कि इस कॉलेज का तो दुर्भाग्य रहा लेकिन देश के सौभाग्य के लिये वहाँ पर 10 साल बाद गदर हो गया। 1847 के बाद 57। जो उदार 2-4 इने-गिने अधिकारी इस तरह के प्रयोगों को बढ़ावा दे रहे थे कि हमारे यहाँ के जो लोग अनपढ़ माने जाते हैं वे बाकायदा इंजीनियर हैं, सिविल इंजीनियर हैं और उससे ये देश चलना चाहिए, वह धारा एकदम कट गई। उन सबको ब्लैक लिस्ट किया गया और साफ-साफ यह कहा गया कि जो लोग हमारे एजेंट हैं उन्हीं को ये सब पढ़ाई पढ़ानी चाहिए। उनको और कोई चीज आती हो तो आए हमारे लिये वे अनपढ़ हैं। इस तरह से वह रस्सी तब कटी लेकिन फिर रस्सी हम कभी जोड़ नहीं पाए।
मैंने जो कुछ 20 साल में काम किया तो मुझे ऐसा लगा कि जब अंग्रेज आए तो हमारे देश में करीब 20 लाख से 25 लाख तालाब थे जिनको अंग्रेजी में वॉटर बॉडीज वगैरह कहा जाता है। जैसे अभी उन्होंने बताया कि हर चीज का नम्बर चाहिए। हमारे यहाँ वॉटर बॉडीज शब्द नहीं चलता था। हर तालाब का नामकरण होता था क्योंकि वह जीवन देता है, इसलिये वह खुद जीवंत है। कभी उसको नापकर नम्बर नहीं दिया। उस पर कहावतें किस्से कहानियाँ। आप तो भोपाल में बैठे हैं। भोपाल के तालाब को लेकर जो कहावतें बनीं उसमें गर्व के बदले घमंड तक आ गया। ताल में भोपाल ताल बाकी सब तलैया और उसके बाद लाइन कहना जरूरी नहीं है। तो ये इतनी ऊपर तक चीजें चली जाएँ। जैसलमेर में एक बहुत सुन्दर तालाब है 800 साल पहले बनाया था। ये रेगिस्तानी इलाका है, जहाँ आज का साइंस कहता है कि सबसे कम पानी गिरता है। उसको सेंटीमीटर में नापते हैं और 16 सेंटीमीटर बताते हैं, वह जैसलमेर है।
जहाँ सबसे ज्यादा पानी गिरता है चेरापूँजी वह भी चौथी हिंदी में हम लोग पढ़ते हैं। वहाँ भी पानी का काम, यह समाज जानता था, और जहाँ सबसे कम गिरता है वहाँ भी। दोनों में से किसी भी समाज के हिस्से ने ये शिकायतें नहीं की कि तुमने हमको बहुत कम पानी दिया या तुमने हमको बहुत पानी दिया है। जो दिया है उसके इर्द-गिर्द हम पूरा अपना काम रंग-बिरंगा चला कर दिखाएँगे। तो ये जो एक आदत थी लोक बुद्धि की वह हम धीरे-धीरे भूलते चले गए। आपने परिचय में सुना कि हमारी एक किताब का नाम है- ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ वह शब्द हमें आज जिसको हम अनपढ़ कहेंगे उससे मिला। कितना सेंटीमीटर पानी गिरता है, कितने इंच गिरता है ये पूछते हैं तो जवाब मिलता है वहाँ पर कि रजत बूँदें गिरती हैं। चाँदी की बूँदे उनमें से जितनी रोक लो आपके काम आएँगी। एक भी कण बर्बाद नहीं जाने देना। विज्ञान की दृष्टि उसको इंच और सेंटीमीटर में नापेगी और हमारा समाज उसको रजत कणों की तरह देखता था। कोई शिकायत मन में नहीं कि तुमने प्रभु क्या थोड़ा-सा पानी गिराया। असंख्य, करोड़ों रजत बूँदें गिराईं उसमें से हम जितनी रोक सकें उतनी रोकें।
आप सभी लोग मध्य प्रदेश के शहरों में एक मोहल्ला और गली को जानते होंगे, सर्राफा। वहाँ पर सवेरे जैसी झाड़ू लगती है वैसी झाड़ू शायद राष्ट्रपति भवन में भी नहीं लगती होगी। सर्राफे को साफ कौन करता है? म्युनिसिपेलिटी का सफाई कर्मचारी साफ नहीं करता। समाज के सबसे गरीब माने गए लोग तसला लेकर आते हैं, झाड़ू लेकर आते हैं। एक-एक कण साफ करते हैं क्योंकि उसमें छोटा-सा चाँदी और सोने का टुकड़ा मिल जाएगा उनको जो सुनार ने फूँक के इधर-उधर बिखेर दिया होगा। तो पानी को इस ढंग से देखने वाला समाज कि एक कण भी कहीं जाने न दें। हम सब कुछ करके देख लेंगे। ये सब चीजें हैं। मुझे काम करने का मौका मिला। मैं आपका समय ज्यादा नहीं लूँगा बस इतना कहूँगा कि इसको शोध की तरह मैंने नहीं देखा। इसको श्रद्धा से देखा। शोध में तो पाँच साल का प्रोजेक्ट होगा। मुझे पैसा मिलेगा मन्त्रालय से तो मैं करूँगा, नहीं मिलेगा तो मैं नहीं करूँगा। लेकिन अगर हम श्रद्धा रखेंगे तो हम उस काम को सब तरह की रुकावटों के बाद भी करके आगे जाएँगे। इसके लिये विशेषज्ञ बनना जरूरी नहीं। समाज का मुंशी बनना जरूरी है, क्लर्क। आज ये शब्द बदनाम हो गए हैं। लेकिन हमें अच्छे क्लर्क चाहिए। हम अच्छे क्लर्क बन सकें उस समाज की ठीक तस्वीर आप सबके सामने रख सकें तो ये काम आगे चलेगा। आप सबने अपनी उदारता से आज एक क्लर्क को अपने बीच में बैठाया इसके लिये मैं हृदय से आप सबको धन्यवाद देता हूँ। आपका आभारी हूँ।
धन्यवाद।
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