मरुभूमि का भाग्यवान समाज

Submitted by admin on Thu, 10/22/2009 - 08:02
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समाज कैसे चलता है, वह अपने सारे सदस्यों को कैसे संगठित करता है, कैसे उनका शिक्षण प्रशिक्षण करता है, उन सबका प्रयोग वह कैसी कुशलता से करता है, उस समाज के एक सदस्य के रूप में मैं भी पिछले तीस साल से देख समझ रहा हूं. वह कितनी लंबी योजना बनाकर काम करता है उसे भी देखने समझने का मौका मिला है. समाज का भूतकाल, वर्तमान और भविष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ता रहे, सधता रहे, संभला रहे और छीजने के बदले संवरता रहे इस सब का विराट दर्शन मुझे विशाल पसरे रेगिस्तान में, मरूप्रदेश में मिला और आज भी मिलता चला जा रहा है.

आप आपके सामने इस विशाल मरूभूमि में फैले रेत के विशाल साम्राज्य की चुटकी भर रेत ही शायद आपके सामने रख पाऊं. पर मुझे उम्मीद है कि इस जरा सी रेत के एक एक कण में अपने समाज की शिक्षा, उसका प्रशिक्षण, उसका शिक्षण, उसकी परंपरा, उसके अलिखित पाठ्यक्रम इसे लागू करनेवाले विशाल संगठन की कभी भी असफल न होने वाले उसके परिणामों की झलक, चमक और उष्मा आपको मिल जाएगी.

आज जहां रेत का विस्तार है वहां कुछ लाख साल पहले समुद्र था. खारे पानी की विशाल जलराशि. लहरों पर लहरें. धरती का, भूिम का एक बित्ता टुकड़ा भी यहां नहीं था, उस समय. यह विशाल समुद्र कैसे लाखों बरस पहले सूखना शुरू हुआ फिर कैसे हजारों बरस तक सूखता ही चला गया और फिर यह कैसे सुंदर सुनहरा मरूप्रदेश बन गया, धरती धोरां री बन गया- इसे पढ़ने समझने के में आपको भूगोल की किताबों, प्रागैतिहासिक पुस्तकों के ढेर में हजारों पन्ने पलटने पड़ सकते हैं. पर इस जटिल भौगोलिक घटना की बड़ी सरल समझ आपको यहां के समाज के मन में मिल जाएगी. वह समाज इस सारे प्रपंच, प्रसंग को बस केवल दो शब्दों में याद रखता है- पलक दरियाव. यानी पलक झपकते ही जो दरिया, समुद्र गायब हो जाए. लाखों बरस का गुणा-भाग, भजनफल, अनगिनत शून्य वाली संख्याएं सब कुछ अपने ब्लैकबोर्ड से उसने एक सधे शिक्षक की तरह डस्टर से मिटाकर चाक का चूरा झाड़ डाला और बस कहा- पलक दरियाव. जो समाज इतना पीछे इतनी समझदारी से झांक सकता है वह उतना ही आगे अपने भविष्य में भी देख सकता है. वह उतनी ही सरलता और सहजता से फिर कह देता है- पलक दरियाव. यानी पलक झपकते ही यहां फिर कभी समुद्र आ सकता है.

 

 

धरती गरम होने से समुद्र का स्तर ऊपर उठने की जो चिंता आज हम विश्व के विशाल मंचों पर देख रहे हैं उसकी एक छोटी सी झलक आपको इस समाज के नुक्कड़ नाटकों में, नौटंकी में कभी भी कहीं भी आज से सौ दो सौ बरस पहले भी मिल सकती थी. यहां की भाषा में नये शिक्षा शास्त्री शायद इसे भाषा नहीं बल्कि बोली कहेंगे तो उस बोली में समुद्र, दरियाव के लिए एक शब्द है- हाकड़ो. हाकड़ो का अर्थ आत्मा भी होता है. आज थोड़ी सी नयी किस्म की पढ़ाई पढ़ गया समाज इस इलाके को पानी के अभाव का इलाका मानता बताता है. पर इस इलाके की आत्मा यानी हाकड़ो है - पानी.

 

 

 

 

समय की अनादि अनंत धारा को क्षण-क्षण में देखने और सृष्टि के विराट विस्तार को अणु में परखने वाली इस पलक ने, इस दृष्टि ने हाकड़ो को, समुद्र को जरूर खो दिया लेकिन उसने अपनी आत्मा में हाकड़ो की विशाल जलराशि को कण-कण में, बूंदों में देख लिया. उसने अखण्ड समुद्र को खंड खंड कर अपने गांव-ठांव में फैला लिया. प्राथमिक शाला की पुस्तकों से लेकर देश के योजना आयोग तक के कागजों में राजस्थान की विशेषकर इसके मरूप्रदेश की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े इलाके की है. थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि आपका कलेजा ही सूख जाए. देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर अब यह सबसे बड़ा प्रदेश है लेकिन वर्षा के वार्षिक औसत में यह देश के प्रदेशों में अंतिम है. वर्षा के पुराने इंचों में नापें या नटे मीलीमीटरों में, वर्षा यहां सबसे कम गिरती है. देश की औसत वर्षा ११० सेंटीमीटर आंकी जाती है. उस हिसाब से राजस्थान का औसत लगभग आधा ही बैठता है- ६० सेंटीमीटर. लेकिन औसत बतानेवाले ये आंकड़े यहां का कोई ठीक िचत्र नहीं दे सकते. राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक यह १० सेन्टीमीटर से १५ सेन्टीमीटर और कहीं-कहीं तो उससे भी कम है.

भूगोल की किताबें प्रकृति को, वर्षा को इस मरूस्थल में एक अत्यंन्त कंजूस महाजन, साहूकार की तरह देखती हैं और इस इलाके को उसके शोषण का दयनीय शिकार बताती हैं. राज्य के पूर्वी भाग से पश्चिमी भाग तक आते-आते वर्षा कम हो जाती है. ठेठ पश्चिम यानी बाड़मेर, जैसलमेर तक जाते-जाते तो वह सूरज की तरह डूबने लगती है. जैसलमेर में वर्षा का सालाना आंकड़ा १५ सेन्टीमीटर है. पर खुद जैसलमेर की गिनती देश के सबसे बड़े जिले के रूप में की जाती है. इसमें भी पूर्व और पश्चिम है. जैसलेमर का पश्चिमी भाग पाकिस्तान से सटा हिस्सा तो कुछ ऐसा है कि मानसून के बादल यहां तक आते-आते थक ही जाते हैं और कभी बस ७ सेन्टीमीटर तो कभी ३-४ सेन्टीमीटर पानी की हल्की सी बौछार कर विशाल नीले आकाश में एक मुट्ठी रूई के टुकड़े की तरह गायब हो जाते हैं. इसकी तुलना गोवा के कोंकण से या फिर पाठ्यपुस्तकों से ही उभरे एक और स्थान चेरापूंजी से करें तो यहां आंकड़ा १००० सेन्टीमीटर भी पार कर जाता है.

मरूभूमि में बादल नहीं सूरज बरसता है. औसत तापमान ५० डिग्री पर रहता है. एक और तीसरी बात भी जोड़ लीजिए कि यहां के ज्यादातर हिस्सों में पाताल पानी खारा है. वह पीने लायक नहीं है. जीवन को बहुत ही कठिन बनाने वाले इन तीन बिन्दुओं से घिरा यह रेगिस्तान दुनिया के अन्य रेगिस्तानी इलाकों की तुलना में बहुत ही अलग है. यहां उनके मुकाबले बसावट भी ज्यादा है और उस बसावट में सुगंध भी है. इस सुगंध का क्या रहस्य है? रहस्य है यहां के समाज में. मरूप्रदेश के समाज ने प्रकृति से मिलनेवाले इतने कम पानी का, वर्षा का रोना कभी नहीं रोया. उसने इस सबको एक चुनौती की तरह लिया और अपने को ऊपर से नीचे तक इतना संगठित किया, कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव पूरे समाज के स्वभाव में बहुत ही सरल और तरल ढंग से बहने लगा. 'साईं इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय' की जगह उस समाज ने कहा होगा- साईं जितना दीजिए वामे कुटुंब समाय. इतने कम पानी में उसने इतना ठीक प्रबंधन कर दिखाया कि वह खुद भी प्यासा नहीं रहा और साधु तो क्या असाधु को भी पानी मिल गया.

पानी का काम यहां भाग्य का काम भी है और कर्तव्य भी. वह सचमुच भाग्य ही तो था कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण कुरूक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारका इसी मरूप्रदेश से होकर लौट रहे थे. उनका शानदार रथ जैसलमेर से गुजरा. जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिल गये. श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया. फिर उनके तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ऋषि से वर मांगने को कहा. उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा. ये ऋषि सचमुच ऊंचे निकले. उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा. प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवान वर दें कि इस मरूभूमि पर कभी अकाल न रहे. भगवान ने तथास्तु कहकर वरदान दे दिया. कोई और समाज होता तो इस वरदान के बाद हाथ पर हाथ रख बैठ जाता. सोचता, कहता कि लो भगवान कृष्ण ने वरदान दे दिया है कि यहां पानी का अकाल नहीं पड़ेगा तो अब हमें क्या चिंता, हम काहे को कुछ करें. अब तो वही सबकुछ करेगा.

लेकिन मरुभूमि का भाग्यवान समाज मरुनायक (श्रीकृष्ण को मरूनायक भी कहते हैं) से ऐसा वरदान पाकर हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठा. उसने अपने को पानी के मामले में तरह तरह से कसा. गांव-गांव, ठांव-ठांव वर्षा को रोक लेने की सहेज लेने की एक से एक सुंदर रीतियां खोजीं. रीति के लिए यहां एक पुराना शब्द है वोज. वोज यानी रचना, मुक्ति और उपाय भी. इस वोज के अर्थ में विस्तार भी होता जाता है. हम पाते हैं कि पुराने प्रयोगों में वोज उपयोग, सामर्थ्य, विवेक और फिर विनम्रता के अर्थ में भी होता था. वर्षा की बूंदों को सहेज लेने का वोज यानी विवेक भी रहा और उसके साथ ही पूरी विनम्रता भी. इसलिए यहां के समाज ने वर्षा को इंचो और सेन्टीमीटरों में नहीं नापा. उसने इसे बूंदों में नापा. पानी कम गिरता है? जी नहीं. पानी की तो करोड़ों बूंदे गिरती हैं. फिर ये बूंदे भी मामूली नहीं. उसने इसे रजत बूंदे कहा. उसी ढंग से इसे देखा और समझा भी. अपनी इस अद्भुद समझ से, वोज से उसने इन रजत बूंदों को सहेजने की एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली जिसकी धवल धारा इतिहास से निकल कर वर्तमान में तो बह ही रही है, वह भविष्य में भी अनवरत बहती रहेगी.