Source
परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004
आज विश्व के ज्यादातर देशों में पानी की कमी एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है। भू-जल (जमीन के नीचे के जल) और नदियों-झीलों के बहुत अधिक दोहन से यह कमी हो रही है। दूसरे शब्दों में, आने वाली पीढ़ियों के लिए पानी की समस्या और अधिक विकट होगी। जहां यह सच है कि विभिन्न देशों के बहुत-से लोग पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं, वहीं यह भी सच है कि इन्हीं देशों में अनेक कंपनियां और लोग पानी का गैर जरूरी उपयोग कर रहे हैं। यह संकट दूर करने के लिए ऐसे उपाय करने चाहिए, जिनसे सभी व्यक्तियों और पशु-पक्षियों को राहत मिले और साथ ही आने वाली पीढ़ी को पानी मिल सके। पानी का सकंट हल करने में कोई छीना-झपटी नहीं होनी चाहिए। अमीर गरीब का हक न छीने, शहर गांव का हक न छीने, कोई शक्तिशाली क्षेत्र किसी कमजोर क्षेत्र का हक न छीने, वर्तमान पीढ़ी आने वाली पीढ़ी का हक न छीने, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
पानी का संकट दूर करने और दूर रखने के लिए तीन स्तरों पर प्रयास करना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि किसी क्षेत्र में जितनी भी वर्षा होती है, कम या अधिक, प्रकृति द्वारा दिए गए जल को अधिक से अधिक संग्रह करना, बचा कर रखना चाहिए। इसके लिए हम तालाब, बावड़ी, नाड़ी या टांका क्षेत्र की परिस्थिति और जरूरतों के अनुसार बना सकते हैं। साथ ही चौड़ी पत्ती के पेड़, तरह-तरह की झाड़ी और घास की हरियाली बढ़ाकर भी जल संरक्षण बेहतर किया जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि जिन स्थानों की औसत वार्षिक वर्षा देश में सबसे कम है, वहां भी यदि सावधानी से जल बचाने का प्रयास किया जाए तो अपनी बुनियादी जरूरत को पूरा करने में वे क्षेत्र आत्मनिर्भर हो सकते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी क्षेत्र में उपलब्ध पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं सोच-विचारकर तय होनी चाहिए और उसकी उपलब्धता अनुकूल ही उपयोग का नियोजन होना चाहिए। सबसे पहले तो सबको साफ पेयजल उपलब्ध हो, नहाने-धोने, और पशुओं के लिए जरूरी पानी उपलब्ध हो। खेती का फसल चक्र ऐसा रखा जाए, जो क्षेत्र में उपलब्ध जल-संसाधन के अनुकूल हो।
जब पेयजल, पशुओं, कृषि और कुटीर उद्योग और घरेलू उपयोग की जरूरतें पूरी हो जाएं, उसके बाद ही पानी का बड़े पैमाने पर उपयोग करने वाले किसी खनन या उद्योग के बारे में सोचा जा सकता है। तीसरा, क्षेत्र में जो भी प्राकृतिक जल संसाधन हैं, जैसे नदी, झील या तालाब, उन्हें प्रदूषण से बचाने पर ध्यान दिया जाए, चाहे वह घरों की गंदगी हो या खनन-उद्योग आदि की, आसपास के जलग्रहण क्षेत्रों को गंदगी और अतिक्रमण से मुक्त रखने का भरपूर प्रयास हो। इन सावधानियों को अपनाया जाए, तो बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी जल संकट उत्पन्न नहीं होगा।
हाल ही में सरकार ने देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने की एक बहुत विशाल योजना की घोषणा की है। इसके तहत लगभग 30 स्थानों पर देश की नदियों को जोड़ने की तैयारी है। इस योजना के अगले पंद्रह-बीस वर्षों में 560,000 करोड़ रुपए की लागत से पूरा करने का दावा किया जा रहा है। यदि इस पर अमल हुआ तो यह संभवतः अब तक देश की सबसे हानिकारक योजना सिद्ध होगी। अगर व्यावहारिक दिक्कतों के कारण यह आधी-अधूरी छोड़ दी गईं, तब भी काफी नुकसानदेह साबित होगी और सीमित वित्तीय संसाधनों की बर्बादी करेगी। इसलिए आरंभ करने से पहले ही इसे त्याग देना (कम से कम इसके वर्तमान विशालकाय रूप में) उचित होगा।
इस योजना के अंतर्गत बहुत-से बड़े और मध्यम बांध या बराज बनेंगे। अगले पंद्रह-बीस वर्षों में नहरों और बांधों का व्यापक जाल बिछाने की जो योजना है, उस स्तर का निर्माण कार्य देश में अभी तक नहीं हुआ है। बड़े बांधों और नहरों के इस जाल में लाखों लोग विस्थापित होंगे और लाखों लोग अपने खेतों से पूर्ण या आंशिक तौर पर वंचित होंगे। अभी तक का अनुभव बताता है कि जिन परियोजनाओं में पुनर्वास की लंबी तैयारी और नियोजन करने का अवसर मिला है, उनके विस्थापितों का भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है, क्योंकि जमीन के बदले जमीन प्राप्त करना बहुत कठिन होता है।
बांधों और नहरों के इस जाल से बहुत-से वन, संरक्षित क्षेत्र और वन्य जीवों के आश्रय स्थल भी तबाह होंगे। मछलियों और अन्य जल-जीवों पर बांध निर्माण के अनेक प्रतिकूल असर पहले ही देखे गए हैं। विभिन्न नदियों के पानी के गुणों में काफी भिन्नता हो सकती है और इस कारण दो या अधिक नदियों के जुड़ने पर जल-जीवों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
किसी भी परियोजना के हानि-लाभ सुनिश्चित करने के लिए, विशेषकर उसके दीर्घकालीन पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को जानने के लिए गहरी जांच-पड़ताल की आवश्यकता होती है, जिसमें संबंधित सरकारी विभागों के साथ स्वतंत्र विशेषज्ञों व स्थानीय जनता की भी भागीदारी जरूरी है। इस तरह के गहन विचार मंथन के बिना योजना के कार्यान्वयन से सरकारी पैसे की भयंकर बर्बादी हो सकती है और लाभ की जगह हानि हो सकती है। जिन स्थानों पर नदियों को जोड़ने की तैयारी चल रही है, उन सभी परियोजनाओं का गहराई से मूल्यांकन होना चाहिए कि वे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उचित हैं या नहीं। मगर इनमें से अधिकांश परियोजनाओं को स्वीकृति पहले ही मिल गई है। जो थोड़ी-बहुत, आधी-अधूरी जांच होनी है वह बाद में होती रहेगी। जहां इस तरह उल्टी दिशा में सब कुछ चला जा रहा हो, वहां विकास के स्थान पर विनाश की आशंका अधिक है।
हमारे देश में अधिकांश नहर परियोजनाएं वास्तव में अपनी घोषित क्षमता की मात्र एक तिहाई सिंचाई ही कर पा रही हैं। अनेक नहर-प्रणालियां आधी-अधूरी पड़ी हैं और किसान के खेत तक नहीं पहुंच सकती हैं। नहरों से रिसने वाला पानी लाखों हेक्टेयर भूमि को दलदलीकरण और लवणीकरण से बर्बाद कर चुका है। अभी इन नहरों के अधूरेपन को दूर करने और सही रख-रखाव के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास की जरूरत है। पर इसकी उपेक्षा कर सरकार सबसे बड़ी नहरों की नई योजना की ओर बढ़ने के लिए तैयार है। बड़े बांधों की परियोजनाओं के कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। जैसे, उनमें तेजी से गाद भरने के कारण उनकी आयु कम होना, उनसे अचानक छोड़े जाने वाले पानी के कारण बहुत अधिक वेग वाली विनाशकारी बाढ़ों की समस्या, अनेक बांध स्थलों के आसपास भूकंपों की आशंका बढ़ना, अनेक बांधों का टूटना और कुछ की सुरक्षा के बारे में सवाल उठाना आदि।
इन समस्याओं का हल ढूंढे बिना यह योजना अनेक नए बांधों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इस योजना में पानी को भारी मात्रा में दूर-दूर तक नदियों का प्राकृतिक मार्ग बदल कर ले जाया जाएगा। एक नदी से दूसरी नदी के क्षेत्र में जाने के लिए जगह-जगह पर्वतों, पठारों आदि के अवरोध भी आएंगे। कहीं पानी को लिफ्ट करना होगा, कहीं दुर्गम सुरंगों से गुजारना होगा तो कहीं लंबे घुमावदार रास्तों से लेकर जाना होगा। यह बहुत महंगा सिद्ध होगा। इसमें बिजली भी बहुत खर्च होगी।
नदी जल के बंटवारे को लेकर विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में बहुत तीखे आपसी झगड़े होते रहे हैं। अब इस समस्या को अचानक एक झटके में बड़े पैमाने पर बढ़ा देने का काम यह योजना करेगी। इसके पैरवीकार कहते हैं कि अतिरिक्त जल को कम जल वाले स्थानों पर लाओ, पर कई राज्य या क्षेत्र अपने को अतिरिक्त जल वाला क्षेत्र मानने को तैयार नहीं है। इस योजना में पड़ोसी देशों से भी नदी जल के बंटवारे को लेकर कई नए झगड़े और विवाद उत्पन्न होने की भरपूर आशंका है।
नदी जोड़ परियोजना का प्रचार-प्रसार सरकारी स्तर पर बहुत तेजी से किया गया है। कुछ समय पहले तक आने वाले दशक के जल-नियोजन में इसे कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं था। उलटे कुछ विषेशज्ञ स्तर की सरकारी रिपोर्टों में इस तरह की योजनाओं के विरुद्ध विचार व्यक्त किए गए थे। इस योजना को अचानक बहुत तेजी से सरकार की ओर से मान्यता मिली और यह अगले दो दशकों के लिए जल प्रबंध की सबसे महत्वपूर्ण योजना बन गई।
सुप्रीम कोर्ट से इसके लिए कोई आदेश या निर्देश नहीं मिला था, मात्र सलाह मिली थी, पर सरकारी तंत्र ने इसे इस रूप में प्रदर्शित किया जैसे उसे सब विवाद समाप्त करने वाला कोई आदेश मिल गया है। सरकारी नीति-नियामक मानो ऐसे किसी मौके की तलाश में थे और अनुकूल अवसर मिलते ही उन्होंने इस योजना को इतनी तेजी से आगे बढ़ाया, ऐसा शायद पहले कभी नहीं देखा गया था। योजना का विरोध करने वाले पूर्व उच्च सरकारी अधिकारियों की भी सरकारी तंत्र ने बहुत तीखी आलोचना की। अपनी ही बिरादरी के अपने से वरिष्ठ विशेषज्ञों की ऐसी तीखी आलोचना बहुत कम देखी गई है।
नदी जोड़ योजना को इतनी आक्रामकता से क्यों आगे बढ़ाया जा रहा है, इसका मुख्य कारण यह है कि जल प्रबंधन में विशालकाय परियोजनाओं और बडे़ बांधों की वकालत करने वालों को लगता है कि इस योजना की आड़ में वे सब तरह के लोकतांत्रिक विरोध की अवहेलना करते हुए बहुत तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। बड़े बांध बनाने, बड़े पनबिजली संयंत्र लगाने और नहरों का बड़ा जाल फैलाने वाले देशों में भारत का स्थान अग्रणी पंक्ति में रहा है। अरबों रुपए के इस वार्षिक कारोबार के साथ बहुत-से आर्थिक स्वार्थ जुड़ गए हैं। बड़े परियोजनाओं के साथ, खासकर बड़ी निर्माण कंपनियों के हित जुड़े हैं, जिन्हें, अरबों रुपए के ठेके मिलती हैं, जिसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा वे कमीशन और दलाली में खर्च करती हैं।
पिछले लगभग दो दशकों के दौरान अनेक जल संगठनों और आंदोलनों ने बराबर ऐसी परियोजनाओं के औचित्य के बारे में सवाल उठाए हैं। विशेषज्ञों ने इन परियोजनाओं की अनेक कमियों, जल्दबाजी में किए गए अनुसंधान और नियोजन की कमजोरियों, अपेक्षा से कहीं कम उपलब्ध हुए लाभों और अनेक गंभीर दुष्परिणामों की ओर बार-बार ध्यान दिलाया है। इनमें से कुछ तथ्यों को अनेक सरकारी रपटों में भी स्वीकार किया गया।
न्यायालयों ने इस आधार पर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय दिए। ऐसी बड़ी परियोजनाओं के क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने भी इनके बारे में बुनियादी आवाज उठानी शुरू कर दी कि किसी आधार पर उनसे पर्याप्त परामर्श के बिना, बेहद संदेहास्पद मान्यताओं के आधार पर इनका औचित्य निर्धारित किया जाता है। इसके साथ ही जनआंदोलनों की मदद से लोगों ने इन परियोजनाओं के विकल्प भी सुझाने का प्रयास किया है। इसके अलावा विश्व स्तर पर भी विशेषज्ञों और आंदोलनों द्वारा बड़े बांधों और अन्य विशालकाय जल परियोजनाओं का विरोध होने लगा है, क्योंकि कई देशों में इनके गंभीर दुष्परिणामों और उम्मीद से कम लाभों के उदाहरण सामने आ रहे थे।
इन परिस्थितियों में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां अनेक स्वतंत्र विशेषज्ञों, अनुसंधान संस्थाओं और जन आंदोलनों ने अपने सतत् प्रयासों से एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। और अब बड़ी परियोजनाओं को पहले जैसी तेजी से और बिना रोक-टोक के आगे ले जाना कठिन हो रहा था, इनके औचित्य के बारे में सवाल बार-बार उठाए जा रहे थे।
मगर नदी जोड़ योजना की अनेक पेचीदगियों और समस्याओं को छुपाकर इसे अति सरलीकृत रूप में और बहुत आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है। बाढ़ और सूखे से जूझते इस देश में यह भ्रामक प्रचार किया जा रहा है कि अधिक मात्रा वाले स्थान से पानी को कम मात्रा वाले स्थान पर ले जाया जाएगा। यह अति सरलीकृत और भ्रामक प्रचार इतना मोहक है कि जिसने इस योजना की जटिलताओं के बारे मंें नहीं सोचा है, वह पहली नजर में इससे प्रभावित हो जाता है।
यह योजना एक ऐसे समय में आई है, जब संसद सूचना के अधिकार का कानून पास कर चुकी है। नदी जोड़ योजना जैसी विवादास्पद योजनाओं के कार्यान्वयन के संदर्भ में इस नए कानून का ध्यान रखा जाना चाहिए। सूचना के स्वतंत्रता के केंद्रीय कानून में स्पष्ट कहा गया है कि किसी योजना के लिए जो भी जिम्मेदार लोक प्राधिकारी है, वह किसी भी परियोजना को आरंभ करने से पहले जनसाधारण को और विशेषकर परियोजना से प्रभावित होने वाले लोगों (या प्रभावित होने की आशंका वाले लोगों) को परियोजना के बारे में अपने वे तथ्य उपलब्ध करवाएगा, जिन्हें लोकतांत्रिक सिद्धांतों और न्याय के हित में लोगों तक पहुंचाना जरूरी है। साथ ही यह भी कहा गया है कि लोक प्राधिकारी अपने सभी महत्वपूर्ण निर्णयों और नीतियों की घोषणा करते समय इनसे संबंधित सभी आवश्यक तथ्य प्रकाशित करेंगे। इसके अलावा वे प्रभावित होने वाले लोगों को इन निर्णयों को लेने का कारण भी बताएंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों के दैनिक जीवन में पानी बहुत महत्वपूर्ण है और जलप्रबंध से जुड़ी हुई अब तक की सबसे विशालकाय, सबसे अधिक लोगों को प्रभावित करने वाली योजना है नदी जोड़ योजना। इससे करोड़ों लोगों का जीवन स्थायी तौर पर प्रभावित होगा। लाखों लोग इससे विस्थापित हो सकते हैं। सवाल यह है कि क्या इन लोगों तक योजना से संबंधित आवश्यक तथ्य पहुंचाए गए हैं? क्या इसका निर्णय लेने के कारण उन्हें बताए गए हैं? इस योजना का लोगों पर क्या असर पड़ेगा, क्या यह जानकारी उनको दी गई है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस समय नकारात्मक है। अतः यह जरूरी है कि नदी जोड़ योजना के बारे में सभी जरूरी तथ्य सूचना की स्वतंत्रता के नए कानून के तहत शीघ्र लोगों तक पहुंचाए जाएं।
पानी का संकट दूर करने और दूर रखने के लिए तीन स्तरों पर प्रयास करना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि किसी क्षेत्र में जितनी भी वर्षा होती है, कम या अधिक, प्रकृति द्वारा दिए गए जल को अधिक से अधिक संग्रह करना, बचा कर रखना चाहिए। इसके लिए हम तालाब, बावड़ी, नाड़ी या टांका क्षेत्र की परिस्थिति और जरूरतों के अनुसार बना सकते हैं। साथ ही चौड़ी पत्ती के पेड़, तरह-तरह की झाड़ी और घास की हरियाली बढ़ाकर भी जल संरक्षण बेहतर किया जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि जिन स्थानों की औसत वार्षिक वर्षा देश में सबसे कम है, वहां भी यदि सावधानी से जल बचाने का प्रयास किया जाए तो अपनी बुनियादी जरूरत को पूरा करने में वे क्षेत्र आत्मनिर्भर हो सकते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी क्षेत्र में उपलब्ध पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं सोच-विचारकर तय होनी चाहिए और उसकी उपलब्धता अनुकूल ही उपयोग का नियोजन होना चाहिए। सबसे पहले तो सबको साफ पेयजल उपलब्ध हो, नहाने-धोने, और पशुओं के लिए जरूरी पानी उपलब्ध हो। खेती का फसल चक्र ऐसा रखा जाए, जो क्षेत्र में उपलब्ध जल-संसाधन के अनुकूल हो।
जब पेयजल, पशुओं, कृषि और कुटीर उद्योग और घरेलू उपयोग की जरूरतें पूरी हो जाएं, उसके बाद ही पानी का बड़े पैमाने पर उपयोग करने वाले किसी खनन या उद्योग के बारे में सोचा जा सकता है। तीसरा, क्षेत्र में जो भी प्राकृतिक जल संसाधन हैं, जैसे नदी, झील या तालाब, उन्हें प्रदूषण से बचाने पर ध्यान दिया जाए, चाहे वह घरों की गंदगी हो या खनन-उद्योग आदि की, आसपास के जलग्रहण क्षेत्रों को गंदगी और अतिक्रमण से मुक्त रखने का भरपूर प्रयास हो। इन सावधानियों को अपनाया जाए, तो बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी जल संकट उत्पन्न नहीं होगा।
हाल ही में सरकार ने देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने की एक बहुत विशाल योजना की घोषणा की है। इसके तहत लगभग 30 स्थानों पर देश की नदियों को जोड़ने की तैयारी है। इस योजना के अगले पंद्रह-बीस वर्षों में 560,000 करोड़ रुपए की लागत से पूरा करने का दावा किया जा रहा है। यदि इस पर अमल हुआ तो यह संभवतः अब तक देश की सबसे हानिकारक योजना सिद्ध होगी। अगर व्यावहारिक दिक्कतों के कारण यह आधी-अधूरी छोड़ दी गईं, तब भी काफी नुकसानदेह साबित होगी और सीमित वित्तीय संसाधनों की बर्बादी करेगी। इसलिए आरंभ करने से पहले ही इसे त्याग देना (कम से कम इसके वर्तमान विशालकाय रूप में) उचित होगा।
इस योजना के अंतर्गत बहुत-से बड़े और मध्यम बांध या बराज बनेंगे। अगले पंद्रह-बीस वर्षों में नहरों और बांधों का व्यापक जाल बिछाने की जो योजना है, उस स्तर का निर्माण कार्य देश में अभी तक नहीं हुआ है। बड़े बांधों और नहरों के इस जाल में लाखों लोग विस्थापित होंगे और लाखों लोग अपने खेतों से पूर्ण या आंशिक तौर पर वंचित होंगे। अभी तक का अनुभव बताता है कि जिन परियोजनाओं में पुनर्वास की लंबी तैयारी और नियोजन करने का अवसर मिला है, उनके विस्थापितों का भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है, क्योंकि जमीन के बदले जमीन प्राप्त करना बहुत कठिन होता है।
बांधों और नहरों के इस जाल से बहुत-से वन, संरक्षित क्षेत्र और वन्य जीवों के आश्रय स्थल भी तबाह होंगे। मछलियों और अन्य जल-जीवों पर बांध निर्माण के अनेक प्रतिकूल असर पहले ही देखे गए हैं। विभिन्न नदियों के पानी के गुणों में काफी भिन्नता हो सकती है और इस कारण दो या अधिक नदियों के जुड़ने पर जल-जीवों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
किसी भी परियोजना के हानि-लाभ सुनिश्चित करने के लिए, विशेषकर उसके दीर्घकालीन पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को जानने के लिए गहरी जांच-पड़ताल की आवश्यकता होती है, जिसमें संबंधित सरकारी विभागों के साथ स्वतंत्र विशेषज्ञों व स्थानीय जनता की भी भागीदारी जरूरी है। इस तरह के गहन विचार मंथन के बिना योजना के कार्यान्वयन से सरकारी पैसे की भयंकर बर्बादी हो सकती है और लाभ की जगह हानि हो सकती है। जिन स्थानों पर नदियों को जोड़ने की तैयारी चल रही है, उन सभी परियोजनाओं का गहराई से मूल्यांकन होना चाहिए कि वे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उचित हैं या नहीं। मगर इनमें से अधिकांश परियोजनाओं को स्वीकृति पहले ही मिल गई है। जो थोड़ी-बहुत, आधी-अधूरी जांच होनी है वह बाद में होती रहेगी। जहां इस तरह उल्टी दिशा में सब कुछ चला जा रहा हो, वहां विकास के स्थान पर विनाश की आशंका अधिक है।
हमारे देश में अधिकांश नहर परियोजनाएं वास्तव में अपनी घोषित क्षमता की मात्र एक तिहाई सिंचाई ही कर पा रही हैं। अनेक नहर-प्रणालियां आधी-अधूरी पड़ी हैं और किसान के खेत तक नहीं पहुंच सकती हैं। नहरों से रिसने वाला पानी लाखों हेक्टेयर भूमि को दलदलीकरण और लवणीकरण से बर्बाद कर चुका है। अभी इन नहरों के अधूरेपन को दूर करने और सही रख-रखाव के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास की जरूरत है। पर इसकी उपेक्षा कर सरकार सबसे बड़ी नहरों की नई योजना की ओर बढ़ने के लिए तैयार है। बड़े बांधों की परियोजनाओं के कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। जैसे, उनमें तेजी से गाद भरने के कारण उनकी आयु कम होना, उनसे अचानक छोड़े जाने वाले पानी के कारण बहुत अधिक वेग वाली विनाशकारी बाढ़ों की समस्या, अनेक बांध स्थलों के आसपास भूकंपों की आशंका बढ़ना, अनेक बांधों का टूटना और कुछ की सुरक्षा के बारे में सवाल उठाना आदि।
इन समस्याओं का हल ढूंढे बिना यह योजना अनेक नए बांधों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इस योजना में पानी को भारी मात्रा में दूर-दूर तक नदियों का प्राकृतिक मार्ग बदल कर ले जाया जाएगा। एक नदी से दूसरी नदी के क्षेत्र में जाने के लिए जगह-जगह पर्वतों, पठारों आदि के अवरोध भी आएंगे। कहीं पानी को लिफ्ट करना होगा, कहीं दुर्गम सुरंगों से गुजारना होगा तो कहीं लंबे घुमावदार रास्तों से लेकर जाना होगा। यह बहुत महंगा सिद्ध होगा। इसमें बिजली भी बहुत खर्च होगी।
नदी जल के बंटवारे को लेकर विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में बहुत तीखे आपसी झगड़े होते रहे हैं। अब इस समस्या को अचानक एक झटके में बड़े पैमाने पर बढ़ा देने का काम यह योजना करेगी। इसके पैरवीकार कहते हैं कि अतिरिक्त जल को कम जल वाले स्थानों पर लाओ, पर कई राज्य या क्षेत्र अपने को अतिरिक्त जल वाला क्षेत्र मानने को तैयार नहीं है। इस योजना में पड़ोसी देशों से भी नदी जल के बंटवारे को लेकर कई नए झगड़े और विवाद उत्पन्न होने की भरपूर आशंका है।
नदी जोड़ परियोजना का प्रचार-प्रसार सरकारी स्तर पर बहुत तेजी से किया गया है। कुछ समय पहले तक आने वाले दशक के जल-नियोजन में इसे कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं था। उलटे कुछ विषेशज्ञ स्तर की सरकारी रिपोर्टों में इस तरह की योजनाओं के विरुद्ध विचार व्यक्त किए गए थे। इस योजना को अचानक बहुत तेजी से सरकार की ओर से मान्यता मिली और यह अगले दो दशकों के लिए जल प्रबंध की सबसे महत्वपूर्ण योजना बन गई।
सुप्रीम कोर्ट से इसके लिए कोई आदेश या निर्देश नहीं मिला था, मात्र सलाह मिली थी, पर सरकारी तंत्र ने इसे इस रूप में प्रदर्शित किया जैसे उसे सब विवाद समाप्त करने वाला कोई आदेश मिल गया है। सरकारी नीति-नियामक मानो ऐसे किसी मौके की तलाश में थे और अनुकूल अवसर मिलते ही उन्होंने इस योजना को इतनी तेजी से आगे बढ़ाया, ऐसा शायद पहले कभी नहीं देखा गया था। योजना का विरोध करने वाले पूर्व उच्च सरकारी अधिकारियों की भी सरकारी तंत्र ने बहुत तीखी आलोचना की। अपनी ही बिरादरी के अपने से वरिष्ठ विशेषज्ञों की ऐसी तीखी आलोचना बहुत कम देखी गई है।
नदी जोड़ योजना को इतनी आक्रामकता से क्यों आगे बढ़ाया जा रहा है, इसका मुख्य कारण यह है कि जल प्रबंधन में विशालकाय परियोजनाओं और बडे़ बांधों की वकालत करने वालों को लगता है कि इस योजना की आड़ में वे सब तरह के लोकतांत्रिक विरोध की अवहेलना करते हुए बहुत तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। बड़े बांध बनाने, बड़े पनबिजली संयंत्र लगाने और नहरों का बड़ा जाल फैलाने वाले देशों में भारत का स्थान अग्रणी पंक्ति में रहा है। अरबों रुपए के इस वार्षिक कारोबार के साथ बहुत-से आर्थिक स्वार्थ जुड़ गए हैं। बड़े परियोजनाओं के साथ, खासकर बड़ी निर्माण कंपनियों के हित जुड़े हैं, जिन्हें, अरबों रुपए के ठेके मिलती हैं, जिसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा वे कमीशन और दलाली में खर्च करती हैं।
पिछले लगभग दो दशकों के दौरान अनेक जल संगठनों और आंदोलनों ने बराबर ऐसी परियोजनाओं के औचित्य के बारे में सवाल उठाए हैं। विशेषज्ञों ने इन परियोजनाओं की अनेक कमियों, जल्दबाजी में किए गए अनुसंधान और नियोजन की कमजोरियों, अपेक्षा से कहीं कम उपलब्ध हुए लाभों और अनेक गंभीर दुष्परिणामों की ओर बार-बार ध्यान दिलाया है। इनमें से कुछ तथ्यों को अनेक सरकारी रपटों में भी स्वीकार किया गया।
न्यायालयों ने इस आधार पर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय दिए। ऐसी बड़ी परियोजनाओं के क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने भी इनके बारे में बुनियादी आवाज उठानी शुरू कर दी कि किसी आधार पर उनसे पर्याप्त परामर्श के बिना, बेहद संदेहास्पद मान्यताओं के आधार पर इनका औचित्य निर्धारित किया जाता है। इसके साथ ही जनआंदोलनों की मदद से लोगों ने इन परियोजनाओं के विकल्प भी सुझाने का प्रयास किया है। इसके अलावा विश्व स्तर पर भी विशेषज्ञों और आंदोलनों द्वारा बड़े बांधों और अन्य विशालकाय जल परियोजनाओं का विरोध होने लगा है, क्योंकि कई देशों में इनके गंभीर दुष्परिणामों और उम्मीद से कम लाभों के उदाहरण सामने आ रहे थे।
इन परिस्थितियों में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां अनेक स्वतंत्र विशेषज्ञों, अनुसंधान संस्थाओं और जन आंदोलनों ने अपने सतत् प्रयासों से एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। और अब बड़ी परियोजनाओं को पहले जैसी तेजी से और बिना रोक-टोक के आगे ले जाना कठिन हो रहा था, इनके औचित्य के बारे में सवाल बार-बार उठाए जा रहे थे।
मगर नदी जोड़ योजना की अनेक पेचीदगियों और समस्याओं को छुपाकर इसे अति सरलीकृत रूप में और बहुत आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है। बाढ़ और सूखे से जूझते इस देश में यह भ्रामक प्रचार किया जा रहा है कि अधिक मात्रा वाले स्थान से पानी को कम मात्रा वाले स्थान पर ले जाया जाएगा। यह अति सरलीकृत और भ्रामक प्रचार इतना मोहक है कि जिसने इस योजना की जटिलताओं के बारे मंें नहीं सोचा है, वह पहली नजर में इससे प्रभावित हो जाता है।
यह योजना एक ऐसे समय में आई है, जब संसद सूचना के अधिकार का कानून पास कर चुकी है। नदी जोड़ योजना जैसी विवादास्पद योजनाओं के कार्यान्वयन के संदर्भ में इस नए कानून का ध्यान रखा जाना चाहिए। सूचना के स्वतंत्रता के केंद्रीय कानून में स्पष्ट कहा गया है कि किसी योजना के लिए जो भी जिम्मेदार लोक प्राधिकारी है, वह किसी भी परियोजना को आरंभ करने से पहले जनसाधारण को और विशेषकर परियोजना से प्रभावित होने वाले लोगों (या प्रभावित होने की आशंका वाले लोगों) को परियोजना के बारे में अपने वे तथ्य उपलब्ध करवाएगा, जिन्हें लोकतांत्रिक सिद्धांतों और न्याय के हित में लोगों तक पहुंचाना जरूरी है। साथ ही यह भी कहा गया है कि लोक प्राधिकारी अपने सभी महत्वपूर्ण निर्णयों और नीतियों की घोषणा करते समय इनसे संबंधित सभी आवश्यक तथ्य प्रकाशित करेंगे। इसके अलावा वे प्रभावित होने वाले लोगों को इन निर्णयों को लेने का कारण भी बताएंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों के दैनिक जीवन में पानी बहुत महत्वपूर्ण है और जलप्रबंध से जुड़ी हुई अब तक की सबसे विशालकाय, सबसे अधिक लोगों को प्रभावित करने वाली योजना है नदी जोड़ योजना। इससे करोड़ों लोगों का जीवन स्थायी तौर पर प्रभावित होगा। लाखों लोग इससे विस्थापित हो सकते हैं। सवाल यह है कि क्या इन लोगों तक योजना से संबंधित आवश्यक तथ्य पहुंचाए गए हैं? क्या इसका निर्णय लेने के कारण उन्हें बताए गए हैं? इस योजना का लोगों पर क्या असर पड़ेगा, क्या यह जानकारी उनको दी गई है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस समय नकारात्मक है। अतः यह जरूरी है कि नदी जोड़ योजना के बारे में सभी जरूरी तथ्य सूचना की स्वतंत्रता के नए कानून के तहत शीघ्र लोगों तक पहुंचाए जाएं।