नदियों का विकास या कहें कि नदियों का जन्म अधिकतम वे स्थान रहें जो पहाड़ी, पठारी,ऊंचे भूभाग वाले क्षेत्र जहां वन एवं वन सम्पदा अधिक मात्रा में पाई जाती रही, नदी छोटी हो या बड़ी "नदी ही है"। नदी का अपना महत्व है। नदियों जितने सघन वन व ऊंचे पहाड़ों से धरातल की ओर बहती , उतने ही लंबे समय जलधारा से खुशहाली पैदा करने के साथ वर्ष भर बहती हुई प्रकृति में अपनी एक अद्भुद छंटा छोड़ती, जिसका उदाहरण हम सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र में बहने वाली रुपारेल नदी को देख सकते हैं , यह नदी पिछले तीन-चार दशक से लगातार कम वर्षा होने के बाद भी तालवृक्ष, मालियों की ढाणी, कुशालगढ, माधोगढ़ व बारा के पास हमेशा बहती नजर आती हैं जो वन सम्पदा की देन हैं, इसके उद्गम स्थल पर बहता नाला दिखाई देता। नदी के साथ जहां जहां छेड़छाड़ हुई या अवरोध पैदा किए गए वहां नदी के तल का वाटर लेवल गहरा होने के साथ पानी की मात्रा कम दिखाई देने लगी तथा सघन वन, वनस्पति ऊंची चोटी वालें पहाड़ रहें वही यह बारह मासी बन कर रहीं।
जंगल में उगी वनस्पतियों, पेड़ पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से भू गर्भ में वर्षा जल का संग्रह करते, घने जंगल बरसात की बूंदों की प्रहारक क्षमता को कम करते हैं। वृक्षों के पत्तों से बरसा पानी मिट्टी व सुखे पत्तों द्वारा नमी बनाए रखने के साथ पानी अधिक समय धरती के संपर्क में बना रहता, अधिक मात्रा में धरती में रिश्ता,भू गर्भ में स्थित जल टेंको को भरने में मददगार बनते, अधिकांश वन भूमि की परतों की मोटाई , सरंध्रता, पानी ग्रहण करने की क्षमता अच्छी होने से भूजल का संचय अधिक होता है। राजस्थान राज्य के अलवर जिले में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण (जल जंगल) ग्रामीण आजीविका को लेकर काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन एल पी एस विकास संस्थान द्वारा दस हेक्टेयर में तैयार किये वन क्षेत्र में बनी आर्द्रता, मिट्टी में पानी ग्रहण करने की क्षमता को देख कर आप अच्छे से समझ सकते हैं कि वन क्षेत्र पानी के अपार भंडारों की सम्भावना वाले क्षेत्र होते हैं।
वन क्षेत्र में डाल कम होने पर परतों में जमा पानी काफी दिनों नदी को मिलता, जिससे नदी का प्रवाह वर्ष भर बना रहता, सघन वन, वनस्पति, लम्बी घास वाले क्षेत्रों में पानी सोखने की क्षमता सामान्य क्षेत्र से दो से तीन गुणा ज्यादा बनी रहती, यहां के जल भण्डार जल्दी रिचार्ज होते हैं। जंगल में हमेशा पेड़ों के पतझड़,घास, छोटी बड़ी वनस्पतियों उनके अवशेषों से मिट्टी में नमी व वन क्षेत्र में आर्द्रता बनी रहने से शुष्कता कम होती, वर्षा भी इन क्षेत्रों में अन्य क्षेत्रों की तुलना में औस्त वर्षा से 50 से 100 मिली मीटर अधिक होती। वन भूमी में सामान्य क्षेत्र से पांच से सात गुणा अधिक नमी होती है जो सामान्यत्या वनस्पति के विकास व उसके बनें रहने देखी समझी जा सकती है।
वनोपज में विविध प्रकार के औषधीय जड़ी बूटियों, पेड़ पौधे, खनिज व जैविक पदार्थ पानी में घुलने से नदी का जल प्रदूषण मुक्त, स्वच्छ, पीने योग्य,रोगरोधी क्षमता वाला होता हैं। इसी वास्ते नदियों का महत्व सभी जल श्रोतों में "श्रेष्ठ " हैं। नदियाँ अपनी जैवविविधता को बनाएं रखतीं जो पर्यावरण संरक्षण , सुरक्षा में लाभ दायक होने के साथ जल ,नभ व धरती पर मौजूद सभी जीवो वनस्पतियों के पोषण का कार्य करती।
नदियों को सदा नीर बनाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के आधार को मजबूत करना होगा। इससे वन व नदी क्षैत्र में नमी बनी रहेगी,नदी का प्रवाह सुरक्षित रहेगा,जंगल बचेंगे साथ ही जलवायु के दुष्प्रभावों से बचना आसान होगा। वनों की संघनता बढ़ाने के लिए जो प्रयास किए जाएं उनमें समाज की भागीदारी होना आवश्यक है। नदियों के बहाव क्षेत्रों में आधुनिक इंजीनियरिंग के माध्यम से किए जा रहे छेड़छाड़ को कम करते हुए तीन से चार दशक पूर्व के सामाजिक अनुभवों के साथ वन विभाग की परिष्कृत अवधारणा को अपनाया जाए, उसे ध्यान में रखते हुए जल संग्रहण के कार्य हों जिससे "नदियाँ " सदा नीर " बनी रहें जंगलों को संरक्षण प्राप्त होता रहें।