भूजल स्तर कम होने से इस क्षेत्र में कुएँ खोदना बहुत ही आसान था। जरूरत पड़ने पर कुएँ खोदकर सिंचाई कर लिया जाता था। छोटे तालाब भी बनाए जाते थे जिसमें वर्षाजल का संग्रह किया जा सके। मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर और वैशाली जिलों में गंडक और बूढ़ी गंडक के बीच एक त्रिकोण बनता है जिसमें विभिन्न प्रकार के मसाले, सब्जियाँ और तम्बाकू जैसी फसलें उपजाई जाती थीं जिनको पानी की सीमित जरूरत होती थी। अल्प वर्षा वाले वर्षों में भी थोड़ी मेहनत कर फसल को बचा लिया जाता था। और यह पूरा इलाका सम्पन्न माना जाता था। जिस नहर का निर्माण 1979 में रोक दिया गया था, उसे फिर से बनाने की नई योजना का तीखा विरोध हो रहा है। मामला गंडक नहर परियोजना के अन्तर्गत तिरहुत मुख्य नहर का है। इस नहर की वजह से बहुत बड़े इलाके में जल जमाव की समस्या उत्पन्न हो गई। नहर की वितरणी शाखाओं का पर्याप्त संख्या में निर्माण नहीं होने से सिंचाई का लाभ भी कम ही इलाके को मिल पाया।
विवादित स्थल मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर जिलों का सीमावर्ती क्षेत्र है जिसमें विभिन्न प्रकार के मसाले, धनिया, हल्दी, अदरक, लहसून, मिर्च, विभिन्न प्रकार की हरी सब्जियाँ, आलू, ओल आदि पानी की कम जरूरत वाली नगदी फसलें खूब उपजती है। इसलिये लोगों को वह जमीन छोड़ना मंजूर नहीं है जिस पर नहरें बनेगी। उनके अनुसार इस नहर से कोई फायदा नहीं होने वाला, बल्कि नुकसान ही होगा।
तिरहुत नहर को वाल्मिकीनगर बैराज से निकलकर चम्पारण, मुजफ्फरपुर होते हुए समस्तीपुर जिले के दलसिंगसराय तक जाना था। 1964-65 में हुए सर्वेक्षण के आधार पर 1972 में भूमि अधिग्रहण और नहर का निर्माण आरम्भ हुआ। साथ ही विरोध भी आरम्भ हो गया। लोग नहर की उपयोगिता और तकनीकी सम्भाव्यता पर सवाल उठा रहे थे।
चम्पारण जिले में नहर बन गई थी और 1968 से उसमें पानी भी छोड़ा जाने लगा था। लेकिन वितरणी शाखाओं, जलवाहों व नालियों का समुचित संख्या में निर्माण नहीं होने से नहर से सटे खेतों में भी सिंचाई के लिये पानी नहीं मिल पाता था। बरसाती जल के निकास मार्गों के बाधित होने और नहर से रिसाव की वजह से बड़े इलाके में जमाव होने लगा था। वह छात्र आन्दोलन का जमाना था। जल्दी ही आपातकाल लागू हो गया। पुलिस-प्रशासन के बल पर नहर बनाने में जोर जबरदस्ती भी हुई। परन्तु जिस इलाके का अधिग्रहण हो गया था, उसमें भी बहुत से लोगों ने मुआवजा नहीं उठाया।
स्थानीय लोगों का कहना है कि मुजफ्फरपुर जिले (आरडी 790) से पूरब दलसिंगसराय के तरफ की जमीन की सतह पाँच से पच्चीस फीट तक ऊँची है। इसके अलावा बाईं ओर करीब एक हजार फीट की दूरी पर बूढ़ी गंडक नदी और उसका तटबन्ध है। प्रस्तावित नहर और तटबन्ध की बीच सघन आबादी बसी है और नदी कछार का क्षेत्र होने से जमीन भी काफी उपजाऊ है।
नहर बनने से वह पूरा इलाका जलजमाव से ग्रस्त हो जाएगा क्योंकि बरसाती पानी की निकासी का कोई रास्ता नहीं रहेगा। इस क्षेत्र में बूढ़ी गंडक से निकली एक सैलाबी नहर भी है जिसे जमुआरी नहर कहते हैं। सैलाबी नहर में नदी के उफनने पर पानी आता है। गर्मी के दिनों में नदी को बाँधकर इन नहरों के जरिए पानी निकाला जाता है और सिंचाई की जाती है। जमुआरी नहर की उपयोगिता परम्परा सिद्ध है।
सरजमीनी हालत और लोगों के विरोध को देखते हुए आपातकाल के बाद आई जनता सरकार के दौरान मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर ने तिरहुत नहर के निर्माण पर रोक लगा दिया। उसे मुजफ्फरपुर जिले में मुहम्मदपूर कोठी के पास बूढ़ी गंडक नदी में मिला दिया गया। तब से यही हालत बनी रही। इस बीच नहर परियोजना के हानि-लाभ के अनुभव सामने आ चुके थे और बड़े पैमाने पर विरोध आरम्भ हो गया था।
मार्च 1985 तक इस योजना पर लगभग 366 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे और घोष समिति की सिफारिशों के अनुरूप सारे निर्माण कार्य बन्द कर दिये गए थे। उस समय तक साफ हो चुका था कि गंडक का कंटूर मैप हवाई सर्वेक्षण द्वारा तैयार किया गया है और उसमें दिखलाए गए सतहों की ऊँचाई अनुमान के आधार पर निर्धारित की गई थी। इसलिये सम्भव है कि नक्शे में दिखलाए गए सतहों की ऊँचाई जमीन की वास्तविक ऊँचाई से नहीं मिल सके। इसलिये अच्छा यही होगा कि नहर का सीमांकन करने के पूर्व सर्वे करके वास्तविक स्थिति का पता लगा लिया जाये। यह बात तत्कालीन मुख्य अभियन्ता सिंचाई ने एक बैठक में कही थी जिसका उल्लेख दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी किताब ‘‘बाढ़ से त्रस्त-सिंचाई से पस्त’’ में विस्तार से किया है।
अब जब तिरहुत नहर के विस्तार की नई योजना सामने आई है तो विरोध के पुराने मुद्दों के साथ कुछ नए मुद्दे भी जुड़ गए हैं। इसलिये विरोध का स्वर पहले से अधिक तीखा है। मुजफ्फरपुर जिले में जितनी नहर का निर्माण हो गया, उस इलाके में एक इंच जमीन की सिंचाई बीते 42 वर्षों में नहीं हुई।
वितरणी शाखाओं और नालियों का निर्माण ही नहीं हुआ। उसके बजाय मुख्य नहर की लम्बाई बढ़ाने की योजना के औचित्य पर लोग सवाल उठा रहे हैं। यही नहीं, उन दिनों अधिग्रहित जमीन का दखल -कब्जा भी सिंचाई विभाग ने नहीं कराया। लोग पहले की तरह खेती करते रहे। अब अचानक नहर बनने की बात आई तो पता चला कि उस जमीन पर कई बस्तियाँ आबाद हैं।
सारे मुद्दों को समेटते हुए मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ज्ञापन भेजकर स्थानीय लोग लगातार धरने पर बैठे हैं। इलाके की पंचायती राज संस्थाएँ नहर निर्माण के विरोध में हैं। चार पंचायतों की ग्राम सभाओं ने बाकायदा प्रस्ताव पारित किया है। पंचायत समिति अध्यक्ष धरने पर बैठ रहे हैं। इलाके के अनेक जन प्रतिनिधि धरनास्थल पर आ चुके हैं।
प्रभावित लोगों ने मुख्यमंत्री से माँग की है कि नहर का विस्तार करने के पहले उस क्षेत्र की वास्तविकता का अध्ययन करा लिया जाये जिसमें नहर बन गई है। मुख्य नहर का विस्तार करने के पहले उस क्षेत्र में नालियों का निर्माण करा लिया जाये ताकि निर्मित नहर का अगर कोई लाभ हो तो वह इलाके को मिल सके। विस्तार क्षेत्र के सतह की ऊँचाई का आकलन अर्थात टोपोग्राफी करा लिया जाये। अगर लाभ दिखे और विस्तार लाजिमी हो तो भू-अधिग्रहण कानून 2013 के अनुसार सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों का आकलन कराया जाये, मुआवजा और विस्थापित लोगों का पुनर्वास सुनिश्चित किया जाये।
गंडक नहर परियोजना की चर्चा आजादी के पहले ही आरम्भ हो गई थी। तत्कालीन सरकार में खाद्यान्न एवं कृषि विभाग के प्रभारी मंत्री की हैसियत से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पहल की ताकि चम्पारण, मुजफ्फरपुर एवं सारण जिलों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जा सके। तदनुसार अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ कर योजना का प्रारूप तैयार किया गया जिसे 1954 में सरकार की स्वीकृति हेतु समर्पित किया गया।
इसे गंडक सिंचाई परियोजना की बुनियाद कहा जा सकता है। हालांकि योजना में काफी जोड़ घटाव हुआ। प्रारम्भ में नहर परियोजना को विस्तृत रूप देकर इसके तहत उत्तर प्रदेश और नेपाल में भी सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने के बारे में सोचा गया।
वाल्मिकीनगर में बैराज बनाकर उसके दोनों किनारे दो नहरें निकालने का फैसला हुआ। योजना के खर्च के बारे में बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच समझौते हुए। नेपाल के साथ भी समझौता हुआ। अन्ततः योजना का रूपांकन शुरू होने के 17 साल बाद 4 मई 1964 को तत्कालीन नेपाल नरेश महेन्द्र ने बैराज का शिलान्यास कर इसका उद्घाटन किया।
इस क्षेत्र में सैलाबी नहरों की परम्परा पहले से थी। सैलाबी नहरों का एक सुन्दर उदाहरण त्रिवेणी नहर के रूप में आज भी मौजूद है और गंडक नदी परियोजना शुरू होने तक इस नहर से लगभग 2.73 लाख एकड़ में सिंचाई हो रही थी। बाद में इसे गंडक बैराज से निकली पूर्वी मुख्य नहर से जोड़कर परियोजना का हिस्सा बना लिया गया।
सैलाबी नहरों के अलावा नेपाल की ओर से आने वाली छोटी-छोटी जलधाराओं को बाँधकर खेतों में पानी ले जाने की कथाएँ भी सूनने को मिलती हैं। पानी को इस तरह सहेजने की जरूरत धान की खेती करने में पड़ती थी। बूढ़ी गंडक नदी के दोनों तरफ की मिट्टी अलग-अलग तरह की है। उसके बाईं ओर नेपाल से आने वाली असंख्य धाराओं से सम्पोषित होने से धान की खेती होती थी। दाहिनी ओर पानी की कम जरूरत वाली फसलें उपजाने का प्रचलन अधिक था।
भूजल स्तर कम होने से इस क्षेत्र में कुएँ खोदना बहुत ही आसान था। जरूरत पड़ने पर कुएँ खोदकर सिंचाई कर लिया जाता था। छोटे तालाब भी बनाए जाते थे जिसमें वर्षाजल का संग्रह किया जा सके। मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर और वैशाली जिलों में गंडक और बूढ़ी गंडक के बीच एक त्रिकोण बनता है जिसमें विभिन्न प्रकार के मसाले, सब्जियाँ और तम्बाकू जैसी फसलें उपजाई जाती थीं जिनको पानी की सीमित जरूरत होती थी। अल्प वर्षा वाले वर्षों में भी थोड़ी मेहनत कर फसल को बचा लिया जाता था। और यह पूरा इलाका सम्पन्न माना जाता था।
लेकिन नए-नए आजाद हुए देश के हुक्मरानों को कुछ बड़ा कर दिखाने की ललक इस तरह थी कि परम्परागत व्यवस्थाओं को समझने की ओर कम ही ध्यान दिया जा सका। गंडक परियोजना से सिंचाई के दायरे को बड़ा करके तथा लागत खर्च और निर्माण की अवधि को कम करके बताया गया। ऐसा करने में सरजमीनी हकीकतों की अनदेखी भी की गई।
कुछ बड़ा और बढ़िया करके वाहवाही बटोरने की चाहत थी, इसलिये नहर और उससे जुड़ी वितरणी संरचनाओं का निर्माण पूरा होने के पहले ही नहर में पानी छोड़ा जाने लगा और जिन इलाकों से पानी प्रवाहित हो जाता, उस पूरे इलाके को सिंचित करार देने का खेल चलने लगा। बाद में पता चला कि नहर बनाने के लिये जमीन की ऊँचाई और गहराई की पैमाइश हवाई सर्वेक्षण से बने कंटूर मैप के आधार पर किया गया था। नतीजा यह हुआ कि मुजफ्फरपुर जिले में आते-आते नहर का पेट फूल जाता था। जमीन ऊँची थी। उस पर पानी चढ़ना कठिन था। नहर जगह-जगह टूटने लगी। नहरों के टूटने का दूसरा कारण उनका प्राकृतिक ढाल के लम्बवत होना भी था। बरसाती पानी का दबाव भी नहरों पर पड़ता जिससे नहरें टूटती हैं।
गंडक परियोजना की नहरों से 1960 में महज 127 रुपए प्रति एकड़ खर्च पर सिंचाई उपलब्ध कराने का दावा किया गया था। पर निर्माण आरम्भ होने के बाद लागत लगातार बढ़ती गई और सिंचाई के बारे में दावे लगातार घटते गए। ‘जब नदी बँधी’ पुस्तक के लेखक रणजीव के अनुसार 1985 तक लागत बढ़कर 1218 रुपए प्रति एकड़ तक महंगी हो गई थी। यही नहीं, जैसे-जैसे निर्माण बढ़ता गया, जल-जमाव क्षेत्र बढ़ता गया।
तिरहुत मुख्य नहर से जून 1968 से पानी छोड़ा जाने लगा था। 1970 आते-आते सिंचाई के दावे और जल-जमाव की वास्तविकता के बीच जंग छिड़ गई थी। समूचे गंडक क्षेत्र में एक अनुमान के अनुसार खरीफ में 9 लाख एकड़ से 15 लाख एकड़ तक और रबी के मौसम में 6 लाख एकड़ से 9 लाख एकड़ तक जल जमाव से ग्रस्त रहता है।