मनोज तिवारी
वाराणसी में भारतीय रेलवे के डीजल लोकोमोटिव वर्क्स से प्रबंधकीय कार्य की शुरुआत करने वाले भारत के एक सपूत आरके पचौरी ने नोबल शांति पुरस्कार में भारत को हिस्सेदारी दिलाई है। नैनीताल में जन्मे इस देसी सपूत ने दुनिया के बड़े से बड़े मंच पर हिंदुस्तान का परचम लहराया है। नोबल पुरस्कार में हिस्सेदारी बांटने का यह गौरव पचौरी की अध्यक्षता वाली इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) संस्था को मिला है। पारिस्थितिकी परिवर्तन और उसमें बनने वाली नीतियों में भी पचौरी का अंतर्राष्ट्रीय दखल हमेशा रहा है। इस दखल ने ही देश के इस पर्यावरणविद को पारिस्थितिकी के क्षेत्र में विश्वव्यापी आयाम दिलवाया।
नैनीताल की सुरम्य वादियां श्री पचौरी को हमेशा पर्यावरण सुरक्षा के प्रति उनके दायित्व की याद दिलाती रहीं। भारत सरकार ने पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें 2001 में पद्म विभूषण से नवाजा। इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग में वारोलिना स्टेट विश्वविद्यालय में एमएस और पीएच डी की उपाधि लेने वाले राजेंद्र पचौरी के ऊर्जा और पर्यावरण के क्षेत्र के कार्यों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1994 से 1999 तक उन्हें सलाहकार नियुक्त किया। यही नहीं, श्री पचौरी को 14 जुलाई 2006 को जब फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस पर नई दिल्ली में कुछ चुनिंदा लोगों के साथ सम्मानित किया गया, तब भारत में फ्रांस के राजदूत डी गिरार्ड ने कहा कि आप केवल विज्ञानी ही नहीं, बल्कि एक जिंदादिल इनसान भी हैं। श्री पचौरी की इस जिंदादिली ने उन्हें और उनकी अध्यक्षता वाली संस्था को इस मुकाम तक पहुंचाया कि विश्व शांति के नोबल पुरस्कार में भारत की हिस्सेदारी भी जुड़ गई। पर्यावरण संतुलन पर कार्य करने वाले श्री पचौरी का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने के कारण विश्व भर में कोई सुरक्षित नहीं है। जून 2007 में एक वेबसाइट को दिए साक्षात्कार में पर्यावरणीय असंतुलन पर लगाम लगाने के लिए भी पचौरी ने कई सामान्य सुझाव दिए थे, जिन पर अमल कर हम बढ़ते असंतुलन को कम कर सकते हैं। इन सुझावों में बिजली-पानी के कम प्रयोग तक का सुझाव भी शमिल था।
70 के दशक में अमेरिका में अध्ययन और अध्यापन के बाद पचौरी की स्वदेश वापसी हुई और उन्होंने स्टाफ एडमिनिस्ट्रेटिव कॉलेज ऑफ इंडिया में वरिष्ठ फैकल्टी के रूप में कार्य शुरू किया। इसके बाद 1981 में टाटा एनर्जी रिसर्च इस्टीटयूट के निदेशक का पद ग्रहण कर देश की विभिन्न संस्थाओं में अपना अनुभव बांटने के साथ ही आरके पचौरी ने कई विदेशी सरकारों को भी पर्यावरण के क्षेत्र में अपनी सेवाएं दीं। इस दौरान उन्होंने अनेक शोध-पत्रों के अलावा 21 पुस्तकें भी लिखीं। श्री पचौरी की कार्य क्षमता और पर्यावरण के प्रति उनके समर्पण ने उन्हें 2002 में इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज का चेयरमैन बनवाया। उस दौरान विश्व में प्रमुख पर्यावरणविदों ने एबर्ट टी वाटसन को संस्था का चेयरमैन बनाने के लिए लॉबिंग की थी, परंतु इन सबके बावजूद बाजी श्री पचौरी के हाथ लगी। श्री पचौरी के अनुसार पर्यावरण को बचाने के लिए समाजशास्त्री भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं, तभी धरती का कल्याण होगा।
आईपीसीसी के 24 सितंबर 07 को शुरू हुए प्रारंभिक सत्र में इस विश्व संस्था के सदस्यों व विज्ञानियों को संबोधित करते हुए श्री पचौरी ने पर्यावरण असंतुलन के प्रति गंभीर चिंताएं जताईं। विश्व में बढ़ते जल संकट को लेकर भी उन्होंने इस सत्र में गंभीर चिंता जताई। यही नहीं, खाद्यान्न सुरक्षा के प्रति भी श्री पचौरी चिंतित दिखे। उनका मानना है कि पर्यावरण के बढ़ते असंतुलन को रोका न गया, तो आम आदमी को भोजन-पानी तक की किल्लत झेलनी पड़ सकती है। यही नहीं, अगर ग्लोबल वार्मिंग का विस्तार न रुका, तो अफ्रीका के 75 से 250 मिलियन लोग पीने के पानी से वंचित हो जाएंगे। ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप वैश्विक तापमान में अब यदि डेढ़ से ढाई डिगरी सेंटीग्रेट की वृद्धि हो गई, तो धरती से 20 से 30 प्रतिशत पेड़-पौधों और जीव जंतुओं का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। पर्यावरण के प्रति हर वक्त चिंतित रहने वाले इस भारतीय वैज्ञानिक के नेतृत्व वाली संस्था को नोबल शांति पुरस्कार में साझीदार बनना एक तरह से धरती पर उपकार ही है। आशा है यह सम्मान श्री पचौरी और उनकी संस्था को दोगुने उत्साह से ग्लोबल वार्मिंग से संघर्ष करने को प्रेरित करेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
साभार - अमर उजाला
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