हजारों वर्ष पहले कभी भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतार लाने का बड़ा काम किया था। वह गंगा तो आज मैली हो ही चुकी है, कभी तीन हिस्से पानी और एक हिस्सा जमीन वाली पृथ्वी आज पानी के ही संकट से जूझ रही है! लेकिन हमारे समय में कई ऐसे भगीरथ हैं, जो नदियों को सदानीरा और खेतों को हरा-भरा रखने के लिए कोई कोशिश नहीं छोड़ते।
लद्दाख के रिटायर्ड सिविल इंजीनियर चवांग नॉरफेल हमारे दौर के ऐसे ही एक नायक हैं। हमने रहन-सहन का जो विलासितापूर्ण तौर-तरीका चुना है, उससे ग्लेशियर तक लुप्त होने लगे हैं। इसका खामियाजा भी स्थानीय लोग भुगतने लगे हैं। लद्दाख में गांव ऊंची पहाड़ियों पर हैं और नदियां नीचे। लिहाजा नदियों के पानी से सिंचाई का सवाल ही पैदा नहीं होता। आबादी से दूर ऊंची पहाड़ियों पर कुछ ग्लेशियर बनते भी हैं, तो वे जून तक पिघलते हैं, जबकि खेतों में पानी की जरूरत उससे पहले होती है, क्योंकि फसलों की बुवाई अप्रैल-मई में शुरू हो जाती है। वर्षों तक स्थानीय किसान पानी की कमी से जूझते रहे। आखिरकार दो दशक पहले चवांग नॉरफेल ने कृत्रिम ग्लेशियरों का निर्माण कर इलाके की तसवीर बदल दी। इसके तहत जाड़े में गांवों के आसपास बर्फ जमाकर ग्लेशियर बना दिए जाते हैं, और बुवाई के वक्त किसानों को इसका पानी मिल जाता है। हालांकि कृत्रिम ग्लेशियर बनाने की अच्छी-खासी लागत लगती है, लेकिन खेती से होने वाले लाभ की तुलना में कीमत कम ही पड़ती है।
चवांग नॉरफेल तो एक मिसाल हैं। ऐसे अनेक नायक हैं, जिन्होंने दुर्गम इलाकों में पानी को सुलभ और प्रदूषण मुक्त किया, चाहे वह बनारस में गंगा को शुद्ध करने की अलख जगाए वीरभद्र मिश्र हों या झारखंड में अपने अकेले दम पर पहाड़ काटकर पानी लाने का रास्ता सुगम बनाने वाले स्वर्गीय दशरथ मांझी, अलवर में भूमिगत जल का स्तर ऊपर उठाने के साथ-साथ कई सूख चुकी नदियों को नया जीवन देने वाले राजेंद्र सिंह और उनका तरुण भारत संघ हो या पंजाब के कपूरथला में कालीबेंई नदी को प्रदूषण मुक्त करने वाले संत बलबीर सिंह संत सींचेवाल या जल यात्रा अभियान चलाकर जलस्त्रोतों को बचाने की मुहिम में जुटे इलाहाबाद के डॉ. सुनीत सिंह।
जरूरी नहीं कि ऐसे नायक केवल पानी की लड़ाई लड़ रहे हों। वे हर कहीं अपने-अपने स्तर पर परिदृश्य को बेहतर करने की मुहिम में जुटे हैं। वे सोनभद्र के आदिवासी इलाके में आम जनता की लड़ाई लड़ रहे एमए खान भी हो सकते हैं और जौनपुर में सूचना के अधिकार को जनता की बेहतरी के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करते इंद्रमणि दुबे भी। वे अच्छी नौकरी और शानदार भविष्य छोड़कर गांवों-कसबों की दशा सुधारने वाले पढ़े-लिखे नौजवान भी हो सकते हैं। देश ऐसे ही नायकों से बनता है, फूलमालाओं और तालियों की उम्मीद करते नेताओं से नहीं।
साभार – अमर उजाला
Tags - Ganga on the earth to bring Bhagirath Hindi version, water crisis Hindi version, Bhagirath Hindi version, Sadanira rivers Hindi version, Ladakh Cwang Norfel of the retired civil engineer Hindi version, river water Hindi version, water scarcity Hindi version, artificial glacier
लद्दाख के रिटायर्ड सिविल इंजीनियर चवांग नॉरफेल हमारे दौर के ऐसे ही एक नायक हैं। हमने रहन-सहन का जो विलासितापूर्ण तौर-तरीका चुना है, उससे ग्लेशियर तक लुप्त होने लगे हैं। इसका खामियाजा भी स्थानीय लोग भुगतने लगे हैं। लद्दाख में गांव ऊंची पहाड़ियों पर हैं और नदियां नीचे। लिहाजा नदियों के पानी से सिंचाई का सवाल ही पैदा नहीं होता। आबादी से दूर ऊंची पहाड़ियों पर कुछ ग्लेशियर बनते भी हैं, तो वे जून तक पिघलते हैं, जबकि खेतों में पानी की जरूरत उससे पहले होती है, क्योंकि फसलों की बुवाई अप्रैल-मई में शुरू हो जाती है। वर्षों तक स्थानीय किसान पानी की कमी से जूझते रहे। आखिरकार दो दशक पहले चवांग नॉरफेल ने कृत्रिम ग्लेशियरों का निर्माण कर इलाके की तसवीर बदल दी। इसके तहत जाड़े में गांवों के आसपास बर्फ जमाकर ग्लेशियर बना दिए जाते हैं, और बुवाई के वक्त किसानों को इसका पानी मिल जाता है। हालांकि कृत्रिम ग्लेशियर बनाने की अच्छी-खासी लागत लगती है, लेकिन खेती से होने वाले लाभ की तुलना में कीमत कम ही पड़ती है।
चवांग नॉरफेल तो एक मिसाल हैं। ऐसे अनेक नायक हैं, जिन्होंने दुर्गम इलाकों में पानी को सुलभ और प्रदूषण मुक्त किया, चाहे वह बनारस में गंगा को शुद्ध करने की अलख जगाए वीरभद्र मिश्र हों या झारखंड में अपने अकेले दम पर पहाड़ काटकर पानी लाने का रास्ता सुगम बनाने वाले स्वर्गीय दशरथ मांझी, अलवर में भूमिगत जल का स्तर ऊपर उठाने के साथ-साथ कई सूख चुकी नदियों को नया जीवन देने वाले राजेंद्र सिंह और उनका तरुण भारत संघ हो या पंजाब के कपूरथला में कालीबेंई नदी को प्रदूषण मुक्त करने वाले संत बलबीर सिंह संत सींचेवाल या जल यात्रा अभियान चलाकर जलस्त्रोतों को बचाने की मुहिम में जुटे इलाहाबाद के डॉ. सुनीत सिंह।
जरूरी नहीं कि ऐसे नायक केवल पानी की लड़ाई लड़ रहे हों। वे हर कहीं अपने-अपने स्तर पर परिदृश्य को बेहतर करने की मुहिम में जुटे हैं। वे सोनभद्र के आदिवासी इलाके में आम जनता की लड़ाई लड़ रहे एमए खान भी हो सकते हैं और जौनपुर में सूचना के अधिकार को जनता की बेहतरी के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करते इंद्रमणि दुबे भी। वे अच्छी नौकरी और शानदार भविष्य छोड़कर गांवों-कसबों की दशा सुधारने वाले पढ़े-लिखे नौजवान भी हो सकते हैं। देश ऐसे ही नायकों से बनता है, फूलमालाओं और तालियों की उम्मीद करते नेताओं से नहीं।
साभार – अमर उजाला
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