सिंचाई को पानी नहीं था, बना डाले आर्टीफीशियल ग्लेशियर

Submitted by Editorial Team on Sat, 04/15/2017 - 13:43


चेवांग नॉर्फेलचेवांग नॉर्फेलचेवांग नॉर्फेल। उम्र 81 साल। निवासी लेह शहर। साठ के दशक में लखनऊ से सिविल इंजीनियरिंग की। फिर लेह में वापस जाकर ग्रामीण विकास विभाग में बतौर इंजीनियर सेवा देने लगे। 1995 में रिटायर हुए चेवांग। यह पहचान है उस शख्स की जिसको पूरे लेह-लद्दाख इलाके में 'आइसमैन' के नाम से जाना जाता है। नॉर्फेल ने लद्दाख के दुर्गम पहाड़ी इलाकों में आर्टीफिशियल ग्लेशियर बनाकर न सिर्फ लेह-लद्दाख का नाम रोशन किया बल्कि इस इलाके में रहने वाले ग्रामीणों की जिन्दगी को बेहद सरल बना दिया।

इन आर्टीफिशियल ग्लेशियर से लद्दाख के तकरीबन 19 हजार हेक्टेयर की कृषि योग्य भूमि उपजाऊ हो गई। चेवांग नॉर्फेल के बनाए गए ग्लेशियर लद्दाख के किसानों को उनकी जरूरत के वक्त पानी देते हैं। इन ग्लेशियर के बनने से पहले यहाँ के किसान प्राकृतिक ग्लेशियर के पिघलने का इन्तजार करते थे। जब तक ग्लेशियर पिघलते थे तब तक खेती का वक्त निकल चुका होता था। इस उपलब्धि पर ही चेवांग नॉर्फेल को 2015 में पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। चेवांग नॉर्फेल से उनकी उपलब्धि और इलाके के लोगों के लिये किये जा रहे कार्यों पर लम्बी बातचीत।

 

 

नेचुरल ग्लेशियर का रास्ता बदलकर बनाया आर्टीफीशियल ग्लेशियर


नॉर्फेल कहते हैं कि सरल शब्दों में समझें तो यह पहाड़ों पर जमी बर्फ के पिघलने वाले बहाव का एक ऐसा वैकल्पिक बन्दोबस्त है जो प्राकृतिक ग्लेशियर से एक दूसरा रास्ता बनाकर गाँवों के नजदीक बर्फ की नदी के रूप में संरक्षित किया जा सके। जो किसानों की खेती में पानी के लिये मदद कर सके। आर्टीफीशियल ग्लेशियर जो गाँवों के काफी करीब होते हैं वह नेचुरल ग्लेशियरों की तुलना में पहले पिघलते हैं। उनके पानी का बहाव जल्द ही खेतों तक पहुँच जाता है और किसानों को तय वक्त पर पानी मिलने लगता है।

 

 

 

 

किसान बेबस थे, पानी नहीं मिलता था...तभी सोचा बनाऊँगा आर्टीफीशिल ग्लेशियर


1935 में इसी लेह इलाके में पैदा हुआ। यहीं बड़ा हुआ। पढ़ने के लिये तीन साल लखनऊ गया। वापस आया तो देखा कि हमारे इलाके के किसानों को बहुत परेशानी होती है।

अपने सब्जी के बाग में चेवांग नॉर्फेलबुआई और फसल के लिये उनको अप्रैल मई में पानी की जरूरत होती है। जबकि नेचुरल ग्लेशियर जून जुलाई में तेजी से पिघलते हैं। ऐसे में पानी मिलता नहीं था, किसान बेबस थे। यहाँ वैसे भी खेती के लिये जमीन नहीं है जो थी वह भी पानी न मिलने के अभाव में बेकार हो रही थी। मैंने लखनऊ से वापस आकर जब ग्रामीण विकास विभाग में बतौर इंजीनियर ज्वाइन किया तभी दिमाग में आया कि कुछ ऐसा किया जाये जिससे किसानों को वक्त पर पानी तो मिल सके। फिर मैंने सोचा कि पानी का वैकल्पिक बन्दोबस्त किया जाये। बस काम शुरू कर दिया और आर्टीफीशियल ग्लेशियर बनाने शुरू कर दिये।

 

 

 

 

पहला ग्लेशियर 1987 में बनाया था


पहला ग्लेशियर 1987 में बनाया था। तब से लेकर अब तक पन्द्रह ग्लेशियर बना चुका हूँ। चूँकि मैं लद्दाख के एक एक कोने से वाकिफ हूँ इसलिये हर गाँव के भौगोलिक दृष्टिकोण के हिसाब से उन इलाकों में आर्टीफीशियल ग्लेशियर बनाए। हालांकि एक बड़ा नुकसान तब हुआ जब 2010 में लेह में बाढ़ आया था। तब हमारे हाथों से बनाए गए कई ग्लेशियर उस बाढ़ में बह गए। उसके बाद इन ग्लेशियर्स को दोबारा बनाने की प्रकियाएँ शुरू कीं। कुछ बन गए हैं कुछ बनाए जाने बाकी हैं।

रही बात हालातों की तो आप यह समझिए कि तकरीबन एक लाख वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले लेह लद्दाख के इस पहाड़ी बफीर्ले इलाके में महज उन्नीस हजार हेक्टेयर में ही खेती हो पाती है। अस्सी फीसदी ग्रामीण पहले नेचुरल ग्लेशियर के पिघलने का इन्तजार करते रहते थे। अब हालात बदल गए हैं। किसानों को उनके गाँवों के बगल में ही पानी के लिये ग्लेशियर मिल रहे हैं। उनको वक्त पर पानी मिलता है तो फसलें भी वक्त पर हो जाती हैं। किसानों को उनकी फसल का सही दाम सही वक्त पर मिलने लगा। उनकी जिन्दगी पटरी पर आ गई है।

 

 

 

 

पीने के पानी की समस्या दूर कर रहे आर्टीफीशियल ग्लेशियर


पानी की प्राब्लम तो पूरे लद्दाख में हैं। सालाना औसत बारिश अस्सी से सौ मिलीमीटर तक ही होती है। ज्यादातर आबादी दस हजार फीट से लेकर चौदह हजार फीट या कुछ उससे भी ऊपरी इलाकों में रहती है। ऊपरी इलाकों में तो साल के ज्यादातर महीने में बर्फ जमी रहती है। ऐसे में पीने के पानी का भी संकट है। चूँकि ग्लेशियर का पानी मीठे पानी का सबसे बेहतरीन स्रोत होता है। इसमें आर्टीफीशियल ग्लेशियर पीने के पानी में मददगार साबित हो रहे हैं। गाँव के लोग इस पानी को पीने के लिये भी इस्तेमाल करते हैं।

चेवांग नॉर्फेल को 2015 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया

 

 

अभी भी लगा रहता हूँ काम में


नार्फेल कहते हैं कि अब तो उम्र भी 81 साल हो गई है। घर पत्नी और बच्चे हैं। अब वक्त पोती के साथ और अन्य परिजनों के साथ भी देता हूँ लेकिन काम करने का जज्बा ही है जो हमको अभी भी कुछ-न-कुछ करने को प्रेरित करता रहता है। वह अब अपने इलाके के लोगों को प्रेरित करते हैं कि लोगों को स्वच्छ पानी और खेतों के लिये पानी के बन्दोबस्त पर जोर दें। क्योंकि इस दुर्गम इलाके में यही सबसे बड़ी समस्या है। यहाँ पर अगर पानी के मैनेजमेंट को सीख लिया जाये तो यहाँ के लोगों की जिन्दगी को और बेहतर बनाया जा सकता है।