उत्तराखण्ड, हिमालय का ऐसा राज्य है, जहाँ के लोग मिश्रित खेती करते आये हैं। आजादी की लड़ाई और फौज में सेवा प्राप्त करने के बाद इस राज्य के लोगों में पलायन की प्रवृत्ति सर्वाधिक बढ़ी है। फिर भी जो लोग घर-गाँव में मौजूद हैं वे अपनी खेती के कार्यों को पूर्वानुसार ही करते आये हैं। राज्य का ऐसा क्षेत्र उत्तरकाशी जनपद में ही दिखता है क्योंकि यहाँ पलायन नाम मात्र का ही है। कैसे यहाँ के लोग अपनी माटी और जल संरक्षण से जुड़े हैं और कैसे इन्हीं संसाधनों को आजीविका का साधन बनाते हैं। एक सफल उदाहरण जो उत्तरकाशी जनपद के कंकराड़ी गाँव निवासी दलवीर सिंह ने प्रस्तुत किया है।
बता दें कि जैसे-जैसे पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ेगी वैसे-वैसे पानी की मात्रा कम होती जाएगी। ऐसे में खेतों की सिंचाई करना किसी विज्ञान से कम नहीं है। इसी लोक विज्ञान के बलबूते दलवीर सिंह चौहान ने वर्षाजल को सिंचाई के रूप में परिपूर्ण इस्तेमाल किया। यही वजह है कि उन्होंने जल प्रबन्धन के बूते अपनी इस ढालदार असिंचित भूमि को सिंचित में तब्दील करके सोना उगलने वाली बना दिया। जिससे वे हर वर्ष लगभग साढ़े तीन लाख रुपए से अधिक की कमाई कर लेते हैं।
जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से नौ किमी दूर स्थित कंकराड़ी गाँव के दलवीर सिंह चौहान वर्षाजल को एकत्रित करके नई विधी से सिंचाई के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। वे टपक सिंचाई की विधी से खेती व माइक्रो स्प्रिंकलर जैसी तकनीक से 0.75 हेक्टेयर भूमि पर विगत 17 साल से सब्जी उत्पादन कर रहे हैं। उन्हें यहाँ ना तो किसी सरकार का मुँह ताकना पड़ता है और ना ही किसी नहर व पाइप लाइन का इन्तजार करना पड़ता है। बस वे तो बरसात के पानी को ही सिंचाई एवं अन्य प्रयोग हेतु करते हैं। वे कहते हैं कि पहाड़ों में अब तक हम लोग बरसात के पानी का उपयोग नहीं कर पाये हैं। यही वजह है कि हम लोगों की निर्भरता सरकारी योजनाओं पर बढ़ने लगी है। जिसके फलस्वरूप हम लोग खेती-किसानी से पिछड़ते जा रहे हैं।
उल्लेखनीय हो कि दलवीर सिंह ने वर्ष 1994 में गढ़वाल विवि श्रीनगर से अर्थशास्त्र विषय से परास्नातक करने के बाद वर्ष 1996 में बीएड किया। सामान्य किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले दलवीर अपने परिवार में सभी भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। इस कारण परिवार चलाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कन्धे पर थी। सो उन्होंने गाँव के निकट मुस्टिकसौड़ में एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया। लेकिन, स्कूल से मिलने वाला मानदेय परिवार चलाने के लिये नाकाफी था।
वर्ष 2001 में उत्तरकाशी के उद्यान अधिकारी कंकराड़ी गाँव पहुँचे तो उन्होंने दलवीर को आँगन के आसपास नकदी फसलों के उत्पादन के लिये प्रेरित किया। दलवीर ने डरते हुए पहले वर्ष में एक छोटे-से खेत में छप्पन कद्दू उत्पादित किये। घर के नल से पानी भरकर एक-एक पौध की सिंचाई की। तीन माह के अन्तराल में 56 कद्दू सहित अन्य नगदी फसल 45 हजार रुपए की आमदनी कर गए।
खेती से लाभ होते देख दलवीर ने प्राइवेट स्कूल की नौकरी छोड़कर सब्जी उत्पादन शुरू कर दिया। पानी की इन्तजाम के लिये वर्ष 2008 में एक लाख रुपए की विधायक निधि से दो किमी लंबी लाइन मुस्टिकसौड़ के एक स्रोत से जोड़ी। वहाँ भी पानी कम होने के कारण घर के पास ही एक वर्षाजल एकत्रिकरण हेतु टैंक बनाया। इसी बीच कृषि विज्ञान केन्द्र चिन्यालीसौड़ में दलवीर ने खेती के साथ जल प्रबन्धन की तकनीक सीखी। फिर वर्ष 2008 में ही सिंचाई के लिये टपक खेती अपनाई। इसके लिये सिस्टम लगाने में कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिकों ने दलवीर की मदद की।
सूखी भूमि पर जब लाखों रुपए की आमदनी होने लगी तो दलवीर ने वर्ष 2011 में माइक्रो स्प्रिंकलर की तरकीब सीखी। इसका उपयोग दलवीर ने गोभी, पालक, राई व बेमौसमी सब्जी उत्पादन के लिये बनाए गए पॉली हाउस में किया। इन्हीं तकनीकी के बलबूते उनकी मेहनत रंग लाई और दलवीर जिले के प्रगतिशील किसानों की सूची में शुमार हो गए। दलवीर सिंह वर्तमान में ब्रोकली, टमाटर, आलू, छप्पन कद्दू, शिमला मिर्च, पत्ता गोभी, बैंगन, फ्रासबीन, फूल गोभी, राई, पालक, खीरा, ककड़ी के अलावा आड़ू, अखरोट, खुबानी, कागजी नींबू आदि नगदी फसलों को उत्पादित कर रहे हैं।
दलवीर की खेती में खास बात यह है कि सब्जी विक्रेता सब्जी लेने के लिये सीधे उनके गाँव कंकराड़ी पहुँचते हैं। इसलिये दलवीर के सामने बाजार का संकट भी नहीं है। यही नहीं उनकी यह नगदी फसल पूर्ण रूप से जैविक है। इसलिये भी दलवीर की फसलों को लोग ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं।
कम पानी में बेहतर उद्यानी
दलवीर की मेहनत को देखने और कम पानी में अच्छी उद्यानी के गुर सीखने के लिये जिले के अब तक 45 गाँवों के ग्रामीणों को कृषि विभाग व विभिन्न संस्थाएँ कंकराड़ी का भ्रमण करा चुकी हैं। दलवीर जिले के 30 से अधिक गाँवों में कम पानी से अच्छी उद्यानी का प्रशिक्षण भी दे चुके हैं। यही वजह है कि दलवीर सिंह चौहान को ‘कृषि पंडित, प्रगतिशील किसान’ सहित कई राज्यस्तरीय पुरस्कारों से नवाजे गए हैं।
ऐसी होती है टपक खेती
कम पानी से अच्छी किसानी करने का वैज्ञानिक तरीका टपक खेती ही है। इसमें पानी का 90 फीसद उपयोग पौधों की सिंचाई में होता है। इसके तहत पानी के टैंक से एक पाइप को खेतों में जोड़ा जाता है। उस पाइप पर हर 60 सेमी की दूरी पर बारीक-बारीक छेद होते हैं। जिनसे पौधों की जड़ के पास ही पानी की बूँदें टपकती हैं। इस तकनीक को ड्रीप सिस्टम भी कहते हैं।
70 फीसद पानी का उपयोग
माइक्रो स्प्रिंकलर एक फव्वारे की तरह काम करता है। इसके लिये टपक की तुलना में टैंकों में कुछ अधिक पानी की जरूरत होती है। इस तकनीक से खेती करने में 70 फीसद पानी का उपयोग होता है। जबकि, नहरों व गूल के जरिए सिंचाई करने में 75 फीसद पानी बर्बाद हो जाता है।