बाबा केदार के कपाट खुलने पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केदारनाथ आये थे और अब कपाट बन्द होने की पूर्व संध्या पर यानि 20 अक्टूबर को फिर प्रधानमंत्री केदारनाथ आ रहे हैं। वे यहाँ बाबा केदार से आर्शीवाद लेने आ रहे हैं। वहीं राज्य के लोगों की प्रधानमंत्री के आने से बहुत उम्मीदें लगी हुई हैं। यह साफ तभी हो पाएगा जब वे केदार बाबा के द्वार पहुँचेंगे। अलबत्ता कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार तो प्रधानमंत्री राज्य के विकास के लिये दीपावली का तोहफा जरूर देकर जाएँगे। दूसरी तरफ केदारनाथ में हो रहे पुनर्निर्माण का कार्य फिर से सवालों के घेरे में आ गया है। विशेषज्ञ इस पुनर्निर्माण को फिर तबाही का संकेत बता रहे हैं। प्रधानमंत्री के केदारनाथ पहुँचने पर ही आगे की दिशा क्या होगी यह स्पष्टता तभी सामने आएगी।
प्रधानमंत्री के केदारनाथ आने के ठीक तीन सप्ताह पूर्व एक ऐसी रिपोर्ट सामने आई है जो रोंगटे खड़े कर देने वाली है। बता दें कि केदारनाथ में हो रहे पुनर्निर्माण को भू-वैज्ञानिक फिर से जल प्रलय को आमंत्रण देने जैसा बता रहे हैं। जबकि केदारनाथ में अब पुनर्निर्माण का कार्य लगभग अन्तिम दौर पर है। ऐसे वक्त में इस तरह की रिपोर्ट का आना भी अपने आप में सवाल खड़ा करने जैसा है। परन्तु केदारनाथ धाम को लेकर भूवैज्ञानिकों ने कहा कि धाम में अभी जो निर्माण कार्य चल रहा है अगर वह ऐसे ही चलता रहा तो जल्द ही फिर से साल 2013 के जैसी महाप्रलय आ सकती है।
केदारनाथ क्षेत्र में किये जा रहे अन्धाधुन्ध निर्माण कार्य पर हेमवन्ती नन्दन बहुगणा केन्द्रीय गढ़वाल विश्व विद्यालय के भूविज्ञानी प्रो. एमपीएस बिष्ट ने बताया कि केदारनाथ में हो रहे पुनर्निर्माण के सभी कार्य गाद के ऊपर और एवलांच शूट के मुहाने पर किये जा रहे, ऐसी हालात में क्या केदारनाथ सुरक्षित होगा? इन सवालों का जवाब न तो निर्माण ऐजेंसी के पास है और ना ही सरकार के पास है। फलतः सरकार अपना कंधा इसलिये ठोंक रही है कि उन्होंने विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ धाम के पुराने स्वरूप को लौटाने में भारी मशक्कत की है।
अब चाहे जो भी हो वह तो समय की गर्त में है। मगर केदारनाथ धाम को एक बारगी के लिये सरकार ने ऐसा पुनर्निर्मित कर दिया ताकि आने वाले श्रद्धालु देखकर यूँ नहीं कह सकते कि केदारनाथ में कभी आपदा आई होगी। इधर हेमवन्ती नन्दन बहुगणा केन्द्रीय गढ़वाल विश्व विद्यालय के भूविज्ञानी प्रो. एमपीएस बिष्ट अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत कर बताते हैं कि वर्ष 2013 के महाविनाश से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। उल्टे केदारपुरी हो या गौरीकुंड या हो पैदल मार्ग, सभी जगह अवैज्ञानिक ढंग से ग्लेशियर द्वारा लाये गए हिमोढ़ या गाद (मोरेन) के ऊपर और एवलांच शूट (ग्लेशियरों के तीव्रता से बहने वाला मार्ग) के मुहाने पर निर्माण कार्य चल रहा है। कहा कि यह विस्फोटक स्थिति है और आपदा को दोबारा आमंत्रित करने जैसा है। प्रो. बिष्ट ने हाल ही में केदारनाथ धाम का भ्रमण किया। वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से बताया कि केदारपुरी दोनों तरफ पहाड़ियों से ग्लेशियर द्वारा लाये गए मोरेन पर बसी है। केदारनाथ से रामबाड़ा तक की प्रकृति समान है। मोरेन मिट्टी और कंकड़ का मिश्रण होता है। इनके बीच कोई मजबूत जुड़ाव नहीं होता। जब इसमें पानी का रिसाव होता है तो उस वक्त यह लूज मेटेरियल बह जाता है। फलस्वरूप इसका नतीजा भूस्खलन के रूप में सामने आता है।
प्रो. बिष्ट ने बताया कि इतना तो स्पष्ट नजर आ रहा है कि केदारनाथ में हो रहा नव-निर्माण मोरेन के ऊपर और एवलांच के मुहाने पर चल रहा है। यानी कि ऐसी परिस्थिति में दोहरे खतरे की जैसी समस्या उत्पन्न हो रही है। उनका मानना है कि पहले केदारनाथ क्षेत्र में सीधे हिमपात ही होता था। ग्लेशियर धीरे-धीरे पिघलते थे और इसका पानी नुकसान नहीं पहुँचाता था, लेकिन वातावरण में बढ़ते तापमान से अतिवृष्टि होने लगी है। इससे एवलांच शूट खतरनाक हो गए हैं।
बारिश का पानी एवलांच शूट के जरिए तीव्रता से हिमोढ़ में आएगा और सब कुछ बहाकर ले जाएगा। प्रो. बिष्ट ने सरकार को केदारपुरी में एवलांच शूट के मुहाने पर निर्माण कार्य रोकने का सुझाव दिया है। वहीं हिमोढ़ मेें अस्थायी निर्माण कार्य करने की सलाह दी है। जून 2013 में मचे जल प्रलय के बाद विभिन्न संस्थानों ने केदारनाथ क्षेत्र में अध्ययन किया। सभी ने अपने शोध रिपोर्ट में यह उल्लेख किया कि बारिश ने नुकसान की तीव्रता बढ़ाई है। इससे केदारनाथ सहित निचले क्षेत्र में व्यापक जान-माल की क्षति हुई। रामबाड़ा भी मोरेन पर बसा था, जिसका आपदा के बाद नामो-निशान ही मिट गया।
प्रो. विष्ट के अनुसार केदार का अर्थ दलदली भूमि से होता है। केदारनाथ में जगह-जगह जमीन से पानी निकलता है। ऐसी जगहों पर काम किया जा रहा है, जहाँ पानी रिसता है। निर्माण कार्य से रिसाव अस्थायी रूप से बन्द हो रहे हैं, लेकिन भविष्य में यह पानी के टैंक के रूप में फटेंगे। और-तो-और केदारनाथ की सुरक्षा दीवार भी मोरेन के ऊपर टिकी है, जो सुरक्षित नहीं है। हालांकि केदारनाथ में जियोलॉजिस्ट की सुझावों पर काम हो रहा है। अलबत्ता, स्टडी रिपोर्ट्स का अध्ययन करने से मालूम होगा कि केदारनाथ में सुरक्षित निर्माण कार्य कराया जा रहा कि नहीं।
गौरतलब हो कि साल 2013 में जब एक तरफ केदारनाथ आपदा का कहर लोगों को बार-बार दहशत में डाल रहा था वहीं दूसरी तरफ तत्काल मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा केदारनाथ को फिर से स्थापित करने का वादा कर रहे थे। इसी तरह उनके बाद आये राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत भी उनसे दो कदम आगे चले। तब तक विजय बहुगुणा ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का पल्लू पकड़ लिया था।
अलग-अलग राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व और राज्य व केन्द्र सरकारों ने कभी ऐसा नहीं सोचा कि केदारनाथ में पुनर्निर्माण करने से पहले भूगर्भीय जाँच करवानी आवश्यक है। यदि केदारनाथ की भूगर्भीक जाँच हुई होती तो वर्तमान में केदारनाथ पर इस तरह के सवालों को खड़ा करना ही राजनीतिक बयानबाजी कह सकते थे, सो केदारनाथ के पुनर्निर्माण पर आई प्रो॰ एसपीएस बिष्ट की भूगर्भीक रिपोर्ट भविष्य के लिये चिन्ता का विषय बन गई हैं
पर्यावरण वैज्ञानिक आज भी अपनी बात पर अडिग हैं कि उन्होंने 2013 की आपदा के लिये राज्य में निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के तरीकों पर सवाल खड़ा किया था कि ये निर्माणाधीन परियोजना बिना वैज्ञानिक सलाह के बनाई जा रही थीं। उसके बाद केदारनाथ को पुनर्निर्माण करने के लिये सरकारों ने किसी भी भू-वैज्ञानिक से मसविरा किया हो। उल्टे राज्य में पर्यावरण कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी करार दिया जा रहा है।
यह सच है कि जब चोराबाड़ी बाँध टूटा तो केदारनाथ तबाही का मंजर साफ कह रहा था कि अब प्रकृति के साथ लोगों को अप्राकृतिक दोहन की प्रक्रिया से बाज आना चाहिए। बजाय इसके केदारनाथ के पुनर्निर्माण में बड़ी-बड़ी विशालकाय मशीनों का उपयोग किया गया, आवश्यकता पड़ने पर डाइनामेट का भी प्रयोग किया गया।
महसूस कीजिए कि जब केदारनाथ में ग्लेशियर का मलबा इकट्ठा हो, आपदा में बहकर आया हुआ अन्य मलबा भी इक्कठा हों और इसके ऊपर पुनर्निर्माण का काम आपदा के एक माह बाद तुरन्त आरम्भ कर दिया हो ऐसे में क्या केदारनाथ को सुरक्षित कहा जा सकता है? सेवानिवृत्त भू-वैज्ञानिक दिनेश कण्डवाल का कहना है कि कोई भी प्राकृतिक सम्पदा जिसमें प्रमुख रूप से मिट्टी, गारा, पत्थर हों को अपने को परिपक्व रूप में आने के लिये 30 वर्ष का समय लगता है। धरती पर इसके बदलाव आसानी से देखे जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि मिट्टी और पत्थर को कॉफर बनने के लिये कम-से-कम 30 वर्ष का समय लगता है। कहा कि इसका जीता-जागता उदाहरण टिहरी बाँध है।
टिहरी बाँध भी शुद्ध रूप से कॉफर डैम है। इसे मजबूती पाने के लिये 25 वर्ष से अधिक का समय लगा। पर केदारनाथ में एकत्रित हुए भीषण आपदा के मलबे को एक वर्ष का समय भी नहीं दिया गया और सीधे छः माह के बाद आपदाग्रस्त केदारनाथ स्थित में पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया गया। अब देखना यह होगा कि केदारनाथ में आपदा के घाव पर लगाया जा रहा पुनर्निर्माण का मलहम कितना कारगर साबित होगा।