एक जलस्रोत ऐसा भी, जो भूत के नाम से प्रचलित हैं

Submitted by Editorial Team on Thu, 06/29/2017 - 13:01


भूत राजा का पन्यारा जलस्रोतभूत राजा का पन्यारा जलस्रोतसीमान्त जनपद उत्तरकाशी में बहने वाली यमुना नदी में सैकड़ों छोटी-छोटी जल धाराएँ संगम बनाती है। इनमें से एक जलधारा यमुना नदी की दाईं ओर कुड़ गाँव से निकलती है। जहाँ से यह जलधारा निकलती है वहाँ इस जलधारे को ‘भूत राजा का पन्यारा’ कहते हैं।

अर्थात राज्य के अन्य जलधारों के जैसे इस जलस्रोत का नाम देवताओं से नहीं बल्कि भूत के नाम से प्रचलित किया गया है। जो पहली बार इस जलस्रोत का नाम सुनेगा, वह एक बारगी जल आचमन करने से पहले चिन्ता में पड़ जाएगा। हालांकि इस जलस्रोत से कुड़ गाँव के अनुसूचित जाति के लोगों की जीवन रेखा चलती है। वे इस पानी का भरपूर उपयोग करते हैं। बस उन्हें गम है तो इस जलस्रोत के नामकरण से। कहते हैं कि उनके आस-पास सभी जलस्रोतों का नाम देवी-देवताओं से जुड़ा है परन्तु उनके जलस्रोत का नाम ‘भूतराजा का पन्यारा’ क्यों हो गया? जो भी हो इस बहाने लोग जल संरक्षण के काम से जुड़े तो हैं।

गौरतलब हो कि उत्तराखण्ड राज्य में जितने भी जलस्रोत हैं उनका नामकरण, संरक्षण व दोहन किसी-न-किसी देवी-देवता के नाम लिये बिना नहीं हो सकता। अब उत्तरकाशी के ‘कुड़ गाँव’ में एक ऐसा जलस्रोत है जिसे ‘भूत के नाम’ से जाना जाता है। कह सकते हैं कि जल संरक्षण की यह प्रवृत्ति भूत के बिना भी अधूरी रही होगी। इसलिये इस गाँव की जलधारा का नाम भूत से सम्बोधित होती है। भूत के नाम से वैसे भी आस्तिक लोग डर जाते हैं।

आमतौर पर हिन्दू शास्त्रों में भूत का मतलब ही डरावना होता है। जनाब! क्या मजाल कि लोग इस जलस्रोत का गलत दोहन कर सकें। यही वजह है कि आज भी गाँव में इस जलस्रोत से निकलने वाली धारा से लोगों की जलापूर्ति पूरी होती है। कभी भी यह जलधारा सूखी नहीं है। ग्रामीण कहते हैं कि कई दौर ऐसे आये कि गर्मियों के मौसम में यमुना का पानी भी कम हो जाता है मगर ‘भूतराजा’ की जलधारा सदाबहार बहती रही।

शब्द और अर्थों की बात करें तो कुड़ का सीधा अर्थ कुण्ड से है। यह गाँव भी कुण्ड जैसे आकार के स्थान पर बसा है। गाँव की सरहद पर यह जलधारा आगन्तुकों का स्वागत यूँ करती है कि पथ-प्रदर्शक गाँव में पहुँचते ही इस पानी को ‘अँजुली’ में लेकर अपनी थकान उतारते हैं। पर गाँव में पहुँचते ही इस जलधारे का नाम सुनकर एक बार चौंक जाते हैं। खैर, कुड़ गाँव के ‘भूतराजा’ नाम के जलस्रोत से निकलने वाली जल धाराएँ आगे जाकर सैकड़ों नाली कृषि भूमि को सिंचित करती है। यही नहीं इस पानी से सिंचित खेतों में उपज की मात्रा भी अधिक होती है।

इस गाँव के सिंचित खेतों में एक अलग प्रकार की स्वादिष्ट धान की प्रजाति का उत्पादन होता है। जिसका रंग सफेद नहीं मेहरूम/लाल होता है। स्थानीय लोग इस धान की प्रजाति को ‘लाल चावल’ कहते है। कुड़ गाँव में सर्वाधिक अनुसूचित जाति के लोग निवास करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जाति भेद को लेकर इस जलस्रोत का नाम भूत रखा होगा। आश्चर्य इस बात का है कि राज्य में अन्य जलस्रोतों का नाम देवताओं से जोड़ा गया, अपितु कुड़ गाँव में यह अकेला जलस्रोत है जिसे ‘भूत के नाम’ से प्रचारित किया गया।

लोक मतानुसार कालातीत में इस स्थान पर भूतों का वास था, बताते हैं कि बसासत से पहले भी यह जलस्रोत विद्यमान था। मौजूदा समय में इस जलस्रोत के पास एक पत्थर की आकृति है। जिस आकृति पर एक हाथ में डमरू, एक में त्रिशूल, एक में चक्र व एक में शंख रेखांकित किया हुआ है। भले यह मूर्ति छोटी जरूर है परन्तु इसकी बनावट ही अति-आकर्षक है।

देखने में यह पत्थर की नक्कासीदार आकृति ‘शिवा’ की लगती है। फिर भी मूर्ति के विपरीत इस जलस्रोत का नाम रखा गया है। जबकि यह आकृति भी पांडव कालीन बताई जा रही है। हालांकि वर्तमान में ‘कुड़ गाँव के भूतराजा के पन्यारे’ का भी सौन्दर्यीकरण हो चुका है। लोगों की आस्था आज भी इस जलस्रोत पर पूर्व के जैसी ही बनी हुई है। ग्रामीण इस जलस्रोत की पूजा करते हैं तो इसके पानी को पवित्र भी मानते हैं। बस उन्हें गम है तो इस जलस्रोत के नाम से।

यह भी देखने व सोचने की बात है कि पानी को बचाने के लिये हमारे पूर्वजों ने न जाने कितने टोटके किये होंगे। बहरहाल कौतुहल का विषय यह है कि जब तक किसी से भावना ना जुड़े उसे ना तो बचाया जा सकता है और ना ही उसका दोहन ठीक ढंग से किया जा सकता है।

यही वजह है कि हमारे पूर्वज विज्ञान को लोक आस्था की ओर मोड़ते थे, ताकि आम और खास आस्था और विश्वास को एक साथ जोड़कर संरक्षण एवं दोहन में बराबरी के हिस्सेदार बनें। ऐसा ही प्रतीत इन जल संस्कृति से जुड़ी कहानियों से होता है। अतएव जलस्रोत व जलधाराएँ तो इस आस्था से तत्काल में बची ही रही, जो आज की आधुनिक सभ्यता में संरक्षित करनी मुश्किल हो चुकी है। पर्यावरण के जानकार इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पूर्व लोक मान्यताओं की तरफ एक बार ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता है।