Source
योजना, अगस्त 2008
रोजगार गारण्टी की पेचीदगी तथा इसके आकार को ध्यान में रखते हुए इस पर विस्तृत विचार-विमर्श करना जरूरी है क्योंकि इसका विस्तार 330 जिलों से बढ़ाकर पूरे देश में कर दिया गया है, जिससे इसके जिलों की संख्या बढ़कर करीब दुगनी हो गई है।आलोचनाओं के बावजूद राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून को एक अग्रणी कानून के रूप में स्वीकार किया गया है। इसे मजदूरी से जुड़े नियोजन कार्यक्रम के रूप में देखा जा रहा है। नरेगा वास्तव में पहला ऐसा गरीबों के प्रति प्रतिबद्धता वाला ठोस कार्यक्रम है जिससे वे अपनी गरिमा पर आंच आए बिना जीविकोपार्जन की उम्मीद कर सकते हैं और इसकी माँग अपने एक अधिकार के रूप में कर सकते हैं। इस कानून की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इसमें 100 दिनों के काम की गारण्टी की व्यवस्था है। विकास के इतिहास में इससे पहले इस तरह की कोई इतनी महत्त्वपूर्ण पहल नहीं की गई थी। मजदूरी से सीधा मिलने वाला लाभ गरीब परिवारों के लिए काफी महत्त्व का है।
वास्तव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (एनआरईजीपी) इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है और इसकी क्षमता असाधारण है। एनआरईजीए (नरेगा) की अनोखी विशेषता भारत में विकासात्मक परिदृश्य में बदलाव का द्वार खोलने के उल्लेखनीय मौके पैदा करने में निहित है। यह खासियत इस पर अमल के दो साल के दौरान ही प्रकट होने लगी थी।
सहभागिता की प्रक्रिया वाले किसी सरकारी कार्यक्रम में शायद पहली बार पारदर्शिता एवं जवाबदेही सम्भव हो पाई है। यह सामाजिक लेखापरीक्षण (सोशल ऑडिट) का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसके संचालन को सूचना प्राप्ति के अधिकार के तहत डालकर उसे संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। नरेगा के तहत ऐसी व्यवस्था है। ऐसे सामाजिक लेखापरीक्षण के फलस्वरूप ऐसे अनेक अविश्वसनीय उदाहरण कायम हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि गाँव-दर-गाँव में भ्रष्ट अधिकारियों को वह राशि वापस करनी पड़ी है जिसका उन्होंने गबन कर लिया था। सार्वजनिक सभाओं में विधायकों तथा अन्य राजनीतिज्ञों ने उन लोगों से पल्ला झाड़ लिया जिन्होंने इस कार्यक्रम के लिए मिली राशि का गबन कर लिया था। अधिकतर ऐसे उदाहरण खासकर आन्ध्र प्रदेश में देखने में आए हैं जहाँ सामाजिक लेखापरीक्षण को इस कार्यक्रम पर अमल का अभिन्न हिस्सा बना दिया गया है। इस तरह का दृष्टिकोण, सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल सहित हर क्षेत्र में देखने को मिला है।
साथ ही प्रशासन एवं समुदाय के बीच की साझेदारी सफल रही और ऐसा सम्भव भी पाया गया। अधिकांश स्वयंसेवी संगठन, ग्रामीण समूह तथा मजदूरी करने वाले श्रमिक अनेक राज्यों में एकजुट हुए हैं जिससे इस कार्यक्रम पर सफलतापूर्वक अमल सम्भव हो सका है − सामन्तशाही व्यवस्था और आप ही ‘माई-बाप’ की पूर्व से कायम मानसिकता से मुक्ति की दिशा में एक भारी बदलाव कहा जाएगा। यह भावना ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बावजूद अभी तक हावी रही है। इस कार्यक्रम पर अमल से हम विकेन्द्रित शासन व्यवस्था कायम करने की दिशा में भी आगे बढ़ रहे हैं।
एक उत्साहवर्द्धक बात यह है कि इस कार्यक्रम को किसी भी हालत में अधिकतर मामलों में साझेदारी के साथ अनेक जिलों में लागू किया जा सकता है। वास्तव में अनेक समूहों, गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की नजर में नरेगा सार्थक सामाजिक सेवा का एक माध्यम है जिसके आधार पर ग्रामीण गरीब मजदूरी अर्जन के रोजगार के लिए एकजुट हो सकते हैं। इससे सामुदायिक संगठनों और गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों का विकास योजनाओं में सरकार के साथ सहयोग करने से भी काम करने की क्षमता बढ़ेगी।
इसका महत्त्वपूर्ण पक्ष कृषि क्षेत्र में पूंजी निर्माण के मामले में इसका अकाट्य महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस कानून में ही उन कार्यों की सूची शामिल है जिनके लिए इस कानून का इस्तेमाल किया जाएगा। सारे कार्य परिसम्पत्ति के सृजन तथा जल संरक्षण पर केन्द्रित हैं। देहाती निर्माण कार्यों की आम समझ के विपरीत पहले साल के निर्माण कार्यों से प्राप्त अनुभव से मालूम हुआ है कि 8.3 लाख कार्यों में से, जिन पर 9,000 करोड़ रुपए खर्च हुए, 75 प्रतिशत कार्य जल संरक्षण के लिए ढाँचा बनाने, लघु सिंचाई के लिए तालाब खोदने, सामुदायिक कुआँ बनाने, भूमि का विकास करने, बाढ़ नियन्त्रण, पौधारोपण तथा ऐसे ही कार्य हैं जबकि इससे पहले ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर होने वाला खर्च मानसून की वर्षा में बह जाता था।
इन कार्यों से हुए लाभ में 12 करोड़ घनफुट (क्यूबिक) मीटर क्षमता की जल-संग्रह क्षमता, 3 लाख किलोमीटर नाले तथा जल-जमाव वाले इलाकों में तटबन्धों का निर्माण, साढ़े तीन लाख हेक्टेयर में पौधारोपण तथा उतनी ही भूमि का विकास शामिल है। इन कार्यों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखे की स्थिति से निबटने तथा अर्द्ध-मरूभूमि वाले क्षेत्रों में हुए कार्य भी शामिल हैं। जबकि एक साल की रिपोर्ट से ज्यादा उपलब्धि का अन्दाज नहीं लगता, परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दूसरे साल भी यही स्थिति कायम रही। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नरेगा परियोजनाएँ मूल्यवान हैं और देहाती इलाकों के विकास के लिए एक सामयिक पहल हैं। इन कार्यों को पूरा करने की कोई निर्धारित समय-सीमा भी नहीं है।
नरेगा परियोजनाओं की एक विशेषता यह भी है कि इस कार्यक्रम के फलस्वरूप अर्जित परिसम्पत्तियों का सीधा लाभ गरीबों को मिलेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इस कानून में यह विशेष रूप से उल्लेख है कि इसके तहत जिन-जिन कामों को कराने की इजाजत होगी उनका लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही मिलेगा।नरेगा परियोजनाओं की एक विशेषता यह भी है कि इस कार्यक्रम के फलस्वरूप अर्जित परिसम्पत्तियों का सीधा लाभ गरीबों को मिलेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इस कानून में यह विशेष रूप से उल्लेख है कि इसके तहत जिन-जिन कामों को कराने की इजाजत होगी उनका लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही मिलेगा। जिस तरह महाराष्ट्र में रोजगार गारण्टी योजना से 1990 के दशक में बागवानी क्रान्ति हुई थी उसी तरह नरेगा गरीबों की जमीन पर उत्पादकता क्रान्ति पैदा कर सकता है। यह जानकार क्षेत्रों में भी पता नहीं है कि गरीब लोगों के पास डेढ़ लाख हेक्टेयर भूमि है और यह स्थिति वास्तव में बागवानी, खेती, समन्वित कृषि प्रणाली तथा पौधारोपण के लिए समन्वित विकास पैकेज की शुरुआत करने का संकेत देती है। अनेक जगहों पर ऐसी कोशिश की जा चुकी है, परन्तु यह कोशिश छोटे स्तर पर हुई है, न कि योजनाबद्ध एवं समन्वित तरीके से। इस बात में कभी कोई सन्देह नहीं रहा कि रोजगार गारण्टी कार्यक्रम में सामाजिक न्याय के साथ विकास के हथियार के रूप में भारी सम्भावनाएँ भी निहित हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण और स्थायी प्रभाव की बात यह है कि गरीबों की अधिकारिता की प्रक्रिया नरेगा के इर्द-गिर्द विकसित हो रही है। यह प्रक्रिया देश के अनेक हिस्सों में शुरू हो चुकी है जहाँ गरीब परिवार अपने अधिकार पर जोर डालने और न्यूनतम मजदूरी की माँग करने, उच्च दर से मजदूरी के लिए मोलभाव करने तथा अनिच्छुक एवं आनाकानी करने वाले प्रशासन से बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करने में समर्थ रहा है।
नरेगा वास्तव में देश भर के गरीबों को एकजुट करने में प्रेरक साबित हुआ है। सम्भवतः इतिहास में पहली बार तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा एवं आन्ध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर यात्राओं, अभियानों, सभाओं, विचार-विमर्शों, जागरुकता तथा अन्य प्रयासों से ऐसा सम्भव हुआ है। रोजगार गारण्टी के प्रति जागरुकता, परिवारों पर मजदूरी के प्रत्यक्ष प्रभाव के फलस्वरूप बच्चों को स्कूल जाने के अवसर मिले और परिवार में पौष्टिकता की स्थिति में भी सुधार हुआ है, इसने महाजनों पर निर्भरता कम की है, भारी गरीबी की स्थिति में कमी लाई है और मजदूरों का पलायन कम हुआ है। इन सब बातों से गरीबों में आत्मविश्वास बढ़ा है। इससे सम्मान एवं गरिमापूर्ण जीवनयापन का आधार बना है।
स्पष्ट रूप से रोजगार गारण्टी से ऐसे बदलाव शुरू हुए हैं जो पूर्व की स्थिति से गुणात्मक स्तर पर भिन्न हैं। इससे विकास का नया प्रतिमान कायम होगा। हालाँकि यह बदलाव व्यापक स्तर पर नहीं हुआ है और इसका प्रभाव अलग-अलग जगह पर भिन्न-भिन्न रहा है। लेकिन यह तो इस कार्यक्रम के लागू होने का दूसरा ही साल है, फिर भी इससे स्थिति में अन्तर आने लगा है। अब चुनौती इस बात की है कि किस बेहतर तरीके से इस कार्यक्रम पर आगे अमल किया जाए ताकि नरेगा के लागू करते समय किया गया वायदा पूरा हो। इसकी कुछ प्राथमिकताएँ स्वयंसिद्ध हैं।
सरकारी कार्यक्रमों में पारदर्शिता तथा जवाबदेही कायम करने के लिए सामाजिक लेखापरीक्षण (सोशल ऑडिट) एक प्रभावकारी औजार के रूप में उभर कर सामने आया है। हर जगह ऐसे लेखापरीक्षण की जरूरत है। अभी तक सिर्फ एक राज्य आन्ध्र प्रदेश इस मामले में सक्रिय रहा है और उसने राज्य तन्त्र को इस काम में लगाने की पहल की है। विशेषकर इस कार्यक्रम का विवरण (रिकॉर्ड) प्राप्त करने के लिए प्रशासन को जिम्मेवार बनाया गया है। प्रशासन उसकी छानबीन करेगा, गाँव में रिकॉर्ड की पुनः जाँच की व्यवस्था करेगा, सम्बन्धित परिवारों की दैनिक मजदूरी के भुगतान की सूची का सत्यापन करेगा, खर्च की सम्बन्धित अनुमानित लागत को देखेगा तथा अन्त में अपनी रिपोर्ट ग्राम सभा के सामने पेश करेगा। राज्य सरकार ने इस काम के लिए टीमें गठित करने का भी निर्देश दिया है और इसकी समीक्षा तथा निरीक्षण के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कहा है।
इस टीम में सरकारी अधिकारी तथा गैर-सरकारी प्रतिनिधि शामिल होंगे। गैर-सरकारी प्रतिनिधियों में गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों, सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा दैनिक मजदूरों के प्रतिनिधि शामिल रहेंगे। ये सारे सामाजिक लेखापरीक्षक (सोशल ऑडिटर) कहलाएँगे। इन लोगों को औपचारिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाएगा। यह साधारण प्रणाली से भिन्न व्यवस्था होगी और भागीदारी पर आधारित विकास के बारे में एक सफल प्रयोग होगा।
इसी तरह के पथ का सभी राज्यों को अनुसरण करना चाहिए अन्यथा, जैसा कि राजस्थान तथा अन्य जगहों पर हुआ है, सामाजिक लेखापरीक्षण प्रक्रिया का प्रतिरोध किया जाएगा और यहाँ तक कि उसे निष्प्रभावी बना दिया जाएगा। आन्ध्र प्रदेश में भी शुरू में इस प्रक्रिया का प्रतिरोध किया गया था, क्योंकि कई मौकों पर प्रशासन खुद इस मामले में गलत साबित हुआ था। लेकिन, चूँकि इस दिशा में पहल सरकार की तरफ से हुई थी इसलिए अधिकारियों द्वारा कोई टकराव अथवा अड़चन नहीं डाला गया। अब इस प्रक्रिया का न सिर्फ स्वागत हो रहा है बल्कि इसे अधिकारियों एवं राजनीतिज्ञों द्वारा प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। ताजा घटनाक्रम यह है कि अन्य सरकारी कार्यक्रमों के सामाजिक लेखापरीक्षण की भी माँग की जाने लगी है और इस मामले में नरेगा टीम को विशेषज्ञ माना जाने लगा है।
नरेगा की क्षमता का लाभ उठाना तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कि उस पर अमल के ढाँचे को पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं किया जाएगा, खासकर पंचायतों एवं ब्लॉकों में।इस मामले में आन्ध्र प्रदेश अपवाद है और कोई दूसरा राज्य सामाजिक लेखापरीक्षण की व्यवस्था करने के प्रति इच्छुक नहीं दिख रहा है। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा कि अन्य राज्यों से भी ऐसे ही निर्देश जारी करने की उम्मीद की जाए, इसलिए भारत सरकार की ओर से ऐसा निर्देश जारी किए जाने जरूरी हैं। साथ ही, राज्यों को इस मद में धन तभी जारी किया जाए जब सामाजिक लेखापरीक्षण रिपोर्ट में राज्यों का कार्य निष्पादन सन्तोषजनक पाया जाए। ऐसी शर्तें असामान्य नहीं हैं। पहले भी ऐसी शर्तें लगाई जा चुकी हैं जबकि सैद्धान्तिक रूप से धन नहीं जारी किए जाने से वे लोग प्रभावित होंगे जिन्हें इस कार्यक्रम से फायदा होने वाला है। यदि प्रभावित होने वाली राशि मोटी होगी तो आमतौर पर राज्य ही इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगेगा।
सामाजिक लेखापरीक्षण की व्यवस्था के लिए सिर्फ निर्देश देना ही पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए एकमुश्त व्यवस्था भी जरूरी है, जिसमें सोशल ऑडिट की क्षमता का निर्माण, व्यक्ति विशेष के समूहों का पता लगाकर उन्हें प्रशासन के साथ काम से जोड़ने, लगातार नजर रखने तथा काम की समीक्षा के लिए खासकर ब्लॉकों, ग्राम पंचायतों एवं गाँवों में व्यवस्था विकसित करना तथा उसको उपयोग में लाना शामिल हैं। इसके लिए सावधानीपूर्वक योजना बनाने, उसके संचालन के काम को पर्याप्त रूप से दूसरे को सौंपने, उसके संचालन में लचीलापन लाने और जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना भी जरूरी है।
कृषि के विकास की धीमी दर (मात्र 2.6 प्रतिशत) को लेकर हर तरफ चिन्ता व्याप्त है। इसका समाधान देहाती इलाकों में पूंजीगत निवेश करने के निर्देश से सम्भव माना गया है। इस तथ्य की चर्चा 2008-09 के आर्थिक सर्वेक्षण एवं बजट में भी की गई है। इस मामले में नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून) महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हम लोगों ने गौर किया है कि इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत हो चुकी है।
हमें इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि पहले दो साल की उपलब्धि बिना किसी विस्तृत कार्य योजना के हासिल हुई है। वह भी योजना, उस पर अमल तथा उसके पर्यवेक्षण की किसी महत्वाकांक्षी व्यवस्था के बिना। यह बात सही है कि इसके लिए दिशा-निर्देश तथा मार्गदर्शन थे, परन्तु उनको समर्थन देने के लिए कोई प्रणाली विकसित नहीं की गई थी। इसलिए उन पर अनुसरण की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तथ्य पर महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में भी जोर डाला गया है।
रोजगार गारण्टी के माध्यम से सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण इलाकों के योगदान को बढ़ावा देने की पूर्व अनिवार्य शर्त का मतलब एक ठोस एवं प्रभावकारी प्रणाली का सृजन एवं उसका उपयोग करना है — खासकर जिला, ब्लॉक, ग्राम पंचायत तथा गाँव के स्तर पर। वास्तव में 90 के दशक के सामुदायिक विकास के विफल प्रयोग के बाद इस प्रकार की कभी कोशिश ही नहीं की गई। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम जिलों में अनेक स्कीमों पर प्रभाव डाल सकता है। इन स्कीमों में जल सम्भरण से लेकर शिल्पियों के लिए साझा सुविधा केन्द्र निर्माण, सिंचाई से लेकर गाँव की नालियों तथा जलापूर्ति के काम शामिल हैं। इसलिए यह उपयुक्त होगा कि नरेगा की निर्धारित प्रक्रिया और मानदण्डों को अन्य कार्यक्रमों के साथ जोड़ दिया जाए, ताकि हमारे पास एक एकीकृत प्रणाली उपलब्ध हो सके (ऐसा समय-समय पर उद्योगों में भी किया जाता है ताकि आईटी उपकरणों और सॉफ्टवेयर में हो रहे बदलाव का लाभ मिल सके)।
ब्रिटिश शासन ने अपने राजस्व संग्रह प्रशासन के लिए एक परिष्कृत प्रणाली कायम की थी। इस प्रणाली का विस्तार एक-एक भूखण्ड, प्रत्येक सिंचाई स्रोत तथा यहाँ तक कि गाँव के एक-एक ताड़ के पेड़, दैनिक वर्षा तथा जन्म-मृत्यु तक कर दिया गया था। व्यापक निगरानी एवं पर्यवेक्षण की व्यवस्था में वार्षिक जमाबन्दी को भी शामिल कर लिया गया था तथा राजस्व संग्रह के लिए विशेष अभियान चलाए गए थे।
इसलिए हमें आज विकास सम्बन्धी प्रशासन की प्रणाली कायम करने पर धन लगाने की जरूरत है। साथ ही इसके विवरण प्राप्ति पर भी नजर रखनी है, भले ही वह एक लम्बी प्रक्रिया हो। समय की माँग है कि हम ऐसा करें, सम्भवतः ऐसा करना अधिक समयोचित होगा। समान रूप से जरूरी और त्वरित जरूरत यह व्यवस्था करने की भी है कि इस कार्यक्रम पर अमल के कामों में तालमेल हो ताकि ग्रामीण इलाकों में जो भी निर्माण कार्य शुरू हो वह नरेगा की सूची में शामिल हो। इससे उन कार्यों से अधिक लाभ मिलेगा और परिणाम भी अनुकूल होगा। सूखा राहत, बाढ़ तथा अन्य प्राकृतिक आपदा के दौरान होने वाले निर्माण कार्यों में ऐसा तालमेल सुनिश्चित किया जाता है। इस तालमेल से राज्य सरकारें, गाँव, ब्लॉक और जिला प्रशासन अवगत हैं। आपात स्थिति में जो चीज़ें मान्य हैं वे सामान्य स्थिति में सुनिश्चित करना आसान नहीं होगा। तथापि यह जरूरी है और ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि नरेगा का विभिन्न विभागीय योजनाओं के साथ तालमेल कायम किया जा सके। इन विभागीय योजनाओं में जलापूर्ति, खेती, सिंचाई, बागवानी, पशुपालन, वन, मछलीपालन तथा हथकरघा शामिल हैं, ताकि इन कार्यक्रमों के ठोस परिणाम निकल सकें। इन कार्यक्रमों पर निगरानी रखने तथा उनकी समीक्षा के कामों में भी तालमेल कायम करने की जरूरत है।
नरेगा की क्षमता का लाभ उठाना तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कि उस पर अमल के ढाँचे को पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं किया जाएगा, खासकर पंचायतों एवं ब्लॉकों में।
महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों में से यह एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश है। इससे पहले के अनेक रोजगार सृजन सम्बन्धी कार्यक्रमों के मूल्यांकनों का भी यही निष्कर्ष है। अभी नरेगा के लिए आवण्टन का 4 प्रतिशत (हाल ही में उसमें 2 प्रतिशत की वृद्धि की गई है) प्रशासन पर खर्च किया जा सकता है। इसी राशि में से सामाजिक लेखापरीक्षण तथा निर्माण स्थल पर सुविधा उपलब्ध कराने के मदों पर भी खर्च किया जाएगा। यह राशि अभी भी अपर्याप्त है और इसमें और बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए। चूँकि ऐसे खर्च एक जिले के अनेक ब्लॉकों, पंचायतों और गाँवों से जुड़े हुए हैं, इसलिए आवण्टन के लिए एक उपयुक्त पैमाना कायम किया जाना चाहिए। यह पैमाना डीआरडीए के प्रशासनिक खर्चे की पद्धति के आधार पर परन्तु उससे अलग हटकर कायम किया जाना चाहिए। यह बड़ी दुखद स्थिति होगी कि इतनी अनुपम पहल सिर्फ इसलिए विफल हो जाए कि हम इसके प्रबन्धन पर खर्च के मामले में दूरदर्शिता से काम नहीं ले सके।
प्रत्येक हितधारी के लिए प्रशिक्षण एवं क्षमता सृजन का भी उतना ही महत्त्व है। नरेगा के लिए खासकर ऐसा जरूरी है, क्योंकि इस कार्य के आयाम तथा प्रक्रिया के मद्देनजर इसके प्रति भिन्न प्रकार की समझ विकसित करने की जरूरत है जो पिछले विकास कार्यों से प्राप्त अनुभव के दायरे से अलग होगी। इसके लिए सही पाठ्यक्रम तथा स्थिति के अनुकूलन कार्यक्रम पर अमल एक विशाल काम है।
रोजगार गारण्टी की पेचीदगी तथा इसके आकार को ध्यान में रखते हुए इस पर विस्तृत विचार-विमर्श करना जरूरी है क्योंकि इसका विस्तार 330 जिलों से बढ़ाकर पूरे देश में कर दिया गया है, जिससे इसके जिलों की संख्या बढ़कर करीब दुगनी हो गई है। इसलिए हर कार्य के लिए नवीन नहीं तो विस्तृत व्यवस्था तो जरूरी ही है। इसका संचालन सरकारी अथवा अर्द्ध-सरकारी संगठन अकेले नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर सरकार से बाहर के संगठनों के साथ और सरकारी ढाँचे के भीतर, सहयोग कायम किया जाए तथा उनकी दक्षता, अनुभव तथा सूझ-बूझ का लाभ उठाया जाए।
अन्त में मैं यह कहना चाहूँगा कि बजट प्रावधान के बावजूद, सरकार के अग्रणी कार्यक्रम के रूप में रोजगार गारण्टी की घोषणा, प्रचार तथा भाषणों के बावजूद जो कमी खटक रही है वह है उसके प्रति आस्था एवं विश्वास की। इसको प्राथमिकता देने की भावना, यहाँ तक कि उसकी पहचान करने की भावना का भी अभाव है। यह कार्यक्रम अलग-थलग पड़ गया है और ग्राम विकास मन्त्रालय का कार्यक्रम भर बन कर रह गया है। इसकी जगह इसके साथ भारत सरकार के राष्ट्रीय कार्यक्रम की तरह व्यवहार होना चाहिए था और हरित क्रान्ति की तरह इसके प्रति भी प्रतिबद्धता होनी चाहिए थी। वास्तव में यह कार्यक्रम उससे भी अधिक मान्यता पाने का हकदार है।
(लेखक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेण्ट, हैदराबाद के पूर्व महानिदेशक तथा ग्रामीण विकास मन्त्रालय, भारत सरकार, के पूर्व वित्तीय सलाहकार हैं)
ई-मेल : lalitmathur45@yahoo.com
वास्तव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (एनआरईजीपी) इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है और इसकी क्षमता असाधारण है। एनआरईजीए (नरेगा) की अनोखी विशेषता भारत में विकासात्मक परिदृश्य में बदलाव का द्वार खोलने के उल्लेखनीय मौके पैदा करने में निहित है। यह खासियत इस पर अमल के दो साल के दौरान ही प्रकट होने लगी थी।
पारदर्शी प्रक्रिया
सहभागिता की प्रक्रिया वाले किसी सरकारी कार्यक्रम में शायद पहली बार पारदर्शिता एवं जवाबदेही सम्भव हो पाई है। यह सामाजिक लेखापरीक्षण (सोशल ऑडिट) का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसके संचालन को सूचना प्राप्ति के अधिकार के तहत डालकर उसे संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। नरेगा के तहत ऐसी व्यवस्था है। ऐसे सामाजिक लेखापरीक्षण के फलस्वरूप ऐसे अनेक अविश्वसनीय उदाहरण कायम हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि गाँव-दर-गाँव में भ्रष्ट अधिकारियों को वह राशि वापस करनी पड़ी है जिसका उन्होंने गबन कर लिया था। सार्वजनिक सभाओं में विधायकों तथा अन्य राजनीतिज्ञों ने उन लोगों से पल्ला झाड़ लिया जिन्होंने इस कार्यक्रम के लिए मिली राशि का गबन कर लिया था। अधिकतर ऐसे उदाहरण खासकर आन्ध्र प्रदेश में देखने में आए हैं जहाँ सामाजिक लेखापरीक्षण को इस कार्यक्रम पर अमल का अभिन्न हिस्सा बना दिया गया है। इस तरह का दृष्टिकोण, सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल सहित हर क्षेत्र में देखने को मिला है।
साथ ही प्रशासन एवं समुदाय के बीच की साझेदारी सफल रही और ऐसा सम्भव भी पाया गया। अधिकांश स्वयंसेवी संगठन, ग्रामीण समूह तथा मजदूरी करने वाले श्रमिक अनेक राज्यों में एकजुट हुए हैं जिससे इस कार्यक्रम पर सफलतापूर्वक अमल सम्भव हो सका है − सामन्तशाही व्यवस्था और आप ही ‘माई-बाप’ की पूर्व से कायम मानसिकता से मुक्ति की दिशा में एक भारी बदलाव कहा जाएगा। यह भावना ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बावजूद अभी तक हावी रही है। इस कार्यक्रम पर अमल से हम विकेन्द्रित शासन व्यवस्था कायम करने की दिशा में भी आगे बढ़ रहे हैं।
एक उत्साहवर्द्धक बात यह है कि इस कार्यक्रम को किसी भी हालत में अधिकतर मामलों में साझेदारी के साथ अनेक जिलों में लागू किया जा सकता है। वास्तव में अनेक समूहों, गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की नजर में नरेगा सार्थक सामाजिक सेवा का एक माध्यम है जिसके आधार पर ग्रामीण गरीब मजदूरी अर्जन के रोजगार के लिए एकजुट हो सकते हैं। इससे सामुदायिक संगठनों और गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों का विकास योजनाओं में सरकार के साथ सहयोग करने से भी काम करने की क्षमता बढ़ेगी।
ग्रामीण इलाकों में गरीबों के लिए पूंजीनिर्माण
इसका महत्त्वपूर्ण पक्ष कृषि क्षेत्र में पूंजी निर्माण के मामले में इसका अकाट्य महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस कानून में ही उन कार्यों की सूची शामिल है जिनके लिए इस कानून का इस्तेमाल किया जाएगा। सारे कार्य परिसम्पत्ति के सृजन तथा जल संरक्षण पर केन्द्रित हैं। देहाती निर्माण कार्यों की आम समझ के विपरीत पहले साल के निर्माण कार्यों से प्राप्त अनुभव से मालूम हुआ है कि 8.3 लाख कार्यों में से, जिन पर 9,000 करोड़ रुपए खर्च हुए, 75 प्रतिशत कार्य जल संरक्षण के लिए ढाँचा बनाने, लघु सिंचाई के लिए तालाब खोदने, सामुदायिक कुआँ बनाने, भूमि का विकास करने, बाढ़ नियन्त्रण, पौधारोपण तथा ऐसे ही कार्य हैं जबकि इससे पहले ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर होने वाला खर्च मानसून की वर्षा में बह जाता था।
इन कार्यों से हुए लाभ में 12 करोड़ घनफुट (क्यूबिक) मीटर क्षमता की जल-संग्रह क्षमता, 3 लाख किलोमीटर नाले तथा जल-जमाव वाले इलाकों में तटबन्धों का निर्माण, साढ़े तीन लाख हेक्टेयर में पौधारोपण तथा उतनी ही भूमि का विकास शामिल है। इन कार्यों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखे की स्थिति से निबटने तथा अर्द्ध-मरूभूमि वाले क्षेत्रों में हुए कार्य भी शामिल हैं। जबकि एक साल की रिपोर्ट से ज्यादा उपलब्धि का अन्दाज नहीं लगता, परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दूसरे साल भी यही स्थिति कायम रही। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नरेगा परियोजनाएँ मूल्यवान हैं और देहाती इलाकों के विकास के लिए एक सामयिक पहल हैं। इन कार्यों को पूरा करने की कोई निर्धारित समय-सीमा भी नहीं है।
नरेगा परियोजनाओं की एक विशेषता यह भी है कि इस कार्यक्रम के फलस्वरूप अर्जित परिसम्पत्तियों का सीधा लाभ गरीबों को मिलेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इस कानून में यह विशेष रूप से उल्लेख है कि इसके तहत जिन-जिन कामों को कराने की इजाजत होगी उनका लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही मिलेगा।नरेगा परियोजनाओं की एक विशेषता यह भी है कि इस कार्यक्रम के फलस्वरूप अर्जित परिसम्पत्तियों का सीधा लाभ गरीबों को मिलेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इस कानून में यह विशेष रूप से उल्लेख है कि इसके तहत जिन-जिन कामों को कराने की इजाजत होगी उनका लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को ही मिलेगा। जिस तरह महाराष्ट्र में रोजगार गारण्टी योजना से 1990 के दशक में बागवानी क्रान्ति हुई थी उसी तरह नरेगा गरीबों की जमीन पर उत्पादकता क्रान्ति पैदा कर सकता है। यह जानकार क्षेत्रों में भी पता नहीं है कि गरीब लोगों के पास डेढ़ लाख हेक्टेयर भूमि है और यह स्थिति वास्तव में बागवानी, खेती, समन्वित कृषि प्रणाली तथा पौधारोपण के लिए समन्वित विकास पैकेज की शुरुआत करने का संकेत देती है। अनेक जगहों पर ऐसी कोशिश की जा चुकी है, परन्तु यह कोशिश छोटे स्तर पर हुई है, न कि योजनाबद्ध एवं समन्वित तरीके से। इस बात में कभी कोई सन्देह नहीं रहा कि रोजगार गारण्टी कार्यक्रम में सामाजिक न्याय के साथ विकास के हथियार के रूप में भारी सम्भावनाएँ भी निहित हैं।
अधिकारिता
सबसे महत्त्वपूर्ण और स्थायी प्रभाव की बात यह है कि गरीबों की अधिकारिता की प्रक्रिया नरेगा के इर्द-गिर्द विकसित हो रही है। यह प्रक्रिया देश के अनेक हिस्सों में शुरू हो चुकी है जहाँ गरीब परिवार अपने अधिकार पर जोर डालने और न्यूनतम मजदूरी की माँग करने, उच्च दर से मजदूरी के लिए मोलभाव करने तथा अनिच्छुक एवं आनाकानी करने वाले प्रशासन से बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करने में समर्थ रहा है।
नरेगा वास्तव में देश भर के गरीबों को एकजुट करने में प्रेरक साबित हुआ है। सम्भवतः इतिहास में पहली बार तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा एवं आन्ध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर यात्राओं, अभियानों, सभाओं, विचार-विमर्शों, जागरुकता तथा अन्य प्रयासों से ऐसा सम्भव हुआ है। रोजगार गारण्टी के प्रति जागरुकता, परिवारों पर मजदूरी के प्रत्यक्ष प्रभाव के फलस्वरूप बच्चों को स्कूल जाने के अवसर मिले और परिवार में पौष्टिकता की स्थिति में भी सुधार हुआ है, इसने महाजनों पर निर्भरता कम की है, भारी गरीबी की स्थिति में कमी लाई है और मजदूरों का पलायन कम हुआ है। इन सब बातों से गरीबों में आत्मविश्वास बढ़ा है। इससे सम्मान एवं गरिमापूर्ण जीवनयापन का आधार बना है।
स्पष्ट रूप से रोजगार गारण्टी से ऐसे बदलाव शुरू हुए हैं जो पूर्व की स्थिति से गुणात्मक स्तर पर भिन्न हैं। इससे विकास का नया प्रतिमान कायम होगा। हालाँकि यह बदलाव व्यापक स्तर पर नहीं हुआ है और इसका प्रभाव अलग-अलग जगह पर भिन्न-भिन्न रहा है। लेकिन यह तो इस कार्यक्रम के लागू होने का दूसरा ही साल है, फिर भी इससे स्थिति में अन्तर आने लगा है। अब चुनौती इस बात की है कि किस बेहतर तरीके से इस कार्यक्रम पर आगे अमल किया जाए ताकि नरेगा के लागू करते समय किया गया वायदा पूरा हो। इसकी कुछ प्राथमिकताएँ स्वयंसिद्ध हैं।
सामाजिक लेखापरीक्षण की अनिवार्यता
सरकारी कार्यक्रमों में पारदर्शिता तथा जवाबदेही कायम करने के लिए सामाजिक लेखापरीक्षण (सोशल ऑडिट) एक प्रभावकारी औजार के रूप में उभर कर सामने आया है। हर जगह ऐसे लेखापरीक्षण की जरूरत है। अभी तक सिर्फ एक राज्य आन्ध्र प्रदेश इस मामले में सक्रिय रहा है और उसने राज्य तन्त्र को इस काम में लगाने की पहल की है। विशेषकर इस कार्यक्रम का विवरण (रिकॉर्ड) प्राप्त करने के लिए प्रशासन को जिम्मेवार बनाया गया है। प्रशासन उसकी छानबीन करेगा, गाँव में रिकॉर्ड की पुनः जाँच की व्यवस्था करेगा, सम्बन्धित परिवारों की दैनिक मजदूरी के भुगतान की सूची का सत्यापन करेगा, खर्च की सम्बन्धित अनुमानित लागत को देखेगा तथा अन्त में अपनी रिपोर्ट ग्राम सभा के सामने पेश करेगा। राज्य सरकार ने इस काम के लिए टीमें गठित करने का भी निर्देश दिया है और इसकी समीक्षा तथा निरीक्षण के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कहा है।
इस टीम में सरकारी अधिकारी तथा गैर-सरकारी प्रतिनिधि शामिल होंगे। गैर-सरकारी प्रतिनिधियों में गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों, सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा दैनिक मजदूरों के प्रतिनिधि शामिल रहेंगे। ये सारे सामाजिक लेखापरीक्षक (सोशल ऑडिटर) कहलाएँगे। इन लोगों को औपचारिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाएगा। यह साधारण प्रणाली से भिन्न व्यवस्था होगी और भागीदारी पर आधारित विकास के बारे में एक सफल प्रयोग होगा।
इसी तरह के पथ का सभी राज्यों को अनुसरण करना चाहिए अन्यथा, जैसा कि राजस्थान तथा अन्य जगहों पर हुआ है, सामाजिक लेखापरीक्षण प्रक्रिया का प्रतिरोध किया जाएगा और यहाँ तक कि उसे निष्प्रभावी बना दिया जाएगा। आन्ध्र प्रदेश में भी शुरू में इस प्रक्रिया का प्रतिरोध किया गया था, क्योंकि कई मौकों पर प्रशासन खुद इस मामले में गलत साबित हुआ था। लेकिन, चूँकि इस दिशा में पहल सरकार की तरफ से हुई थी इसलिए अधिकारियों द्वारा कोई टकराव अथवा अड़चन नहीं डाला गया। अब इस प्रक्रिया का न सिर्फ स्वागत हो रहा है बल्कि इसे अधिकारियों एवं राजनीतिज्ञों द्वारा प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। ताजा घटनाक्रम यह है कि अन्य सरकारी कार्यक्रमों के सामाजिक लेखापरीक्षण की भी माँग की जाने लगी है और इस मामले में नरेगा टीम को विशेषज्ञ माना जाने लगा है।
नरेगा की क्षमता का लाभ उठाना तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कि उस पर अमल के ढाँचे को पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं किया जाएगा, खासकर पंचायतों एवं ब्लॉकों में।इस मामले में आन्ध्र प्रदेश अपवाद है और कोई दूसरा राज्य सामाजिक लेखापरीक्षण की व्यवस्था करने के प्रति इच्छुक नहीं दिख रहा है। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा कि अन्य राज्यों से भी ऐसे ही निर्देश जारी करने की उम्मीद की जाए, इसलिए भारत सरकार की ओर से ऐसा निर्देश जारी किए जाने जरूरी हैं। साथ ही, राज्यों को इस मद में धन तभी जारी किया जाए जब सामाजिक लेखापरीक्षण रिपोर्ट में राज्यों का कार्य निष्पादन सन्तोषजनक पाया जाए। ऐसी शर्तें असामान्य नहीं हैं। पहले भी ऐसी शर्तें लगाई जा चुकी हैं जबकि सैद्धान्तिक रूप से धन नहीं जारी किए जाने से वे लोग प्रभावित होंगे जिन्हें इस कार्यक्रम से फायदा होने वाला है। यदि प्रभावित होने वाली राशि मोटी होगी तो आमतौर पर राज्य ही इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगेगा।
सामाजिक लेखापरीक्षण की व्यवस्था के लिए सिर्फ निर्देश देना ही पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए एकमुश्त व्यवस्था भी जरूरी है, जिसमें सोशल ऑडिट की क्षमता का निर्माण, व्यक्ति विशेष के समूहों का पता लगाकर उन्हें प्रशासन के साथ काम से जोड़ने, लगातार नजर रखने तथा काम की समीक्षा के लिए खासकर ब्लॉकों, ग्राम पंचायतों एवं गाँवों में व्यवस्था विकसित करना तथा उसको उपयोग में लाना शामिल हैं। इसके लिए सावधानीपूर्वक योजना बनाने, उसके संचालन के काम को पर्याप्त रूप से दूसरे को सौंपने, उसके संचालन में लचीलापन लाने और जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना भी जरूरी है।
योजना और तालमेल
कृषि के विकास की धीमी दर (मात्र 2.6 प्रतिशत) को लेकर हर तरफ चिन्ता व्याप्त है। इसका समाधान देहाती इलाकों में पूंजीगत निवेश करने के निर्देश से सम्भव माना गया है। इस तथ्य की चर्चा 2008-09 के आर्थिक सर्वेक्षण एवं बजट में भी की गई है। इस मामले में नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून) महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हम लोगों ने गौर किया है कि इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत हो चुकी है।
हमें इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि पहले दो साल की उपलब्धि बिना किसी विस्तृत कार्य योजना के हासिल हुई है। वह भी योजना, उस पर अमल तथा उसके पर्यवेक्षण की किसी महत्वाकांक्षी व्यवस्था के बिना। यह बात सही है कि इसके लिए दिशा-निर्देश तथा मार्गदर्शन थे, परन्तु उनको समर्थन देने के लिए कोई प्रणाली विकसित नहीं की गई थी। इसलिए उन पर अनुसरण की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तथ्य पर महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में भी जोर डाला गया है।
रोजगार गारण्टी के माध्यम से सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण इलाकों के योगदान को बढ़ावा देने की पूर्व अनिवार्य शर्त का मतलब एक ठोस एवं प्रभावकारी प्रणाली का सृजन एवं उसका उपयोग करना है — खासकर जिला, ब्लॉक, ग्राम पंचायत तथा गाँव के स्तर पर। वास्तव में 90 के दशक के सामुदायिक विकास के विफल प्रयोग के बाद इस प्रकार की कभी कोशिश ही नहीं की गई। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम जिलों में अनेक स्कीमों पर प्रभाव डाल सकता है। इन स्कीमों में जल सम्भरण से लेकर शिल्पियों के लिए साझा सुविधा केन्द्र निर्माण, सिंचाई से लेकर गाँव की नालियों तथा जलापूर्ति के काम शामिल हैं। इसलिए यह उपयुक्त होगा कि नरेगा की निर्धारित प्रक्रिया और मानदण्डों को अन्य कार्यक्रमों के साथ जोड़ दिया जाए, ताकि हमारे पास एक एकीकृत प्रणाली उपलब्ध हो सके (ऐसा समय-समय पर उद्योगों में भी किया जाता है ताकि आईटी उपकरणों और सॉफ्टवेयर में हो रहे बदलाव का लाभ मिल सके)।
ब्रिटिश शासन ने अपने राजस्व संग्रह प्रशासन के लिए एक परिष्कृत प्रणाली कायम की थी। इस प्रणाली का विस्तार एक-एक भूखण्ड, प्रत्येक सिंचाई स्रोत तथा यहाँ तक कि गाँव के एक-एक ताड़ के पेड़, दैनिक वर्षा तथा जन्म-मृत्यु तक कर दिया गया था। व्यापक निगरानी एवं पर्यवेक्षण की व्यवस्था में वार्षिक जमाबन्दी को भी शामिल कर लिया गया था तथा राजस्व संग्रह के लिए विशेष अभियान चलाए गए थे।
इसलिए हमें आज विकास सम्बन्धी प्रशासन की प्रणाली कायम करने पर धन लगाने की जरूरत है। साथ ही इसके विवरण प्राप्ति पर भी नजर रखनी है, भले ही वह एक लम्बी प्रक्रिया हो। समय की माँग है कि हम ऐसा करें, सम्भवतः ऐसा करना अधिक समयोचित होगा। समान रूप से जरूरी और त्वरित जरूरत यह व्यवस्था करने की भी है कि इस कार्यक्रम पर अमल के कामों में तालमेल हो ताकि ग्रामीण इलाकों में जो भी निर्माण कार्य शुरू हो वह नरेगा की सूची में शामिल हो। इससे उन कार्यों से अधिक लाभ मिलेगा और परिणाम भी अनुकूल होगा। सूखा राहत, बाढ़ तथा अन्य प्राकृतिक आपदा के दौरान होने वाले निर्माण कार्यों में ऐसा तालमेल सुनिश्चित किया जाता है। इस तालमेल से राज्य सरकारें, गाँव, ब्लॉक और जिला प्रशासन अवगत हैं। आपात स्थिति में जो चीज़ें मान्य हैं वे सामान्य स्थिति में सुनिश्चित करना आसान नहीं होगा। तथापि यह जरूरी है और ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि नरेगा का विभिन्न विभागीय योजनाओं के साथ तालमेल कायम किया जा सके। इन विभागीय योजनाओं में जलापूर्ति, खेती, सिंचाई, बागवानी, पशुपालन, वन, मछलीपालन तथा हथकरघा शामिल हैं, ताकि इन कार्यक्रमों के ठोस परिणाम निकल सकें। इन कार्यक्रमों पर निगरानी रखने तथा उनकी समीक्षा के कामों में भी तालमेल कायम करने की जरूरत है।
उपकरणों को सुदृढ़ करना
नरेगा की क्षमता का लाभ उठाना तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कि उस पर अमल के ढाँचे को पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं किया जाएगा, खासकर पंचायतों एवं ब्लॉकों में।
महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों में से यह एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश है। इससे पहले के अनेक रोजगार सृजन सम्बन्धी कार्यक्रमों के मूल्यांकनों का भी यही निष्कर्ष है। अभी नरेगा के लिए आवण्टन का 4 प्रतिशत (हाल ही में उसमें 2 प्रतिशत की वृद्धि की गई है) प्रशासन पर खर्च किया जा सकता है। इसी राशि में से सामाजिक लेखापरीक्षण तथा निर्माण स्थल पर सुविधा उपलब्ध कराने के मदों पर भी खर्च किया जाएगा। यह राशि अभी भी अपर्याप्त है और इसमें और बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए। चूँकि ऐसे खर्च एक जिले के अनेक ब्लॉकों, पंचायतों और गाँवों से जुड़े हुए हैं, इसलिए आवण्टन के लिए एक उपयुक्त पैमाना कायम किया जाना चाहिए। यह पैमाना डीआरडीए के प्रशासनिक खर्चे की पद्धति के आधार पर परन्तु उससे अलग हटकर कायम किया जाना चाहिए। यह बड़ी दुखद स्थिति होगी कि इतनी अनुपम पहल सिर्फ इसलिए विफल हो जाए कि हम इसके प्रबन्धन पर खर्च के मामले में दूरदर्शिता से काम नहीं ले सके।
प्रत्येक हितधारी के लिए प्रशिक्षण एवं क्षमता सृजन का भी उतना ही महत्त्व है। नरेगा के लिए खासकर ऐसा जरूरी है, क्योंकि इस कार्य के आयाम तथा प्रक्रिया के मद्देनजर इसके प्रति भिन्न प्रकार की समझ विकसित करने की जरूरत है जो पिछले विकास कार्यों से प्राप्त अनुभव के दायरे से अलग होगी। इसके लिए सही पाठ्यक्रम तथा स्थिति के अनुकूलन कार्यक्रम पर अमल एक विशाल काम है।
रोजगार गारण्टी की पेचीदगी तथा इसके आकार को ध्यान में रखते हुए इस पर विस्तृत विचार-विमर्श करना जरूरी है क्योंकि इसका विस्तार 330 जिलों से बढ़ाकर पूरे देश में कर दिया गया है, जिससे इसके जिलों की संख्या बढ़कर करीब दुगनी हो गई है। इसलिए हर कार्य के लिए नवीन नहीं तो विस्तृत व्यवस्था तो जरूरी ही है। इसका संचालन सरकारी अथवा अर्द्ध-सरकारी संगठन अकेले नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर सरकार से बाहर के संगठनों के साथ और सरकारी ढाँचे के भीतर, सहयोग कायम किया जाए तथा उनकी दक्षता, अनुभव तथा सूझ-बूझ का लाभ उठाया जाए।
अन्त में मैं यह कहना चाहूँगा कि बजट प्रावधान के बावजूद, सरकार के अग्रणी कार्यक्रम के रूप में रोजगार गारण्टी की घोषणा, प्रचार तथा भाषणों के बावजूद जो कमी खटक रही है वह है उसके प्रति आस्था एवं विश्वास की। इसको प्राथमिकता देने की भावना, यहाँ तक कि उसकी पहचान करने की भावना का भी अभाव है। यह कार्यक्रम अलग-थलग पड़ गया है और ग्राम विकास मन्त्रालय का कार्यक्रम भर बन कर रह गया है। इसकी जगह इसके साथ भारत सरकार के राष्ट्रीय कार्यक्रम की तरह व्यवहार होना चाहिए था और हरित क्रान्ति की तरह इसके प्रति भी प्रतिबद्धता होनी चाहिए थी। वास्तव में यह कार्यक्रम उससे भी अधिक मान्यता पाने का हकदार है।
(लेखक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेण्ट, हैदराबाद के पूर्व महानिदेशक तथा ग्रामीण विकास मन्त्रालय, भारत सरकार, के पूर्व वित्तीय सलाहकार हैं)
ई-मेल : lalitmathur45@yahoo.com