पानी बचाने आगे आए किसान

Submitted by Hindi on Tue, 05/09/2017 - 10:47


.धरती का पानी लगातार कम होते जाने से जलस्तर में गिरावट और जल संसाधनों की उपेक्षा से इन दिनों किसान बेहाल है। एक तरफ लोगों को गर्मियों के दौरान पीने के पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है तो दूसरी तरफ किसानों की आँखों के सामने उनकी फसलें सूख रही हैं। इसी चिंता से ग्रस्त कुछ किसानों ने अब बूँद–बूँद पानी बचाने के लिये खेती का परम्परागत तरीका बदल कर नए ढंग से खेती करना शुरू कर दिया है। इसमें करीब–करीब 70 फीसदी पानी की खपत कम होती है और पहले के मुकाबले महज 30 फीसदी पानी में ही खेती संभव है। अब और किसान भी इसे आजमाने का मन बना रहे हैं।

मध्यप्रदेश के देवास जिले के छोटे से गाँव सुल्पाखेड़ा में आधे से ज़्यादा किसान बीते दो–तीन सालों से इस तरह खेती कर पानी की बचत कर रहे हैं। देवास से 15 किमी दूर सुल्पाखेड़ा और उसके आस-पास गाँवों में बीते पाँच सालों से हर साल गर्मियों के दौरान भयावह जल संकट की स्थिति बन जाती है। खेती तो दूर लोगों को पीने का पानी भी तीन से चार किमी दूर खेतों पर बने कुओं से लाना पड़ता है। गाँव के कुएँ और हैंडपंप गर्मी शुरू होते ही बैठ जाते हैं। हालत यह है कि सरकार के जल संसाधन विभाग ने इस गाँव को गंभीर जल संकट वाले गाँवों की सूची में शामिल किया है और गर्मी के दिनों में यहाँ हर साल अन्य गाँवों से परिवहन कर पानी पहुँचाया जाता है। दरअसल यहाँ की जमीन ही काफी पथरीली है और इस वजह से यहाँ भूमिगत जल टिकता ही नहीं है।

गाँव के सौ–सवा सौ घरों में से ज्यादातर किसान हैं। अब पानी की कमी के कारण वे दूसरी फसल नहीं ले पा रहे थे। कभी कुछ हिम्मत कर थोड़ी सब्जी या अन्य पौधे लगा भी देते तो वे जल संकट से मुरझाने लगते और फिर सूख जाते। ग्रामीणों ने यहाँ धरती को खूब खोदा लेकिन पथरीली जमीन होने से न तो कुएँ सार्थक हुए और न ही बोरिंग। 500 से 800 फीट गहरे बोर भी करवाए लेकिन कुछ नहीं बदला। यहाँ के किसान एक ही फसल को नियति मानकर जैसे–तैसे बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर थे।

पानी बचाने आगे आए किसानइसी दौरान यहाँ के एक किसान ने खेती का परम्परागत तरीका बदल कर कम से कम पानी में नए तरीके से खेती करना शुरू की तो उस किसान को बहुत फायदा मिला तथा पानी की आपूर्ति भी लंबे समय तक हो सकी। गाँव के दूसरे किसानों ने यह देखा तो उन्होंने भी इसे अपनाया, अब इस गाँव के आधे से ज़्यादा किसान इसे अपनाकर दो फसलें तो ले ही रहे हैं, आंवला और संतरा के बाग़ भी लहलहा रहे हैं।

गाँव में सबसे पहले नए तरीके से खेती करने वाले किसान रूपसिंह नागर कहते हैं– 'चार साल पहले मैंने सबसे पहले गाँव का पानी बचाने के लिये कुछ काम करना शुरू किया। इनमें गाँव के पास से गुजरने वाले नाले को सुधार कर पालबंदी की तो खेत कुएँ का जलस्तर बढ़ गया। साथ ही एक छोटा तालाब बनाकर उसके पानी से टपक सिंचाई तकनीक अपनाई। खेत में फसल के साथ ही आंवले का बगीचा लगाया। आंवले के पौधे बढ़े और अच्छा उत्पादन भी हुआ। गाँव में जल संकट होने के बाद भी पानी का किफायत से उपयोग करने पर खेत अब पहले की तरह सोना उगलने लगे हैं। अब तो गाँव के पचास से ज़्यादा किसान इसे अपना चुके हैं।'

राधेश्याम पाटीदार के खेत पर तीन बीघा गेहूँ की फसल खड़ी है। उन्होंने सिंचाई के लिये फव्वारा (स्प्रिंकलर) पद्धति अपनाई है। वे कहते हैं– 'पहले हम बोरिंग से बेतहाशा पानी उलीचकर इसे व्यर्थ बहाते थे लेकिन गाँव में जब जल संकट आया तो हमें बूँद–बूँद पानी का मोल समझ आ गया है। अब हम खेती में उपयोग होने वाले पानी का 70 फीसदी तक बचा रहे हैं। धरती में आज पानी बचेगा तो कल हमारे ही काम आएगा।'

पानी बचाने आगे आए किसानजगदीश नागर और फतेहसिंह नागर बताते हैं कि प्रकृति हमें इतना सब दे रही है लेकिन हम ही अपने लालच में डूब गए थे। अब यदि हम पानी बचा पाए तो कल की पीढ़ी पानीदार रह सकेगी। अशोक दास दो बीघा खेत में कोथमीर और भिंडी की उपज ले रहे हैं। पानी की बचत होने से अब उन्होंने अपने कुएँ से लोगों को पीने का पानी देना भी शुरू कर दिया है।

इसी तरह बागली के किसान कैलाशचन्द्र कटारिया अपने खेत पर पानी बचाने के लिये नलों के जरिए फसलों को पानी दे रहे हैं। उन्होंने सिंचाई पाइप में तीस से पचास नलों को एक साथ एक–एक फीट की दूरी पर लगाकर 10 से 15 क्यारी में पानी छोड़ा जाता है। एक बार पंप चालू करने पर पानी की दिशा बदलने की झंझट नहीं होती और अंतिम पौधे तक आसानी से पानी पहुँच जाता है। इससे पानी की काफी बचत होती है। इसे गेहूँ, चने, आलू, प्याज और लहसुन में इस्तेमाल किया जा सकता है। क्षेत्र के अन्य किसान भी अब इसे अपनाएँगे।

कृषि विशेषज्ञ डॉ मोहम्मद अब्बास बताते हैं कि टपक और फव्वारा पद्धतियाँ जल संकट वाले इलाकों में किसी वरदान से कम नहीं है। इसे सिंचाई जल की पर्याप्त बचत होती है। यह विधि जमीन की तासीर, खेत के ढाल, जलस्रोत और किसान की दक्षता के आधार पर ज्यादातर फसलों के लिये अपनाई जा सकती है। टपक पद्धति से सिंचाई दक्षता 80-90 फीसदी तक होती है। इससे उपज की उच्च गुणवत्ता, रसायन व उर्वरकों का कम प्रयोग, उर्जा की खपत में कमी तथा खरपतवार की कमी के साथ सबसे बड़ा फायदा भूजल भंडार के दोहन में कमी का होता है। हमारे देश में सबसे ज़्यादा करीब 65 फीसदी धरती के पानी का इस्तेमाल खेती के लिये किया जाता है। इससे सिंचाई कर काफी पानी बचाया जा सकता है।

वे बताते हैं कि अब इन नए तरीकों का उपयोग लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह पानी और पर्यावरण दोनों के लिये उपयोगी है। टपक पद्धति एक अधिक आवृत्ति वाला ऐसा सिंचाई तंत्र है जिसमें पानी को पौधों की जड़ के आस-पास ही दिया जाता है। इससे पौधे की ज़रूरत के मुताबिक ही उसे पानी दिया जाता है और इस पूरे पानी का इस्तेमाल पौधा कर पाता है। इससे 40 फीसदी तक उर्वरक तथा 70 फ़ीसदी तक पानी की बचत हो सकती है। साथ ही उपज में सौ फीसदी तक बढ़ोतरी हो सकती है। इसमें पानी के साथ ही उर्वरक के इस्तेमाल से बहुत फायदा होता है। यहाँ तक कि इससे बंजर, रेतीली या चट्टानी जमीन पर भी आसानी से फसल ली जा सकती है। इसे फर्टिगेशन कहते हैं। इससे भूमिगत जल का प्रदूषण नहीं होता।

प्रदेश की सरकार भी अब इन अधुनातन सिंचाई पद्धतियों को प्रोत्साहित करने के लिये विशेष प्रयास कर रही है। किसानों को इसके लिये अनुदान दिया जा रहा है। प्रदेश में 2003-04 में सिंचाई सुविधाएँ बढ़ाने के लिये जहाँ 1005.57 करोड़ का प्रावधान था, वहीं वर्ष 2015-16 में इसे 6255.83 करोड़ किया गया है। दस साल पहले तक प्रदेश में 7.50 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती थी जो अब बढ़कर 36 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गई है और कृषि उत्पादन में 181 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

सिंचाई के लिये यदि पानी का किफायती उपयोग का चलन बढ़ेगा तो धरती का सीना छलनी करने वाले बोरिंग कम होंगे और भूजल भंडार भी बच सकेंगे। फिलहाल भूजल भंडार का सबसे ज़्यादा दोहन सिंचाई के लिये ही हो रहा है। पानी बचाना है तो इन तकनीकों को बढ़ावा देना पड़ेगा। अच्छी बात है कि इसके लिये किसान खुद आगे आ रहे हैं।