पानी के लिए ...

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7 जुलाई 1991/ नवभारत टाइम्स

पिछले दिनों जब पश्चिम एशिया की धरती युद्ध की विभीषिका से लहूलुहान हुई थी तभी यह जुमला भी सामने आया था कि आज तो यह लड़ाई तेल के लिए हो रही है, लेकिन कल इससे भी भयावह लड़ाई पानी के लिए होगी। पानी न सिर्फ आदमी के जीने की पहली शर्त है, बल्कि आज वह एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय हथियार भी है। धरती पर से पानी बूँद-बूँद कम होता जा रहा है और आदमी है कि अपने पारंपरिक जलस्रोतों को मिटाता जा रहा है।

पहाड़ों में गर्मियों में एक पक्षी की दर्दभरी आवाज सुनाई पड़ती है- ‘कुकुल दीदी- पान! पान!!’ चील जैसे इस पक्षी को कुमाऊँनी में ‘कुकुल दीदी’ कहते हैं। इसके बारे में एक लोककथा प्रचलित है कि जब सीता की प्यास बुझाने के लिए राम पानी की तलाश में निकले तो उन्होंने कुकुल दीदी से भी पानी के बारे में पूछा। जानबूझ कर कुकुल दीदी ने उन्हें पानी का ठिकाना नहीं बताया। राम ने क्रोध में आकर उसे श्राप दिया कि तुझे धरती में बहता हुआ पानी खून जैसा दिखे और तू पानी के लिए तरसती रहे। कलकल-छलछल बहते पहाड़ी नदी-नालों के बावजूद कुकुल दीदी ‘पान-पान’ की दर्दभरी आवाज लगाती रहती है, क्योंकि धरती का पानी तो उसे रक्त-समान दिखता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से यह कथा भले ही गलत हो लेकिन धीरे-धीरे धरती पर रहनेवाले मनुष्य, जीव जन्तु, वनस्पतियाँ भी क्या कुकुल दीदी की तरह अभिशप्त नहीं होते जा रहे हैं?

कहने को तो पृथ्वी का 70 प्रतिशत हिस्सा पानी अर्थात हाइड्रोजन व आक्सीजन के रासायनिक मिश्रण से ढँका है। पर इसके कितने हिस्से में जीवन देने की शक्ति है? 98 प्रतिशत पानी तो खारा है। बचे हुए 2% में से भी ज्यादातर पानी उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों, ठंडे प्रदेशों, पर्वत शिखरों में जमी बर्फ और धरती के भीतर प्रवाहित जलधाराओं के रूप में विद्यमान है। धरती की सतह पर झीलों, नदी-नालों, तालाबों के रूप में जो पानी हमारे उपयोग के लिए बचता है, उसकी मात्रा सिर्फ .014 प्रतिशत ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक पर्चे के अनुसार ‘यदि विश्व भर के पानी को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें ताजा पानी आधे चम्मच भर से ज्यादा नहीं होगा, और धरती की ऊपरी सतह पर कुल जितना पानी है, वह तो सिर्फ बूँद भर ही है, बाकी सब भूमिगत है।’

जो पानी उपलब्ध है, उसके साथ मनुष्य जाति का व्यवहार कम कुटिलतापूर्ण नहीं रहा है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के हमारे व्यवहार से इस उपलब्ध जलराशि से भी हम वंचित होते जा रहे हैं। अव्वल तो उसका वितरण ही बड़ा भेदभावपूर्ण है, फिर उसकी बची-खुची राशि इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि वह जीवनरक्षक की अपनी जिम्मेदारी निबाहने लायक नहीं रही। पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक भारत में कुल उपलब्ध पानी का लगभग 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है। उत्तर की डल झील से लेकर दक्षिण की पेरियार तक पूर्व में दामोदर व हुगली से लेकर पश्चिम में ठाणा उपनदी तक पानी के प्रदूषण की स्थिति एक सी भयानक है। गंगा जैसी सदानीरा नदियाँ भी आज प्रदूषित हो चुकी हैं।

पानी दरअसल शक्ति, समृद्धि व खुशहाली का प्रतीक है। समुद्र या नदी के तटों पर बसे शहर खुशहाल होते गए हैं। इसलिए पानी को लेकर अक्सर दो देशों के बीच तनातनी की स्थिति रही है। पिछले सालों में तुर्की ने सीरिया के खिलाफ पानी को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की धमकी दी क्योंकि सीरिया तुर्की में कुर्द पृथकतावादियों को भड़काने की कोशिश कर रहा था।

यद्यपि पृथ्वी में ताजे व खारे पानी का अनुपात हमेशा लगभग एक जैसा रहता है लेकिन पिछले 3-4 दशकों में जो स्थितियाँ बनी है। और जलवायु परिवर्तन व पृथ्वी के गर्माने तक की नौबत आ गई है, उससे इस अनुपात में परिवर्तन आने लगा है इससे पारिस्थितिकीय संतुलन गड़बड़ाने लगा है। जब पृथ्वी हरी-भरी होती है, ठंडी होती है तो बहुत सा समुद्री जल हिमनदों व बर्फानी छत्रों में जमा हो जाता है। समुद्री जल की कमी से मीठे जल की मात्रा में वृद्धि होती है, और इसके विपरीत जल जलवायु गर्म होती है तो बर्फ व हिमनद पिघलते हैं। मीठा जल पिघल कर समुद्र के खारे पानी का मात्रा को बढ़ा देता है। पिछले दिनों जिस तरह से ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ व ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के प्रति हामी जागरूकता बढ़ी है, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आने वाले वर्षों में न सिर्फ हमें अत्यंत महंगा पेयजल खरीदना पड़ेगा बल्कि समुद्री पानी के विस्तार से हमारे तटवर्ती इलाके भी डूब जाएंगे।

पिछले दिनों जब पश्चिम एशिया की धरती युद्ध की विभीषिका से लहूलुहान हुई थी तभी यह जुमला भी सामने आया था कि आज तो यह लड़ाई तेल के लिए हो रही है, लेकिन कल इससे भी भयावह लड़ाई पानी के लिए होगी। पानी न सिर्फ आदमी के जीने की पहली शर्त है, बल्कि आज वह एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय हथियार भी है। धरती पर से पानी बूँद-बूँद कम होता जा रहा है और आदमी है कि अपने पारंपरिक जलस्रोतों को मिटाता जा रहा है।

आप कभी चेरापूँजी गए हैं? भले ही न गए हों, पर इसके बारे में आप इतना तो जानते ही होंगे की यहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा होती है। पर आप यह नहीं जानते होंगे की बरसात के चार महीने छोड़कर चेरापूँजी में पानी की भयंकर किल्लत रहती है। वहाँ सालभर में औसतन 9150 मि. मीटर बारिश होती है, लेकिन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और भूमि व जल संरक्षण के प्रति शासन की लापरवाही के कारण पानी बह जाता है और जब से प्रकृति का दोहन बढ़ा है तभी से चेरापूँजी की यह हालत हुई है।

भारत में ऐसा ही एक प्रदेश है केरल, जहाँ काफी वर्षा होती है। पलक्कड जिले की ‘भारतपूजा’ नदी का सूखना एक मुख्य मुद्दा बन गया है। बारहों मास हरा-भरा रहनेवाले केरल की यह नदी पिछले दस वर्षों में लगभग सूख चुकी है। कारण हैं-तटवर्ती क्षेत्र के वनों की अंधाधुंध कटाई, लिफ्ट सिंचाई और मलमपूजा बाँध का बनना। लिहाजा हजारों लोग नदी के पानी से वंचित हो गये। अब वहाँ ‘भारतपूजा बचाओं आंदोलन’ चला हुआ है।

पानी को लेकर मिस्र-इथियोपिया-सूडान, भारत-बांग्लादेश, भारत-पाकिस्तान, तुर्की-इराक-सीरिया, मिस्र-लिबिया में भी गंभीर विवाद रहे हैं। जब कोई नदी, एक देश से निकल कर दूसरे देश में प्रवेश कर जाती है तो झगड़े का कारण बन जाती है। अंतराष्ट्रीय झगड़ों की बात छोड़ दें, तो भी अंतःप्रांतीय झगड़े क्या कम विकराल रूप धारण करते हैं? अपने ही देश में तो पानी को लेकर अनेक आंतरिक विवाद रहे हैं।

ये ऐसे उदाहरण हैं जो हमारी विसंगतिपूर्ण विकास नीतियों की ओर इशारा करते हैं, जहाँ दरअसल जलस्रोतों को लेकर कोई ढंग की नीति है ही नहीं। पेयजल की बात उठाएँ तो हालत और भी बदतर नजर आती है। बम्बई-दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ पट्टियाँ हों या फिर राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके, दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी लाने वाली पहाड़ी स्त्रियां हो या रात तीन बजे से ही लाइन में लगने को अभिशप्त मद्रास के आमजन। कुल मिलाकर स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता।

भारत तो फिर भी ऐस देश है जहाँ तमाम विसंगतियों के बावजूद पर्याप्त जलस्रोत उपलब्ध हैं। मध्य अमेरिका का मैक्सिको, दक्षिणी अमेरीका के पेरू, अफ्रीका के सूडान जल संकट का सामना कर रहे हैं। मैक्सिको में कुल आबादी की 40 प्रतिशत जनसंख्या अर्थात 3 करोड़ लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। हालाँकि वहाँ पहले से पानी की समस्या रही है लेकिन इस दशक में तो हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। चीन, सोवियत संघ, जार्डन, पश्चिम एशिया, इस्राइल और अरब देश भी पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं।

पानी दरअसल शक्ति, समृद्धि व खुशहाली का प्रतीक है। समुद्र या नदी के तटों पर बसे शहर खुशहाल होते गए हैं। इसलिए पानी को लेकर अक्सर दो देशों के बीच तनातनी की स्थिति रही है। पिछले सालों में तुर्की ने सीरिया के खिलाफ पानी को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की धमकी दी क्योंकि सीरिया तुर्की में कुर्द पृथकतावादियों को भड़काने की कोशिश कर रहा था।

इस्राइल और जार्डन के बीच पानी को लेकर हमेशा तनातनी रही है। जॉर्डन नदी के तटों पर ये दोनों ही देश इसके जल का उपभोग करते हैं। 1960 में जब इनके बीच लड़ाई हुई तो इस्राइल जॉर्डन की नहरों पर बमबारी करता रहा। आज भी जॉर्डन के कुछेक शहरों में हफ्ते में तीन दिन ही पानी की आपूर्ति होती है। और जनसंख्या-वृद्धि के बाद तो आनेवाले वर्षों में जॉर्डनवासी क्या पिएंगे, कह पाना कठिन है?

पानी को लेकर मिस्र-इथियोपिया-सूडान, भारत-बांग्लादेश, भारत-पाकिस्तान, तुर्की-इराक-सीरिया, मिस्र-लिबिया में भी गंभीर विवाद रहे हैं। जब कोई नदी, एक देश से निकल कर दूसरे देश में प्रवेश कर जाती है तो झगड़े का कारण बन जाती है। अंतराष्ट्रीय झगड़ों की बात छोड़ दें, तो भी अंतःप्रांतीय झगड़े क्या कम विकराल रूप धारण करते हैं? अपने ही देश में तो पानी को लेकर अनेक आंतरिक विवाद रहे हैं।

वनों की कटाई, चारागाह के रूप में जंगलों के इस्तेमाल और पानी के औद्योगिक इस्तेमाल से पानी को नियंत्रित कर पानी भी मुश्किल होता जा रहा है। बाढ़, भू-स्खलन व जलवायु परिवर्तन की स्थितियाँ बढ़ रही हैं। आस्ट्रेलिया में मर्रे-डार्लिंग नदी के तटवर्ती इलाकों में 6 लाख 10 हजार हैक्टेयर जमीन इसी तरह से बेकार हो गई है। अफ्रीकी सहारा में 70 हजार वर्ग किमी उर्वर जमीन हर साल रेगिस्तान बनती जा रही है।

अब कुछ पानी के असमान वितरण पर। जो देश आज अमीर बने हुए हैं, उनकी समृद्धि के पीछे काफी हद तक पानी का हाथ भी रहा है। मैक्सिकों की तुलना में कनाडा 26 गुना अधिक पानी का उपयोग करता है। इसी तरह बर्मा को बोत्सवाना की तुलना में 35 गुना अधिक पानी उपलब्ध है। दुनिया का एक हिस्सा यदि हरियाली से लबालब भरा होता है तो दूसरा हिस्सा रेगिस्तानी धूल-रेत से पटा हुआ। पानी की ताकत को देखते हुए समय-समय पर पानी को अपने-अपने ढंग से बाँटने की कोशिशें भी हुई है। मनुष्य ने अपनी इंजीनियरों के बूते पर पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की कोशिश की है। अमेरिका यदि आज इतना अमीर है तो पानी को अपने ढंग से अलग-अलग दिशाओं में मोड़कर ही। लेकिन यह भी सही है कि ऐसा करके उसने पर्यावरणीय खतरों को भी बुलाया है। जगह-जगह नहरें, बाँध, विद्युत संयंत्र बनाने से प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ाया है अब वहाँ जलप्रपात, नदियाँ, झरने नहीं दिखते। जलचरों की दुनिया विलुप्तप्राय है। पर्यावरण आंदोलनों के दबाव में आकर पिछले कुछ वर्षों से ‘अमेरिकी ब्यूरो ऑफ रिक्लेमेशन’ ने अपनी गतिविधियों में कुछ कमी तो की है। लेकिन लगता नहीं कि अमेरिकी राज्यों कि सरकारें बहुत ज्यादा समय तक पर्यावरणविदों के असर में रहेगी।

पिछले तीन दशकों में जिस तरह से जनसंख्या के अनुपात वृद्धि हो रही है उसी तरह कृषि का भी विस्तार हुआ है। दुनिया में ताजे पानी की किल्लत के पीछे एक कारण यह भी है कृषि सिंचाई के साथ-साथ उद्योंगों व अनेक तरह के रासायनिक कामों में पानी का उपयोग होता है। पानी के इन उपयोगों के बाद उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इस संबंध में ज्यादातर देशों ने कोई खास उपाय नहीं किए। पानी के निकास की व्यवस्था ठीक से नहीं की गई। कृषि का भी उद्योगीकरण हुआ। सिंचाई के बाद शुद्ध जल तो वाष्प बन कर उड़ जाता है। लेकिन लवण व अन्य रसायन जमीन पर ही रहते हैं। इसलिए जो बचा-खुचा पानी और गाद नदी-नालों में बहता है वह बेहद प्रदूषित और खारा हो चुका होता है। यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि निरतंर सिंचाई करते रहने व उचित निकासी की व्यवस्था के अभाव में भूमि बंजर भी हो जाती है, क्योंकि जमीन में अततः सिर्फ लवण ही बच जाते हैं और जमीन की उर्वराशक्ति को लवणता लील जाती है। अमेरिका में सिंचाई के बाद निकले जल के अध्ययन से पता चला है कि कोलोराडो नदी कैलिफोर्नियां की खाड़ी में पहुँचते समय अपने मूलरूप से 28 गुना अधिक खारी हो जाती है।

वनों की कटाई, चारागाह के रूप में जंगलों के इस्तेमाल और पानी के औद्योगिक इस्तेमाल से पानी को नियंत्रित कर पानी भी मुश्किल होता जा रहा है। बाढ़, भू-स्खलन व जलवायु परिवर्तन की स्थितियाँ बढ़ रही हैं। आस्ट्रेलिया में मर्रे-डार्लिंग नदी के तटवर्ती इलाकों में 6 लाख 10 हजार हैक्टेयर जमीन इसी तरह से बेकार हो गई है। अफ्रीकी सहारा में 70 हजार वर्ग किमी उर्वर जमीन हर साल रेगिस्तान बनती जा रही है।

दुनिया के कुल ताजे पानी का 73 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई में खप जाता है। जो बचता है उसमें अनेक तरह के विकार पैदा हो जाते हैं। मनुष्य के लिए पानी की कमी दिन-प्रतिदिन भयानक रूप अख्तियार करती जा रही है। अगली सदी तक यदि यह क्रम जारी रहा तो मनुष्य को लिए खतरा पैदा हो जाएगा। निश्चय ही पानी को बचाने के लिए विकास की मौजूदा दिशा और स्वरूप को बदलना होगा।