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अमर उजाला, 06 जून 2012
उत्तराखंड के पहाड़ों में फिर आग लगी है। रानीखेत, कौसानी, बागेश्वर में इस समय ठंडी बयार की जगह धुआं और बदबुदार हवा नसीब हो रही है। देखने में यह आया है कि जंगलो की आग का क्षेत्रफल बढ़ा है और बारम्बारता बढ़ी है। सरकारी उदासीनता और वन माफियाओं ने जंगल की आग को और भयावह बना दिया है, बता रहे हैं गोविंद सिंह।
इस साल गर्मी शुरू होते ही पहाड़ों में आग लगनी शुरू हो गई थी। चूंकि बारिश बहुत कम हुई, इसलिए गर्मी के चढ़ते ही आग की घटनाएं बढ़ने लगीं। गढ़वाल क्षेत्र में टोंस घाटी, अपर यमुना घाटी, बड़कोट, उत्तरकाशी, चकराता, देहरादून, मसूरी, टिहरी, केदारमठ, रुद्रप्रयाग, नंदादेवी, बदरीनाथ मार्ग, नरेन्द्र नगर, राजाजी नेशनल पार्क, हरिद्वार, लेंसडोंन, कोर्बेट रिजर्व, पौड़ी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, विनसर, पिथौरागढ़, चंपावत, नैनीताल आदि शायद ही कोई इलाका हो, जो दावानल के प्रकोप से बचा हो। उत्तराखंड में कुल 34,65,000 हेक्टेयर यानी कुल क्षेत्रफल के 61 प्रतिशत इलाके में वन हैं। सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें, तो इस साल 1,500 हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। सत्तर से अधिक वनों में आग की 1,400 घटनाएं घट चुकी हैं। पौड़ी और बागेश्वर जिले में एक-एक मौत और कई लोग घायल हो चुके हैं।
पहाड़ों में आग पहले भी लगती थी। लेकिन वह इस कदर भाबर से बद्रीनाथ-केदारनाथ तक नहीं फैला करती थी। फिर तब लोग और शासन इतने उदासीन नहीं दिखाई पड़ते थे। दरअसल वन कानूनों ने ग्रामीणों को अब वनों से बेदखल कर दिया है। पहले वे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर रहा करते थे और बदले में वनों की रखवाली भी करते थे। लेकिन अब वनों पर उनका अधिकार नहीं रहा, तो वे भी वनों के प्रति उदासीन हो गए हैं। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, 90 प्रतिशत घटनाओं में खेती वाली आग ही जंगलों में पहुंच कर विकराल रूप धारण कर लेती है।
यह सच है कि ग्रामीण रबी की फसल के बाद अपने खेतों में आग लगाते रहे हैं, ताकि धरती की उर्वरा शक्ति बेहतर हो सके। साथ ही वे अपनी बंजर जमीन में भी आग लगाते थे, ताकि चारे के लिए घास पैदा हो सके। पहले यह आग जंगल तक नहीं पहुंचती थी, क्योंकि चीड़ के पेड़ गांव की परिधि में नहीं थे। हाल के वर्षों में चीड़ ने जबरदस्त घुसपैठ की है। जहां चीड़ पहुंचा है, वहां आग पहुंची है। हर साल 21 लाख टन पिरुल यानी चीड़ की ज्वलनशील पत्तियां झड़ जाती हैं, जिन्हें ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। फिर चीड़ किसी और वनस्पति को अपने आस-पास नहीं पनपने देता और जंगल की सारी नमी सोख लेता है। ऐसा खुश्क जंगल आग पकड़ने के लिए उर्वर होता है।
हाल के वर्षों में जंगल में आग सुलगाने और उसे फैलाने वालों का एक गिरोह भी बन गया है। उसमें सरकारी मुलाजिम भी हैं और ग्रामवासी भी। इनके लिए आग एक जरूरत बन गई है। हर साल इसका एक बजट बनता है। आग रोकने के लिए उपकरण लिए जाते हैं, लोगों को अस्थायी नौकरी पर रखा जाता है। यह सब कागज पर ही होता है, क्योंकि आग लगने पर न इन उपकरणों का इस्तेमाल किसी ने देखा और न ही आग बुझाने को कोई आगे ही आया।
सरकार और आम जनता नहीं जानती कि आग के प्रति इस बेरुखी से वे मानव जाति का कितना नुकसान कर रहे हैं। पहाड़ों में इस बार न कफुवा पक्षी का गान सुनाई दिया और न ही काफल पाको का गीत। न्योली यानी पहाड़ी कोयल भी अब अपने विरह गीत सुनाने को कोई और ठिकाना तलाश रही है। कितनी वनस्पतियां, औषधीय प्रजातियां खाक हो जाती हैं, कितने वनचर, नभचर अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। पहाड़ के जलस्रोत सूख रहे हैं। तापमान लगातार बढ़ रहा है। भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है। लेकिन हमारे नीति-नियंता अपनी राजनीति में व्यस्त हैं। शहरों में पर्यावरण दिवस मनाने से क्या होगा, जब जंगल ही रेगिस्तान में बदल रहे हों।
सरकार और आम जनता नहीं जानती कि आग के प्रति इस बेरुखी से वे मानव जाति का कितना नुकसान कर रहे हैं। कितनी वनस्पतियां, औषधीय प्रजातियां खाक हो जाती हैं, कितने वनचर, नभचर अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। पहाड़ के जलस्रोत सूख रहे हैं। तापमान लगातार बढ़ रहा है। भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है।
इस मौसम में एक बार फिर पहाड़ में आग लगी हुई है। हल्द्वानी, रानीखेत, कौसानी, बागेश्वर, गंगोलीहाट, थल, डीडीहाट, पिथौरागढ़ तक एक भी इलाका ऐसा नहीं दिखा, जहां आग न लगी हो। पानी की भारी किल्लत और जबरदस्त गर्मी। दिन में जंगली रास्तों में तो धुएं का सामना करना पड़ा ही, सुबह-शाम को भी शुद्ध ताजा हवा की जगह धुआं और बदबूदार हवा ही नसीब हुई। कौसानी में पर्यटक सुबह चार बजे से ही सूर्योदय देखने के लिए पंचचूली पर्वतमाला की तरफ टकटकी लगाए थे, पर उनके हिस्से धुआं ही धुआं आया।इस साल गर्मी शुरू होते ही पहाड़ों में आग लगनी शुरू हो गई थी। चूंकि बारिश बहुत कम हुई, इसलिए गर्मी के चढ़ते ही आग की घटनाएं बढ़ने लगीं। गढ़वाल क्षेत्र में टोंस घाटी, अपर यमुना घाटी, बड़कोट, उत्तरकाशी, चकराता, देहरादून, मसूरी, टिहरी, केदारमठ, रुद्रप्रयाग, नंदादेवी, बदरीनाथ मार्ग, नरेन्द्र नगर, राजाजी नेशनल पार्क, हरिद्वार, लेंसडोंन, कोर्बेट रिजर्व, पौड़ी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, विनसर, पिथौरागढ़, चंपावत, नैनीताल आदि शायद ही कोई इलाका हो, जो दावानल के प्रकोप से बचा हो। उत्तराखंड में कुल 34,65,000 हेक्टेयर यानी कुल क्षेत्रफल के 61 प्रतिशत इलाके में वन हैं। सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें, तो इस साल 1,500 हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। सत्तर से अधिक वनों में आग की 1,400 घटनाएं घट चुकी हैं। पौड़ी और बागेश्वर जिले में एक-एक मौत और कई लोग घायल हो चुके हैं।
पहाड़ों में आग पहले भी लगती थी। लेकिन वह इस कदर भाबर से बद्रीनाथ-केदारनाथ तक नहीं फैला करती थी। फिर तब लोग और शासन इतने उदासीन नहीं दिखाई पड़ते थे। दरअसल वन कानूनों ने ग्रामीणों को अब वनों से बेदखल कर दिया है। पहले वे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर रहा करते थे और बदले में वनों की रखवाली भी करते थे। लेकिन अब वनों पर उनका अधिकार नहीं रहा, तो वे भी वनों के प्रति उदासीन हो गए हैं। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, 90 प्रतिशत घटनाओं में खेती वाली आग ही जंगलों में पहुंच कर विकराल रूप धारण कर लेती है।
यह सच है कि ग्रामीण रबी की फसल के बाद अपने खेतों में आग लगाते रहे हैं, ताकि धरती की उर्वरा शक्ति बेहतर हो सके। साथ ही वे अपनी बंजर जमीन में भी आग लगाते थे, ताकि चारे के लिए घास पैदा हो सके। पहले यह आग जंगल तक नहीं पहुंचती थी, क्योंकि चीड़ के पेड़ गांव की परिधि में नहीं थे। हाल के वर्षों में चीड़ ने जबरदस्त घुसपैठ की है। जहां चीड़ पहुंचा है, वहां आग पहुंची है। हर साल 21 लाख टन पिरुल यानी चीड़ की ज्वलनशील पत्तियां झड़ जाती हैं, जिन्हें ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। फिर चीड़ किसी और वनस्पति को अपने आस-पास नहीं पनपने देता और जंगल की सारी नमी सोख लेता है। ऐसा खुश्क जंगल आग पकड़ने के लिए उर्वर होता है।
हाल के वर्षों में जंगल में आग सुलगाने और उसे फैलाने वालों का एक गिरोह भी बन गया है। उसमें सरकारी मुलाजिम भी हैं और ग्रामवासी भी। इनके लिए आग एक जरूरत बन गई है। हर साल इसका एक बजट बनता है। आग रोकने के लिए उपकरण लिए जाते हैं, लोगों को अस्थायी नौकरी पर रखा जाता है। यह सब कागज पर ही होता है, क्योंकि आग लगने पर न इन उपकरणों का इस्तेमाल किसी ने देखा और न ही आग बुझाने को कोई आगे ही आया।
सरकार और आम जनता नहीं जानती कि आग के प्रति इस बेरुखी से वे मानव जाति का कितना नुकसान कर रहे हैं। पहाड़ों में इस बार न कफुवा पक्षी का गान सुनाई दिया और न ही काफल पाको का गीत। न्योली यानी पहाड़ी कोयल भी अब अपने विरह गीत सुनाने को कोई और ठिकाना तलाश रही है। कितनी वनस्पतियां, औषधीय प्रजातियां खाक हो जाती हैं, कितने वनचर, नभचर अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। पहाड़ के जलस्रोत सूख रहे हैं। तापमान लगातार बढ़ रहा है। भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है। लेकिन हमारे नीति-नियंता अपनी राजनीति में व्यस्त हैं। शहरों में पर्यावरण दिवस मनाने से क्या होगा, जब जंगल ही रेगिस्तान में बदल रहे हों।