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जनसत्ता, 1 नवम्बर 2015
पूरे देश में शुद्ध पेयजल को लेकर संकट गहराता जा रहा है। कुछ इलाकों में भूजल का स्तर इतना नीचे चला गया है कि वहाँ से पलायन हो रहा है तो कहीं बाढ़ की विभीषिका से लोग तबाह हैं। हाल के बरसों में, बाजारवादी शक्तियों ने पानी को एक पण्य-वस्तु बना दिया है, जिससे समस्या और बढ़ गई है। पानी को लेकर एक नये किस्म की सियासत भी उभरी है। इन सभी बिन्दुओं को समेटते हुए प्रस्तुत है रुचिश्री की पड़ताल।
हाल के वर्षों में पानी को लेकर जल के वितरण को न सिर्फ दो मुल्कों या दो राज्यों, बल्कि व्यक्तियों और समुदायों के बीच तनाव और झगड़े बढ़े हैं। पड़ोसियों के बीच लड़ाई तो आम बात हो गई है। पिछले साल दिल्ली और मथुरा में पानी के झगड़े में लोगों के घायल होने और जान जाने की घटनाएँ सामने आई हैं। महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र पानी की विकट समस्या से जूझ रहा है। भारत में ही कई राज्यों में पानी की वजह से विस्थापन हो रहा है। लोग कम पानी वाले गाँवों में अपनी बेटी का ब्याह नहीं करना चाहते। पंजाब में भूजल के अत्यधिक दूषित होने से कैंसर रोगियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है।
दूसरी तरफ जल सम्बन्धी विचारों के लिये नई शब्दावली बन रही है, जिसमें जल एटीएम, काल्पनिक जल, जल खनन, जल मूल्य निर्धारण, जल लेखापरीक्षण, जल पदचिह्न आदि शामिल हैं। यह स्थिति एक नये समाज की ओर इशारा कर रही है, जहाँ पानी रसायन विज्ञान से ज्यादा राजनीति विज्ञान की वस्तु होता जा रहा है। पानी की राजनीति, असल में पानी पर दावेदारी को लेकर है। इसका असर, अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय- तीनों स्तरों पर देखा जा सकता है। प्राकृतिक संसाधनों- जैसे जल, जंगल, जमीन, पहाड़ आदि के प्रमुख दावेदार कौन हैं? इसको लेकर दुनिया भर में विवाद शुरू हो गए हैं। राज्य, समुदाय, बाजार, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, नागरिक आदिवासी आदि तमाम इकाईयाँ इसे अपनी दावेदारी जता रही हैं। एक तरह से देखा जाए तो ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ जैसी कहानी शुरू हो गई है। सब अपनी दावेदारी को तर्कसंगत बताने में लगे हैं। किसकी दावेदारी कितनी है, सारा टंटा इसी को लेकर है।
प्राकृतिक संसाधनों की राजनीति को लेकर चल रही बहस में अगर हम भारत को विश्व के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो तीन तरह का नजरिया सामने है। पहला, जल को जीवन का अभिन्न हिस्सा मानना। यह नजरिया प्राचीन धर्मग्रन्थों, गाँधी-विनोबा के विचारों आदि से प्रेरित है, जो मानता है कि प्राकृतिक संसाधन-खासकर जल साझी सम्पत्ति है। यह सामूहिक चेतना पर आधारित है। पानी के साथ आध्यात्मिक जुड़ाव भी है।
दूसरा, प्राकृतिक संसाधनों को सामाजिक-आर्थिक वस्तु के तौर पर देखना। इस सोच में अधिक से अधिक लोगों के हित यानी उपयोगितावादी सिद्धान्त हावी है। वर्तमान में कई सामाजिक शोध संस्थान, राजनीति और समाज वैज्ञानिक इसी तरह की सोच के हैं। ऐसे में, संसाधनों की बहुल हिस्सेदारी, संसाधनों की सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक पारिस्थितिकी आदि जैसे कई नये सिद्धान्त बन रहे हैं। तीसरा, प्राकृतिक संसाधनों को निजी सम्पत्ति के रूप में देखा जाना। इस नजरिये का मानना है कि दूसरी तमाम जिंसों की तरह जल, जंगल, जमीन वगैरह को भी खरीदा-बेचा जा सकता है। यह सोच नवउदारवादी चिन्तकों की है, जो काफी कुछ विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फलसफे से प्रभावित है।
संक्षेप में, जल एक साझी विरासत के तौर पर, एक दावेदारी या अधिकार के तौर पर और एक वस्तु यानी कमोडिटी के तौर पर हमारे सामने उभरता है। किस नजरिये को कितनी तरजीह दी जाए, यही जल के संकट और उसकी राजनीति की दिशा और दिशा को तय करता है।
भारत में पहली जल नीति 1987 में यानी आजादी के चार दशक बाद बनी। फिर दूसरी और तीसरी नीति का निर्धारण 2002 और 2012 में किया गया। शुरू के चार दशकों में जल की बहुलता और इसके सम्बन्ध में बड़े निर्णयों- जैसे बाँध निर्माण आदि में राज्य की निर्णायक भूमिका रहने से शायद इसके लिये अलग से कोई नीति बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। लेकिन, बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकरण और जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में जल के इर्दगिर्द न केवल नये विमर्शों ने जन्म लिया, बल्कि जल सम्बन्धी नई नीतियाँ भी बनी। नई आर्थिक नीति को अपनाने के बाद में बने दो मसविदे वास्तव में निजीकरण की ओर अग्रसर जान पड़ते हैं।
जहाँ 2002 की जल-नीति में सिर्फ निजी क्षेत्र भागीदारी की बात शामिल थी वहीं 2012 की नीति के जल में मूल्य निर्धारण, जल के लेखा परिक्षण यानी बूँद-बूँद पानी का हिसाब रखने और इसके लिये नई संस्थाओं को बनाने पर जोर दिया गया। इन परिवर्तनों को नवउदारवाद के सन्दर्भ में देखने से जल पर हो रही राजनीति साफ होती है। इन दोनों ही नीतियों में जल को एक वस्तु और मनुष्य को उपभोक्ता बना दिया गया। सरकार की नीयत जल को आर्थिक वस्तु के तौर पर उभर कर आ गई।
मूल्य निर्धारण, माँग और आपूर्ति। यह शब्दावली कारोबार की है। कारोबार राज्य करे या कारपोरेट कम्पनियाँ। कारोबार की वजह से बहुत सारी मुश्किलें पैदा हुई हैं। लेकिन, इससे अलग भी कुछ समस्याएँ हैं। जैसे पेयजल की किल्लत, बढ़ता जल प्रदूषण और उससे होने वाली महामारियाँ। जिस तरह से विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ नवउदारवाद (जो वास्तव में निजीकरण का सुधरा हुआ नाम है) की नीति को जल के क्षेत्र में फलने-फूलने देने के लिये अवसर मुहैया कर रही है, वह भविष्य के लिये खतरे की घंटी है। हालाँकि, नागरिक समाज पानी पर अपने अधिकार को सजग है, लेकिन असल समस्या यह है कि राज्य उसे समर्थन नहीं दे रहा है।
मूल्य निर्धारण, माँग और आपूर्ति। यह शब्दावली कारोबार की है। कारोबार राज्य करे या कॉरपोरेट कम्पनियाँ। कारोबार की वजह से बहुत सारी मुश्किलें पैदा हुई हैं। लेकिन, इससे अलग भी कुछ समस्याएँ हैं। जैसे पेयजल की किल्लत, बढ़ता जल प्रदूषण और उससे होने वाली महामारियाँ। जिस तरह से विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ नवउदारवाद (जो वास्तव में निजीकरण का सुधरा हुआ नाम है) की नीति को जल के क्षेत्र में फलने-फूलने के लिये अवसर मुहैया कर रही हैं, वह भविष्य के लिये खतरे की घंटी है।भारत में पानी की कहानी को लेकर तीखा अंतर्विरोध है। सरकार एक तरफ तो जल संरक्षण का दावा कर रही है। दूसरी तरफ, पीछे के दरवाजे से इसके बाजारीकरण और निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। ‘निजी क्षेत्र की भागीदारी’ के नाम पर लगभग सभी राज्यों में सैकड़ों जल सम्बन्धी परियोजनाएँ चल रही हैं। राज्य और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ बाजार भी एक संस्था के रूप में जल की राजनीति में एक हिस्सेदार के तौर पर खड़ा है। उदाहरण के तौर पर जल शुद्धिकरण के मशीनों की बहुतायत और बोतलबन्द पानी के चलन ने पेयजल का समीकरण ही बदल दिया है। ये सारे परिवर्तन रातो-रात नहीं हुये, बल्कि एक खास तरह की सोची समझी चाल यानी बाजार को बढ़ावा देने वाली राजनीति का हिस्सा है।
गौरतलब है ये मशीनें सार्वजनिक संस्थाओं, निजी संस्थाओं और मध्यमवर्गीय परिवारों में लगवाई जाती हैं, जबकि इनमें अधिकांश जगहों पर सरकारें या स्थानीय निकाय स्वयं ही साफ और पेयजल की आपूर्ति करती हैं। साफ पानी को फिर शुद्ध करने की क्या जरूरत है? क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि स्थानीय निकाय दूषित और अस्वच्छ पानी की आपूर्ति करती हैं? सवाल उठता है कि क्या पेयजल सचमुच इतना दूषित है या फिर यह एक तरह का हौवा है? क्या यह मान लिया जाए कि स्थानीय निकायों आपूर्त पानी पीने योग्य नहीं है। भारत की जनसंख्या का बहुत छोटा हिस्सा ही मशीन द्वारा शुद्ध किया पानी पीता है, पर लोगों की भयजनित इच्छाओं का फायदा उठाने में बाजार माहिर है, जिसका परिणाम है कि आज पन्द्रह से लेकर पच्चीस हजार रुपये तक की मशीनें बाजार में उपलब्ध हैं। समाज का गरीब वर्ग अगर दूषित जल पी रहा है तो उसके लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? यह दर्शाता है कि वर्ग की राजनीति का जल की राजनीति से सीधा सम्बन्ध है। आमदनी का बड़ा हिस्सा लोग अपनी जल की जरूरत पूरी करने के लिए खर्च करने पर बाध्य हैं? कौन व्यक्ति कहाँ से और कितना पानी उपभोग कर रहा है, यह उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सूचकांक है। यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं है कि आज दिल्ली जैसे महानगरों में लोग रोजाना दूध या फल साग सब्जी से ज्यादा पानी पर खर्च करते हैं। बोतलबन्द पानी माँग के ही अनुरूप उसकी कीमत में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है और उसकी गुणवत्ता की भी शायद ही कोई गारंटी हो?
आज भारत की अधिकांश नदियाँ बेहद प्रदूषित हो चुकी हैं और उनका जल पीने के लिये तो दूर की बात है, दूसरे प्रयोगों के लिये भी सही नहीं है। आज तक किसी उद्योग को बन्द करने या उन पर पाबन्दी लगाने की बात सुनने को नहीं मिलती। हाल के समय में ‘कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिल्टी’ (सीएसआर) के सिद्धान्त ने समस्याओं को सुलझाने की बजाय और नये तरह से उलझा दिया है। इसके अनुसार व्यावसायिक संगठनों को देश के आर्थिक विकास के साथ स्थानीय समुदायों और पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करना होता है। इस तरह के प्रयास में वे अपने लाभ का एक बहुत छोटा हिस्सा गरीबों की शिक्षा या स्वास्थ्य के लिये देते हैं। कई बार लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा किये जा रहे कुछ सामाजिक कार्यों से ही बेहद प्रभावित हो जाते हैं। कोका कोला द्वारा चलाये जा रहे गरीब बच्चों को शिक्षित करने के प्रयास का गुणगान खूब हो रहा है, जबकि इसी कम्पनी ने केरल के प्लाचीमाड़ा गाँव के पानी को इस कदर प्रदूषित किया कि दस साल बाद भी वहाँ का भूजल पीने के लायक नहीं है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ न केवल हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित कर रही हैं बल्कि इनके द्वारा पर्यावरण की हो रही क्षति और इनके दूरगामी प्रभाव भी अनंत हैं।
इसी तरह के कई अन्य उदाहरण जैसे नियमगिरी में आदिवासियों द्वारा वेदांता कम्पनी का विरोध, विशेष आर्थिक क्षेत्र के विरुद्ध कई संघर्ष देखने को मिलते हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से शुद्ध पेयजल की कमी है। पेयजल की समस्या भी नगरीय समाज और ग्रामीण समाज में अलग-अलग तरह से है। ग्रामीण भारत में तालाब, कुआँ आदि किसी की निजी सम्पत्ति भले होते थे, लेकिन उन पर सभी का अधिकार होता था। मन्दिरों आदि के बाहर राहगीरों के लिये पीने का पानी पहले की तुलना में काफी कम लेकिन फिर भी गाहे-बगाहे देखने को मिल जाता है।
एक तरफ तो जल संरक्षण के पारम्परिक स्रोत जैसे कुएँ, पोखर ग्रामीण इलाकों में भी तेजी से समाप्त हो रहे हैं। दूसरी तरफ जल उपलब्ध करने के लिये आधुनिक तन्त्र जैसे जल, एटीएम टैंकर आदि के माध्यम से शहर के कोने-कोने तक पहुँचने का प्रयास भी हो रहा है। गौरतलब है कि यह जल मुफ्त में नहीं बल्कि निश्चित कीमत के बदले मुहैया कराया जा रहा है। शहरों में सैकड़ों किलोमीटर पाइपलाइन बिछाकर पानी लाया जा रहा है और ऐसे में भारी मात्रा में वित्तीय संसाधन का व्यय या अपव्यय हो रहा है। यह सब तब तक चल सकता है जब तक जल है, जब जल की उपलब्धता बेहद घट जायेगी तब क्या होगा? इन सबके बीच जल की राजनीति न केवल वृहत स्तर पर बल्कि सूक्ष्म स्तर पर भी बेहद तेजी से बदल रही है।