पानी पियो मोरे राम

Submitted by admin on Fri, 03/14/2014 - 12:27
Source
नया ज्ञानोदय, मार्च 2004
मई की तपती दोपहरी में पाँच कोस पैदल यात्रा के बाद मुझे एक दुर्लभ प्याऊ का दर्शन हुआ जहाँ के निर्मल जल से मैंने अपनी प्यास बुझाई। तृषातृप्ति की प्रतीक उस प्याऊ की दीवार पर लिखी पंक्ति पानी ‘पियो मोरे राम’ मेरे अन्तस में आज तक ऋचा की तरह अंकित है। मुंबई गया था 40 साल पहले। 10 पैसे में एक गिलास पानी पहली बार खरीदकर पिया था। मैं तो यह देखकर ही स्तब्ध था कि पानी पिलाने का पैसा वसूला जाता है। अब तो 12 रुपए में एक बोतल पानी मिलता है। अब कौन कहेगा ‘पानी पियो मोरे राम’एक थाकाहारा आदमी दरवाजे पर आया। पसीना पोंछते हुए उसने कहा, पानी पिया दे बाबू। उसके पीछे मैले कुचैले कपड़े पहने 8-10 लोग और थे। इसने देखा-काका जी बड़ी-बड़ी मूछों के बीच मुस्कराने लगे। राहगीरों को इशारे से बैठने के लिए कहा। घर के एक कोने से दूसरे कोने तक खुशी की लहर दौड़ गई। हम दोनों भाई बहन भीतर की ओर भागे। ‘गंगा सागर’ भरकर ले आए। दोनों हथेलियों को जोड़कर उन्होंने ‘ओक’ बना ली।

ताम्बे के गंगा सागर में लगभग 15-20 गिलास पानी समाता था। एक-एक कर सभी को पानी पिलाया। सत्कार करते समय काका जी की जिन्दादिली में एक आत्मीयता होती थी। एक उमंग एक भावाकुलता होती थी। यह बात लगभग पाँच दशक पुरानी है, तब मैं आठ साल का था। गाँव में उस समय किसी के भी घर में फ्रिज नहीं था। हमारे घर में 10 घड़ों में रात को पानी भरकर, प्रत्येक घड़े के चारों ओर सफेद गीला कपड़ा लपेटा जाता था।

यादों की लहर पीछे लौटती है तो विचित्र किंतु सत्य बात मुझे आज भी पुलक से भर देती है। कृषि उपज मंडी कुरुद के पास 150 फुट लंबा हमारा मकान था। आज भी है। मुख्य द्वार बस्ती की ओर था और पिछला दरवाजा कृषि उपज मंडी की ओर खुलता था। अप्रैल और मई की तपती दोपहरी में हमारी माँ बेडरूम में अकेली सोई रहती थी।

दोनों दरवाजे खुले रहते थे। काका जी के परिचितों में 15-20 लोग ऐसे भी थे, जो बिना आवाज लगाए निःसंकोच सीधे मुख्य द्वारा से प्रवेश करते। मटके से पानी निकालकर पीते और पिछले दरवाजे से बाहर चले जाते। आपस के रिश्तों में ऐसी अधिकार भावना अब इतिहास की बात लगती है।

यों तो समूचा मानवीय इतिहास ‘तृषातृप्ति’ के उद्यमों का ही पर्याय है। मगर एक तृषा ऐसी है जिसके सामने संसार की सारी सभ्यता संस्कृति और मूल्यों के कदम ठिठक जाते हैं। वह है पानी। इसका अनुभव अपनी किशोरावस्था में मुझे जब हुआ था तब एक बियाबान यात्रा में मेरे कंठ (हलक) सूख गए थे।

मई की तपती दोपहरी में पाँच कोस पैदल यात्रा के बाद मुझे एक दुर्लभ प्याऊ का दर्शन हुआ जहाँ के निर्मल जल से मैंने अपनी प्यास बुझाई। तृषातृप्ति की प्रतीक उस प्याऊ की दीवार पर लिखी पंक्ति पानी ‘पियो मोरे राम’ मेरे अन्तस में आज तक ऋचा की तरह अंकित है।

मुंबई गया था 40 साल पहले। 10 पैसे में एक गिलास पानी पहली बार खरीदकर पिया था। मैं तो यह देखकर ही स्तब्ध था कि पानी पिलाने का पैसा वसूला जाता है। अब तो 12 रुपए में एक बोतल पानी मिलता है। अब कौन कहेगा ‘पानी पियो मोरे राम’