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राँची एक्सप्रेस, 31 दिसम्बर 2002
डैम के निर्माण में लगभग ढाई लाख रुपये खर्च हुए हैं। डैम तो सरकार ने बनायी है लेकिन प्रबंधन और देख-रेख गाँव वाले खुद पानी पंचायत की तहत करा रहे हैं। लेकिन पंचायतों की गाथा में सब कुछ सीधा-सपाट ही नहीं है। गार की राजनीति और उग्रवादियों की वर्चश्व के चलते पानी पंचायत से जुड़े लोगों को दिक्तें हो रही हैं। पंचायतों को तोड़ने, लोगों में फूट डालने की भी कोशिश होती रहती है। फिर भी पानी पंचायतों की बैठकें हो रही हैं और लोग अपने विकास का रास्ता बना रहे हैं।
रेगिस्तान में नरवलिस्तान जैसे ही कुछ दृश्य लातेहार के कई गाँवों में देखने को मिलते हैं। सूखे की अभिशाप से ग्रसित लातेहार की कई गाँवों में पानी पंचायतें ही हैं जो हरियाली बचाए हुए हैं। पानी पंचायतों की सशक्तता और सक्रियता पर ही क्षेत्र का नक्शा बनता बिगड़ता है बारिश तो औसतन झारखंड के अन्य जिलों से कम ही है लेकिन ग्रामीणों की पानी रोकने, इकट्ठा करने और पानी के बँटवारे की एक परम्परा है जो उन्हें संकट से उबारता है। राहत देता है। कम से कम खाने पीने के लिये तो पलायन की नौबत नहीं आती है।सूखा मुक्ति अभियान के तहत जब जिला प्रशासन की ओर से 1991-92 में पानी पंचायतें बनाई जाने लगी तो लोगों को संश्य था। चूँकि ये पंचायतें सरकारी स्तर पर प्रायोजित और गठित की जा रही थी तो परिणाम के प्रति भी बहुत उत्साह तुरंत देखने को नहीं मिला लेकिन ग्रामीणों ने इसे इसे अपने विकास के लिये एक नई पहल मानी और इस अवसर से तकदीर को बदलने की जुगत भिड़ाने लगे बाद के दिनों में अन्य योजनाओं की तरह ही पानी पंचायतें जिला प्रशासन की प्राथमिकता सूची से बाहर आ गए लेकिन जो ज्ञान ग्रामीणों को मिला उससे ग्रामीण बाहर नहीं आ पाए। पानी पंचायत के तहत बनी डैम और तालाबों को उन्होंने अपनी सम्पत्ति मानी और रख-रखाव प्रबंधन और बँटवारे की अपनी एक प्रक्रिया कायम कर ली।
लातेहार जिला के टेमकी पंचायत के आरा गुंडी गाँव के रंथू उंराव बताते हैं कि पानी चेतना मंच के लोग क्षेत्र में सर्वे कर रहे थे। चेक डैम का स्थल खोज रहे थे। पोदलगड़ा और रेहड़ागड़ा नाला दोनों को मंच के लोगों ने देखा। यह वही समय था जब सुखा मुक्ति अभियान के तहत पलामू के तत्कालीन उपायुक्त संतोष मैथ्यू ने पानी संकट से निबटने के लिये एक अभिनव प्रयोग करना शुरू किया था। ग्रामीणों को संस्थाओं की मार्फत जागरुक करने का अभियान चला और जगह-जगह ग्रामीणों ने पानी पंचायतें गठित की महाराष्ट्र के पानी पंचायत की तर्ज पर यहाँ भी लोग इस पंचायत में अपनी भागीदारी महसूस करने लगे। उपायुक्त में पानी पंचायतों को सीधे पैसा देने शुरू किया लेकिन सर्त की ग्रामीण श्रमदान करेंगे ना प्रखंड में पीसी का चक्कर रहा और ना ही जिलों में आरा गुंडी 125 घरों का गाँव है। 30 घर आदिवासी है बाकी आबादी यादव हरिजन और अंगरिया की।
योजना बनेगी की डैम तथा गैबीन डैम से पानी को रोका जाए और खेती के इस्तेमाल में लाया जाए। उपायुक्त ने श्रमदान की शर्त रखी इसके तहत गाँव के लाभुकों के जिम्मे डैम के लिये झाड़ी काटने, नींव खोदने, मिट्टी डालने आदि काम रखे गए। योजना का 10 फीसदी खर्च इसके तहत आता था। रंथू याद करते हैं- मरता क्या नहीं करता। गाँव में पानी नहीं होने से तबाह तो था ही, सो चेकडैम का काम शुरू होते ही गाँव में उत्सव सा दृश्य हो गया। गाँव वाले झुंड के झुंड आते, देवता का पूजन करते और फावरे से अपने हिस्से का काम निबटाने लगे। ग्रामीणों को पता था सरकारी चेक डैमों का हश्र। इसलिए उन्होंने अपने लोक ज्ञान को जबरन इस्तेमाल में लाया। चेक डैम वहीं बनाने पर सहमति हुई जहाँ पानी का स्रोत था और सालों भर पानी रिश्ता रहता था। डैम के निर्माण में इंजीनियरों ने कम ग्रामीणों ने अपनी तकनीक और ज्ञान का ज्यादा इस्तेमाल किया माहौल कुछ ऐसा बना की सरकारी इंजीनियरों को भी झक मारकर ग्रामीणों की बातें सुननी ही नहीं पड़ी बल्कि सुझाए ढंग से निर्माण के लिए विवश भी होना पड़ा।
पानी पंचायत के रंथू उरांव बताते हैं कि झाड़ी सफाई के बाद 5 फिट नींव खुदी। उसके बाद बाहर से चिकनी मिट्टी डाली गई ताकि सीपेज नहीं हो एक-एक फिट के लेयर बनाने के बाद धुरमुस किए गए बाँध के मुख्य नाले पर 5 फीट तथा किनारे में चार फीट में मिट्टी डाले गए संरचना कुछ ऐसी डिजाइन की गई कि नाले का पानी आता रहे और बरसात का पानी भी जमा हो। वह बताते हैं कि स्थल चयन में हमेशा यही ध्यान रखा गया कि जहाँ पानी के नियमित श्रोत हों वहीं डैम बनाए जाएं। पलामू में 125 डैम बनाए गए और पानी पंचायत में जहाँ ग्रामीण की भागीदारी रही वहाँ पानी अवधि चल रहा है। गाँव के शिवदयाल उरांव (49) वर्ष कहते हैं कि वहाँ सरकारी अधिकारी शामिल हुए वहाँ पानी पंचायतें विफल हुई। अब वहाँ ना पानी है और ना ही पंचायत है। अन्ना हजारे के गाँव में रंथू उरांव गए तो यह साफ हो गया कि पानी का खजाना बनाना है और लोगों में पानी बाँटना है। डैम और पानी पंचायत इसी अवधारना पर बनाए गए। 40 लोगों ने तीन चार महीने के श्रमदान के बाद डेढ़ एकड़ क्षेत्रफल का डैम बना डाला।
श्रमदान वालों को पानी मिले ऐसी व्यवस्था की गई लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं रहा कि जो श्रमदान में नहीं रहे उसे पानी नहीं पहुँचे पानी पंचायत और डैम का परिणाम दो तीन सालों में दिखने लगा। टांड खेत बनने लगे और धीरे-धीरे इन खेतों में धान उगाए जाने लगे। रंथू उरांव बताते हैं कि 50 से 60 एकड़ टांड था जिसे धान का खेत बनाया गया डैम का कमांड एरिया 100 एकड़ से ज्यादा का है। सिंचाई 60-7 एकड़ में हो रहा है। सिपेज से भी खेती हो रही है। 10-12 एकड़ खेत तो डैम से होने वाले सिपेज से तैयार हो रहे हैं। धान और गेहूँ की की खेती हो रही है।
ग्रामीणों ने बताया कि श्रमदान के समय ग्राम कोश में 10 फीसदी राशि के तहत 23 हजार रुपये मिले थे। ग्रामीणों ने आपसी सहयोग से इसे बढ़ाकर 40 हजार रुपये की। अब यह ग्राम कोष बीज वगैरह खरीदने, आकस्मिक स्थिति में ग्रामीणों के बीच आपसी लेन-देन में इस्तेमाल में लाया जाने लगा है। ग्राम कोष से डीजल पम्पसेट खरीदे गए। रंथू की शिकायत है कि कुछ लोग ग्राम कोष से पैसा लेते हैं लेकिन लौटाते नहीं हैं। ऐसे लोगों की संख्या अत्यन्त कम है। गाँव के शिवदयाल उरांव कहते हैं पानी पंचायत के चलते भरपूर अनाज होने लगा है। इसी डैम से 7-8 एकड़ पर खेती हो रही है। गेहूँ और धान उगाते हैं। कुछ आलू, गोभी, टमाटर और मटर भी उगाते हैं। आरागुंडी के 75 फीसदी लोग (खासकर आदिवासी) पहले बाहर चले जाते थे। डैम के चलते न्यूनतम छह महीने का गेहूँ होने लगा है। खेती में धान की उपज बढ़ी है और लोगों की भूख मिट गई है। बाकी लोग आसपास मजदूरी करते हैं। इतना ही नहीं भूख मिटी तो तो पढ़ने के प्रति ललक भी बढ़ी। आदिवासी मुहल्ले की लड़कियाँ भी स्कूल जाने लगी हैं। शिवदयाल बताते हैं पानी पंचायत के पहले ही साल 22 क्विंटल गेहूँ हुआ था। उसका नतीजा यह हुआ कि लोगों का आकर्षण खेती के प्रति बढ़ा। हर घर में लोग खेती करने लगे।
गाँव के लरकू सिंह महीने में आठ दिन राँची में मजदूरी करते हैं। जिस पैसे से वह बीज खरीदता है और पटवन के लिये पानी पंचायत को डीजल का दाम देता है। ढाई से तीन क्विंटल गेहूँ की उपज उसके खेत में हो रही है। पानी पंचायत और डैम से सिर्फ उपज ही नहीं बढ़ी बल्कि गाँव के कुएँ, सोते में पानी नियमित रहने लगा। अब कुएँ में पानी नहीं सूखता है। पहले गर्मी में दस बाल्टी पानी भी नहीं मिलता था। अभी दस-बारह पीट पर ही पानी रहता है। पानी चेतना मंच के लोग यहाँ आते हैं और गाँव के कुएँ, सोते की माप करते हैं। डैम के निर्माण में लगभग ढाई लाख रुपये खर्च हुए हैं। डैम तो सरकार ने बनायी है लेकिन प्रबंधन और देख-रेख गाँव वाले खुद पानी पंचायत की तहत करा रहे हैं। लेकिन पंचायतों की गाथा में सब कुछ सीधा-सपाट ही नहीं है। गार की राजनीति और उग्रवादियों की वर्चश्व के चलते पानी पंचायत से जुड़े लोगों को दिक्तें हो रही हैं। पंचायतों को तोड़ने, लोगों में फूट डालने की भी कोशिश होती रहती है। फिर भी पानी पंचायतों की बैठकें हो रही हैं और लोग अपने विकास का रास्ता बना रहे हैं।
(सी.एस.ई. मीडिया फैलोशिप के तहत प्रस्तुत आलेख)