पारिस्थितिकीय जोखिम के मूल्यांकन हेतु आनुवंशिक विषाक्तता जैव-चिन्हकों की उपयोगिता (The usefulness of genetic toxicity bio-markers to evaluate ecological exposure)

Submitted by Hindi on Thu, 08/31/2017 - 16:46
Source
राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान केंद्र, (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद), भीमताल- 263136, जिला- नैनीताल (उत्तराखंड)

मानव जाति के पिछले कुछ दशकों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है एवं प्रतिदिन हजारों की तादाद में नये रासायनिक उत्पाद अस्तित्व में आ रहे हैं, जिनका उपयोग कृषि, उद्योग, चिकित्सा, खाद्य, सौन्दर्य सामग्री इत्यादि में किया जा रहा है। कारखानों से निकले संश्लेषित रसायन जिनमें भारी धातु तत्व, कीटनाशक इत्यादि हमारे प्राकृतिक जल संसाधनों को प्रदूषित कर रहा है। इनमें से कुछ घातक रसायन मछलियों के डी.एन.ए. के सुरक्षा प्रणाली को भेद कर इसकी मूल संरचना एवं कार्य में परिवर्तन करने की क्षमता रखता है। इन कारकों को आनुवंशिक विष कहा जाता है। ये विषैले तत्व डी.एन.ए. का उत्परिवर्तन, गुणसूत्रों का खण्डन, अंतर्स्राव में परिवर्तन, प्रतिरक्षित प्रणाली इत्यादि को कुप्रभावित कर सकते हैं जिससे ट्यूमर, कैंसर, प्रजनन क्षमता व वृद्धि में कमी पायी जाती है।

इन कारणों से मछलियों की कई प्रजातियाँ प्रभावित हो गई हैं। आनुवंशिक विषाक्तता का अध्ययन के लिये माइक्रोनयूक्लियस टेस्ट, गुणसूत्र विकृति टेस्ट, सिस्टर क्रोमैटिड विनिमय एवं कोमेट एसे का इस्तेमाल किया जा सकता है। इनमें कोमेट एसे अपनी विश्वसनीयता एवं संवेदनशीलता की वजह से ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। कई जलीय जन्तु जैव-प्रबोधन अध्ययन के लिये कोमेट असे एवं माइक्रोन्यूक्लियस टेस्ट काफी लाभप्रद पाया गया है। हाल ही में संस्थान के शोधार्थियों ने गोमती नदी की मछलियों में आनुवंशिक विषाक्तता का अध्ययन करने के लिये उपरोक्त दोनों विधियों का उपयोग किया है और प्रदूषित जल में रहने वाली मछलियों के डी.एन.ए. में ज्यादा नुकसान पाया गया है।

हाल ही में वैज्ञानिक जीन अभिव्यक्तता में रसायनों से होने वाले बदलाव का अध्ययन परिमाणात्मक पी.सी.आर. एवं जीन माईक्रो-अरे द्वारा कर रहे हैं। यह देखा गया है कि यह आण्विक जैव-चिन्हक आरम्भिक प्रभावन की सूचना प्रदान करने में काफी लाभप्रद है। इस प्रकार के अध्ययन के लिये वैज्ञानिकों ने कुछ जीन जैसे कि मेटैलोथायनीन, हीट स्ट्रेट जीन, साइटोक्रोम पी.450 इत्यादि के अभिव्यक्ति का उपयोग किया है। संभावना है कि भविष्य में ट्रान्सक्रिपटोमिक्स, प्रोटियोमिक्स इत्यादि विधियाँ अध्ययन की इस शाखा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।

भारतीय भौगोलिक परिक्षेत्र अपने अनगिनत जीव प्रजातियों के कारण विश्व में माना जाता है। अधिकतम जैव-विविधता पर्वतीय क्षेत्रों में केन्द्रित हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में तकरीबन 2500 फिन/पंख वाली मत्स्य प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो लगातार बढ़ते प्रदूषण, नगरीकरण एवं प्राकृतिक अप्रबंधन के कारण संकटग्रस्त है और कुछ प्रजातियाँ तो लुप्तप्राय होने के कगार पर हैं। प्रचलित आनुवंशिक विषाक्तता एवं नूतन आण्विक जैव-चिन्हकों के सहयोग से पारिस्थितिकी खतरे का आकलन किया जा सकता है जो पारिस्थतिकीय प्रबंधन को बेहतर तरीके से लागू करने में सहायक होगा।

लेखक परिचय
एन.एस. नागपुरे, रविन्द्र कुमार, पूनम जयन्त सिंह, बासदेव कुशवाहा, एस.के. श्रीवास्तव एवं वजीर एस. लाकडा

राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, कैनाल रिंग रोड, पो.-दिलकुशा, लखनऊ