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कुरुक्षेत्र, मई 2015
‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।’ कविवर रहीम ने भी अपने समय में पानी को संरक्षित करने का महत्त्व बताया था। उस समय हालाँकि सम्भवतः पानी की इतनी किल्लत नहीं रही होगी, परन्तु पानी का महत्त्व लोग-बाग ज्यादा समझते थे। आज जबकि हमारी तकनीक और विज्ञान की प्रगति आसमान को छू रही है, पानी को लेकर हमारी समझ में खासी कमी आई है। पानी हमें चाहिए परन्तु उसकी रक्षा करने के लिए हम तैयार नहीं हैं। इसलिए अपने पूर्वजों की मेधा पर भरोसा करते हुए हमें यह देखना होगा कि आखिर हमारे पूर्वजों ने जल और पेयजल के प्रबन्धन के लिए क्या उपाय किये थे। आज जबकि हमारी तकनीक और विज्ञान की प्रगति आसमान को छू रही है, पानी को लेकर हमारी समझ में खासी कमी आई है पानी हमें चाहिए परन्तु उसकी रक्षा करने के लिए हम तैयार नहीं है।
दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ वेदों में जल का संरक्षण करने और अशुद्ध जल को साफ करने के निर्देश मिलते हैं। ऋग्वेद के अध्वर्यु सूक्त में अध्वर्यु को राष्ट्र के योजनाकार के रूप में देखा जा सकता है और वहाँ उसके दस कर्तव्य बताए गए हैं जिनमें दूसरा कर्तव्य वर्षा जल का संरक्षण है। यही कारण है कि वर्षाजल का संरक्षण हमारी परम्परा में रच-बस गया था। बचपन में हमने अपने घरों में बारिश होने पर बारिश के पानी को बाल्टियों में भर कर रखते देखा ही होगा। उस पानी को आकाश का पानी और सबसे शुद्ध माना जाता था। धीरे-धीरे व्यक्तिगत प्रयासों से ऊपर उठकर यह अभ्यास समाज-जीवन में पैठ गया और इसलिए फिर वर्षा जल को पेयजल और अन्य उपयोग के लिए कई प्रकार से संरक्षित करने के उपक्रम देखने को मिलते हैं। ये प्रयास तब भी हो रहे थे, जब न तो इतनी जनसंख्या थी, न नदियाँ प्रदूषित थीं, न पेयजल की कोई कमी थी और न ही भू-जल-स्तर घटा था। और देखने वाली बात यह है कि ये प्रयास केवल राजस्थान जैसे पानी की किल्लत वाले प्रदेशों में ही नहीं हो रहे थे, ये प्रयास पूरे देश भर में होते थे।
नदियों से भरे पूरे देश में जहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती हो, पानी के संरक्षण का ऐसा प्रयास होना केवल हमारे पूर्वजों की बुद्धिमत्ता का ही परिचायक है। हमारे पूर्वज जानते थे कि प्रकृति में कोई भी वस्तु असीमित नहीं है। जो असीमित दिख रही है, वह केवल चक्रीय व्यवस्था के कारण असीमित दिख रही है। उदाहरण के लिए राजस्थान के लोग पानी के बारे में कुछ रोचक बातें बताते हैं। सामान्यतः हम लोग पानी के दो ही प्रकार जानते हैं- जमीन के ऊपर का पानी और जमीन के अंदर का पानी। राजस्थान के लोग बताते हैं कि पानी तीन प्रकार के हैं। ‘एक पालेर पानी’ अर्थात वर्षा का पानी। पानी के जितने भी स्रोत नदी, तालाब, कुएँ आदि दिखते हैं, उनके मूल में तो वर्षा का ही जल है। ‘दूसरा है, रेजानी पानी।’ यह वह पानी है जो भूमि के नीचे खड़ीन की पट्टी में जमा होता है। यह खड़ीन की पट्टी जमीन के नीचे केवल पाँच-छह फुट नीचे होती है। यह भंडार भी प्रत्येक बरसात में पुनः भर जाता है। ‘तीसरा पानी है’ पाताल पानी जो जमीन के काफी अंदर होता है। उनका कहना था कि हमें केवल पहले दो पानी अर्थात पालेर पानी और रेजानी पानी का ही उपयोग करना चाहिए। पाताल पानी का उपयोग अत्यन्त संकट के समय करना चाहिए। आज देखा जाए तो हम सबसे अधिक पाताल पानी का ही उपयोग कर रहे हैं। क्योंकि पालेर पानी को हमने नष्ट कर दिया है और पाताल पानी भी आज समाप्त होने के कगार पर खड़ा है जिसके कारण भूजल स्तर नीचे जा रहा है।
इसलिए अपने पूर्वजों की मेधा पर भरोसा करते हुए हमें यह देखना होगा कि आखिर हमारे पूर्वजों ने जल और पेयजल के प्रबन्धन के लिए क्या उपाय किये थे। उल्लेखनीय बात यह है कि समाज ने हमेशा पीने के पानी और सिंचाई, स्नान आदि अन्य प्रयोगों के पानी के स्रोत अलग-अलग रखे थे। सिंचाई और अन्य उपयोग के लिए जो स्रोत विकसित किए गये थे, वे भी प्रकारांतर से पेयजल का संरक्षण ही करते थे। कुछेक प्रयोगों की संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत हैः
जल संरक्षण का सबसे प्रमुख प्रयास था तालाबों का निर्माण। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और जमींदार तालाब खुदवाया करते थे और इसके लिए प्रसिद्ध भी हो जाते थे। तालाब और बाँध में एक अंतर है। तालाब प्राकृतिक जल स्रोत है और बाँध कृत्रिम। भूमि का वह निचला भाग जहाँ वर्षा जल एकत्र हो जाता है, तालाब बन जाता है। जबकि बाँध में वर्षा के बहते जल को मिट्टी की दीवारे बनाकर बहने से रोका जाता है। उदाहरण के लिए बुंदेलखंड क्षेत्र के टीकमगढ़ में ऐसे तालाबों की बहुतायत है जबकि उदयपुर में बाँध के रूप में कृत्रिम झीलें विख्यात हैं। पेयजल उपलब्ध कराने में इन तालाबों और झीलों का महत्त्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। साथ ही इनका उपयोग सिंचाई और अन्य कार्यों में भी किया जाता था। तालाबों के कारण भूजल-स्तर भी ठीक बना रहता था। भोपाल और उदयपुर जैसे शहरों में आज ये तालाब और झीलें पर्यटन का केन्द्र भी बन गई हैं।
देश में पेयजल का दूसरा प्रमुख स्रोत था और है कुआँ। कुआँ व्यक्तिगत भी होता था और सामूहिक भी। सामूहिक कुएँ राजाओं या स्थनीय जमींदारों द्वारा बनवाये जाते थे। ये कुएँ भी भूजल का उपयोग करते थे। साथ ही इनसे भूजल स्तर भी ठीक बना रहता था, क्योंकि वर्षा के समय ये वर्षा जल को संरक्षित करने का काम करते थे। हालाँकि शनैः शनैः शहरों में कुओं का प्रयोग घटा है परन्तु गाँवों में इनका काफी उपयोग होता है। कुओं का महत्त्व समाज में कितना था, इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि कुओं के संरक्षण के लिए इसे धार्मिक रीति-रिवाज तक से जोड़ दिया गया था। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान सहित देश के अनेक हिस्सों में बच्चे के जन्म पर कुआँ पूजन का विधान है। दिल्ली जैसे शहरों में भी जहाँ कुएँ देखने को नहीं मिलते, यह परम्परा किसी प्रकार मनाई जाती है। आज भी इसके लिए मंदिरों में कुएँ बना कर रखे जाते हैं।
आहर या जोहड़ मिट्टी के छोटे बाँध की तरह होते हैं। वर्षा जल के बहाव क्षेत्र में बाँध बनाकर इस पानी को रोका जाता है और छोटे तालाब के रूप में एकत्र कर लिया जाता है। ये जोहड़ सामान्यतः सिंचाई के लिए बनाए जाते थे। परन्तु इनके कारण भूजल स्तर का संरक्षण होता था। और उसके कारण पेयजल की उपलब्धता सरल होती थी। साथ ही पीने के अलावा स्नान, कपड़े धोना, पशुओं को नहलाना जैसे कार्यों के लिए भी जोहड़ या आहर के पानी का ही प्रयोग होता था। जिससे पेयजल के स्रोतों पर दबाव कम पड़ता था, पेयजल का संरक्षण होता था। दुर्भाग्यवश आज आहर और जोहड़ की यह प्राचीन व्यवस्था समाप्त हो रही है जिसके कारण पेयजल के स्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है। और उसकी किल्लत होने लगी है।
ये परम्परागत स्रोत थार के रेगिस्तान में मेवाड़ क्षेत्र में पाए जाते हैं। मानसून के दौरान बहते जल को एक नाली के रूप में पत्थर के बाँध तक ले जाया जाता है जिसमें इस पानी को एकत्र किया जाता है। ठोस सतही परत पानी को जमीन में नहीं सोखने देती है। और काफी समय तक पानी का उपयोग विभिन्न जरूरतों के लिए किया जाता है। राजस्थान में आज भी थार के रेगिस्तान में इन जल स्रोतों के अवशेष नालियों के रूप में देखे जा सकते हैं। भूमिगत जल के उपयोग के कारण अब इनका उपयोग कम हो गया है।
रपट भी वर्षा के बहते जल को संरक्षित करने से संबंधित है। वर्षा के बहते जल को किसी ढके हुए टैंक में संग्रहित कर लिया जाता है। इस जल का उपयोग लम्बे समय तक किया जा सकता है। रपट का मुँह काफी छोटा होता है और टैंक के ढक्कन जैसा होता है। भीतर से ये टैंक बहुत विशाल हो सकते हैं। टैंक को सुरक्षा और पानी की स्वच्छता के मद्देनजर ढका जाता है।
चंदेल टैंक पहाड़ी गाँवों में बनाया जाता रहा है। पहाड़ी पर वर्षा जल के बहाव पर एक मेढ़ या मजबूत कच्ची मिट्टी की दीवार बनाकर पानी का टांका बना लिया जाता है। अगली बारिश तक यह पानी पेयजल, पशुपालन, सिंचाई और अन्य कामों में लिया जा सकता है। पहाड़ी घाटियाँ इस तरह के टांके बनाने के लिए आदर्श होती हैं। राजस्थान के मध्यभाग में अरावली की श्रेणियों में बसे कई गाँवों में इस तरह के टैंक देखने को मिलते हैं। इनमें लम्बे समय तक पानी संजोया जा सकता है।
इस तरह के टैंकों का निर्माण ज्यादा पानी की माँग के चलते किया गया। यह टांका चंदेला टांके से बड़ा होता है और इसकी पाल का निर्माण पत्थर की दीवार, पेवेलियन आदि बनाकर किया जाता है। राजस्थान के कुछ बड़े कस्बों व नगरों में लोगों ने स्वप्रेरणा से जल समस्या का निदान करने के लिए बुन्देला टांकों का निर्माण किया था। पहाड़ों की ढलवाँ घाटी पर बाँध बनाकर पानी के स्रोत को पुख्ता तालाब की शक्ल दे दी जाती है। जयपुर के आमेर में सागर तालाब इसी तरह के बाँध हैं।
पानी के स्रोत के रूप में देश भर में प्राकृतिक और कृत्रिम कुण्ड मिलते हैं। कुण्ड निजी भी होते हैं और सार्वजनिक भी। निजी कुण्ड बनाने के लिए पानी के ज्यादा संग्रहण के लिए घर में आवश्यकतानुसार गड्ढा खोदकर उसे चूने इत्यादि से पक्का कर ऊपर गुम्बद या ढक्कन बनाकर ढक दिया जाता था पानी को साफ-स्वच्छ और उपयोग लायक बनाए रखने के लिए इसके तल में राख और चूना भी लगाया जाता था ताकि पानी में कीटाणु आदि न पनपें। कुण्ड घर के वाॅटर टैंक की तरह होता था। सार्वजनिक कुण्ड ढके हुए भी होते थे और खुले भी। कुण्डों का इस्तेमाल पानी पीने, नहाने आदि में किया जाता था। खुले कुण्ड गर्मियों में स्वीमिंग पूल का भी काम करते थे और राहगीरों को तरोताजा होने का मौका देते थे। ठंडे और गर्म दोनों प्रकार के कुण्ड पाए जाते हैं। कुण्डों की गहराई आवश्यकता और उपयोग पर निर्भर करती है। इनकी गहराई इतनी-सी भी हो सकती है कि झुककर किसी पात्र में इनमें से जल निकाला जा सके।
बावड़ी मुख्यतः राजस्थान में पाई जाती है। राजस्थान में किसी समय बावड़ियों का विशेष महत्त्व था। इन बावड़ियों को स्टैपवेल यानी कि सीढ़ीदार कुआँ कहा जाता है। कुछ बावड़ियाँ आज गुजरी सदियों के बेहतरीन स्थापत्य के नमूने बन चुकी है। जयपुर के नजदीकी जिले दौंसा में आभानेरी स्थिति चाँद बावड़ी इसका बेहतरीन प्रमाण है। इसके अलावा टोंक के टोडाराय सिंह में तीन सौ से अधिक बावड़ियाँ हैं। राजस्थान जैसे सूखे इलाके में पानी को अधिक दिनों तक संरक्षित रखने और पशुओं को भी पानी की जद में लाने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण किया गया। कुएँ से एक आदमी पानी निकाल कर पी सकता है लेकिन पशु क्या करेंगे। बावड़ियों में सीढ़ियो की सुविधा बनाई गई ताकि पशु भी सीढ़ियों से उतरकर पानी पी सकें। कुछ बावड़ियों का निर्माण इस प्रकार किया गया कि पानी सीधे सूर्य के सम्पर्क में नहीं आता। इससे वाष्पीकरण की समस्या से भी निजात मिल गई। साथ ही बावड़ी पर स्नान कर रही महिलाओं के लिए भी यह सुविधाजन्य होता था। अलवर में तालवृक्ष में ऐसी बावड़ियाँ मिल जाती हैं। बावड़ियाँ संग्रहित सार्वजनिक जल का शानदार नमूना है। बारिश के पानी को सिंचित करने की यह उस समय की बहुत ही वैज्ञानिक विधि थी।
झालरा किसी नदी या तालाब के पास आयताकार टैंक होता था जो धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए बनाया जाता था। इसके अलावा भी ये झालरा कई प्रकार से काम में आया करते थे। राजस्थान और गुजरात में इन मानव निर्मित टैंकों की बहुतायत है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनमें पेजयल का उपयोग हम नहीं करते। झालरा ऐसे ही कामों को अंजाम देने और पेयजल को बचाए रखने के लिए निर्मित किए जाते थे। जोधपुर शहर के आस-पास आठ शानदार झालरा आज भी आकर्षित करते हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो देश भर में हमारे समाज ने जल-संरक्षण करने और पेयजल को अन्य उपयोग के जल से अलग रखने का सुनियोजित प्रबन्ध किया था। इस प्रबन्ध में यह भी निश्चित किया गया था कि जल का दुरुपयोग नहीं हो पाए। इसलिए पानी मानव श्रम से ही निकालना होता था। कुछेक मामलों में पशु ऊर्जा का भी उपयोग किया जाता था। इस कारण केवल उपयोग भर पानी ही लिया जाता था। आज पानी की उपलब्धता घटी है परन्तु उसका दुरूपयोग काफी बढ़ा है। दिल्ली जैसे शहर में पेयजल का उपयोग गाड़ियाँ धोने के काम में धड़ल्ले से किया जाता है और यह काम समाज का पढ़ा-लिखा समझदार तबका करता है। लगता है कि आज के पढ़े-लिखे समाज को देश के पुराने अनपढ़ लेकिन जागरूक समाज से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।), ईमेल: raviroy@gmail.com
दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ वेदों में जल का संरक्षण करने और अशुद्ध जल को साफ करने के निर्देश मिलते हैं। ऋग्वेद के अध्वर्यु सूक्त में अध्वर्यु को राष्ट्र के योजनाकार के रूप में देखा जा सकता है और वहाँ उसके दस कर्तव्य बताए गए हैं जिनमें दूसरा कर्तव्य वर्षा जल का संरक्षण है। यही कारण है कि वर्षाजल का संरक्षण हमारी परम्परा में रच-बस गया था। बचपन में हमने अपने घरों में बारिश होने पर बारिश के पानी को बाल्टियों में भर कर रखते देखा ही होगा। उस पानी को आकाश का पानी और सबसे शुद्ध माना जाता था। धीरे-धीरे व्यक्तिगत प्रयासों से ऊपर उठकर यह अभ्यास समाज-जीवन में पैठ गया और इसलिए फिर वर्षा जल को पेयजल और अन्य उपयोग के लिए कई प्रकार से संरक्षित करने के उपक्रम देखने को मिलते हैं। ये प्रयास तब भी हो रहे थे, जब न तो इतनी जनसंख्या थी, न नदियाँ प्रदूषित थीं, न पेयजल की कोई कमी थी और न ही भू-जल-स्तर घटा था। और देखने वाली बात यह है कि ये प्रयास केवल राजस्थान जैसे पानी की किल्लत वाले प्रदेशों में ही नहीं हो रहे थे, ये प्रयास पूरे देश भर में होते थे।
नदियों से भरे पूरे देश में जहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती हो, पानी के संरक्षण का ऐसा प्रयास होना केवल हमारे पूर्वजों की बुद्धिमत्ता का ही परिचायक है। हमारे पूर्वज जानते थे कि प्रकृति में कोई भी वस्तु असीमित नहीं है। जो असीमित दिख रही है, वह केवल चक्रीय व्यवस्था के कारण असीमित दिख रही है। उदाहरण के लिए राजस्थान के लोग पानी के बारे में कुछ रोचक बातें बताते हैं। सामान्यतः हम लोग पानी के दो ही प्रकार जानते हैं- जमीन के ऊपर का पानी और जमीन के अंदर का पानी। राजस्थान के लोग बताते हैं कि पानी तीन प्रकार के हैं। ‘एक पालेर पानी’ अर्थात वर्षा का पानी। पानी के जितने भी स्रोत नदी, तालाब, कुएँ आदि दिखते हैं, उनके मूल में तो वर्षा का ही जल है। ‘दूसरा है, रेजानी पानी।’ यह वह पानी है जो भूमि के नीचे खड़ीन की पट्टी में जमा होता है। यह खड़ीन की पट्टी जमीन के नीचे केवल पाँच-छह फुट नीचे होती है। यह भंडार भी प्रत्येक बरसात में पुनः भर जाता है। ‘तीसरा पानी है’ पाताल पानी जो जमीन के काफी अंदर होता है। उनका कहना था कि हमें केवल पहले दो पानी अर्थात पालेर पानी और रेजानी पानी का ही उपयोग करना चाहिए। पाताल पानी का उपयोग अत्यन्त संकट के समय करना चाहिए। आज देखा जाए तो हम सबसे अधिक पाताल पानी का ही उपयोग कर रहे हैं। क्योंकि पालेर पानी को हमने नष्ट कर दिया है और पाताल पानी भी आज समाप्त होने के कगार पर खड़ा है जिसके कारण भूजल स्तर नीचे जा रहा है।
इसलिए अपने पूर्वजों की मेधा पर भरोसा करते हुए हमें यह देखना होगा कि आखिर हमारे पूर्वजों ने जल और पेयजल के प्रबन्धन के लिए क्या उपाय किये थे। उल्लेखनीय बात यह है कि समाज ने हमेशा पीने के पानी और सिंचाई, स्नान आदि अन्य प्रयोगों के पानी के स्रोत अलग-अलग रखे थे। सिंचाई और अन्य उपयोग के लिए जो स्रोत विकसित किए गये थे, वे भी प्रकारांतर से पेयजल का संरक्षण ही करते थे। कुछेक प्रयोगों की संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत हैः
तालाब
जल संरक्षण का सबसे प्रमुख प्रयास था तालाबों का निर्माण। बड़े-बड़े राजा-महाराजा और जमींदार तालाब खुदवाया करते थे और इसके लिए प्रसिद्ध भी हो जाते थे। तालाब और बाँध में एक अंतर है। तालाब प्राकृतिक जल स्रोत है और बाँध कृत्रिम। भूमि का वह निचला भाग जहाँ वर्षा जल एकत्र हो जाता है, तालाब बन जाता है। जबकि बाँध में वर्षा के बहते जल को मिट्टी की दीवारे बनाकर बहने से रोका जाता है। उदाहरण के लिए बुंदेलखंड क्षेत्र के टीकमगढ़ में ऐसे तालाबों की बहुतायत है जबकि उदयपुर में बाँध के रूप में कृत्रिम झीलें विख्यात हैं। पेयजल उपलब्ध कराने में इन तालाबों और झीलों का महत्त्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। साथ ही इनका उपयोग सिंचाई और अन्य कार्यों में भी किया जाता था। तालाबों के कारण भूजल-स्तर भी ठीक बना रहता था। भोपाल और उदयपुर जैसे शहरों में आज ये तालाब और झीलें पर्यटन का केन्द्र भी बन गई हैं।
कुआँ
देश में पेयजल का दूसरा प्रमुख स्रोत था और है कुआँ। कुआँ व्यक्तिगत भी होता था और सामूहिक भी। सामूहिक कुएँ राजाओं या स्थनीय जमींदारों द्वारा बनवाये जाते थे। ये कुएँ भी भूजल का उपयोग करते थे। साथ ही इनसे भूजल स्तर भी ठीक बना रहता था, क्योंकि वर्षा के समय ये वर्षा जल को संरक्षित करने का काम करते थे। हालाँकि शनैः शनैः शहरों में कुओं का प्रयोग घटा है परन्तु गाँवों में इनका काफी उपयोग होता है। कुओं का महत्त्व समाज में कितना था, इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि कुओं के संरक्षण के लिए इसे धार्मिक रीति-रिवाज तक से जोड़ दिया गया था। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान सहित देश के अनेक हिस्सों में बच्चे के जन्म पर कुआँ पूजन का विधान है। दिल्ली जैसे शहरों में भी जहाँ कुएँ देखने को नहीं मिलते, यह परम्परा किसी प्रकार मनाई जाती है। आज भी इसके लिए मंदिरों में कुएँ बना कर रखे जाते हैं।
आहर या जोहड़
आहर या जोहड़ मिट्टी के छोटे बाँध की तरह होते हैं। वर्षा जल के बहाव क्षेत्र में बाँध बनाकर इस पानी को रोका जाता है और छोटे तालाब के रूप में एकत्र कर लिया जाता है। ये जोहड़ सामान्यतः सिंचाई के लिए बनाए जाते थे। परन्तु इनके कारण भूजल स्तर का संरक्षण होता था। और उसके कारण पेयजल की उपलब्धता सरल होती थी। साथ ही पीने के अलावा स्नान, कपड़े धोना, पशुओं को नहलाना जैसे कार्यों के लिए भी जोहड़ या आहर के पानी का ही प्रयोग होता था। जिससे पेयजल के स्रोतों पर दबाव कम पड़ता था, पेयजल का संरक्षण होता था। दुर्भाग्यवश आज आहर और जोहड़ की यह प्राचीन व्यवस्था समाप्त हो रही है जिसके कारण पेयजल के स्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है। और उसकी किल्लत होने लगी है।
नाड़ा या बंधा
ये परम्परागत स्रोत थार के रेगिस्तान में मेवाड़ क्षेत्र में पाए जाते हैं। मानसून के दौरान बहते जल को एक नाली के रूप में पत्थर के बाँध तक ले जाया जाता है जिसमें इस पानी को एकत्र किया जाता है। ठोस सतही परत पानी को जमीन में नहीं सोखने देती है। और काफी समय तक पानी का उपयोग विभिन्न जरूरतों के लिए किया जाता है। राजस्थान में आज भी थार के रेगिस्तान में इन जल स्रोतों के अवशेष नालियों के रूप में देखे जा सकते हैं। भूमिगत जल के उपयोग के कारण अब इनका उपयोग कम हो गया है।
रपट
रपट भी वर्षा के बहते जल को संरक्षित करने से संबंधित है। वर्षा के बहते जल को किसी ढके हुए टैंक में संग्रहित कर लिया जाता है। इस जल का उपयोग लम्बे समय तक किया जा सकता है। रपट का मुँह काफी छोटा होता है और टैंक के ढक्कन जैसा होता है। भीतर से ये टैंक बहुत विशाल हो सकते हैं। टैंक को सुरक्षा और पानी की स्वच्छता के मद्देनजर ढका जाता है।
चंदेल टैंक
चंदेल टैंक पहाड़ी गाँवों में बनाया जाता रहा है। पहाड़ी पर वर्षा जल के बहाव पर एक मेढ़ या मजबूत कच्ची मिट्टी की दीवार बनाकर पानी का टांका बना लिया जाता है। अगली बारिश तक यह पानी पेयजल, पशुपालन, सिंचाई और अन्य कामों में लिया जा सकता है। पहाड़ी घाटियाँ इस तरह के टांके बनाने के लिए आदर्श होती हैं। राजस्थान के मध्यभाग में अरावली की श्रेणियों में बसे कई गाँवों में इस तरह के टैंक देखने को मिलते हैं। इनमें लम्बे समय तक पानी संजोया जा सकता है।
बुन्देला टैंक
इस तरह के टैंकों का निर्माण ज्यादा पानी की माँग के चलते किया गया। यह टांका चंदेला टांके से बड़ा होता है और इसकी पाल का निर्माण पत्थर की दीवार, पेवेलियन आदि बनाकर किया जाता है। राजस्थान के कुछ बड़े कस्बों व नगरों में लोगों ने स्वप्रेरणा से जल समस्या का निदान करने के लिए बुन्देला टांकों का निर्माण किया था। पहाड़ों की ढलवाँ घाटी पर बाँध बनाकर पानी के स्रोत को पुख्ता तालाब की शक्ल दे दी जाती है। जयपुर के आमेर में सागर तालाब इसी तरह के बाँध हैं।
कुण्ड
पानी के स्रोत के रूप में देश भर में प्राकृतिक और कृत्रिम कुण्ड मिलते हैं। कुण्ड निजी भी होते हैं और सार्वजनिक भी। निजी कुण्ड बनाने के लिए पानी के ज्यादा संग्रहण के लिए घर में आवश्यकतानुसार गड्ढा खोदकर उसे चूने इत्यादि से पक्का कर ऊपर गुम्बद या ढक्कन बनाकर ढक दिया जाता था पानी को साफ-स्वच्छ और उपयोग लायक बनाए रखने के लिए इसके तल में राख और चूना भी लगाया जाता था ताकि पानी में कीटाणु आदि न पनपें। कुण्ड घर के वाॅटर टैंक की तरह होता था। सार्वजनिक कुण्ड ढके हुए भी होते थे और खुले भी। कुण्डों का इस्तेमाल पानी पीने, नहाने आदि में किया जाता था। खुले कुण्ड गर्मियों में स्वीमिंग पूल का भी काम करते थे और राहगीरों को तरोताजा होने का मौका देते थे। ठंडे और गर्म दोनों प्रकार के कुण्ड पाए जाते हैं। कुण्डों की गहराई आवश्यकता और उपयोग पर निर्भर करती है। इनकी गहराई इतनी-सी भी हो सकती है कि झुककर किसी पात्र में इनमें से जल निकाला जा सके।
बावड़ी
बावड़ी मुख्यतः राजस्थान में पाई जाती है। राजस्थान में किसी समय बावड़ियों का विशेष महत्त्व था। इन बावड़ियों को स्टैपवेल यानी कि सीढ़ीदार कुआँ कहा जाता है। कुछ बावड़ियाँ आज गुजरी सदियों के बेहतरीन स्थापत्य के नमूने बन चुकी है। जयपुर के नजदीकी जिले दौंसा में आभानेरी स्थिति चाँद बावड़ी इसका बेहतरीन प्रमाण है। इसके अलावा टोंक के टोडाराय सिंह में तीन सौ से अधिक बावड़ियाँ हैं। राजस्थान जैसे सूखे इलाके में पानी को अधिक दिनों तक संरक्षित रखने और पशुओं को भी पानी की जद में लाने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण किया गया। कुएँ से एक आदमी पानी निकाल कर पी सकता है लेकिन पशु क्या करेंगे। बावड़ियों में सीढ़ियो की सुविधा बनाई गई ताकि पशु भी सीढ़ियों से उतरकर पानी पी सकें। कुछ बावड़ियों का निर्माण इस प्रकार किया गया कि पानी सीधे सूर्य के सम्पर्क में नहीं आता। इससे वाष्पीकरण की समस्या से भी निजात मिल गई। साथ ही बावड़ी पर स्नान कर रही महिलाओं के लिए भी यह सुविधाजन्य होता था। अलवर में तालवृक्ष में ऐसी बावड़ियाँ मिल जाती हैं। बावड़ियाँ संग्रहित सार्वजनिक जल का शानदार नमूना है। बारिश के पानी को सिंचित करने की यह उस समय की बहुत ही वैज्ञानिक विधि थी।
झालरा
झालरा किसी नदी या तालाब के पास आयताकार टैंक होता था जो धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए बनाया जाता था। इसके अलावा भी ये झालरा कई प्रकार से काम में आया करते थे। राजस्थान और गुजरात में इन मानव निर्मित टैंकों की बहुतायत है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनमें पेजयल का उपयोग हम नहीं करते। झालरा ऐसे ही कामों को अंजाम देने और पेयजल को बचाए रखने के लिए निर्मित किए जाते थे। जोधपुर शहर के आस-पास आठ शानदार झालरा आज भी आकर्षित करते हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो देश भर में हमारे समाज ने जल-संरक्षण करने और पेयजल को अन्य उपयोग के जल से अलग रखने का सुनियोजित प्रबन्ध किया था। इस प्रबन्ध में यह भी निश्चित किया गया था कि जल का दुरुपयोग नहीं हो पाए। इसलिए पानी मानव श्रम से ही निकालना होता था। कुछेक मामलों में पशु ऊर्जा का भी उपयोग किया जाता था। इस कारण केवल उपयोग भर पानी ही लिया जाता था। आज पानी की उपलब्धता घटी है परन्तु उसका दुरूपयोग काफी बढ़ा है। दिल्ली जैसे शहर में पेयजल का उपयोग गाड़ियाँ धोने के काम में धड़ल्ले से किया जाता है और यह काम समाज का पढ़ा-लिखा समझदार तबका करता है। लगता है कि आज के पढ़े-लिखे समाज को देश के पुराने अनपढ़ लेकिन जागरूक समाज से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।), ईमेल: raviroy@gmail.com