पहाड़ से पलायन का एक कारण है पानी

Submitted by Editorial Team on Mon, 11/23/2020 - 10:28
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‘धाद’ फरवरी 1992, देहरादून

 सूखते स्रोत,फोटोः needpix.com

रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून,
पानी गये न ऊबरे मोती, मानुष चून।

गंगा-यमुना के मायके उत्तराखंड हिमालय के लिए, इससे अधिक विडम्बना क्या हो सकती है कि यहाँ के अधिकांश लोग पानी का अभाव झेलते हैं। पहाड़ों की खूबसूरती लोगों को भले ही लुभाती है परन्तु पहाड़ की तस्वीर का दूसरा पहलू भी है।

पहाड़ों में छोटी-छोटी नहरें (जिनकी संख्या बहुत कम है) के अतिरिक्त पानी व उसकी ऊर्जा का उपयोग सही मायने में कोई नहीं कर पाया है। हमारे पूर्वजों की देन घराट एकमात्र उपलब्धि थी, जो आज प्राय: बन्दी की कगार पर हैं। पानी के लिए तरसने का मुख्य कारण यह है कि जल प्रबंधन की ठोस योजना हमारे पास नहीं है।

जंगलों का तिरस्कार दूसरा कारण है। जंगलों को हमने मात्र पेड़-पौधों के रूप में देखा और उसकी उपयोगिता केवल चूल्हे की लकड़ी के रूप में आंकी। इससे अधिक के उपयोग की समझ न हममें विकसित हो पाई और न प्रयास किया गया।

जल प्रबंधन के क्षेत्र में हमारी अज्ञानता अर्थात उदासीनता के कारण इस सच्चाई को भी नहीं नकारा जा सकता है कि पहाड़ों से लोग 'रोटी' के लिये ही नहीं अपितु 'पानी' के लिए भी पलायन कर रहे हैं। यह विडम्बना ही है कि उत्तराखंड के सैकड़ों गाँव आजादी के इतने दशक बीतने के बाद भी साल के सात-आठ महीने पानी के लिए  तरसते हैं। आज जंगलों के अनवरत कटान व दिनोंदिन बढ़ते प्रदूषण के दबाव के कारण प्रकृति के विकृत होते रूप से धूप-बरसात का सारा समीकरण ही उलट गया है। जिससे पहाड़ की औरतों को मीलों चढ़ाई-उतराई के पश्चात्‌ ही एक बर्तन पानी नसीब हो पाता है। इस प्रकार अपने परिवार व ढोर-डंगरों के लिए पानी ढोने में ही उसका आधा दिन निकल जाता है। गाँव की वह स्त्री हैण्डपम्प व नलके की सुविधा के लिए क्यों नहीं मैदानों की ओर पलायन करेगी? जब मर्द रोटी के लिए पहाड़ छोड़ सकता है तो औरत पानी के लिये क्यों नहीं ? 

पहाड़ में पानी नदियों के रूप में बह रहा है और झरनों के रूप में गिर रहा है। परन्तु हमारी विवशता है कि हम चुपचाप हता देख रहे हैं।  अधिक हुआ तो जाल या कांटा लगाकर मछलियाँ मार लीं। इस बहते पानी का भण्डारण कर सही उपयोग हम कर पाते तो आज पहाड़ की तस्वीर ही कुछ और होती। यह विचार करने योग्य है कि हमारे दादा-परदादा की पीढ़ी के लोग पानी के भण्डारण के प्रति गंभीर सोच रखते थे। उन्होंने पहाड़ों-जंगलों में जगह-जगह तालाब बनाए। जिन्हें खाल कहा जाता है। आज भी अनेक स्थानों पर इस तरह के तालाबों के अवशेष हैं। इन तालाबों में बरसात का पानी एकत्रित होता था जो साल में नौ-नौ महिने तक भरे रहते थे।  जंगल जाने पर इन्हीं तालाबों का पानी भेड़-बकरियों व पशुओं पीने के काम आता था। साथ ही तालाब के चारों ओर की भूमि नम रहने के कारण वहाँ पर पेड-पौंधों का जीवन भी सुरक्षित रहता था।

आज हमें जल भण्डारण की इस पुरानी तकनीक को और भी विकसित करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड में प्रत्येक स्कूल, कॉलेज व संस्थान पर अपने क्षेत्र में कम से कम एक तालाब खुदवाने व रख-रखाव की अनिवार्यता सुनिश्चित की जाये तो जल प्रबंधन की दिशा में एक क्रान्ति आ जाएगी। जल का स्रोत वन है और वनों का रखरखाव व बचाव की अत्यंत आवश्यकता है। पूरे उत्तराखण्डी समाज को सरकारी दृष्टिकोण से हटकर सोचने की आवश्यकता है। पानी को रोक सकने वाले जंगलों का विकास समय की मांग है। प्रकृति अपना रूप स्वयं संवारना जानती है किन्तु मनुष्य ही उसमें सबसे बड़ा बाधक है। जल प्रबंधन के नाम पर करोड़ों रुपये स्वाहा करने वाले सरकारी प्रतिष्ठान ही नहीं गैर सरकारी संगठन भी प्राय: आंकड़े प्रस्तुत करने में ही इति समझ लेते हैं। अत: स्वयंसेवी संस्थानों को ईमानदारी से प्रयास करना होगा।

‘उत्तराखंड के स्कूल कॉलेजों में ‘जल प्रबंधन व पर्यावरण’ जैसे विषय अनिवार्य किए जाएं। साथ ही प्रत्येक छात्र से उसके गांव या आसपास के जल प्रबंधन के बारे में जानकारी ली जाए और उसे उसमें सुधार के लिए प्रेरित किया जाए। इस दिशा में यह एक ठोस कदम होगा। कुछ वर्ष पूर्व कुमाऊं विश्वविद्यालय के डॉ अजय सिंह रावत द्वारा चिंता व्यक्त की थी की गई थी कि यदि पहाड़ों में जल प्रबंधन की ओर अभी भी समुचित ध्यान नहीं दे गया तो पलायन की गति में तीव्रता अवश्यंभावी है। रावत द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार जंगलों के विनाश के कारण ही मात्र गत 24 वर्षों में ही पानी के लगभग 44 फीसदी प्राकृतिक स्रोत या तो सूख गए हैं, अथवा सूखने के कगार पर हैं। 

अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जल प्रबंधन की उपेक्षा ही पहाड़ की मुख्य समस्या है और ‘पहाड़ का पानी, पहाड़ के जवानी, पहाड़ के काम नहीं आए’ की लोकोक्ति को बदलने की दिशा में ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है।

(स्रोतः  ‘धाद’ फरवरी 1992, देहरादून तथा ‘बारहमासा’ जुलाई-सितंबर 1998, देहरादून अंक से प्रकाशित)