पहली बारिश

Submitted by admin on Mon, 09/01/2008 - 09:23

 

 

महेश परिमलमहेश परिमलबारिश ने इस मौसम पर धरती का आँचल भिगोने की पहली तैयारी की। प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए मैं अपने परिवार के साथ अपने परिसर की छत पर था। बारिश की नन्हीं बूँदों ने पहले तो माटी को छुआ और पूरा वातावरण उसकी सोंधी महक से भर उठा। ऐसा लगा मानो इस महक को हमेशा-हमेशा के लिए अपनी साँसों में बसा लूँ। उसके बाद शुरू हुई रिमझिम-रिमझिम वर्षा। ऐसा लगा कि आज तो इस वर्षा और माटी के सोंधेपन ने हमें पागल ही कर दिया है। हम चारों खूब नहाए, भरपूर आनंद लिया, मौसम की पहली बारिश का।

मैंने अपनी खुली छत देखी। विशाल छत पर केवल हम चारों ही थे। पूरे पक्के मकानों का परिसर। लेकिन एक भी ऐसा नहीं, जो प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए अपने घर से बाहर निकला हो। बाद में भले ही कुछ बच्चे भीगने के लिए छत पर आ गए, लेकिन शेष सभी कूलर की हवा में अपने को कैद कर अपने अस्तित्व को छिपाए बैठे थे। क्या हो गया है इन्हें? आज तो प्रकृति ने हमें कितना अनुपम उपहार दिया है, हमें यह पता ही नहीं। कितने स्वार्थी हो गए हैं हम प्रकृति से दूर होकर। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने आप से ही दूर हो गए हैं?


पूरी गर्मी हम छत पर सोए, वहाँ था मच्छरों का आतंक। हमने उसका विकल्प ढूँढ़ा, बड़े-बड़े पत्थर हमने मच्छरदानी के चारों तरफ़ लगाकर पूरी रात तेज़ हवाओं का आनंद लिया। हवाएँ इतनी तेज़ होती कि कई बार पत्थर भी जवाब दे जाते, हम फिर मच्छरदानी ठीक करते और सो जाते। कभी हवाएँ खामोश होती, तब लगता कि अंदर चलकर कूलर की हवा ली जाए, पर इतना सोचते ही दबे पाँव हवाएँ फिर आती, और हमारे भीतर की तपन को ठंडा अहसास दिलाती। कभी तो हवा सचमुच ही नाराज़ हो जाती, तब हम आसमान के तारों के साथ बात करते, बादलों की लुकाछिपी देखते हुए, चाँद को टहलता देखते। यह सब करते-करते कब नींद आ जाती, हमें पता ही नहीं चलता।



ए.सी., कूलर और पंखों के सहारे हम गर्मी से मुक़ाबला करने निकले हैं। आज तो हालत यह हे कि यदि घर का एसी या कूलर खराब हो गया है, उसे बनवाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, चाहे इसके लिए दफ्तर से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े। शायद हम यह भूल गए हैं कि कूलरों और एसी की बढ़ती संख्या यही बताती है कि पेड़ों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। आज से पचास वर्ष क्यों, पच्चीस वर्ष पहले ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि तब इतनी क्रूर तो नहीं थी। उस समय गर्मी भी नहीं पड़ती थी और ठंडक देनेवाले इतने संसाधन भी नहीं थे। पेड़ों से बने जंगल आज फर्नीचर के रूप में ड्राइंग रूम में सज गए या ईँधन के रूप में काम आ गए। अब उसी ड्राइंग रूम में जंगल वॉलपेपर के रूप में चिपक गए या फिर कंप्यूटर की स्क्रीन में कैद गए। वे हमारी आँखों को भले लगते हैं। हम उन्हें निहार कर प्रकृति का आनंद लेते हैं।


कितना अजीब लगता है ना प्रकृति का इस तरह से हमारा मेहमान बनना? प्रकृति ने बरसों-बरस तक हमारी मेहमान नवाज़ी की, हमने मेहमान के रूप में क्या-क्या नहीं पाया। सुहानी सुबह-शाम, पक्षियों का कलरव, भौरों का गुंजन, हवाओं का बहना आदि न जाने कितने ही अनोखे उपहार हमारे सामने बिखरे पड़े हैं, लेकिन हम हैं कि उलझे हैं आधुनिक संसाधनों में। हम उनमें ढूँढ़ रहे हैं कंप्यूटर में या फिर ड्राइंग रूम में चिपके प्राकृतिक दृश्य में।


असल में हुआ यह है कि हमने प्रकृति को पहचानने की दृष्टि ही खो दी है। वह तो आज भी हमारे सामने फुदकती रहती है, लेकिन हमें उस ओर देखने की फुरसत ही नहीं है। हमने अपने भीतर ही ऐसा आवरण तैयार कर लिया है, जिसने हमारी दृष्टि ही संकुचित कर दी है। विरासत में यही दृष्टि हम अपने बच्चों को दे रहे हैं, तभी तो वे जब कभी आँगन में या गैलरी में लगे किसी गमले में उगे पौधों पर ओस की बूँद को ठिठका हुआ पाते हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है। वे अपने पालकों से पूछते हैं कि या क्या है? पालक भी इसका जवाब नहीं दे पाते। भला इससे भी बड़ी कोई विवशता होती होगी?


साभार – अभिव्यक्ति हिन्दी