परगना अस्कोट

Submitted by editorial on Sat, 02/16/2019 - 12:11
Source
पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक), 2010
अस्कोट वन्य जीव अभयारण्यअस्कोट वन्य जीव अभयारण्यऐतिहासिक साक्ष्यों से यह तथ्य सामने आता है कि अस्कोट राज्य की स्थापना सन 1238 ई. में हुई और यह 1623 ई. तक स्वतंत्र रूप में विद्यमान रहा। अपनी स्थिति एवं विशिष्टता के कारण यह कत्यूरी, चन्द, गोरखा व अंग्रेजी शासन के बाद स्वतंत्र भारत में जमींदारी उन्मूलन तक रहा।

अस्कोट परगना महा व उप हिमालयी पट्टी के मिलन पर बना एक विस्तृत भू-खण्ड है, जिसमें छिपला एवं घानधुरा जैसे सघन वनों से आवृत्त पर्वत मालायें, गोरी, काली, धौली नदियों की गहरी घाटियों के क्षेत्र और आकर्षक सेरे मानव बसाव के लिये उपयुक्त रहे। अस्कोट काली जल-ग्रहण क्षेत्र में पड़ता है। इसमें छिपला से उतरने वाली अनेक छोटी नदियाँ जैसे मदकनी, बरमगाड़, रौंतीसगाड़, चरमगाड़, चामीगाड़, गुर्जीगाड़ के ढालों में भी काश्त के लिये सीढ़ीदार उपजाऊ खेत और इन खेतों से लगे छोटे-छोटे बनैले गाँव आकर्षण का कारण बनते हैं। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से अस्कोट एक सम्पन्न परगना माना जा सकता है।

अभिलेखों में बंगाल, काबुल, कटोर, कश्मीर, देव प्रयाग, टिहरी गढ़वाल एवं बैजनाथ के पाल मुख्य हैं। विभिन्न स्थानों से पालों के अभिलेख उपलब्ध होने से पालों के साम्राज्य का सन्दर्भ सहज प्राप्त होता है। इस दृष्टि से अस्कोट राज्य के पाल वंश का सन्दर्भ उकु, देथला, विण (नेपाल), घुईसेरा (घुन्सेरा), बत्यूली, बचकोट, रावलखेत (मुवानी), भिसज (भेटा), सिंगाली एवं ऊँचाकोट से प्राप्त ताम्रपत्रों से मिलता है। इसके साथ ही अस्कोट राज्य के तिब्बत व नेपाल में फैले प्रभाव का भी पता चलता है। अस्कोट के पालों का प्रभुत्व 13वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक दिखता है। अंग्रेजी शासन काल में वे 154 गाँवों के मुआफीदार की हैसियत पा रहे थे।

अस्कोट के पाल वंश के पूर्वज बैजनाथ (कत्यूर घाटी) से आये थे। रजबारों की अपनी रागभाग के अनुसार दो तीर्थयात्री श्री शैल तथा मल्लिकार्जुन दक्षिणी भारत से कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिये अस्कोट मार्ग से गये। तिब्बत में ये यात्री डाकुओं द्वारा लूट लिये गये और कठिन परिस्थितियों के बीच वे कत्यूरी नरेश त्रिलोक पाल देव के पास पहुँचे। श्री शैल तथा मल्लिकार्जुन ने क्षेत्र की दयनीय स्थिति व सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी उन्हें दी और इस व्यवस्था को निष्कंटक करने के लिये एक युवराज की माँग की। राजा त्रिलोकपाल देव ने अपने सबसे छोटे पुत्र अभय देव को नीमनाथ, जोगेश्वर एवं भ्यूराज पाण्डे के साथ इस क्षेत्र की रक्षा के लिये भेजा।

अस्कोट राज्य का संस्थापक अभय देव को माना जाता है। एट्किंसन और बद्रीदत्त पाण्डे अस्कोट राज्य की स्थापना शाके 1201 सन 1279 ई. मानते हैं, किन्तु कुछ इतिहासकार साक्ष्यों के अभाव में अभयपाल को अस्कोट राज्य का वास्तविक संस्थापक नहीं स्वीकारते हैं। वे उकु के शिलालेख को ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करते हुए नागपाल को वास्तविक संस्थापक के रूप में देखते हैं। इस शिलालेख से स्पष्ट होता है कि इस राज्य की स्थापना शाके 1160 सन 1238 में ही हो गयी थी। उकु शिलालेख में त्रिविक्रम राजा नागपाल देव का वर्णन है। घुन्सेरा ताम्रपत्र में राजा भारथी पाल ने नागपाल को अपना पूर्ववर्ती राजा माना है। इस तरह यह स्पष्ट है कि नागपाल ने ही अस्सी खस राजाओं के प्रभाव को हटाकर अस्कोट राज्य की स्थापना की। शायद इसीलिये यह क्षेत्र अस्सी कोटों से मिलकर अस्कोट कहलाता रहा।

पाल राजाओं के अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में निर्भय पाल का बत्यूली अभिलेख शाके 1275 सन 1353 ई., भारथी पाल का घुन्सेरा ताम्र पत्र शाके 1316 सन 1394, तिलकपाल का बचकोट ताम्रपत्र शाके 1343 सन 1421, रजबार कल्याण पाल का भीषज भेटा ताम्रपत्र शाके 1525 सन 1603, रजबार महेन्द्र पाल का क्रमशः सिंगाली ताम्रपत्र शाके 1544 सन 1622 और ऊँचाकोट ताम्रपत्र शाके 1543 सन 1623 ज्ञात हैं।

इन अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि 375 वर्षों तक अस्कोट स्वतंत्र राज्य के रूप में विद्यमान था। स्वतंत्र शासक ही भूमिदान सम्बन्धी ताम्रपत्र दिया करते थे। इन ताम्रपत्रों से इस राज्य की प्रारम्भिक राजधानी उकु के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। इसी ताम्रपत्र के अनुसार राजा भारथी पाल ने घुन्सेरा गाँव के भतभाट को अपने पूर्ववर्ती राजाओं के समान निर्वहन करने के अधिकार निर्गत किये थे। इन ताम्रपत्रों से राजाओं की उपाधियों का भी ज्ञान होता है। जैसे नागपाल ने अस्कोट राज्य की स्थापना के बाद ‘त्रि-विक्रम’ की उपाधि धारण की थी। निर्भय पाल ने ‘रायताराम्रगांग परम महीश्वर राजाधिराज महाराज’ की उपाधि ग्रहण की थी। यह क्रम बाद में रजबार के रूप में जाना जाने लगा था, क्योंकि बाद के शासकों जैसे भारथीपाल, तिलकपाल, कल्याणपाल, महेन्द्रपाल के नाम के आगे रजवार उपाधि लिखी जाने लगी थी किन्तु महेन्द्रपाल ने सिंगाली ताम्रपत्र में अपनी उपाधि रजबार के साथ ‘राजाधिराज महाराज’ भी लिखी थी।

अस्कोट के पाल रजबार सूर्यवंशीय एवं सौनव गोत्री माने जाते हैं। मूल कत्यूरी साम्राज्य 14वीं सदी में आन्तरिक व बाह्य परिस्थितियों के कारण विघटित हो चुका था। कत्यूर राज के अन्तर्गत विभिन्न छोटे राज्यों ने अपनी स्वतंत्र ठकुराइयाँ स्थापित कर ली थीं। सम्भवतः तभी इस स्वतंत्र राज्य के शासकों ने अपने को श्रेष्ठ मानते हुए रजबार घोषित कर दिया होगा। इस तरह का उदाहरण उकु शिलालेख में भी मिलता है कि राजा नाग ने ‘देव’ से ‘पाल’ पदवी धारण कर ली थी। सहण पाल के बोध गया लेख से यह ज्ञात होता है कि 13वीं सदी में पाल कोई जातीय शब्द नहीं था। सहण पाल ने अपने पिता का नाम चाटब्रह्म तथा पितामह का नाम ऋषिब्रह्म कहा है।

ताम्रपत्रों के अध्ययन से पालों की नयी वंशावली का सृजन सन 1238 से सन 1613 ई. तक होता है। अस्कोट की पाल वंशावली में 108 पीढ़ी तक के नाम सुरक्षित हैं। नामों के क्रम में भूल-चूक हो सकती है लेकिन पीढ़ी की संख्या में नहीं।

अस्कोट के शासक भी मंत्री का पद ब्राह्मणों के लिये सुरक्षित रखते थे। प्रारम्भिक समय में ओझा मंत्री और राजगुरु के पद पर थे। सन 1588 ई. में राजा रायपाल श्री गोपी ओझा द्वारा मारे गये। ओझा जाति के इस कृत्य के बाद राजगुरु का पद छीनकर वास्थी (अवस्थी) ब्राह्मणों को दे दिया गया। बड़े पुत्र को राजगद्दी मिलती थी। युवराज को ‘लला’ तथा विरादरों को ‘गुसाईं’ कहते थे। जगराज पाल का यह मानना है कि अस्कोट राज्य में पहले प्रतिष्ठित ब्राह्मण भट्ट थे, जिन्हें कत्यूरी युग में परम भट्टारक भी कहा जाता था। विविध ब्राह्मण पाँचवी-छठी शताब्दी के बाद ही उत्तराखण्ड में आये और अपने को उच्च श्रेणी का घोषित कर राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर आ गये। अनुश्रुतियों के आधार पर अस्कोट परगने में पटवारी एवं तहसीलदार का पद ब्राह्मण खानदान वालों को मिलता रहा। राजा रूप चन्द के समय कुँवर गुरु गुसाईं को दारमा व जोहार का बन्दोबस्ती ऑफीसर व शासक बनाया गया था।

संसाधन

रजबारों के पास आय के साधनों में काश्त की गई भूमि, जंगल, खान एवं खनिज थे। विभिन्न ताम्रपत्रों से लगान एवं करों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। ‘छत्तीस रकम बत्तीस कलम’ वाली प्रथा कायम थी। ताम्रपत्रों से घोड़ालो, कुकरालों, (घोड़ों एवं कुत्तों पर कर), चराई कर, भराई कर, दसौत एवं विसौत के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। बेलवासो, कल्लो आदि करों को भी कड़ाई से वसूल किया जाता था। राज्य में प्रत्येक ब्यायी गाय-भैंस पर भी कर लिया जाता था। गोरखा युग में ‘रसून’ को घी कर कहा जाने लगा था। ‘ज्यूलिया’ (झूलिया) नदी पार करते कमय पुलों पर लिया जाने वाला कर था। ‘बैकर’ राजदरबार में अन्न के रूप में ली जाने वाली भेंट, राजा के दर्शन करने पर राजा को दी जाने वाली राशि या नजराना, ‘सिरती’ राजा को दी जाने वाली नकद राशि थी, जिसे कालान्तर में ‘रकम’ भी कहा जाता था। सेना के लिये जाने वाले कर को ‘कटक’ या स्यूक कहा जाता था। भूमिदान प्राप्तकर्ता को ‘डणै’ एवं पालकी के साथ अन्य करों से भी मुक्त रखा जाता था।

सन 1588 ई. में अस्कोट राज्य की स्थिति बिगड़ने से इसका सीधा प्रशासन राजा रूप चन्द के पास आ गया था। रूप चन्द ने ही 300 रुपये वार्षिक कर पर कुँवर महेन्द्र पाल को अपना करद राजा बनाया। गोरखों ने मालगुजारी बढ़ाकर 2000 वार्षिक कर दी थी। अंग्रेजी शासनकाल में सन 1815 ई. में गार्डनर ने कुमाऊँ के साथ अस्कोट का पहला बन्दोबस्त किया था। यह बन्दोबस्त गोरखा अधिकारियों द्वारा गत वर्ष वसूल की गई वार्षिक वसूली पर आधारित था। नई बात यह थी कि वसूली गोरखाली सिक्कों एवं जिन्सों के रूप में न होकर फरूखाबादी रुपयों में होने लगी थी। सन 1817 में दूसरा, 1818 में तीसरा, 1820 में चौथा तथा 1823 में पाँचवा बन्दोबस्त ट्रेल ने किया। इसे अस्सी साला बन्दोबस्त के नाम से जाना जाता है। सन 1829 में छठा, 1832 में सातवाँ, 1833-34 में आठवाँ भूमि बन्दोबस्त हुआ था। नवाँ भूमि बन्दोबस्त बैटन द्वारा किया गया था। 10वाँ बैकेट द्वारा 1863 में किया, जो 1873 तक चला। इसे तीस साला बन्दोबस्त भी कहा गया। डोरी पैमाइश के आधार पर सर्वे की गई, फाट खाता, रकबा, मुन्तखिव तैयार किया गया। गाँव की दर उपजाऊ, दोयम आदि को जमीन की किश्त माना गया।

11वाँ बन्दोबस्त मि.गूँज ने करवाया। सन 1940-41 में परगने का 12वाँ बन्दोबस्त हुआ। गोबिन्दराम काला सहायक बन्दोबस्त अधिकारी थे। उन्होंने परगने में प्लेन टेबुल सर्वे करायी। नये बन्दोबस्त के फलस्वरूप परगने की मालगुजारी 7596 रुपये आयी। किन्तु रजबार अस्कोट पर कुल रकम 5000 रुपये सालाना 40 वर्ष के लिये पिछले बन्दोबस्त में तय की गई थी। इस बन्दोबस्त की यह विशेषता थी कि इसे मात्र अस्कोट परगने में ही करवाया गया था। संख्या के हिसाब से अगला बन्दोबस्त 1964-65 में करवाया गया।

अस्कोट रजबार अपने खायकरों एवं सिरतानों से बेगार भी लेते थे। यह बेगार गोरखा युग में बहुत अधिक चलन में आ गयी थी। अंग्रेजी शासन के आने पर अस्कोट परगने की प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव आया और शासन पर अंग्रेजों का अंकुश बढ़ गया। इस पर भी अस्कोट के राजनैतिक महत्व को स्वीकारते हुए इसे विशेष स्थान मिलता रहा। अंग्रेजों से प्राप्त शक्तियों का दुरुपयोग रजबारों द्वारा अनेक अवसरों पर किया गया और यों भी इस क्षेत्र की गरीब जनता पर रजबार का आतंक, शोषण, उत्पीड़न किसी से छिपा नहीं है। शासन की दोहरी प्रणाली के कारण ही इस इलाके के उत्पीड़ित किसानों ने सन 1936-37 ई. में रजबार के विरुद्ध जन आन्दोलन खड़ा किया और तत्कालीन कांग्रेसी नेतृत्व ने इस आन्दोलन को महत्व दिया और तत्कालीन रजबार को परिस्थितियों में सुधार के लिये निर्देशित व बाध्य किया।

पड़ोस तथा प्रजा

पाल रजबार के अपने पड़ोसी राज्यों से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहते थे। उनके निकटस्थ परगने दारमा, जोहार तथा तिब्बत, नेपाल, बजांग, मणिकोट, सोर तथा सीरा आदि राज्य थे। शाके 1275 में सीरा के मल्लों का प्रभाव निर्भयपाल ने कम किया था तथा बत्यूली ग्राम के रत्तू जोशी को भूमि दान में उपरोक्त गाँव देकर अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया था। समय-समय पर सीमाओं का विस्तार भी इनके द्वारा किया गया। सोर परगने से लगे गाँव घुन्सेरा में भी इन्होंने अपना अधिकार कर लिया था। कभी रजबार उचित चिकित्सा के कारण भी भू-दान किया करते थे, जैसे शाके 1525 सन 1603 में रजबार कल्याण पाल और चम्पावत के राजा लक्ष्मण चन्द के सामूहिक रूप से भिषज ग्राम के महानन्द वैद्य को उचित चिकित्सा के फलस्वरूप भूमि दान किया था।

अस्कोट का समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र वर्गों में विभाजित था। यही जातियाँ व्यापार भी करती थीं। वैश्य जाति अलग से नहीं थी। प्राचीन परम्परागत नियमों के अनुसार पाल वंश के सबसे बड़े पुत्र को राजगद्दी प्राप्त होती थी। राजगद्दी के लिये कई बार राज्य में झगड़े की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती थी। रजबार के अन्य भाइयों की सन्तानें रजबार से प्राप्त गाँवों में बस जाती थीं और यही गाँव उनकी आजीविका के साधन होते थे। यह क्षेत्र शौका तथा राजी समुदायों का निवास स्थल था। राजी व छिपला के जंगलों में निवास करते थे। यहाँ बौद्ध, इस्लाम तथा सिक्ख धर्मावलम्बी गिने-चुने थे। सन 1850 ई. में अजिमुल्ला शेख काशीपुर से व्यापार के लिये अस्कोट आये थे। इनकी तिजारत अस्कोट के साथ सीमान्त तक थी। सन 1886 ई. में घासी शेख नाम के एक-दूसरे व्यापारी यहाँ आये। वे हकीम भी थे और जानवरों की भी औषधि किया करते थे। पुष्कर पाल के समय में ही इन्होंने अस्कोट और जौलजीवी में मस्जिद बनाने के लिये जगह ली थी। मुस्लिम व्यापारी वर्ष में एक बार रजबार को खाना व भेंट दिया करते थे।

स्वामी प्रणवानन्द के अनुसार इन तिजारती मुस्लिमों ने यहाँ स्थानीय हरिजन स्त्रियों से विवाह किया, जिससे यह स्त्रियाँ स्वतः ही इस्लाम धर्म में आ गईं। सन 1870-71 में अस्कोट में आने वाली पहली गौरांग महिला डॉ. ब्रूमन थी। इसके साथ डॉ. हल्कू विल्सन भी आया था। सन 1874 में मि. ग्रे इस क्षेत्र में आये थे। बाद के वर्षों में ई.वी. स्टाईनर और इनकी पत्नी इली शिवा स्टाईनर भी यहाँ पहुँची। इन्डो तिब्बतन फ्रंटियर इविंजिकल एलाइन्स मिशन के नाम से इन्होंने काम किया। यद्यपि जितने भी मिशन यहाँ आये, उनका उद्देश्य धर्म प्रचार ही नहीं, तिब्बत व नेपाल की राजनैतिक गतिविधियों पर भी दृष्टि रखना था। इन मिशनरीज ने चिकित्सा सेवा का काम धर्म समझकर किया। ईसाई धर्म का पाल वंश तथा यहाँ के लोगों पर हल्का प्रभाव पड़ा। भूपेन्द्र सिंह पाल ने ईसाई धर्म ग्रहण किया था। भोट प्रदेश के मदन सिंह सिर्ताल ने भी ईसाई धर्म अपनाया था, जो धारचूला में स्थित चर्च के पादरी भी रहे। रजबार टिकेन्द्र के भाई चित्तवन पाल ने डच महिला से विवाह किया।

यात्रापथ एवं व्यापार

कैलास मानसरोवर का परम्परागत यात्रापथ इसी परगने से होकर जाता था किन्तु अस्कोट में यात्रा पथों व सम्पर्क मार्गों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। रजबार कैलास मानसरोवर यात्रा में जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिये अनेक सुविधायें दिया करते थे लेकिन इस क्षेत्र में पड़ने वाले कठिन मार्गों में पड़ाव स्थलों पर किसी प्रकार की आवास सुविधा नहीं दी गई थी। निष्कंटक यात्रा पथों का निर्माण न किया जाना रजबारों की अपने क्षेत्र व रियाया के प्रति तटस्थता को उजागर करता है। उनके लिये आवश्यक बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध कराने की कोई सोच इनके पास न थी। इन्हें तो सीधे-सीधे उन सेवाओं की जरूरत थी, जो इनके रजवाड़े की आय को बढ़ाते थे।

अस्कोट का क्षेत्र वनों, खनिज एवं खानों के लिये प्रसिद्ध रहा है। तांबे की खानों के होने की जानकारी इस क्षेत्र के लोगों को थी। द्वालीसेरा गाँव के पारकी जाति के लोग बालू से सोना शोधन की प्रक्रिया जानते थे। यद्यपि यह सोना शुद्धता की दृष्टि से उत्तम नहीं माना जाता था, फिर भी रसकपूर से इसकी शुद्धि के कारण इसे 16 आने की जगह 12 आने के मूल्य पर खरीदा जाता था। रजबार इस पर 5वाँ हिस्सा कर वसूल करता था। इस इलाके में हाथ से निर्मित वस्त्र, तिब्बती ऊन से बनने वाले थुलमे, चुटके, दन, पशमीने, कालीन आदि का निर्माण शौका प्रवासियों के द्वारा किया जाता था और इनका विपणन ये शौका व्यापारी दूर-दूर तक गाँवों तथा जौलजीवी जैसे मेलों में भी किया करते थे। इन्हीं शौका व्यापारियों द्वारा अस्कोट के सुदूर गाँवों में नमक की तिजारत की जाती और इसके बदले अनाज एकत्र किया जाता, जिसे ये तिब्बत की मण्डियों तक पहुँचाते। राजियों द्वारा इस क्षेत्र में लकड़ी के बरतन, ठेकी, माने, बिण्डे, मथनी, हल आदि बनाये जाते थे। अस्कोट क्षेत्र में रिंगाल की चटाइयाँ, मोस्टे, पुतके, डोके, डालियाँ भी छिटपुट रूप से बनायी जातीं या इन आवश्यक सामानों को यहाँ के किसान के डोटी (नेपाल) के लोगों से अदल-बदलकर प्राप्त कर लेते थे।

लोक देवता तथा संस्कृति

अस्कोट एवं नेपाल दोनों में मल्लिकार्जुन महादेव की पूजा परम्परागत रूप से की जाती थी। रजबार मल्लिकार्जुन महादेव को अपना इष्टदेव मानते थे। अकु, देथला और नेपाल में भुवनेश्वरी देवी को अपनी कुल देवी मानने की परम्परा विद्यमान थी। अस्कोट के पाल कनार देवी को भी अपनी कुलदेवी मानते थे। साह एवं पोखरिया जाति के लोग हुष्कर को अपना इष्ट मानते हैं। गर्खा, डांगटी या अन्य स्थानों पर पोखरिया जाति के लोग औंतलेख में जात ले जाकर पूजा-अर्चना करते हैं। इस परगने में स्त्रियों का विशेष त्यौहार गमरा था। नाथ पन्थ के प्रवर्तकों के रूप में पूजित मलयनाथ, गंगनाथ, हरू, सैम, जगन्नाथ, छुरमल आदि स्थानीय देवताओं की उपासना की जाती थी। कुछ विशेष तथ्यों को लेकर रजबारों का दृष्टिकोण सहिष्णु था। होली, दीपावली तथा रक्षाबन्धन आदि उत्सव देवल दरबार में विशेष रूप से मनाये जाते थे। खान-पान, रीति-रिवाज एवं धार्मिक तथा सामाजिक परम्पराओं को रजबार विशेष मान्यता देते थे। जनेऊ संस्कार के बाद पुत्र अपनी माँ और विवाहित पुरुष अपनी पत्नी के हाथ का भोजन नहीं करते थे। खान-पान के नियम इतने कड़े थे कि तिब्बत यात्रा में खड़क सिंह पाल, जो तिब्बत में पॉलिटिकल एजेन्ट थे, के लिये रसोइया लकड़ी को धोकर भोजन बनाता था।

अस्कोट परगने के विभिन्न स्वरूपों के साथ की सांस्कृतिक छटा भी वर्णनीय है। विभिन्न प्रकार के लोक वाद्य यंत्रों द्वारा लोक नृत्य, छोलिया, हिरण चित्तल, जागर, हिल जात्रा, झोड़े, चाँचरी, भगनौले गाकर अपना मनोरंजन किया करते थे। हाट एवं मेलों में भी यहाँ की सांस्कृतिक छटा देखने को मिलती है। छिपलाकेदार, कनार एवं हुस्कर की जात यात्रा धार्मिक एवं सांस्कृतिक मानी जाती है। जौलजीवी मेला आज भी इस परगने का प्रमुख मेला है। सन 1970 तक यह मेला उत्तर भारत का प्रमुख मेला था जहाँ सेंधा नमक, ऊन, स्वर्ण चूर्ण, शहद, सुहागा, सैमूर की खालें तथा तिब्बती घोड़े, चँवर गाय की पूँछ, सोने-चाँदी का लाखों रुपये का व्यापार होता था। धीरे-धीरे यह सिमटकर मात्र सरकारी मेला बनकर रह गया है, जिसमें आज से 50 वर्ष पूर्व की रौनक देखने को नहीं मिलती है।

प्राचीन धरोहर को परम्परागत रूप से यहाँ सुरक्षित रखा गया है। देवल दरबार में खण्डित सूर्य प्रतिमा, शेषशायी नारायण की प्रतिमा, जिसे विरणेश्वर भी कहा जाता है तथा दशावतार फलकों में विष्णु के 10 अवतारों से चिन्हित मूर्तियाँ भी देवल दरबार में हैं। चतुर्भुज, नारायण मूर्ति के शीर्ष फलक में ध्यानावस्थित गंगा तथा चतुर्मुखी शिवलिंग के साथ उकु में हनुमान की नमस्कार एवं उत्कृष्टासन में बैठी मूर्ति भी महत्त्वपूर्ण है। पगड़ीधारी यक्ष की मूर्ति, उदीच्य वेषधारी सूर्यमूर्ति तथा 40 पंक्तियों का एक शिलालेख भी अकु के मन्दिर की विशेषता है। बलुवाकोट में रखी देवी की प्रतिमा भी काफी प्राचीन मालूम पड़ती है। अस्कोट परगने में अनेक गाँवों में हरगौरी तथा गणेश प्रतिमाओं तथा अस्कोट के पुराने महल में दरवाजे एवं खिड़कियों के पल्ले में गणेश प्रतिमा का अंकन अद्वितीय है।

सन्दर्भ : इस लेख में मैंने अपने शोध प्रबन्ध के अलावा एटकिंसन, बद्रीदत्त पाण्डे, प्रणवानन्द के ग्रन्थों, अस्कोट सेटलमेंट रिपोर्ट, पहाड़ के अंकों तथा अभिलेखागार की सामग्री का उपयोग किया है। साथ ही, श्री गजराज पाल, श्री राजेन्द्र सिंह पाल, मियाँ हामिद से पत्राचार और भेंटवार्ता द्वारा प्राप्त सामग्री से भी सहायता ली है।


TAGS

askot in hindi, askote in hindi, askot pithoragarh in hindi, askot uttarakhand in hindi, uttarakhand in hindi, askot history in hindi, uttarakhand history in hindi, pithoragarh in hindi, askot culture in hindi