अंधाधुंध जल विद्युत परियोजना निर्माण से बिगड़े घाटी के पर्यावरण के चलते यहाँ हुई बादल फटने की घटनाओं के चलते पिछले कुछ ही सालों में जहाँ अरबों की सम्पत्ति प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ चुकी है वहीं सैकड़ों लोगों की बलि भी इसमें चढ़ चुकी है। 1992 से लेकर अब तक बादल फटने के दौर में 310 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गँवाई है। जबकी अरबों की सम्पत्ति पर पानी फिर गया है। घाटी में बादल फटने की घटनाओं के आँकड़ों पर नजर दौड़ाए तो सोलंगनाला से बजौरा तक लगभग 25 सौ करोड़ की सम्पत्ति पानी में बह चुकी है।
प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये देश-विदेश मेें विख्यात हिमाचल प्रदेश का कुल्लू जिला भी उत्तराखण्ड की तर्ज पर होने वाली तबाही के बहुत करीब है, यहाँ कभी भी बड़ी तबाही हो सकती है। जिसके लिये कुल्लू जिला के विभिन्न इलाकों में तबाही का सामान तैयार हो चुका है।विकास के नाम पर कुल्लू जिला के पहाड़ों को जल विद्युत परियोजनाओं के बहाने पूरी तरह से छलनी कर दिया गया है, लाखों पेड़ पौधों को इन परियोजनाओं के लिये बलि चढ़ाया गया है। कुल्लू जिला में बरसात के मौसम में तबाही मचाने के लिये यह सब काफी है।
परियोजनाओं के निर्माण से निकला मलबा जहाँ-तहाँ नदी नालों के किनारों पर डम्प किया गया। जो बरसात में लोगों की मौत का सामान बनता आ रहा है। जबकि दर्जनों गाँव अब तक इन परियोजनाओं के निर्माण के कारण विस्थापित हो चुके हैं और लोग अपनी ज़मीन, घर सब कुछ गँवा चुके हैं।
जबकि परियोजनाओं के निर्माण के कारण बादल फटने की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी होने से अभी तक तीन सौ से अधिक लोग अपनी जान गँवा चुके हैं जबकि करीब 50 लोगों का आज तक कोई अता पता नहीं चल पाया है।
पर्यावरण प्रेमियों और वैज्ञानिकों की माने तो परियोजनाओं के निर्माण और उसके लिये काटे जाने वाले पेड़ पौधों के अंधाधुंध कटान के कारण ही इस तरह की स्थितियाँ बन रही है जो आने वाले समय के लिये काफी खतरनाक साबित हो सकती हैं और इसी के कारण बादल फटने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।
लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि उसके बावजूद भी जिला में और ज्यादा परियोजनाएँ स्थापित करने पर जोर दिया जा रहा है। अब तक जिला की सैंज घाटी में एनएचपीसी की पार्वती परियोजना चरण दो लगभग तैयार होने वाली है जबकि चरण तीन पूरी तरह से बनकर तैयार हो चुकी है।
इसके अलावा सैंज घाटी में ही एक सौ मेगावाट की सैंज जल विद्युत परियोजना का निर्माण कार्य भी जोरों पर है। इन परियोजनाओं के निर्माण में जहाँ दर्जन भर गाँव पूरी तरह से उजड़ गए तो वहीं इस क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएँ भी बढ़ने लगी हैं कई स्थानों पर बादल फटने की घटनाएँ लोगों की जानें ले गई है।
इसके अलावा मणिकर्ण घाटी में मलाण-2 एवरेस्ट पावर और मलाणा-1 पावर कारपोरेशन दो परियोजनाएँ स्थापित की गई है इनके अलावा आधा दर्जन से ज्यादा छोटी परियोजनाएँ कुछ तैयार हो चुकी है और कुछ तैयार होने वाली हैं।
इन परियोजनाओं के निर्माण ने भी जंगलों में तबाही मचाई है। जबकि मनाली के प्रीणी क्षेत्र में एडी हाइड्रो पावर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये भी जंगलों का कटान बड़े स्तर पर हुआ है। इसके अलावा बड्राग्रां नाला में केके हाइड्रो पावर, कंचनजंगा, लगवैली में डीएसएल, सुमन हाइड्रो प्रोजेक्टों के निर्माण में भी घाटी में खूब तबाही मचाई है।
इसके साथ ही आनी और निरमंड आदि क्षेत्रों में भी परियोजनाएँ स्थापित करने को जोर दिया जा रहा है। जबकि इसके अलावा भी घाटी में और अधिक परियोजना निर्माण के लिये स्वीकृति दी जा रही है। जिसे घाटी के शुभचिन्तक व पर्यावरणविद खतरनाक बता रहे हैं।
जीबी पंत संस्थान मौहल के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. जीसी कुनियाल, हिमालय नीति अभियान के राष्ट्रीय संयोजक गुमान सिंह की माने तो घाटी में परियोजनाओं के निर्माण में काटे जाने वाले अंधाधुंध पेड़ पौधों और मलबे की गलत डम्पिग के कारण बादल फटने की घटनाएँ सामने आती हैं।
इससे पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुँच रहा है और यह मानव जीवन के लिये घातक सिद्ध हो रहा है। पर्यावरणविद गुमान सिंह का कहना है कि कुल्लू घाटी में अत्यधिक परियोजनाओं के निर्माण से यहाँ के पहाड़ भी कमजोर हो गए हैं जो कभी भी उत्तराखण्ड की तरह तबाही ला सकते हैं।
बादल फटने की घटनाओं में 310 ने गँवाई जान
अंधाधुंध जल विद्युत परियोजना निर्माण से बिगड़े घाटी के पर्यावरण के चलते यहाँ हुई बादल फटने की घटनाओं के चलते पिछले कुछ ही सालों में जहाँ अरबों की सम्पत्ति प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ चुकी है वहीं सैकड़ों लोगों की बलि भी इसमें चढ़ चुकी है।
1992 से लेकर अब तक बादल फटने के दौर में 310 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गँवाई है। जबकी अरबों की सम्पत्ति पर पानी फिर गया है। घाटी में बादल फटने की घटनाओं के आँकड़ों पर नजर दौड़ाए तो सोलंगनाला से बजौरा तक लगभग 25 सौ करोड़ की सम्पत्ति पानी में बह चुकी है।
1992 से शुरू हुआ था बादल फटने का सिलसिला
जिला में बादल फटने का सिलसिला 1992 से शुरू हुआ जो आज तक लगातार जारी है। मणिकर्ण घाटी में शाट नाला में 21 अगस्त, 1992 को करीब एक करोड़ की सम्पत्ति बादल फटने की घटना में भेंट चढ़ गई और 27 लोग अपनी जान गँवा बैठे।
6 जुलाई 2003 को ही गड़सा घाटी के झूणी में अब तक का सबसे बड़ा हादसा हुआ और इसमें बादल फटने से 150 लोग मारे गए वहीं सौ करोड़ की सम्पत्ति जलमग्न हो गई थी। 7 अगस्त 2003 में सोलंगनाला के कंगनीनाला में बादल फटने की घटना में 40 लोगों की मृत्यु हुई और 5 करोड़ की सम्पत्ति नष्ट हुई इसके बाद यह सिलसिला यहीं नहीं थमा।
24 जुलाई 2003 को मनाली के बाहंग क्षेत्र में बादल फटा और लाखों की सम्पत्ति नष्ट हुई। राहनीनाला में 15 लोगों ने अपनी जान गँवाई। इसी तरह लुगड़ भट्टी में 31 लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2004 की बात करें तो 1 अगस्त को कोठी के गुलाबा में भी बादल फटने की घटना हुई थी।
31 सितम्बर व 1 अगस्त 2008 में ब्रो क्षेत्र में लगातार बादल फटने की घटना घटी। इस तबाही में 9 लोगों ने अपनी जान गँवाई और 80 करोड़ रुपए की सम्पत्ति जलमग्न हो गई। इस घटना में 30 लोग पानी के बहाव में बह गए जिनका आज तक कोई नामोनिशान व पता नहीं मिल सका। मनाली के रोहतांग में आठ लोगों को अपनी जिन्दगी से हाथ धोना पड़ा।
इसके अलावा कुल्लू घाटी में बादल फटने का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। हालांकि पर्यावरणविद इस मसले पर काफी गम्भीर हैं और पहाड़ों में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को स्थापित करने के बजाय छोटी परियोजनाओं को तरजीह देने के लिये सरकार से माँग करते आ रहे हैं लेकिन सरकार है कि वह इस मसले पर कतई गम्भीर नहीं और बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी जा रही है। जो पहाड़ों को लगातार खोखला कर रहे हैं और यह सब उत्तराखण्ड जैसी तबाही को न्यौता है।