सहभागी लोकतंत्र के विस्तार, विकास नियोजन में जन भागीदारी, विकास नीचे तक पहुँचने तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण पहल के तौर पर देखा जा रहा था। आज दो दशक बाद ये स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक इकाइयाँ ऊपर की सरकारों की योजनाओं के निहित कार्यों के निष्पादन की व्यवस्था बनकर रह गई हैं। इसीलिये स्थानीय स्वशासन की निकाय, पंचायती राज तथा विकेन्द्रीकरण पर फिर से आम जनता में चर्चा किये जाने की जरूरत हो गई है। हिमाचल प्रदेश में अभी पंचायत व शहरी निकायों के चुनाव 2015-16 होने जा रहे हैं। इन चुनावों में हम किन-किन मुद्दों को अपने प्रतिनिधि चुनने के लिये सामने रखें, इसे लेकर हिमालय नीति अभियान प्रदेश व्यापी अभियान चलाकर आप तक इस बहस को ले जा रहा है।
नई पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद पिछले 20 वर्षों के अनुभव और परिणामों को देखते हुए आज हमें इस व्यवस्था पर पुनर्विचार तथा चर्चा करनी चाहिए। हमारे देश में पंचायत की व्यवस्था सदियों पुरानी है। अंग्रेजी राज में 1885 में पहली बार स्थानीय निकाय अधिनियम लागू हुआ। इसके पीछे अंग्रेजी राज का मकसद भारत में निचले स्तर पर शासन की पकड़ को सुदृढ़ करना था।
आजादी के आन्दोलन के दौर में महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज का नारा दिया और एक स्वशासी तथा स्वावलम्बी गाँवों की कल्पना की। गाँधी की कल्पना का ग्राम स्वराज तो स्थापित नहीं हो सका परन्तु 1992 में 73वें संविधान संशोधन ने पंचायत को स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक इकाई का दर्जा दिया।
जिसे अपनी विकास योजना निर्माण तथा स्थानीय संसाधनों के उपभोग, प्रबन्ध व नियंत्रण पर आधारित कुछ सीमित अधिकार दिये। इन्हें सहभागी लोकतंत्र के विस्तार, विकास नियोजन में जन भागीदारी, विकास नीचे तक पहुँचने तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण पहल के तौर पर देखा जा रहा था।
आज दो दशक बाद ये स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक इकाइयाँ ऊपर की सरकारों की योजनाओं के निहित कार्यों के निष्पादन की व्यवस्था बनकर रह गई हैं। इसीलिये स्थानीय स्वशासन की निकाय, पंचायती राज तथा विकेन्द्रीकरण पर फिर से आम जनता में चर्चा किये जाने की जरूरत हो गई है।
73वें संविधान संशोधन का प्रभाव दूसरे क़ानूनों पर भी पड़ा है, इसलिये इस चर्चा पत्र में उन सभी सम्भावनाओं पर भी बहस की गई है।
हिमाचल प्रदेश में 73वाँ संविधान संशोधन लागू होने के बाद यह पाँचवाँ चुनाव होगा। भारतीय लोकतंत्र में 73वाँ संविधान संशोधन (धारा 243) एक महत्त्वपूर्ण जनोन्मुखी पहल थी। इस बदलाव ने स्थानीय स्वशासन को वैधानिक दर्जा दिया और हर स्तर की पंचायतों को सरकार की मान्यता दी।
ग्रामसभा को अपने गाँवों की आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय की योजना बनाने का अधिकार दिया, जिसे ऊपर की पंचायतें लागू करेंगी। इसी विकास योजना के अनुरूप ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद को अपने स्तर की विकास योजना बनाने का प्रावधान किया गया।
जिलास्तर पर जिला योजना समिति का गठन किया गया, जिस का कार्य ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के नीचे से आई आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय की योजना को संयोजित करके लागू करवाना माना गया।
मंशा व्यक्त की गई कि राज्य सरकारें पंचायतों को विकास नियोजन, प्रशासनिक तथा न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करवाए और साथ में निर्धारित कार्य, संसाधन तथा कार्यकर्ता (कर्मचारी) (Function, Fund and Functionary) भी उपलब्ध करवाए, जिससे पंचायत स्थानीय स्वशासन की सशक्त इकाई के रूप में कार्य कर सके।
विकास कार्यों के लिये संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर 29 कार्य पंचायतों को हस्तान्तरित करने का अधिकार राज्य की विधानसभा को दिया गया तथा न्याय करने के अधिकार भी प्रदान किये गए। राज्य वित्तायोग का गठन किया गया। राज्य सरकार को अपने समेकित (consolidated) फ़ंड से पंचायतों को आर्थिक संसाधन प्रदान करवाने के लिये अनुदान (Grant-In-Aid), स्थानीय टैक्स इक्कठा करने और अन्य साधन प्रदान करवाने का प्रावधान किया गया।
इन पंचायतों का प्रत्यक्ष चुनाव हर पाँच वर्ष में होगा व हर स्तर पर अनुसूचित जनजाती, अनुसूचित जाती व महिलाओं के लिये आरक्षण का प्रावधान भी किया गया। इसी तरह शहरी क्षेत्रों के लिये अलग से 74वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया और शहरी स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक निकायों को बनाया गया।
अनुसूचित क्षेत्रों (scheduled area) के लिये अलग से पंचायत के सम्बन्ध में PESA - The Provision of Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) कानून 1996 पारित किया गया और इसे संविधान में धारा 244(1) में जोड़ा गया। इस कानून में ग्रामसभा को आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना बनाने का अधिकार दिया गया।
सामुदायिक संसाधनों का परम्परागत तौर से प्रबन्ध का अधिकार, लघु वन उपज, लघु खनिज के उपभोग व प्रबन्धन का अधिकार तथा रिवाजे आम (Customary law), सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं को मानने इत्यादि का अधिकार दिया गया।
वर्ष 2005, 13 दिसम्बर को संसद ने वन अधिकार कानून 2006 पारित किया, जिसमें वनों पर आश्रित समुदायों को अधिकार प्राप्त हो गया कि उनकी जो भी वन भूमि पर आजीविका के लिये परम्परागत निर्भरता व दाख़िल है, वह उस का अधिकार है, चाहे वह लिखित है या अलिखित।
इस कानून ने सामुदायिक वन संसाधनों व वनों को ग्रामसभा को सौंपने का प्रावधान किया। ग्रामसभा की मंजूरी के बिना इन संसाधनों को व्यापारिक, सरकारी व सार्वजनिक कार्यों के लिये हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 व अन्य वन अधिनियमों में भी 73वे संविधान संशोधन के तहत बदलाव आये और स्थानीय संसाधनों के हस्तान्तरण के लिये वन तथा पर्यावरण मंजूरी के प्रावधानों में पंचायत व ग्रामसभा स्वीकृति तथा जन सुनवाई के प्रावधान जोड़े गए।
73वें संविधान संशोधन का असर पंचायतों को हस्तान्तरित 29 कार्यों से सम्बन्धित क़ानूनों, नियमों व केन्द्र तथा राज्य सरकार की विकास योजनाओं पर भी पड़ा और इसी के अनुरूप बदलाव लाये गए। ऐसे में देखा जाये तो पंचायत एक महत्त्वपूर्ण संस्था बन गई है।
73वाँ संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006, सूचना का अधिकार, मनरेगा, भूमि सुधार कानून, हिमाचल में नौतोड़ नियम, इत्यादि भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप जनहित में बनाए गए थे परन्तु दूसरी ओर हमारे नीति-निर्धारक लोकतांत्रिक, समाजवादी व कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक नीति से हटते गए और आज वैश्वीकरण का रास्ता अपना लिया है। हमारे देश में वर्ष 1991 से वैश्वीकरण की नीति लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गई।73वें संविधान संशोधन, PESA कानून व वन अधिकार कानून बनने के बाद देश के बहुत से क़ानूनों खासकर पर्यावरणीय क़ानूनों, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास पुनर्स्थापना कानून इत्यादि में इसके अनुरूप कुछ बदलाव आये। केन्द्रीय सरकारों की विकास परियोजनाओं में भी ग्रामसभा व पंचायत इत्यादि का जिक्र हुआ और मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, स्वच्छता अभियान, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन इत्यादि जैसे केन्द्रीय योजनाओं में ग्रामसभा की भागीदारी व योजना निर्माण की बात की गई।
इसलिये आज पंचायतों को इन सभी कार्यों पर आधारित समग्र ग्रामीण विकास की योजना बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। जिसमें गरीबी उन्मूलन, आर्थिक व सामाजिक ना बराबरी कम करना, वन व पर्यावरण संरक्षण, सब को पीने लायक जल उपलब्धता, सार्वजनिक स्वस्थ्य सुविधा, शिक्षा, स्थानीय आजीविका के आधार को बढ़ाना, वन तथा खेती का विकास व विस्तार, लघु व ग्रामीण उद्योगों का विकास, सामाजिक न्याय व समाज के कमजोर तबकों के हितों की रक्षा, प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक नियंत्रण व इनका भविष्य की पीढ़ी के लिये संरक्षण, गैर परम्परागत वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास, अन्धविश्वासों के विरुद्ध वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ाना, सामाजिक समरसता बनाए रखना तथा सामाजिक तनाव रोकना, आपदा प्रबन्धन तथा स्थानीय पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर टिकाऊ विकास की योजन निर्माण और उसे लागू करना पंचायत के मूल कार्य हो गए हैं।
वास्तव में कानून संवत कार्य व विकास नियोजन निचले स्तर पर हो रहे हैं या नहीं और समय के साथ इस व्यवस्था में क्या-क्या खामियाँ पाई गई हैं को दूर करने पर विचार होना चाहिए, ताकि पंचायत स्थानीय स्वशासन की वास्तविक निकाय बन सके, जो आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजना निर्माण और उसे लागू करने में सक्षम हो।
73वाँ संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006, सूचना का अधिकार, मनरेगा, भूमि सुधार कानून, हिमाचल में नौतोड़ नियम, इत्यादि भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप जनहित में बनाए गए थे परन्तु दूसरी ओर हमारे नीति-निर्धारक लोकतांत्रिक, समाजवादी व कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक नीति से हटते गए और आज वैश्वीकरण का रास्ता अपना लिया है।
हमारे देश में वर्ष 1991 से वैश्वीकरण की नीति लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गई। जिसके तहत प्राकृतिक संसाधनों को जनता से छीनकर देशी-विदेशी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है। इसी कारण देश में पिछले दो दशकों में रोज़गार घटे हैं, करोड़ों लोगों की आजीविका के आधार छीन लिये गए हैं। किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए हैं। बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है।
प्राकृतिक आपदाएँ और पर्यावरणीय खतरे बढ़े हैं। ये वैश्विक पूँजीवाद परस्त कदम देश के संविधान की मूल भावना के विरुद्ध हैं ही, बल्कि जनहित में बनाए गए उक्त सभी क़ानूनों को भी नजरअन्दाज कर रहे हैं। 73वें संविधान संशोधन के बाद वन व पर्यावरणीय कानून, भूमि अधिग्रहण इत्यादि दूसरे कई क़ानूनों में इसके अनुरूप बदलाव तो लाये गए परन्तु इन्हीं दबावों के चलते उन्हें अमल में नहीं लाया जा रहा है।
पंचायत व ग्रामसभा की सहमति व स्थानीय संसाधनों पर उनके वैधानिक अधिकार की सब जगह अवहेलना हो रही है। इन्हीं हालातों के कारण स्थानीय स्वशासन वास्तव में मज़ाक बन गया है और कानूनी प्रावधानों के बावजूद पंचायतों को सरकार की एजेंसी बना दिया गया है, जो प्रलोभन तथा सरकारी दबाव में कई जगह कम्पनियों की हित पोशाक भी बनती जा रही है।
वैश्विक पूँजीवाद के बढ़ते दवाब के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा का घाटा नियंत्रण
73वें संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006 व PESA कानून की मंशा है कि स्थानीय सांझा सम्पदाओं मुख्यतया प्राकृतिक संसाधन जिनमें जल, जंगल, ज़मीन, खनिज संसाधन इत्यादि हैं का वास्तविक नियंत्रण ग्रामसभा को सौंपे जाये तथा उनके दोहन का प्राथमिक अधिकार भी स्थानीय समुदायों व ग्रामसभा का होगा।
इन संसाधनों के संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी समुदाय की होगी है। परन्तु ज़मीन में कुछ और ही हो रहा है, वनों व अन्य संसाधनों पर वन विभाग या सरकार का ही नियंत्रण कायम है। आज सरकार इन्हें विकास के नाम पर व्यापारिक दोहन के लिये कारपोरेट/ कम्पनियों को सौंपने में तत्परता से लगी है।
इस वैश्विक पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चलकर समाज में नाबराबरी बढ़ी और पर्यावरणीय क्षति के कारण जलवायु परिवर्तन का दंश आम आदमी को झेलना पड़ रहा है। यह सत्य है कि आज बड़े उद्योग रोज़गार पैदा नहीं करते, बल्कि स्थानीय लोगों के सांझा संसाधन और उनकी परम्परागत आजीविका को छिनते हैं।
इसका बड़ा कारण नई तकनीक है, जिसे मुनाफे के लिये पूँजी ने आगे बढ़ाया और इसी के जरिए कम आदमियों के श्रम से ज्यादा उत्पादन हो रहा है। भारत में पिछले बीस वर्षों में हजारों खरबपति इसी लूट के कारण पैदा हुए और 80% जनता का जीवन 20 रुपया प्रतिदिन के खर्च की औकात पर ही चल रहा है।
वैश्वीकरण के कारण आर्थिक असमानता बढ़ी है और विकास का आनन्द केवल समाज का उच्च वर्ग ही उठा रहा है।
हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे कृषि भूमि, जल संसाधन, खनिज, वन व वन भूमि विकास के नाम पर कारपोरेट/पूँजीपतियों को सरकार द्वारा औने-पौने दामों में लूटवाया जा रहा है। विकास की इस नीति के कारण पर्यावरण व स्थानीय आजीविका का नुकसान बड़े पैमाने पर हो रहा है।
बाँधों, जल-विद्युत परियोजनाओं, ट्रांसमिशन लाइन, सीमेंट, बड़ी निजी व्यावसायिक परियोजनाओं व उद्योगों, शहरीकरण, बड़े निर्माण कार्यों, इत्यादि के लिये कृषि व वन भूमि को लोगों से छीना जा रहा है। वनों का विनाश हो रहा है। इनमें स्थानीय लोगों को बिना उचित मुआवजे, पुनर्वास तथा पुनर्स्थापना के ही कुछ पैसे देकर विस्थापित किया जा रहा है।
लोगों की जितनी आजीविका कृषि भूमि व प्राकृतिक संसाधनों पर चल रही थी, उसके बदले किसानों व स्थानीय लोगों को स्थायी रोज़गार व नौकरियाँ नहीं दी जा रही हैं और न ही दूसरे आजीविका के साधन खड़े हो पा रहे हैं। ऐसे में उन लोगों का ज़मीन से ही विस्थापन नहीं हो रहा बल्कि आजीविका और जिन्दा रहने के आधार को ही छीना जा रहा है।
इन्हीं कारणों से हिमालय क्षेत्र में गर्मी बढ़ रही है, मौसम बदलाव, जलवायु परिवर्तन व जल तथा वायु प्रदूषण इत्यादि के प्रभाव बड़े पैमाने पर देखे जा रहे हैं।
स्थानीय जनता को लगातार प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, अतिवृष्टि, बाढ़, बादल फटने इत्यादि से होने वाले नुकसान को झेलना पड़ रहा है, जबकि प्रदेश के निचले इलाकों में जनता पशुओं को जल तथा वायु प्रदूषण से होने वाली कई बीमारियों से जूझना पड़ रहा है।
इन सब परियोजनाओं के स्थापित करने के लिये पंचायत व ग्रामसभा की सहमति व स्वीकृति कानूनी बाध्यता है परन्तु उन्हें नजरअन्दाज किया जा रहा है। जबकि कहीं-कहीं हमारे जन प्रतिनिधि भी कम्पनियों के प्रलोभन में आ रहे हैं, कई जगह बिकाऊ हो रहे हैं तथा जनता से पूछे बिना NOC देते जा रहे हैं।
हिमालय क्षेत्रों में यहाँ की प्रकृति को समझकर विकास की नीति बनानी चाहिए तथा इसके अनुरूप निर्माण कार्य करना चाहिए, क्योंकि यह इलाक़ा प्राकृतिक आपदा सम्भावित व भूकम्प संवेदी क्षेत्र है।
यह कानून वन आश्रित समुदायों को 13 दिसम्बर 2005 से पहले वन भूमि पर निर्मित आवासीय घर, आजीविका के लिये खेती, वन व वन भूमि का सामूहिक उपभोग तथा संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है। हिमाचल में यह अधिकार तकरीबन 99% गाँववासियों को हासिल होगा। परन्तु हमारी सरकार व वन विभाग उसे नाजायज कब्जा कह रहा है। जबकि हम 13 दिसम्बर 2005 से पहले के कब्जे के हम कानूनी हक़दार हैं। दुर्भाग्य से हमारी प्रदेश सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने के लिये सकारात्मक पहल नहीं कर रही है।भविष्य में प्राकृतिक आपदा तथा बड़े भूकम्प से होने वाले खतरों से होने वाली जान-माल की हानि को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ होने वाले पर्यावरणीय बदलाव का असर पूरे भारत पर पड़ता है। इसलिये हिमालय से भारत तथा दक्षिण एशिया को मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं को सन्तुलित व टिकाऊ रूप में बनाए रखने के लिये हिमालय व हिमालयवासियों के संरक्षण की जरूरत है न कि दोहन की।
पंचायतों को अपने इलाके की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी का ध्यान रखकर विकास योजना बनानी चाहिए तथा ऐसे हर सरकारी व कम्पनियों के कार्य व परियोजना का विरोध करना चाहिए जो पर्यावरण क्षति, आजीविका के विनाश व आपदा का कारण बने। इन भौतिक परिस्थितियों को संज्ञान में लेते हुए ग्रामसभा को अपनी आपदा प्रबन्धन की भी योजना बनानी चाहिए।
टिकाऊ विकास से अभिप्राय है कि समाज की वर्तमान ज़रूरतों को पूरा करते हुए भविष्य के पीढ़ी की ज़रूरतों के लिये भी संसाधनों की उपलब्धता और विकास की सम्भावनाओं को सुरक्षित रखना। मुनाफे व समाज के अमीर व ताक़तवर तबके के लिये अराम-परस्ती के साधन खड़ा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों की अन्धाधुन्ध लूट को विकास कहना टिकाऊ विकास की अवधारणा के विपरीत है।
इसी कारण जलवायु परिवर्तन और सामाजिक नाबराबरी पैदा हुई। आज टिकाऊ विकास के नज़रीए से नई तकनीकों से खेती, वन विकास व इस पर आधारित ग्रामीण तथा लागू उद्योग का विस्तार तथा वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर विकास की नई दिशा निर्धारित करनी होगी।
टिकाऊ खेती एक समग्र गतिविधि है, जिसमें प्रकृति से सन्तुलन बनाए रखते हुए कृषि उत्पादन की प्रक्रिया को बढ़ावा देना होगा। नई तकनीकों की मदद से, बिना रसायनों का उपयोग करके अन्न उत्पादन, फल-फूल, सब्जी के अलावा पशुपालन, बागवानी, वन उपज का विकास करना होगा। इन सभी कार्यों से उपलब्ध कच्चे माल पर आधारित लघु उद्योग तथा दस्तकारी का विकास करना होगा।
सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, सूक्ष्म व लघु परियोजनाओं से जल विद्युत उत्पादन, जैविक ऊर्जा जैसे बायोगैस इत्यादि के वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को विकसित करना होगा। भविष्य में विकास की टिकाऊ रणनीति इन्हीं ऊर्जा के स्रोतों पर आधारित होगी। इससे गाँवों की श्रम शक्ति का उपयोग गाँवों में अधिक हो सकेगा। ग्रामसभा में इन बातों को ध्यान में रखकर नियोजन होना चाहिए।
जोतों के बँटवारे, शहरीकारण, विकास योजनाएँ, उद्योग, जल विद्युत व अन्य परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण इत्यादि के कारण खेती की भूमि बहुत कम हो गई है।
आज प्रदेश में 80% किसान लघु किसान हो गए हैं, जिनके पर 5 बीघा से कम कृषि भूमि रह गई है। ऐसे में सन्मानजनक जीने व आजीविका उपार्जन के लिये हर किसान परिवार के पास कम-से-कम एक हेक्टेयर कृषि भूमि होनी चाहिए। यह देश भर में किसान आन्दोलनों की भी माँग है। इसीलिये हिमाचल प्रदेश में नौतोड़ के नियम बनाए गए थे, परन्तु वन संरक्षण कानून 1980 बनने के बाद प्रदेश में खेती के लिये भूमि बाँटने का काम रुक गया।
कृषि व अवासीय भूमि के बँटवारे के प्रावधान को फिर से बहाल करना होगा जिसकी अनुशंसा का अधिकार ग्रामसभा को दिया जाना चाहिए और सामुदायिक वनों में इस का सामूहिक अधिकार के तहत विस्तार किया जा सकता है। सामूहिक लोक मित्र कृषि वानिकी व बागवानी को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
2006 में संसद ने वन अधिकार कानून 2006 बनाया, जिसमें वनों पर आजीविका के लिये आश्रित समुदायों को अधिकार प्राप्त हो गया कि उनकी जो भी बर्तनदारी/दखल वन भूमि पर है, वह उसका अधिकार है। 13 दिसम्बर 2005 से पहले के वन भूमि पर कब्जे को सरकार व वन विभाग नहीं उठा सकता।
पिछले दिनों सरकार द्वारा कब्जे हटाने का जो प्रयत्न किया गया था वह गैरकानूनी कार्यवाही थी, क्योंकि वन अधिकार कानून 2006 के तहत जब तक वन अधिकारों के दावों के सत्यापन व मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक इन कब्जों को बेदखल नहीं किया जा सकता है। हिमाचल में अभी वन अधिकार कानून को लागू करने की प्रक्रिया चल रही है।
यह कानून वन आश्रित समुदायों को 13 दिसम्बर 2005 से पहले वन भूमि पर निर्मित आवासीय घर, आजीविका के लिये खेती, वन व वन भूमि का सामूहिक उपभोग तथा संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है। हिमाचल में यह अधिकार तकरीबन 99% गाँववासियों को हासिल होगा। परन्तु हमारी सरकार व वन विभाग उसे नाजायज कब्जा कह रहा है। जबकि हम 13 दिसम्बर 2005 से पहले के कब्जे के हम कानूनी हक़दार हैं।
दुर्भाग्य से हमारी प्रदेश सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने के लिये सकारात्मक पहल नहीं कर रही है। इसमें भी ग्रामसभा की अहम भूमिका है। ग्रामसभा को इस कानून के तहत वन अधिकार समिति बनानी है, जिसमें गाँववासियों को अपने वन अधिकार के निजी व सामूहिक दावे पेश करने होंगे। ग्रामसभा ही उन दावों को स्वीकार करके अधिकार पत्र जारी करने के लिये उप मंडल व जिला स्तरीय समिति को भेजेगी।
ग्रामसभा व पंचायतों को इस कानून को लागू करवाने में पहल करनी होगी और वन अधिकार की मान्यता के लिये सरकार पर दवाब बनाना चाहिए। जिन लोगों की बिजली, पानी के कनेक्शन विभागों ने नाजायज कब्जे के नाम पर कटे हैं उन्हें तुरन्त बहाल किये जाने और नाजायज कब्जे के सभी मुकदमों को वन अधिकार कानून के आम्लीकरण तक रोकने के लिये सरकार को बाधित करना होगा।
सामाजिक व आर्थिक विकास की योजना बनाने में आम लोगों की भागीदारी तथा पंचायतों के माध्यम से उस योजना को लागू करवाने और निचले स्तर की विकास की वास्तविक ज़रूरतों को शामिल करके नीचे से ऊपर योजना (bottom up planning) निर्माण इन संवैधानिक प्रावधानों का लक्ष्य है।
भविष्य में प्राकृतिक आपदा तथा बड़े भूकम्प से होने वाले खतरों से होने वाली जान-माल की हानि को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ होने वाले पर्यावरणीय बदलाव का असर पूरे भारत पर पड़ता है। इसलिये हिमालय से भारत तथा दक्षिण एशिया को मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं को सन्तुलित व टिकाऊ रूप में बनाए रखने के लिये हिमालय व हिमालयवासियों के संरक्षण की जरूरत है न कि दोहन की। पंचायतों को अपने इलाके की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी का ध्यान रखकर विकास योजना बनानी चाहिए तथा ऐसे हर सरकारी व कम्पनियों के कार्य व परियोजना का विरोध करना चाहिए जो पर्यावरण क्षति, आजीविका के विनाश व आपदा का कारण बने।जब 73वें संविधान संशोधन पर बहसें चल रही थीं, तब यह भी कहा जा रहा था कि एक तो केन्द्रीय व राज्य सरकारों की योजनाएँ ज़मीनी स्तर पर विकास की वास्तविक जरूरत को प्रतिबिंबित नहीं करती और दूसरे सरकारी भ्रष्टाचार के कारण सौ में से पन्द्रह रुपए नीचे गाँवों में पहुँच रहा है।
इन संवैधानिक बदलावों को देखें तो लगता है कि देश में सभी नागरिकों को लोकतांत्रिक तरीके से अपने आर्थिक व सामाजिक विकास निर्धारित करने में भागीदारी मिल गई है तथा सामाजिक अन्याय व ऊँच-नीच से मुक्ति मिल चुकी है। इस तरह यह माना जा रहा था कि ये उक्त संवैधानिक बदलाव बड़ा बदलाव लाएँगे परन्तु इतने सालों बाद भी वास्तविकता इस कल्पना से भिन्न है।
1. आर्थिक व सामाजिक विकास में जन भागीदारी आज भी नगण्य है। सहभागिता व पारदर्शिता के नाम पर केवल कागजी खानापूर्ति हो रही है। सरकारी अधिकारी व जन प्रतिनिधि ही सब निर्धारित करने में सर्वेसर्वा बन गए हैं। जबकि संवैधानिक मंशा तो यह थी कि जनता ही अपनी आर्थिक व सामाजिक विकास की योजना का निर्माण करेगी जिसे सरकारें लागू करेंगी। अधिकारियों व चुने हुए प्रतिनिधियों के पंचायती राज व्यवस्था में वर्चस्व के कारण जन भागीदारी कहीं नहीं दिखती तथा ग्रामसभा एक निष्क्रिय और औपचारिक संस्था मात्र बन कर रह गई है। इन्ही कारणों से पंचायतें भ्रष्टाचार का केन्द्र बन गई या सरकारी स्थापित व्यवस्था द्वारा बना दी गईं हैं।
2. खेती, ग्रामीण उद्यमों व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नई पंचायती राज व्यवस्था के कारण कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाया। स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण व उससे समुदाय की टिकाऊ आजीविका खड़ी करने का उद्देश्य हासिल नहीं किया जा सका।
3. सामाजिक न्याय के उद्देश्य को हासिल नहीं किया जा सका तथा आज इतने वर्षों बाद भी जातीय द्वेष व धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है और गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं व पिछड़ों के साथ हो रहे अन्याय में कमी नहीं देखी जा रही। जबकि न्याय पंचायत एक निष्क्रिय संस्था मात्र है, क्योंकि चुनी हुई पंचायत ही न्याय पंचायत की भूमिका में है, जो स्वभाविक तौर पर निजी व अपने पक्ष के मतदाता के हित में कम करती है।
4. 73वें संविधान संशोधन व PESA कानून की मंशा के विपरीत सरकारें केन्द्रीय व राज्य स्तर पर ही गाँवों के विकास की योजनाओं का निर्माण कर रही है। उन योजनाओं की गतिविधियों व कार्यान्वयन का ही विकेन्द्रीकरण हो रहा है। इस कारण गाँवों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार न तो विकास योजना बन पा रही और न ही स्थानीय जरूरत के अनुरूप गाँवों के समग्र विकास के कार्यक्रम चल पा रहे हैं। इससे गैर जरूरी कार्यों पर खर्च व भ्रष्टाचार भी बढ़ा है और पंचायत ऊपर की सरकारों के कार्यों को लागू करने की एजेंसी मात्र बनकर रह गई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज पंचायत व ग्रामसभा की बैठकों की तारीख व एजेंडे का भी ज़िलाधीश निर्धारण कर रहा है।
5. प्राकृतिक संसाधनों-जल जंगल, ज़मीन, खनिज, वन इत्यादि पर कम्पनियों व व्यापारियों का नियंत्रण होता जा रहा है, परिणामस्वरूप लोगों की स्थानीय आजीविका का आधार नष्ट हो रहा है। जबकि कानून की दृष्टि से यह साझा संसाधन जनता के नियंत्रण में हो जाने चाहिए थे। यही 73वें संविधान संशोधन, वनाधिकार कानून व PESA कानून की मंशा तथा लक्ष्य था।
1. हमारी अपेक्षा होनी चाहिए कि 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुरूप पंचायतों को स्थानीय स्वशासन की वास्तविक इकाई के रूप में स्थापित करने के लिये विकास नियोजन व आम्लीकरण के लिये कार्यकारी व न्यायिक शक्तियाँ, कार्य, धन व कर्मचारी संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप दी जाएँ। सामाजिक न्याय व आर्थिक विकास की योजना को व्यावहारिक रूप में जन सहभागिता से बनाया जाये। जिला योजना समिति को क्रियाशील बनाया जाये तथा जिला की सम्पूर्ण योजना को इस स्तर पर समायोजित किया जाये। इसकी प्रतिलिपि राज्य व केन्द्रीय सरकार को उनकी केन्द्रीय विकास योजना में शामिल करने के लिये भेजा जाये तथा इन जिला योजनाओं को कानूनी तौर पर उपर की योजनाओं में सम्मिलित किया जाये।
2. भ्रष्टाचार व अक्षमता रोकने के लिये अधिकारियों, कर्मचारियों व जनप्रतिनिधिओं पर रोक लगे।
3. प्रशासन तंत्र की भूमिका सीमित व निर्धारित होनी चाहिए ताकि वे ग्रामसभा व पंचायत के अधिकार क्षेत्र में दखल न कर सकें।
4. गाँवों की विकास की योजना को केन्द्रीय स्तर पर निर्धारित करना अनुचित है। वास्तव में इनके ऊपर निर्धारित योजनाओं की गतिविधियों का ही विकेन्द्रीकरण हो रहा है। इससे गाँवों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार विकास के कार्यक्रम नहीं चल पा रहे हैं। अनुचित व अनुपयोगी योजनाएँ व कार्य जो स्थानीय स्तर पर वांछित नहीं होती हैं, परन्तु केन्द्रीय व राज्य सरकार की योजना के तहत थोप दी जाती हैं, पर रोक लगनी चाहिए तथा किसी भी तरह के अनुपयोगी कार्यों व खर्चों पर भी रोक लगे। ऊपर से थोपे हुए विकेन्द्रीकरण पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए। आज हमें नीचे से ऊपर तथा ऊपर से नीचे योजना निर्माण व उनके जुड़ाव के साथ विकास योजन के निर्माण पर भी गौर करना होगा।
5. पंचायत संसाधन व टैक्स पर भी चर्चा हो। सरकार को अपने समेकित कोष से स्थानीय विकास योजना पर ज्यादा खर्च करना चाहिए, क्योंकि सरकार ने पहले ही हर चीज पर टैक्स लगा रखा है। राज्य योजना में यह एक प्रमुख मद होनी चाहिए।
6. न्याय पंचायत में चुने हुए पंचायत प्रतिनिधि शामिल नहीं होने चाहिए। न्याय पंचायत के लिये गाँवों के न्याय प्रिय व्यक्तियों के सदन का ग्राम सभा चयन करे। जिसमें महिलाओं, आदिवासी, दलित व कमजोर तबके के लोगों को प्रतिनिधित्व में आरक्षित स्थान हो।
7. वन अधिकार कानून 2006 के तहत वन अधिकार लोगों को प्रदान किये जाएँ व वनों को गाँवों व स्थानीय समुदायों को सौंपा जाये। इसके लिये ग्रामसभा व पंचायतों को पहल करनी होगी।
8. स्थानीय साझा सम्पदाओं मुख्यतया प्राकृतिक संसाधन जिन में जल, जंगल, ज़मीन, खनिज संसाधन इत्यादि शामिल हैं को ग्रामसभा के वास्तविक नियंत्रण में सौंपा जाये व उनके दोहन का प्राथमिक अधिकार स्थानीय समुदायों व ग्रामसभा का हो। जबकि व्यावसायिक दोहन पर सरकार व कम्पनियाँ प्रभावित समुदाय व ग्रामसभा को उस कारोबार में कम-से-कम 26% हिस्सा बदले में दे।
9. हिमाचल एक पहाड़ी प्रदेश है ऐसे में यहाँ पहाड़ की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी के अनुरूप विकास होना चाहिए अन्यथा यह विनाश का कारण ही बनेगा। इसलिये हिमालय नीति बने और उसी के मुताबिक गाँवों से लेकर प्रदेश स्तर तक विकास की योजना बने।
10. ग्रामसभा व पूरे पहाड़ी समाज को पर्यावरण संरक्षण तथा स्वावलम्बी, टिकाऊ व सम्मानजनक आजीविका के आधार को खड़ा करने के प्रति जागरूक व सशक्त करना होगा तथा प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम समाज के नियंत्रण व कम्पनियों द्वारा इनकी व्यावसायिक लूट से रक्षा के लिये संघर्ष करना होगा।
अतः हमें आपसे ऊम्मीद है कि इन चुनावों में आप इन मुद्दों पर चर्चा करेंगे और ऐसे प्रतिनिधियों को चुनेंगे जो इन मुद्दों को समझने और लागू करवाने के लिये आगे आएँगे।
सम्पर्क
हिमालय नीति अभियान,
गाँव खुंदन, डाक बंजार,
जिला कुल्लू, हिमाचल प्रदेश -175123,
ईमेल: gumanhna@gmail.com,
फोन: 9418277220
गुमान सिंह, कुल्भूषण उपमन्यु, आर एस नेगी, सन्दीप मिन्हास, विद्या नेगी, जगजीत सिंह दुखिया, खमेन्दर सिंह, संत राम, राजेन्द्र चौहान, धर्म चंद यादव, विशाल दीप, प्रवेश चंदेल, रतन चंद, केशव चंद्र शर्मा, लाल चंद कटोच, पुशपाल ठाकुर, रणजीत सिंह, अजीत राठौर, नन्द लाल शर्मा, चिरंजी लाल, पुराण चंद, राजू भट्ट, दुलम्भ सिंह, नरेंद्र परमार, जिया लाल नेगी,
नई पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद पिछले 20 वर्षों के अनुभव और परिणामों को देखते हुए आज हमें इस व्यवस्था पर पुनर्विचार तथा चर्चा करनी चाहिए। हमारे देश में पंचायत की व्यवस्था सदियों पुरानी है। अंग्रेजी राज में 1885 में पहली बार स्थानीय निकाय अधिनियम लागू हुआ। इसके पीछे अंग्रेजी राज का मकसद भारत में निचले स्तर पर शासन की पकड़ को सुदृढ़ करना था।
आजादी के आन्दोलन के दौर में महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज का नारा दिया और एक स्वशासी तथा स्वावलम्बी गाँवों की कल्पना की। गाँधी की कल्पना का ग्राम स्वराज तो स्थापित नहीं हो सका परन्तु 1992 में 73वें संविधान संशोधन ने पंचायत को स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक इकाई का दर्जा दिया।
जिसे अपनी विकास योजना निर्माण तथा स्थानीय संसाधनों के उपभोग, प्रबन्ध व नियंत्रण पर आधारित कुछ सीमित अधिकार दिये। इन्हें सहभागी लोकतंत्र के विस्तार, विकास नियोजन में जन भागीदारी, विकास नीचे तक पहुँचने तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण पहल के तौर पर देखा जा रहा था।
आज दो दशक बाद ये स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक इकाइयाँ ऊपर की सरकारों की योजनाओं के निहित कार्यों के निष्पादन की व्यवस्था बनकर रह गई हैं। इसीलिये स्थानीय स्वशासन की निकाय, पंचायती राज तथा विकेन्द्रीकरण पर फिर से आम जनता में चर्चा किये जाने की जरूरत हो गई है।
73वें संविधान संशोधन का प्रभाव दूसरे क़ानूनों पर भी पड़ा है, इसलिये इस चर्चा पत्र में उन सभी सम्भावनाओं पर भी बहस की गई है।
73वाँ संविधान संशोधन
हिमाचल प्रदेश में 73वाँ संविधान संशोधन लागू होने के बाद यह पाँचवाँ चुनाव होगा। भारतीय लोकतंत्र में 73वाँ संविधान संशोधन (धारा 243) एक महत्त्वपूर्ण जनोन्मुखी पहल थी। इस बदलाव ने स्थानीय स्वशासन को वैधानिक दर्जा दिया और हर स्तर की पंचायतों को सरकार की मान्यता दी।
ग्रामसभा को अपने गाँवों की आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय की योजना बनाने का अधिकार दिया, जिसे ऊपर की पंचायतें लागू करेंगी। इसी विकास योजना के अनुरूप ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद को अपने स्तर की विकास योजना बनाने का प्रावधान किया गया।
जिलास्तर पर जिला योजना समिति का गठन किया गया, जिस का कार्य ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के नीचे से आई आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय की योजना को संयोजित करके लागू करवाना माना गया।
मंशा व्यक्त की गई कि राज्य सरकारें पंचायतों को विकास नियोजन, प्रशासनिक तथा न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करवाए और साथ में निर्धारित कार्य, संसाधन तथा कार्यकर्ता (कर्मचारी) (Function, Fund and Functionary) भी उपलब्ध करवाए, जिससे पंचायत स्थानीय स्वशासन की सशक्त इकाई के रूप में कार्य कर सके।
संविधान की 11वीं अनुसूची
विकास कार्यों के लिये संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर 29 कार्य पंचायतों को हस्तान्तरित करने का अधिकार राज्य की विधानसभा को दिया गया तथा न्याय करने के अधिकार भी प्रदान किये गए। राज्य वित्तायोग का गठन किया गया। राज्य सरकार को अपने समेकित (consolidated) फ़ंड से पंचायतों को आर्थिक संसाधन प्रदान करवाने के लिये अनुदान (Grant-In-Aid), स्थानीय टैक्स इक्कठा करने और अन्य साधन प्रदान करवाने का प्रावधान किया गया।
इन पंचायतों का प्रत्यक्ष चुनाव हर पाँच वर्ष में होगा व हर स्तर पर अनुसूचित जनजाती, अनुसूचित जाती व महिलाओं के लिये आरक्षण का प्रावधान भी किया गया। इसी तरह शहरी क्षेत्रों के लिये अलग से 74वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया और शहरी स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक निकायों को बनाया गया।
PESA- पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम -1996
अनुसूचित क्षेत्रों (scheduled area) के लिये अलग से पंचायत के सम्बन्ध में PESA - The Provision of Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) कानून 1996 पारित किया गया और इसे संविधान में धारा 244(1) में जोड़ा गया। इस कानून में ग्रामसभा को आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना बनाने का अधिकार दिया गया।
सामुदायिक संसाधनों का परम्परागत तौर से प्रबन्ध का अधिकार, लघु वन उपज, लघु खनिज के उपभोग व प्रबन्धन का अधिकार तथा रिवाजे आम (Customary law), सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं को मानने इत्यादि का अधिकार दिया गया।
वन अधिकार कानून-2006
वर्ष 2005, 13 दिसम्बर को संसद ने वन अधिकार कानून 2006 पारित किया, जिसमें वनों पर आश्रित समुदायों को अधिकार प्राप्त हो गया कि उनकी जो भी वन भूमि पर आजीविका के लिये परम्परागत निर्भरता व दाख़िल है, वह उस का अधिकार है, चाहे वह लिखित है या अलिखित।
इस कानून ने सामुदायिक वन संसाधनों व वनों को ग्रामसभा को सौंपने का प्रावधान किया। ग्रामसभा की मंजूरी के बिना इन संसाधनों को व्यापारिक, सरकारी व सार्वजनिक कार्यों के लिये हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 व अन्य वन अधिनियम
पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 व अन्य वन अधिनियमों में भी 73वे संविधान संशोधन के तहत बदलाव आये और स्थानीय संसाधनों के हस्तान्तरण के लिये वन तथा पर्यावरण मंजूरी के प्रावधानों में पंचायत व ग्रामसभा स्वीकृति तथा जन सुनवाई के प्रावधान जोड़े गए।
ग्राम विकास योजना के निर्माण की सम्भावनाएँ
73वें संविधान संशोधन का असर पंचायतों को हस्तान्तरित 29 कार्यों से सम्बन्धित क़ानूनों, नियमों व केन्द्र तथा राज्य सरकार की विकास योजनाओं पर भी पड़ा और इसी के अनुरूप बदलाव लाये गए। ऐसे में देखा जाये तो पंचायत एक महत्त्वपूर्ण संस्था बन गई है।
73वाँ संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006, सूचना का अधिकार, मनरेगा, भूमि सुधार कानून, हिमाचल में नौतोड़ नियम, इत्यादि भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप जनहित में बनाए गए थे परन्तु दूसरी ओर हमारे नीति-निर्धारक लोकतांत्रिक, समाजवादी व कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक नीति से हटते गए और आज वैश्वीकरण का रास्ता अपना लिया है। हमारे देश में वर्ष 1991 से वैश्वीकरण की नीति लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गई।73वें संविधान संशोधन, PESA कानून व वन अधिकार कानून बनने के बाद देश के बहुत से क़ानूनों खासकर पर्यावरणीय क़ानूनों, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास पुनर्स्थापना कानून इत्यादि में इसके अनुरूप कुछ बदलाव आये। केन्द्रीय सरकारों की विकास परियोजनाओं में भी ग्रामसभा व पंचायत इत्यादि का जिक्र हुआ और मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, स्वच्छता अभियान, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन इत्यादि जैसे केन्द्रीय योजनाओं में ग्रामसभा की भागीदारी व योजना निर्माण की बात की गई।
इसलिये आज पंचायतों को इन सभी कार्यों पर आधारित समग्र ग्रामीण विकास की योजना बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। जिसमें गरीबी उन्मूलन, आर्थिक व सामाजिक ना बराबरी कम करना, वन व पर्यावरण संरक्षण, सब को पीने लायक जल उपलब्धता, सार्वजनिक स्वस्थ्य सुविधा, शिक्षा, स्थानीय आजीविका के आधार को बढ़ाना, वन तथा खेती का विकास व विस्तार, लघु व ग्रामीण उद्योगों का विकास, सामाजिक न्याय व समाज के कमजोर तबकों के हितों की रक्षा, प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक नियंत्रण व इनका भविष्य की पीढ़ी के लिये संरक्षण, गैर परम्परागत वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास, अन्धविश्वासों के विरुद्ध वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ाना, सामाजिक समरसता बनाए रखना तथा सामाजिक तनाव रोकना, आपदा प्रबन्धन तथा स्थानीय पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर टिकाऊ विकास की योजन निर्माण और उसे लागू करना पंचायत के मूल कार्य हो गए हैं।
वास्तव में कानून संवत कार्य व विकास नियोजन निचले स्तर पर हो रहे हैं या नहीं और समय के साथ इस व्यवस्था में क्या-क्या खामियाँ पाई गई हैं को दूर करने पर विचार होना चाहिए, ताकि पंचायत स्थानीय स्वशासन की वास्तविक निकाय बन सके, जो आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजना निर्माण और उसे लागू करने में सक्षम हो।
सरकार की दोहरी विकास नीति व स्थानीय स्वशासन में अवरोध
73वाँ संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006, सूचना का अधिकार, मनरेगा, भूमि सुधार कानून, हिमाचल में नौतोड़ नियम, इत्यादि भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप जनहित में बनाए गए थे परन्तु दूसरी ओर हमारे नीति-निर्धारक लोकतांत्रिक, समाजवादी व कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक नीति से हटते गए और आज वैश्वीकरण का रास्ता अपना लिया है।
हमारे देश में वर्ष 1991 से वैश्वीकरण की नीति लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गई। जिसके तहत प्राकृतिक संसाधनों को जनता से छीनकर देशी-विदेशी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है। इसी कारण देश में पिछले दो दशकों में रोज़गार घटे हैं, करोड़ों लोगों की आजीविका के आधार छीन लिये गए हैं। किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए हैं। बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है।
प्राकृतिक आपदाएँ और पर्यावरणीय खतरे बढ़े हैं। ये वैश्विक पूँजीवाद परस्त कदम देश के संविधान की मूल भावना के विरुद्ध हैं ही, बल्कि जनहित में बनाए गए उक्त सभी क़ानूनों को भी नजरअन्दाज कर रहे हैं। 73वें संविधान संशोधन के बाद वन व पर्यावरणीय कानून, भूमि अधिग्रहण इत्यादि दूसरे कई क़ानूनों में इसके अनुरूप बदलाव तो लाये गए परन्तु इन्हीं दबावों के चलते उन्हें अमल में नहीं लाया जा रहा है।
पंचायत व ग्रामसभा की सहमति व स्थानीय संसाधनों पर उनके वैधानिक अधिकार की सब जगह अवहेलना हो रही है। इन्हीं हालातों के कारण स्थानीय स्वशासन वास्तव में मज़ाक बन गया है और कानूनी प्रावधानों के बावजूद पंचायतों को सरकार की एजेंसी बना दिया गया है, जो प्रलोभन तथा सरकारी दबाव में कई जगह कम्पनियों की हित पोशाक भी बनती जा रही है।
वैश्विक पूँजीवाद के बढ़ते दवाब के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा का घाटा नियंत्रण
73वें संविधान संशोधन, वन अधिकार कानून -2006 व PESA कानून की मंशा है कि स्थानीय सांझा सम्पदाओं मुख्यतया प्राकृतिक संसाधन जिनमें जल, जंगल, ज़मीन, खनिज संसाधन इत्यादि हैं का वास्तविक नियंत्रण ग्रामसभा को सौंपे जाये तथा उनके दोहन का प्राथमिक अधिकार भी स्थानीय समुदायों व ग्रामसभा का होगा।
इन संसाधनों के संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी समुदाय की होगी है। परन्तु ज़मीन में कुछ और ही हो रहा है, वनों व अन्य संसाधनों पर वन विभाग या सरकार का ही नियंत्रण कायम है। आज सरकार इन्हें विकास के नाम पर व्यापारिक दोहन के लिये कारपोरेट/ कम्पनियों को सौंपने में तत्परता से लगी है।
इस वैश्विक पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चलकर समाज में नाबराबरी बढ़ी और पर्यावरणीय क्षति के कारण जलवायु परिवर्तन का दंश आम आदमी को झेलना पड़ रहा है। यह सत्य है कि आज बड़े उद्योग रोज़गार पैदा नहीं करते, बल्कि स्थानीय लोगों के सांझा संसाधन और उनकी परम्परागत आजीविका को छिनते हैं।
इसका बड़ा कारण नई तकनीक है, जिसे मुनाफे के लिये पूँजी ने आगे बढ़ाया और इसी के जरिए कम आदमियों के श्रम से ज्यादा उत्पादन हो रहा है। भारत में पिछले बीस वर्षों में हजारों खरबपति इसी लूट के कारण पैदा हुए और 80% जनता का जीवन 20 रुपया प्रतिदिन के खर्च की औकात पर ही चल रहा है।
वैश्वीकरण के कारण आर्थिक असमानता बढ़ी है और विकास का आनन्द केवल समाज का उच्च वर्ग ही उठा रहा है।
हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे कृषि भूमि, जल संसाधन, खनिज, वन व वन भूमि विकास के नाम पर कारपोरेट/पूँजीपतियों को सरकार द्वारा औने-पौने दामों में लूटवाया जा रहा है। विकास की इस नीति के कारण पर्यावरण व स्थानीय आजीविका का नुकसान बड़े पैमाने पर हो रहा है।
बाँधों, जल-विद्युत परियोजनाओं, ट्रांसमिशन लाइन, सीमेंट, बड़ी निजी व्यावसायिक परियोजनाओं व उद्योगों, शहरीकरण, बड़े निर्माण कार्यों, इत्यादि के लिये कृषि व वन भूमि को लोगों से छीना जा रहा है। वनों का विनाश हो रहा है। इनमें स्थानीय लोगों को बिना उचित मुआवजे, पुनर्वास तथा पुनर्स्थापना के ही कुछ पैसे देकर विस्थापित किया जा रहा है।
लोगों की जितनी आजीविका कृषि भूमि व प्राकृतिक संसाधनों पर चल रही थी, उसके बदले किसानों व स्थानीय लोगों को स्थायी रोज़गार व नौकरियाँ नहीं दी जा रही हैं और न ही दूसरे आजीविका के साधन खड़े हो पा रहे हैं। ऐसे में उन लोगों का ज़मीन से ही विस्थापन नहीं हो रहा बल्कि आजीविका और जिन्दा रहने के आधार को ही छीना जा रहा है।
इन्हीं कारणों से हिमालय क्षेत्र में गर्मी बढ़ रही है, मौसम बदलाव, जलवायु परिवर्तन व जल तथा वायु प्रदूषण इत्यादि के प्रभाव बड़े पैमाने पर देखे जा रहे हैं।
स्थानीय जनता को लगातार प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, अतिवृष्टि, बाढ़, बादल फटने इत्यादि से होने वाले नुकसान को झेलना पड़ रहा है, जबकि प्रदेश के निचले इलाकों में जनता पशुओं को जल तथा वायु प्रदूषण से होने वाली कई बीमारियों से जूझना पड़ रहा है।
इन सब परियोजनाओं के स्थापित करने के लिये पंचायत व ग्रामसभा की सहमति व स्वीकृति कानूनी बाध्यता है परन्तु उन्हें नजरअन्दाज किया जा रहा है। जबकि कहीं-कहीं हमारे जन प्रतिनिधि भी कम्पनियों के प्रलोभन में आ रहे हैं, कई जगह बिकाऊ हो रहे हैं तथा जनता से पूछे बिना NOC देते जा रहे हैं।
प्राकृतिक आपदा सम्भावित व भूकम्प संवेदी क्षेत्र
हिमालय क्षेत्रों में यहाँ की प्रकृति को समझकर विकास की नीति बनानी चाहिए तथा इसके अनुरूप निर्माण कार्य करना चाहिए, क्योंकि यह इलाक़ा प्राकृतिक आपदा सम्भावित व भूकम्प संवेदी क्षेत्र है।
यह कानून वन आश्रित समुदायों को 13 दिसम्बर 2005 से पहले वन भूमि पर निर्मित आवासीय घर, आजीविका के लिये खेती, वन व वन भूमि का सामूहिक उपभोग तथा संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है। हिमाचल में यह अधिकार तकरीबन 99% गाँववासियों को हासिल होगा। परन्तु हमारी सरकार व वन विभाग उसे नाजायज कब्जा कह रहा है। जबकि हम 13 दिसम्बर 2005 से पहले के कब्जे के हम कानूनी हक़दार हैं। दुर्भाग्य से हमारी प्रदेश सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने के लिये सकारात्मक पहल नहीं कर रही है।भविष्य में प्राकृतिक आपदा तथा बड़े भूकम्प से होने वाले खतरों से होने वाली जान-माल की हानि को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ होने वाले पर्यावरणीय बदलाव का असर पूरे भारत पर पड़ता है। इसलिये हिमालय से भारत तथा दक्षिण एशिया को मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं को सन्तुलित व टिकाऊ रूप में बनाए रखने के लिये हिमालय व हिमालयवासियों के संरक्षण की जरूरत है न कि दोहन की।
पंचायतों को अपने इलाके की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी का ध्यान रखकर विकास योजना बनानी चाहिए तथा ऐसे हर सरकारी व कम्पनियों के कार्य व परियोजना का विरोध करना चाहिए जो पर्यावरण क्षति, आजीविका के विनाश व आपदा का कारण बने। इन भौतिक परिस्थितियों को संज्ञान में लेते हुए ग्रामसभा को अपनी आपदा प्रबन्धन की भी योजना बनानी चाहिए।
टिकाऊ विकास की अवधारणा के अनुरूप विकास नीति का निर्धारण
टिकाऊ विकास से अभिप्राय है कि समाज की वर्तमान ज़रूरतों को पूरा करते हुए भविष्य के पीढ़ी की ज़रूरतों के लिये भी संसाधनों की उपलब्धता और विकास की सम्भावनाओं को सुरक्षित रखना। मुनाफे व समाज के अमीर व ताक़तवर तबके के लिये अराम-परस्ती के साधन खड़ा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों की अन्धाधुन्ध लूट को विकास कहना टिकाऊ विकास की अवधारणा के विपरीत है।
इसी कारण जलवायु परिवर्तन और सामाजिक नाबराबरी पैदा हुई। आज टिकाऊ विकास के नज़रीए से नई तकनीकों से खेती, वन विकास व इस पर आधारित ग्रामीण तथा लागू उद्योग का विस्तार तथा वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर विकास की नई दिशा निर्धारित करनी होगी।
टिकाऊ खेती, ग्रामीण उद्योगीकरण व वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास
टिकाऊ खेती एक समग्र गतिविधि है, जिसमें प्रकृति से सन्तुलन बनाए रखते हुए कृषि उत्पादन की प्रक्रिया को बढ़ावा देना होगा। नई तकनीकों की मदद से, बिना रसायनों का उपयोग करके अन्न उत्पादन, फल-फूल, सब्जी के अलावा पशुपालन, बागवानी, वन उपज का विकास करना होगा। इन सभी कार्यों से उपलब्ध कच्चे माल पर आधारित लघु उद्योग तथा दस्तकारी का विकास करना होगा।
सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, सूक्ष्म व लघु परियोजनाओं से जल विद्युत उत्पादन, जैविक ऊर्जा जैसे बायोगैस इत्यादि के वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को विकसित करना होगा। भविष्य में विकास की टिकाऊ रणनीति इन्हीं ऊर्जा के स्रोतों पर आधारित होगी। इससे गाँवों की श्रम शक्ति का उपयोग गाँवों में अधिक हो सकेगा। ग्रामसभा में इन बातों को ध्यान में रखकर नियोजन होना चाहिए।
हिमाचली किसानों को जीने लायक कृषि भूमि उपलब्ध करवाने की माँग
जोतों के बँटवारे, शहरीकारण, विकास योजनाएँ, उद्योग, जल विद्युत व अन्य परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण इत्यादि के कारण खेती की भूमि बहुत कम हो गई है।
आज प्रदेश में 80% किसान लघु किसान हो गए हैं, जिनके पर 5 बीघा से कम कृषि भूमि रह गई है। ऐसे में सन्मानजनक जीने व आजीविका उपार्जन के लिये हर किसान परिवार के पास कम-से-कम एक हेक्टेयर कृषि भूमि होनी चाहिए। यह देश भर में किसान आन्दोलनों की भी माँग है। इसीलिये हिमाचल प्रदेश में नौतोड़ के नियम बनाए गए थे, परन्तु वन संरक्षण कानून 1980 बनने के बाद प्रदेश में खेती के लिये भूमि बाँटने का काम रुक गया।
कृषि व अवासीय भूमि के बँटवारे के प्रावधान को फिर से बहाल करना होगा जिसकी अनुशंसा का अधिकार ग्रामसभा को दिया जाना चाहिए और सामुदायिक वनों में इस का सामूहिक अधिकार के तहत विस्तार किया जा सकता है। सामूहिक लोक मित्र कृषि वानिकी व बागवानी को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
वन अधिकार कानून लागू करने की माँग
2006 में संसद ने वन अधिकार कानून 2006 बनाया, जिसमें वनों पर आजीविका के लिये आश्रित समुदायों को अधिकार प्राप्त हो गया कि उनकी जो भी बर्तनदारी/दखल वन भूमि पर है, वह उसका अधिकार है। 13 दिसम्बर 2005 से पहले के वन भूमि पर कब्जे को सरकार व वन विभाग नहीं उठा सकता।
पिछले दिनों सरकार द्वारा कब्जे हटाने का जो प्रयत्न किया गया था वह गैरकानूनी कार्यवाही थी, क्योंकि वन अधिकार कानून 2006 के तहत जब तक वन अधिकारों के दावों के सत्यापन व मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक इन कब्जों को बेदखल नहीं किया जा सकता है। हिमाचल में अभी वन अधिकार कानून को लागू करने की प्रक्रिया चल रही है।
यह कानून वन आश्रित समुदायों को 13 दिसम्बर 2005 से पहले वन भूमि पर निर्मित आवासीय घर, आजीविका के लिये खेती, वन व वन भूमि का सामूहिक उपभोग तथा संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है। हिमाचल में यह अधिकार तकरीबन 99% गाँववासियों को हासिल होगा। परन्तु हमारी सरकार व वन विभाग उसे नाजायज कब्जा कह रहा है। जबकि हम 13 दिसम्बर 2005 से पहले के कब्जे के हम कानूनी हक़दार हैं।
दुर्भाग्य से हमारी प्रदेश सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने के लिये सकारात्मक पहल नहीं कर रही है। इसमें भी ग्रामसभा की अहम भूमिका है। ग्रामसभा को इस कानून के तहत वन अधिकार समिति बनानी है, जिसमें गाँववासियों को अपने वन अधिकार के निजी व सामूहिक दावे पेश करने होंगे। ग्रामसभा ही उन दावों को स्वीकार करके अधिकार पत्र जारी करने के लिये उप मंडल व जिला स्तरीय समिति को भेजेगी।
ग्रामसभा व पंचायतों को इस कानून को लागू करवाने में पहल करनी होगी और वन अधिकार की मान्यता के लिये सरकार पर दवाब बनाना चाहिए। जिन लोगों की बिजली, पानी के कनेक्शन विभागों ने नाजायज कब्जे के नाम पर कटे हैं उन्हें तुरन्त बहाल किये जाने और नाजायज कब्जे के सभी मुकदमों को वन अधिकार कानून के आम्लीकरण तक रोकने के लिये सरकार को बाधित करना होगा।
नए पंचायती राज के बावजूद समाज की वास्तविक स्थिति नहीं बदली
सामाजिक व आर्थिक विकास की योजना बनाने में आम लोगों की भागीदारी तथा पंचायतों के माध्यम से उस योजना को लागू करवाने और निचले स्तर की विकास की वास्तविक ज़रूरतों को शामिल करके नीचे से ऊपर योजना (bottom up planning) निर्माण इन संवैधानिक प्रावधानों का लक्ष्य है।
भविष्य में प्राकृतिक आपदा तथा बड़े भूकम्प से होने वाले खतरों से होने वाली जान-माल की हानि को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ होने वाले पर्यावरणीय बदलाव का असर पूरे भारत पर पड़ता है। इसलिये हिमालय से भारत तथा दक्षिण एशिया को मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं को सन्तुलित व टिकाऊ रूप में बनाए रखने के लिये हिमालय व हिमालयवासियों के संरक्षण की जरूरत है न कि दोहन की। पंचायतों को अपने इलाके की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी का ध्यान रखकर विकास योजना बनानी चाहिए तथा ऐसे हर सरकारी व कम्पनियों के कार्य व परियोजना का विरोध करना चाहिए जो पर्यावरण क्षति, आजीविका के विनाश व आपदा का कारण बने।जब 73वें संविधान संशोधन पर बहसें चल रही थीं, तब यह भी कहा जा रहा था कि एक तो केन्द्रीय व राज्य सरकारों की योजनाएँ ज़मीनी स्तर पर विकास की वास्तविक जरूरत को प्रतिबिंबित नहीं करती और दूसरे सरकारी भ्रष्टाचार के कारण सौ में से पन्द्रह रुपए नीचे गाँवों में पहुँच रहा है।
इन संवैधानिक बदलावों को देखें तो लगता है कि देश में सभी नागरिकों को लोकतांत्रिक तरीके से अपने आर्थिक व सामाजिक विकास निर्धारित करने में भागीदारी मिल गई है तथा सामाजिक अन्याय व ऊँच-नीच से मुक्ति मिल चुकी है। इस तरह यह माना जा रहा था कि ये उक्त संवैधानिक बदलाव बड़ा बदलाव लाएँगे परन्तु इतने सालों बाद भी वास्तविकता इस कल्पना से भिन्न है।
1. आर्थिक व सामाजिक विकास में जन भागीदारी आज भी नगण्य है। सहभागिता व पारदर्शिता के नाम पर केवल कागजी खानापूर्ति हो रही है। सरकारी अधिकारी व जन प्रतिनिधि ही सब निर्धारित करने में सर्वेसर्वा बन गए हैं। जबकि संवैधानिक मंशा तो यह थी कि जनता ही अपनी आर्थिक व सामाजिक विकास की योजना का निर्माण करेगी जिसे सरकारें लागू करेंगी। अधिकारियों व चुने हुए प्रतिनिधियों के पंचायती राज व्यवस्था में वर्चस्व के कारण जन भागीदारी कहीं नहीं दिखती तथा ग्रामसभा एक निष्क्रिय और औपचारिक संस्था मात्र बन कर रह गई है। इन्ही कारणों से पंचायतें भ्रष्टाचार का केन्द्र बन गई या सरकारी स्थापित व्यवस्था द्वारा बना दी गईं हैं।
2. खेती, ग्रामीण उद्यमों व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नई पंचायती राज व्यवस्था के कारण कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाया। स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण व उससे समुदाय की टिकाऊ आजीविका खड़ी करने का उद्देश्य हासिल नहीं किया जा सका।
3. सामाजिक न्याय के उद्देश्य को हासिल नहीं किया जा सका तथा आज इतने वर्षों बाद भी जातीय द्वेष व धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है और गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं व पिछड़ों के साथ हो रहे अन्याय में कमी नहीं देखी जा रही। जबकि न्याय पंचायत एक निष्क्रिय संस्था मात्र है, क्योंकि चुनी हुई पंचायत ही न्याय पंचायत की भूमिका में है, जो स्वभाविक तौर पर निजी व अपने पक्ष के मतदाता के हित में कम करती है।
4. 73वें संविधान संशोधन व PESA कानून की मंशा के विपरीत सरकारें केन्द्रीय व राज्य स्तर पर ही गाँवों के विकास की योजनाओं का निर्माण कर रही है। उन योजनाओं की गतिविधियों व कार्यान्वयन का ही विकेन्द्रीकरण हो रहा है। इस कारण गाँवों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार न तो विकास योजना बन पा रही और न ही स्थानीय जरूरत के अनुरूप गाँवों के समग्र विकास के कार्यक्रम चल पा रहे हैं। इससे गैर जरूरी कार्यों पर खर्च व भ्रष्टाचार भी बढ़ा है और पंचायत ऊपर की सरकारों के कार्यों को लागू करने की एजेंसी मात्र बनकर रह गई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज पंचायत व ग्रामसभा की बैठकों की तारीख व एजेंडे का भी ज़िलाधीश निर्धारण कर रहा है।
5. प्राकृतिक संसाधनों-जल जंगल, ज़मीन, खनिज, वन इत्यादि पर कम्पनियों व व्यापारियों का नियंत्रण होता जा रहा है, परिणामस्वरूप लोगों की स्थानीय आजीविका का आधार नष्ट हो रहा है। जबकि कानून की दृष्टि से यह साझा संसाधन जनता के नियंत्रण में हो जाने चाहिए थे। यही 73वें संविधान संशोधन, वनाधिकार कानून व PESA कानून की मंशा तथा लक्ष्य था।
स्वराज के लक्ष्य को हासिल करने के लिये पंचायती राज से अपेक्षाएँ
1. हमारी अपेक्षा होनी चाहिए कि 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुरूप पंचायतों को स्थानीय स्वशासन की वास्तविक इकाई के रूप में स्थापित करने के लिये विकास नियोजन व आम्लीकरण के लिये कार्यकारी व न्यायिक शक्तियाँ, कार्य, धन व कर्मचारी संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप दी जाएँ। सामाजिक न्याय व आर्थिक विकास की योजना को व्यावहारिक रूप में जन सहभागिता से बनाया जाये। जिला योजना समिति को क्रियाशील बनाया जाये तथा जिला की सम्पूर्ण योजना को इस स्तर पर समायोजित किया जाये। इसकी प्रतिलिपि राज्य व केन्द्रीय सरकार को उनकी केन्द्रीय विकास योजना में शामिल करने के लिये भेजा जाये तथा इन जिला योजनाओं को कानूनी तौर पर उपर की योजनाओं में सम्मिलित किया जाये।
2. भ्रष्टाचार व अक्षमता रोकने के लिये अधिकारियों, कर्मचारियों व जनप्रतिनिधिओं पर रोक लगे।
3. प्रशासन तंत्र की भूमिका सीमित व निर्धारित होनी चाहिए ताकि वे ग्रामसभा व पंचायत के अधिकार क्षेत्र में दखल न कर सकें।
4. गाँवों की विकास की योजना को केन्द्रीय स्तर पर निर्धारित करना अनुचित है। वास्तव में इनके ऊपर निर्धारित योजनाओं की गतिविधियों का ही विकेन्द्रीकरण हो रहा है। इससे गाँवों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार विकास के कार्यक्रम नहीं चल पा रहे हैं। अनुचित व अनुपयोगी योजनाएँ व कार्य जो स्थानीय स्तर पर वांछित नहीं होती हैं, परन्तु केन्द्रीय व राज्य सरकार की योजना के तहत थोप दी जाती हैं, पर रोक लगनी चाहिए तथा किसी भी तरह के अनुपयोगी कार्यों व खर्चों पर भी रोक लगे। ऊपर से थोपे हुए विकेन्द्रीकरण पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए। आज हमें नीचे से ऊपर तथा ऊपर से नीचे योजना निर्माण व उनके जुड़ाव के साथ विकास योजन के निर्माण पर भी गौर करना होगा।
5. पंचायत संसाधन व टैक्स पर भी चर्चा हो। सरकार को अपने समेकित कोष से स्थानीय विकास योजना पर ज्यादा खर्च करना चाहिए, क्योंकि सरकार ने पहले ही हर चीज पर टैक्स लगा रखा है। राज्य योजना में यह एक प्रमुख मद होनी चाहिए।
6. न्याय पंचायत में चुने हुए पंचायत प्रतिनिधि शामिल नहीं होने चाहिए। न्याय पंचायत के लिये गाँवों के न्याय प्रिय व्यक्तियों के सदन का ग्राम सभा चयन करे। जिसमें महिलाओं, आदिवासी, दलित व कमजोर तबके के लोगों को प्रतिनिधित्व में आरक्षित स्थान हो।
7. वन अधिकार कानून 2006 के तहत वन अधिकार लोगों को प्रदान किये जाएँ व वनों को गाँवों व स्थानीय समुदायों को सौंपा जाये। इसके लिये ग्रामसभा व पंचायतों को पहल करनी होगी।
8. स्थानीय साझा सम्पदाओं मुख्यतया प्राकृतिक संसाधन जिन में जल, जंगल, ज़मीन, खनिज संसाधन इत्यादि शामिल हैं को ग्रामसभा के वास्तविक नियंत्रण में सौंपा जाये व उनके दोहन का प्राथमिक अधिकार स्थानीय समुदायों व ग्रामसभा का हो। जबकि व्यावसायिक दोहन पर सरकार व कम्पनियाँ प्रभावित समुदाय व ग्रामसभा को उस कारोबार में कम-से-कम 26% हिस्सा बदले में दे।
9. हिमाचल एक पहाड़ी प्रदेश है ऐसे में यहाँ पहाड़ की भौगोलिक, भूगर्भीय तथा पारिस्थितिकी के अनुरूप विकास होना चाहिए अन्यथा यह विनाश का कारण ही बनेगा। इसलिये हिमालय नीति बने और उसी के मुताबिक गाँवों से लेकर प्रदेश स्तर तक विकास की योजना बने।
10. ग्रामसभा व पूरे पहाड़ी समाज को पर्यावरण संरक्षण तथा स्वावलम्बी, टिकाऊ व सम्मानजनक आजीविका के आधार को खड़ा करने के प्रति जागरूक व सशक्त करना होगा तथा प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम समाज के नियंत्रण व कम्पनियों द्वारा इनकी व्यावसायिक लूट से रक्षा के लिये संघर्ष करना होगा।
अतः हमें आपसे ऊम्मीद है कि इन चुनावों में आप इन मुद्दों पर चर्चा करेंगे और ऐसे प्रतिनिधियों को चुनेंगे जो इन मुद्दों को समझने और लागू करवाने के लिये आगे आएँगे।
सम्पर्क
हिमालय नीति अभियान,
गाँव खुंदन, डाक बंजार,
जिला कुल्लू, हिमाचल प्रदेश -175123,
ईमेल: gumanhna@gmail.com,
फोन: 9418277220
निवेदक :
गुमान सिंह, कुल्भूषण उपमन्यु, आर एस नेगी, सन्दीप मिन्हास, विद्या नेगी, जगजीत सिंह दुखिया, खमेन्दर सिंह, संत राम, राजेन्द्र चौहान, धर्म चंद यादव, विशाल दीप, प्रवेश चंदेल, रतन चंद, केशव चंद्र शर्मा, लाल चंद कटोच, पुशपाल ठाकुर, रणजीत सिंह, अजीत राठौर, नन्द लाल शर्मा, चिरंजी लाल, पुराण चंद, राजू भट्ट, दुलम्भ सिंह, नरेंद्र परमार, जिया लाल नेगी,