नाजायज कब्ज़ा- बनाम वन अधिकार

Submitted by RuralWater on Sun, 06/21/2015 - 13:30

हिमाचल सन्दर्भ


हिमाचल उच्च न्यायालय भी टिकाऊ विकास का हवाला देते हुए आदेश करता है कि प्रदूषक को उसके तहत दंडित किया जाए। रियो घोषणापत्र का जिक्र करते हुए कहा गया कि सरकार को प्रदूषक को दंडित करने का कानून बनाना चाहिए। यह बहुत अच्छी बात है, सभी यह चाहते हैं। परन्तु जब हिमाचल में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं, ट्रान्समिशन लाइन, सीमेंट प्लांट, बड़े निर्माण संरचनाओं तथा बड़े उद्योगों से हो रहे जंगल के विनाश व पर्यावरणीय नुकसान की बात करें तो ये नए पर्यावरण संरक्षक कहाँ टिके रह पाते हैं? हिमाचल के किसानों द्वारा किये गए नाजायज कब्जे के मसले पर हिमाचल उच्च न्यायालय का 6 अप्रैल 2015 का आदेश पर्यावरण की आड़ में लिया गया एक ऐसा फ़ैसला है, जिसमें वनाधिकार कानून-2006 व उस पर माननीय उच्चतम न्यायालय के प्रावधानों व आदेशों की अवहेलना हुई है, साथ में जीने के संवैधानिक अधिकार की भी अनदेखी की गई है।

सरकारों व न्यायालयों की कारपोरेट पोशाक नीयति


आजकल पर्यावरण के नाम पर कोर्ट भी अजब फैसले सुना रहे हैं। ऐसा ही फ़ैसला ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पिछले दिनों मनाली रोहतांग के मसले पर दिया। जिस में आदेश दिया गया कि सभी दुकानों, ढाबों, घरों जो इस सड़क के आस-पास सरकारी भूमि पर हैं, को यहाँ से हटाया जाए।

अब दस वर्ष पुरानी व कोई भी डीजल गाड़ियाँ रोहतांग जा ही नहीं सकेंगीं। बाद में कुछ बदलाव करके आदेश दिये कि पर्यटकों को ले जाने वाली गाड़ियों, जिस में डीजल गाड़ी से 2500 व पेट्रोल गाड़ी से 1000 रुपया वसूला जाए और फिर उसे पर्यावरण पर खर्च किया जाए। रोपवे को पीपीपी मॉडल पर लगाया जाए तथा सीएनजी गाड़ियाँ चलाने के भी आदेश दे डाले, जबकि यह अभी तय नहीं है कि रोहतांग में सीएनजी बस सेवा चलाना सम्भव भी है या नहीं?

इस आदेश से फिलवक्त जो आजीविका का नुकसान होगा, उस पर एनजीटी ने विस्थापितों को टिकाऊ विकास का हवाला देकर दिलासा दिया कि जब टिकाऊ विकास होगा, तो उन्हें हुई असुविधाओं की भरपाई स्वत: हो जाएगी।

हिमाचल उच्च न्यायालय भी टिकाऊ विकास का हवाला देते हुए आदेश करता है कि प्रदूषक को उसके तहत दंडित किया जाए। रियो घोषणापत्र का जिक्र करते हुए कहा गया कि सरकार को प्रदूषक को दंडित करने का कानून बनाना चाहिए। यह बहुत अच्छी बात है, सभी यह चाहते हैं। परन्तु जब हिमाचल में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं, ट्रान्समिशन लाइन, सीमेंट प्लांट, बड़े निर्माण संरचनाओं तथा बड़े उद्योगों से हो रहे जंगल के विनाश व पर्यावरणीय नुकसान की बात करें तो ये नए पर्यावरण संरक्षक कहाँ टिके रह पाते हैं?

इन सभी परियोजनाओं ने सरकारी, वन व शामलात भूमि पर नाजायज कब्जा किये, गैरकानूनी तरीके से अनुछेद-5 के क्षेत्रों में सरकारी व आदिवासियों की भूमि हथियाई – उस पर कोर्ट द्वारा क्या आदेश दिये गए? आज से कुछ साल पहले जब कड्छ्म बांगतू (किन्नौर) जलविद्युत परियोजना व वाघेरी सीमेंट प्लांट (नालागढ़) में जेपी कम्पनी ने सैंकड़ों बीघा वन व शामलात भूमि पर नाजायज कब्ज़ा किया था, तब इस का स्थानीय जनता ने इसका भारी विरोध किया व सड़कों पर उतरकर आन्दोलन भी किया।

अन्त में जब सरकार ने कुछ कार्यवाही नहीं की तो किन्नौर के आदिवासी किसानों ने ज़िलाधीश के विरुद्ध एफ़आईआर करवाने के लिये थाने में पर्चा दिया। इसे राजनैतिक दबाव से रोक दिया गया। पिछले पाँच सालों से यह मुकदमा हिमाचल उच्च न्यायालय में है – उस नाजायज कब्जे पर क्या बोला, कोई कभी? ऐसे कई मामले होंगे जहाँ परियोजनाओं ने नाजायज कब्ज़े कर रखे होंगे, परन्तु विकास के छदम पर्दे के पीछे सरकार व कोर्ट आज तक कुछ नहीं बोला। ऐसे में किसान और गरीब आदमी जो दो जून की रोटी के लिये संघर्ष कर रहा है आज जो इन की नजर में सब से बड़ा पर्यावरण विरोधी हो गया है, पर कम्पनियाँ नहीं।

सरकारें तो आज कारपोरेट पोषक हैं ही, परन्तु न्यायालय भी अब कारपोरेट के हितैषी दिखने के लिये पर्यावरण संरक्षण की व्याख्या कुतर्कों के सहारे कर रहा है। जनता को प्रदूषक घोषित किया जा रहा है जबकि कारपोरेट विकास के मसीहा। यह सत्य सर्वविदित होते हुए भी कि औद्योगिक विश्व का उद्भव ही प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का मूल कारण है, फिर भी कारपोरेट पक्षकारी के लिये ऐसे कुतर्क गढ़े जा रहे हैं। कारपोरेट विकास का उद्देश्य केवल मुनाफे के लिये सांझा संसाधनों को जनता के नियन्त्रण से मुक्त कर के प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन ही होता है।

उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना, टिकाऊ उत्पादों के बजाय use and throw वाली वस्तुओं का उत्पादन कर के संसाधनों के विनाश के अलावा आज हर जगह प्लास्टिक व जगह-जगह कचरा फैलने का मूल कारण बना है। जबकि कारपोरेट विकास का फायदा समाज के ऊपरी तबके को ही मिला है तथा देश की जनता, खासकर किसान दो जून के लिये आज भी संघर्ष कर रहा है। हिमाचल की 91% जनता गाँव में रह रही है और अगर अपनी मेहनत से जीने के लिये वन भूमि पर खेती कर रहा है तो इसे नाजायज कब्ज़ा नहीं बल्कि उसका हक माना जाना चाहिए।

उक्त फैसले में हिमाचल उच्च न्यायालय ने दर्शाया है कि वर्ष 2013-14 में दस बीघा के ऊपर के 9612 नाजायज कब्जा के मामले दर्ज किये गए हैं, जबकि इससे कई गुना ज्यादा मामले विभिन्न कोर्ट में लम्बित पड़े होंगे। अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे प्रदेश में ऐसे नाजायज कब्जे के तीन लाख से भी ऊपर मामले वास्तव में होंगे।

कमोबेश हर किसान परिवार खेती व आवास के लिये वन भूमि पर कब्ज़ा होगा। क्योंकि यह हिमाचल में परंपरा से होता है कि खेत के साथ लगती वन भूमि पर खेती व आवास बनाया जाता है, जिसका किसानों को वाजिब –उल –अर्ज (निस्तार का) अधिकार देता है। सच यह भी है कि शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्रों में दुकानों, घरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिये बड़े पैमाने पर नाजायज कब्ज़े किये गए हैं।

नाजायज कब्जा हटाने का काम एक कानूनी प्रक्रिया के तहत किया जा सकता है, परन्तु पिछले दिनों जिस तरह सोलंग, मनाली घाटी तथा गोहर में कब्जे हटाए गए, उसमें संवैधानिक अवहेलना निश्चित तौर पर हुई है।

वन भूमि पर आजीविका के लिये हस्तक्षेप के कारण


हिमाचल में औद्योगीकरण, अधोसंरचना विकास, शहरीकरण तथा आवासीय गृह निर्माण इत्यादि के कृषि भूमि पर दबाव के चलते आज 9% से भी कम कृषि भूमि बची है। प्रदेश की 90% आबादी गाँवों में रहती है। आज भी कृषि पर यहाँ की 69 लाख आबादी में से लगभग 60% की आजीविका मुख्यतः चल रही है। पहाड़ी व मुख्यतः असिंचित कृषि भूमि पर कड़ी मेहनत करके यहाँ के किसानों ने बागवानी का विकास और सब्जी उत्पादन जैसे कार्य शुरू किये, जिससे किसानों की आय में बढ़ोत्तरी हुई है।

इसी खेती व आवासीय भूमि का समय के साथ हिस्सेदारी बढ़ने से जोतों का आकार कम होता गया। ऐसे में कृषि भूमि, आबादी के अनुपात में बहुत कम रह गई है। परिणामस्वरूप 80% हिमाचली किसान सीमान्त किसान रह गया है, जिस के पास एक एकड़ से भी कम की मल्कियत वाली भूमि बची है। बहुत से किसान परिवार भूमिहीन या एक बीघा व इससे भी कम भूमि के मालिक रह गए हैं। इन्हीं कारणों से किसानों ने आजीविका की ज़रूरतों के लिये खेती का वन भूमि पर फैलाव किया।

वन संरक्षण अधिनियम 1980 के आने के बाद यह कार्य रुक गया। हजारों नई तोड़ के आवेदनों पर आज भी पट्टे जारी नहीं हो सके हैं, जबकि किसान उन जोतों पर पिछले तीन-चार दशकों से खेती कर रहे हैं। किन्नौर तथा भाखड़ा विस्थापित इलाकों में इन्हें नई तोड़ की मिसस्लों को नाजायज कब्ज़ा कह कर, पिछले वर्षों में उन पर बेदखली की कार्यवाही की गई। साल 2002 जुलाई में सरकार ने फ़ैसला किया कि सभी नाजायज कब्ज़े बहाल कर दिये जाएँगे।दखल के कई अन्य कारण भी हैं। छठवें से आठवें दशक तक यहाँ भूमि सुधार का कार्य पूर्ण हुआ। परिणामस्वरूप दलित, आदिवासी व मुजारों (tenants) के पास कुछ भूमि की मल्कियत गई और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया। हिमाचली किसान के पास बहुत कम कृषि भूमि उपलब्ध होने के कारण सन् 1968 में प्रदेश सरकार ने दलित, मुजारों व भूमिहीनों को अतिरिक्त कृषि भूमि (कम-से-कम सबों को 5 बीघा) देने के लिये नई तोड़ का नियम बनाया। 7वें व 8वें दशक में लाखों बीघा वन भूमि कृषि के लिये इसके तहत किसानों को आबंटित की गई।

वन संरक्षण अधिनियम 1980 के आने के बाद यह कार्य रुक गया। हजारों नई तोड़ के आवेदनों पर आज भी पट्टे जारी नहीं हो सके हैं, जबकि किसान उन जोतों पर पिछले तीन-चार दशकों से खेती कर रहे हैं। किन्नौर तथा भाखड़ा विस्थापित इलाकों में इन्हें नई तोड़ की मिसस्लों को नाजायज कब्ज़ा कह कर, पिछले वर्षों में उन पर बेदखली की कार्यवाही की गई। साल 2002 जुलाई में सरकार ने फ़ैसला किया कि सभी नाजायज कब्ज़े बहाल कर दिये जाएँगे।

इसके लिये एक आवेदन फार्म दिया गया, जिसकी सरकार ने किसानों से 50 रुपया कीमत भी वसूली। लगभग एक लाख पचास हजार उक्त आवेदन फार्म, नक्शा तथा एफ़िडेविट सहित तहसीलों में जमा किये गए। जिस पर बाद में कोई कार्यवाही नहीं हुई और ऐसे में आज वे सभी आवेदन भी नाजायज कब्जा की परिधि में आ जाते हैं। भाखड़ा विस्थापितों की कहानी अलग ही है; 1963 में भाखड़ा बाँध में जल भराव शुरू हुआ, जिसमें 371 के करीब गाँवों की लाखों एकड़ कृषि व वन भूमि 168 वर्ग किलोमीटर डूब क्षेत्र में पानी में समा गई।

उस समय के जो भूमि मालिक थे, उन्हें हरियाणा के हिसार, सिरसा व फतेहाबाद इत्यादि में भूमि के बदले भूमि दी गई। बहुत से किसान परिवार वहाँ नहीं गए। विस्थापितों में जो भूमिहीन थे, खास कर दलित, मुजारे व दस्तकार उन्हें तो भूमि के बदले भूमि भी उपलब्ध नहीं हुई। बाद में उन्हें आसपास के जंगलों में बसने को सरकार द्वारा कहा गया तथा इनके लिये विशेष नई तोड़ नियम 1971 भी बनाए गए।

जिसके तहत कुछ परिवारों को पट्टे मिल पाए, जबकि हजारों परिवार आज भी घर बना कर उस समय से वनों में बसे हैं परन्तु पट्टे न मिलने के कारण कब्जाधारी ही हैं। साल 2008 से किन्नौर व प्रदेश के दूसरे आदिवासी इलाकों में वन अधिकार कानून 2006 के अमलीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। लोगों ने वन अधिकार के दावे पेश किए, बाद में इन्हीं दावेदारों पर वन विभाग ने नाजायज कब्ज़े के मुकदमें बनाना शुरू किये ताकि डर के मारे आदिवासी किसान इस कानून के तहत वन भूमि पर दखल के दावे पेश न कर सके।

ऐसे में प्रदेश के किसानों द्वारा वन भूमि पर हस्तक्षेप परिवार पोषण के लिये खेती व रिहायशी घर के निर्माण लिये किया गया है। ज्यादातर हस्तक्षेप 2005 से पहले का ही है।

वैधानिक व्यवस्था


वनाधिकार कानून 2006 की धारा 4(5) प्रतिबन्धित करती है कि आदिवासी तथा अन्य परम्परागत वननिवासियों को वन भूमि पर कब्जे से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक इस कानून के तहत उनके परम्परागत वन अधिकारों की मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती। वनाधिकार कानून 2006 की धारा -2 व 3(1) आदिवासियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों को अधिकार देती है कि चाहे वे वन के अन्दर या बाहर रहते हों परन्तु अपनी आजीविका की मूल ज़रूरतों के लिये वन व वन भूमि पर निर्भर हों, ऐसे में वे वन भूमि पर स्वयं की खेती तथा आवास करने का अधिकार रखते हैं। परन्तु यह दख़ल/कब्जा 13 दिसम्बर 2005 से पहले का होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय ने 2011 की एक जनहित याचिका क्रमांक 180 के फैसले में इसी तर्क को दोहराते हुए आदेश दिया कि आदिवासी तथा अन्य परम्परागत वन निवासी को वन भूमि पर कब्जे से तब तक नहीं हटाया जा सकता व वन भूमि हस्तान्तरण प्रक्रिया अमल में नहीं लाई जा सकेगी, जब तक इस कानून के तहत वन अधिकारों की मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती। वनाधिकार कानून 2006 विशेष केन्द्रीय अधिनियम है।

ऐसे में उक्त कानून वन अधिनियमों व राज्य के क़ानूनों जैसे H.P. Public Premises & Land (Eviction & Rent Recovery) Act, 1971 व Himachal Pradesh Land Revenue Act, Section 163 के प्रावधानों के तहत होने वाली कब्जा हटाने व वन संरक्षण कानून-1980 के तहत होने वाली वन भूमि हस्तान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगाता है। ऐसे में उक्त कोर्ट आदेश को वैधानिक नहीं माना जा सकता और न ही बाध्यकारी। सरकारों व आदिवासियों तथा अन्य परम्परागत वन निवासी क्या कर सकते हैं?

इसलिये राज्य सरकार को हिमाचल उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा न्याय के पक्ष में खटखटाना चाहिए तथा आदिवासी व अन्य वननिवासियों के हितों की पैरवी की जानी चाहिए। सच तो यह है कि प्रदेश सरकार ने उच्च न्यायालय में भी इस केस में उचित पक्ष नहीं रखा तथा न ही वन अधिकार कानून को लागू करने में अभिरुचि दिखाई है। यह मसला वर्ष 2008 से उच्च न्यायालय में चल रहा था।

विगत साल में जब कोर्ट ने 10 विघा से ऊपर के नाजायज कब्जों को हटाने का आदेश जारी किया था, उस समय भी हिमालय नीति अभियान ने सरकार को सुझाव दिया था कि वन अधिकार कानून के तहत कोर्ट में पक्ष रखे। वर्ष 2014 अगस्त में वन अधिकार कानून के तहत गठित मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय निगरानी समिति ने भी इस पर प्रस्ताव पारित किया और सरकार से अनुरोध किया था कि उक्त कानून के तहत आदिवासी व अन्य परम्परागत वननिवासियों के हितों की पैरवी की जाए, परन्तु सरकार व इन के पैरोकारों ने इस बात को नजरअन्दाज किया।

मनाली रोहतांग के मसले में भी सरकार का रवैया पहले से ही लचर रहा तथा एनजीटी में स्थानीय लघु पर्यटन कारोबारियों के हितों की ठीक से पैरवी नहीं की गई। परिणामस्वरूप आज वहाँ पर्यटन उद्योग पर निर्भर हजारों स्वरोजगारियों, छोटे कारोबारियों, श्रमिकों तथा पर्यटन उद्योग पर ही संकट के बादल मँडरा रहे हैं।

मेरा प्रदेश के किसानों, जो मुख्यरूप में आदिवासी व अन्य परम्परागत वन निवासियों की श्रेणी में आते हैं को सुझाव है कि उन को अपने विरुद्ध हो रही इस गैरकानूनी कार्यवाही के खिलाफ संगठित होकर विरोध करना चाहिए तथा उच्चतम न्यायालय में भी अपना पक्ष रखना चाहिए।

गुमान सिंह
संयोजक हिमालया नीति अभियान
गाँव खुंदन डाक बंजार जिला कुल्लू हिमाचल प्रदेश
ईमेल :gumanhna@gmail.com,