प्राकृतिक सौंदर्य से सभी को अपनी आरे आकर्षित करने वाले हिमाचल प्रदेश के वनों पर संकट मंडराने लगा है। विकास के नाम पर किन्नौर जिले में शुरू की गए हाइड्रो प्रोजेक्ट वनों के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहे हैं। इन प्रोजेक्ट्स के कारण किन्नौर में वन आवरण 4.6 प्रतिशत तक घट गया है, जबकि सैंकड़ों प्रोजेक्ट अभी प्रतावित है। इस बात की जानकारी स्टेट सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में दी गई है। जिससे पर्यवरण प्रेमियों को चिंता सताने लगी है।
मानवीय गतिविधियों के कारण लंबे समय से पर्यावरण में आश्चर्यजनक बदलाव आ रहे हैं। इससे जलवायु तो तेजी से परिवर्तित हो ही रही है, साथ ही धरती पर जीवनचक्र भी प्रभावित हो रहा है, लेकिन विकास कार्यों के लिए निरंतर किए जा रहे वनों के कटान ने इस समस्या का और भी अधिक बढ़ा दिया है। इसमें प्राकृतिक सौंदर्य के कारण स्वर्ग कहा जाने वाला हिमाचल भी अछूता नहीं रहा गया है। दरअसल हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने के लिए स्टेट सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज नामक संस्था का गठन किया गया था। संस्था से 24 वर्ष (1991 से 2015) तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया। विश्लेषण में सामने आया कि चीन की सीमा से सटे किन्नौर जिले में वन आवरण 4.6 प्रतिशत तक घट गया है। वन आवरण के कम होने का सबसे अहम कारण हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स को माना को माना जा रहा है।
विदित हो कि सरकार के आंकड़ों के अनुसार किन्नौर जिले में 30 हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं, जो कि हिमाचल प्रदेश के किसी भी जिले में सबसे ज्यादा संचालित पावर प्रोजेक्ट्स हैं, जबकि 50 से अधिक पावर प्रोजेक्ट का कार्य पर्यावरणीय स्वीकृति और अन्य औपचारिकताओं के कारण लंबित हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि 29 साल पहले यानी वर्ष 1991 में किन्नौर जिले का कुल वन क्षेत्र 633 वर्ग किलोमीटर था, जो वर्ष 2015 तक 29 वर्ग किलोमीटर घटर 604 वर्ग किलोमीटर रह गया। इसमे झाड़ी वाला क्षेत्र 89.9 प्रतिश और वन क्षेत्र 39.1 प्रतिशत कम हुआ है। इसके अलावा यदि शुक्ला कमेटी की माॅनिटरिंग कंप्लाइंस ऑफ हाइडल प्रोजेक्ट्स इन हिमाचल प्रदेश के आंकड़ों पर नजर डाले तो, किन्नौर में लगे एक हजार मेगावाॅट के कड़च्छम वांगतु प्रोजेक्ट में 10,540, नाथपा झाकड़ी में 1087, टीडोंग वन में 1261, सोरंग प्रोजेक्ट 184 पेड़ों को काटा गया है। ट्रांसमिशन लाइन बिछाने के लिए भी हजारों की संख्या में पेड़ों को काटा गया है। ऐसे में यदि अन्य प्रोजेक्टों का कार्य भी शुरू किया जाता है, तो वृहद स्तर पर पेड़ों का कटान किया जाएगा। जो कि यहां की भौगोलिक स्थिति के अनुसार काफी खतरनाक होगा और पहाड़ दरकने की घटनाओं में भी इजाफा हो सकता है। साथ ही बाढ़ और भूकंप के दौरान खतरा कई गुना बढ़ने की संभावना है।
उल्लेखनीय है कि किन्नौर जिलो भूकंप और बाढ़ की दृष्टि से अति संवेदनशील जिला है। एक अगस्त 2000 को सतलुज नदी में आई बाढ़ से शिमला और किन्नौर में 150 से अधिक लोग मरे थे, जबकि लगभग एक हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। 26 जून 2005 को भी बाढ़ के कारण सतलुज नदी का जलस्तर 15 मीटर तक बढ़ गया था, जिस कारण युद्ध स्तर पर अभियान चलाकर पांच हजार लोगों को रेस्क्यू किया गया। इस दौरान करीब 800 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। ऐसे में लगातार वनों का घटना खतरे की घंटी है। इससे के लिए सरकार को सूझबूझ से निर्णय लेते हुए पर्यावरण के साथ सामंजस्य बैठाने की जरूरत है, अन्यथा विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ खिलवाड़ इंसानों के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
स्टेट सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट विस्तार से यहां पढ़ें - AN ANALYSIS OF THE TEMPORAL CHANGES IN THE FORESTS OF HIMACHAL PRADESH- A REVIEW