भीषण पर्यावरणीय संकटों के बीच बीते वर्ष 21 नवंबर को उत्तराखंड सरकार ने अधिसूचना जारी कर ‘डीम्ड फाॅरेस्ट’ की परिभाषा को ही बदल दिया था। जिसके अनुसार राजस्व रिकाॅर्ड में दर्ज 10 हेक्टेयर क्षेत्र या 60 प्रतिशत चंदवा घनत्व (पेड़ों की छांव से घिरा हिस्सा) वाले इलाके को ही वन माना जाएगा। साथ ही ऐसे इलाके को भी वन की श्रेणी में रखा गया, जहां स्थानीय प्रजातियों के करीब 75 प्रतिशत पौधों हों। हालांकि फलों के बाग और उद्यान को वन की इस नई परिभाषा से बाहर रखा गया। इस संबंध में शासन ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को पत्र भेजा। केंद्र ने भी स्पष्ट कर दिया कि इस संबंध में राज्य खुद निर्णय ले सकता है। इसके बाद राज्य ने अधिसूचना जारी कर दी। इससे राजस्व रिकाॅर्ड में दर्ज दस हेक्टेयर से कम इलाकों में फैले वनों के अस्तित्व पर खतरे की आशंका बढ़ गई थी। जिस कारण सरकार के इस निर्णय का काफी विरोध हुआ और ये विवाद का एक मुद्दा बन गया। इसके बावजूद भी सरकार अपने निर्णय से पीछे हटने को तैयार ही नहीं थी।
उत्तराखं राज्य में करीब 71 प्रतिशत भूभाग वनों से घिरा है, लेकिन शासन और प्रशासन की उदासीनता के कारण वनों का बेतहाशा दोहन किया गया। वन आवरण के घटते दायरे ने सभी को चिंता में डाल दिया था। पर्यावरणविद सरकार के इस रवैया से काफी नाखुश थे, लेकिन भारतीय वन सर्वेक्षण की 2019 की रिपोर्ट से सरकार के साथ ही वन विभाग को काफी सुकून मिला। रिपोर्ट में बताया गया कि प्रदेश के वन आवरण में 8.04 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है, जिसमें पांच वर्ग किलोमीटर का इजाफा घोषित वन क्षेत्र और गैर वन क्षेत्र में 3.04 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ। इसमें उत्तरकाशी जिले के वन आवरण में 8 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ, जो कि प्रदेश में सबसे अधिक है, जबकि देहरादून में 3.69, पिथौरागढ़ में 1.80, बागेश्वर में 1.69, चंपावत में 1.55, अल्मोड़ा में 1.14, पौड़ी में 0.99, टिहरी में 0.98, चमोली में 0.43, रुद्रप्रयाग में 1.17 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में इजाफा हुआ है, लेकिन हरिद्वार, नैनीताल और यूएस नगर के वन आवरण में क्रमशः 2.758, 6.44 और 4.21 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। पहले की अपेक्षा कुल वन आवरण की वृद्धि में कमी आना और तीन जिलों का कम हुआ वन आवरण चिंता का विषय है। हालांकि पर्यावरण के क्षेत्र से जुड़े लोग इन आंकड़ों से संतुष्ट नहीं थे। दरअसल भारतीय वन सर्वेक्षण की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के वन आवरण में 23 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ था, जो कि वर्ष 2019 से काफी ज्यादा है, लेकिन इसके प्रति न तो प्रदेश सरकार गंभीर थी और न ही प्रशासन।
सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच बीते वर्ष राज्य सरकार ने ‘वन’ की परिभाषा को ही बदल दिया। सरकार के इस निर्णय को नैनीताल निवासी विनोद कुमार पांडे ने हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए याचिका दायर की। उन्होंने कोर्ट में दलील दी कि उत्तराखंड में 4 प्रतिशत से अधिक जंगल ‘अवर्गीकृत वन’ है, जो सरकार द्वारा निर्धारित ‘वन’ की नई परिभाषा में फिट नहीं बैठते हैं, जिस कारण इन वनों को नए आदेश में शामिल नहीं किया जाएगा। उन्होंने यह भी दलील दी थी कि भारतीय वन सर्वेक्षण की 2017 की रिपोर्ट के अुनसार उत्तराखंड में कुल वन क्षेत्र का 4.13 प्रतिशत इलाका ‘अवर्गीकृत वन’ है। इसमें से अधिकांश क्षेत्र मानव बस्तियों और जंगलों के बीच बफर जोन के रूप में कार्य करते हैं। याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस भेजा था और सरकार के इस आदेश पर रोक लगा दी। इन सबके बाद राज्य सरकार अब हरकत में आई है। मंत्रीमंडल के सामने मामला आने पर वन मंत्री हरक सिंह रावत, शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक, प्रमुख सचिव वन आनंद वर्द्धन और राजस्व सचिव सुशील कुमार को शामिल कर समिति का गठन किया गया। समिति की रिपोर्ट को मंजूरी देते हुए वनों की नई परिभाषा निर्धारित की है। जिसके अनुसार अब दस हेक्टेयर के स्थान पर पांच हेक्टेयर या उससे अधिक क्षेत्र को ही वन माना जाएगा। साथ ही इस क्षेत्र में देशी वृक्षों की 75 प्रतिशत से अधिक प्रजातियां होनी चाहिए, जबकि चंदवा घनत्व (पेड़ों की छांव के घिरा क्षेत्र) 60 प्रतिशत के बजाए 40 प्रतिशत कर दिया गया है।