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विज्ञान गंगा, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015
वैज्ञानिकों ने पौधों द्वारा पत्तियों में सौर-ऊर्जा को आहार के रूप में संकलित करने के प्रक्रम प्रकाश संश्लेषण का विस्तृत अध्ययन करके एक युक्ति का आविष्कार किया है, जिसे उन्होंने कृत्रिम पत्ती नाम दिया है। कृत्रिम पत्ती को जल में रखने से उसके एक ओर हाइड्रोजन और दूसरी ओर ऑक्सीजन गैस उत्सर्जित होने लगती है। इस प्रकार प्राप्त हाइड्रोजन की सस्ती, सतत आपूर्ति का ईंधन सेल में इस्तेमाल करके सीधे सौर ऊर्जा को विद्युत में बदला जा सकता है। इस प्रकार की कृत्रिम पत्ती ईंधन सेल युक्ति में ऊर्जा समस्या का स्थाई हल देखा जा रहा है।
प्रकृति एक बड़ी प्रयोगशाला है। यहाँ नित नूतन परिवर्तन हो रहे हैं। जीवों को बदलते परिवेश जैसे देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अनुकूलन करना पड़ता है। जो जीव अनुकूलन नहीं कर पाते वे नष्ट हो जाते हैं। पृथ्वी पर जीवन का इतिहास 3.8 अरब वर्ष पुराना है। इस 3.8 अरब वर्ष में करोड़ों जीव प्रजातियों का विकास हुआ। माना जाता है कि उनमें से 99 प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं। जो 1 प्रतिशत प्रजातियाँ सब विपरीत परिस्थितियों में अनुकूलन कर अभी तक अस्तित्व में बनी हुई हैं वे आज के सर्वश्रेष्ठ जीव हैं और उनमें ऐसी ऐसी अनुकूलित संरचनाओं का विकास हुआ है, जिनसे प्रेरणा लेकर मानव अपनी अनेक समस्याओं का हल ढूँढ सकता है और ढूँढ रहा है।मानव अपेक्षाकृत नया प्राणी है। इसके विकास का इतिहास संभवतः 200,0000 वर्ष से अधिक पुराना नहीं है। इसलिये अनुकूलन के क्रम में अनेक जीव अनेक अर्थों में हमसे बेहतर हैं। किन्तु किसी अज्ञात कारण से हममें बुद्धि, कल्पना और इच्छा शक्ति के विशिष्ट गुणों का उद्भव हुआ है। इस कारण हममें अपने परिवेश को भी अपने अनुकूल बनाने की वृत्ति आ गई है। इसके लिये हमने तरह-तरह के आविष्कार किए हैं। कठिनाई आवश्यकता की जननी है और आवश्यकता आविष्कार की। आविष्कार के लिये प्रयोग तो आवश्यक हैं ही, किन्तु प्रयोगों के लिये एक दिशा-संकेत भी चाहिए। प्रायः यह दिशा-संकेत एक अनायास किए गए प्रेक्षण से मिलता है। अनेक बार यह प्रेक्षण जीव शरीर की कोई संरचना या प्रक्रम भी हो सकता है। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने मानव जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याओं के समाधान किए तथा अनेक नवाचारों (पहले से विद्यमान प्रौद्योगिकियों में सुधारों) और आविष्कारों (एकदम नई युक्तियों के निर्माण) का प्रवर्तन किया है।
वास्तव में इन प्रयासों ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी की एक नई शाखा ‘‘जैव अनुकृतिकरण’’ या बायोमिमिक्री को जन्म दिया है। यह अभियांत्रिक डिजाइन की समस्या को पहचान कर एक जीव प्रजाति को ढूँढा जाता है जिसमें अनुकूलन उस समस्या के हल के अनुरूप हुआ हो और फिर उसका अनुकरण करके अपना डिजाइन तैयार किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि आपकी डिजाइन समस्या किसी भी क्षेत्र की हो किसी न किसी जीव में उसका हल अवश्य मिल जाएगा। इस बात को स्पष्ट करने के लिये नीचे कुछ उदाहरण दिए गए हैं :
प्रकाश संश्लेषण के अध्ययन से जल से हाइड्रोजन प्राप्त करने की युक्ति का निर्माण
वैज्ञानिकों ने पौधों द्वारा पत्तियों में सौर-ऊर्जा को आहार के रूप में संकलित करने के प्रक्रम प्रकाश संश्लेषण का विस्तृत अध्ययन करके एक युक्ति का आविष्कार किया है, जिसे उन्होंने कृत्रिम पत्ती नाम दिया है। कृत्रिम पत्ती को जल में रखने से उसके एक ओर हाइड्रोजन और दूसरी ओर ऑक्सीजन गैस उत्सर्जित होने लगती है। इस प्रकार प्राप्त हाइड्रोजन की सस्ती, सतत आपूर्ति का ईंधन सेल में इस्तेमाल करके सीधे सौर ऊर्जा को विद्युत में बदला जा सकता है। इस प्रकार की कृत्रिम पत्ती ईंधन सेल युक्ति में ऊर्जा समस्या का स्थाई हल देखा जा रहा है।
मांसभक्षी पौधे की पत्तियों के अध्ययन से पाइपों और बोतलों के अंदर लगाने के लिये अत्यंत फिसलने वाले पदार्थ का निर्माण
नेपेंथीस पिचर प्लांट के पौधे की पत्तियां घड़े के आकार की होती हैं और उनके मुख पर एक अत्यंत चिकना द्रव स्रावित होता है। जैसे ही कोई कीट इसके मुख पर बैठता है वह फिसल कर अंदर गिर जाता है, जहाँ स्रावित होने वाले पाचक रस उसे हजम कर जाते हैं। पत्ती के खुले मुख के इस फिसलने वाले पदार्थ का अनुकरण करके वैज्ञानिकों ने वैसे ही एक कृत्रिम पदार्थ का निर्माण किया है। इसका उपयोग अब जल और तेल पाइपों तथा जैम एवं सॉस की बोतलों में किया जा रहा है। इसके कारण पदार्थ इनकी दीवारों से नहीं चिपकते, उसकी अंतिम बूँद तक बाहर आ जाती हैं। ये अंदर जमते नहीं और इस कारण बर्फ बनने से फटने का खतरा नहीं रहता। काँच आदि पर इस पदार्थ की परत चढ़ा देने पर उनकी सतह पर गंदगी नहीं जमेगी और वे स्वच्छ बने रहेंगे।
परजीवी मक्खी के अध्ययन से एंटेना प्रौद्योगिकी में क्रांति की संभावना
ओर्मिया औक्रैकिया एक छोटी पीली, रात्रिचर परजीवी मक्खी है, जो दक्षिणी अमेरिकी और मैक्सिको में पाई जाती है। इसकी अगली टांगों के निकट अग्रवक्ष पर दो अनन्य संरचनाएं होती हैं जो कान का काम करती हैं। यह संरचनाएं इतनी पास-पास होती हैं कि उन पर किसी दिशा विशेष से पहुँचने वाली ध्वनियों में समय अंतराल का परिकलन व्यवहारतः असंभव है, लेकिन फिर भी ये मक्खियां अत्यंत परिशुद्धता से अपने लक्ष्य की स्थिति जान लेती हैं। ऐसा इनके कानों की कर्णपटल झिल्ली की विशिष्ट संरचना के कारण होता है, जो यांत्रिक रूप से एक दूसरे से जुड़ी रहती है और नैनोसेकेंड के काल अंतर का विभेदन कर सकती हैं।
अपनी इस विशेषता के कारण ये मक्खियां ग्राइलिडे परिवार के नर झिंगुरों की रति पुकार के आधार पर उनकी सही स्थिति का पता लगा लेती हैं और उसके ऊपर जाकर अपना लारवा छोड़ देती हैं जो उसके अंदर प्रविष्ट होकर 7-10 दिन में उसे मार देता है।
इस मक्खी के कर्णपटलों की संरचना का अध्ययन करके अमेरिका के एरिक सी हन्नाह ने एक एमईएमएस दिशा संवेदी प्रणाली का विकास किया है जो एंटेना प्रौद्योगिकी में क्रांति ला सकती है।
मानव नेत्र प्रेरित विस्तृत दृष्टिक्षेत्र युक्त कैमरा
मानव नेत्र का वक्रित पृष्ठ आधुनिकतम डिजिटल कैमरों की तुलना में अधिक विस्तृत क्षेत्र ब्रॉड विजन एरिया देख पाने की सुविधा प्रदान करता है। हमारी कैमरा अभियांत्रिकी के सामने चुनौती यह थी कि माइक्रोइलैक्ट्रॉनिक अवयवों को वक्रित पृष्ठ पर बिना उन्हें कोई नुकसान पहुँचाए कैसे समायोजित किया जाए। अब उत्तर पश्चिमी विश्वविद्यालय के योंगांग हुआंग तथा इलिनायस विश्वविद्यालय के जॉहन रोजर्स ने मानव नेत्र के ही आकार, आकृति और संरचना का जाली जैसे पदार्थ का बना एक डिजिटली कैमरा विकसित किया है, जिसके वक्रित पृष्ठ में इलैक्ट्रॉनिक अवयव लगाए गए हैं। इस प्रौद्योगिकी से एकदम स्पष्ट और फोकसित चित्र संभव हो जाएंगे और अंत में यह एक कृत्रिम रेटिना अथवा बायोनिक नेत्र के विकास में फलीभूत हो सकेगी।
गोह के पैरों की संरचना के अध्ययन से आसंजक टेपे तथा नेत्रों के अध्ययन से प्रेरित कॉन्टैक्ट लेंस
गोहों में चिकनी दीवारों पर चढ़ जाने या छत पर उल्टे होकर दौड़ लगाने की जन्मजात क्षमता होती है। उनकी इस असाधारण पकड़ का राज उनके पंजों की तली में विद्यमान करोड़ों अतिसूक्ष्म बालों जैसी संरचनाओं में है। प्रत्येक बाल का आकर्षण बल तो अत्यल्प होता है पर कुल प्रभाव मिल कर बहुत अधिक हो जाता है। यहाँ तक कि एक गोह के छोटे-छोटे पंजों की सीटें 100 किलोग्राम से अधिक भार संभाल सकती हैं। और वास्तविक करतब इस बात में है कि सीटों की दिशा बदलकर तत्काल पकड़ खत्म की जा सकती है : न कोई चिपचिपा अवशेष बचता है, न कुछ फटता है, न किसी दाब की आवश्यकता होती है। गोह के पंजों की संरचना के अध्ययन से मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय, एम्हर्स्ट के अन्वेषकों के एक दल ने उससे मिलती जुलती संरचना का ‘गैकस्किन’ नामक एक आसंजक यानि एढ़ेसिन विकसित किया है जिसकी अनुक्रमणिका कार्ड आमाप की एक पट्टी 300 किलोग्राम से अधिक वजन संभाल सकती है।
अब संभावना यह है कि शीघ्र ही गैकोटेप के कुछ परिवर्धित रूप अस्पतालों में टांकों और स्टेपलों का रूप ले लेंगे तथा गैकोटेप के बने दस्ताने पहन कर स्पाइडरमैन की तरह दीवारों पर चढ़ा जा सकेगा। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग के प्रोफेसर मार्क कट्कोस्की ने एक रोबोट के पैरों में गैकस्किन लगा कर स्टिकीबोट नाम का एक ऐसा रोबोट बनाया है जो काँच जैसे चिकने पदार्थ की ऊर्ध्वाधर दीवार पर छिपकली की तरह तेजी से चल सकता है।
केवल गोह के पंजों की संरचना ही विशेष हो, यह बात नहीं है, उनके नेत्रों की संरचना भी वैज्ञानिकों के लिये कौतूहल का विषय रही है जिसका कारण यह है कि ये प्राणी न केवल रात्रि में रंग पहचान सकते हैं, बल्कि विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को बराबर स्पष्टता से देख सकते हैं। अध्ययनों ने दर्शाया है कि गोह के नेत्र में विभिन्न अपवर्तनांक के संकेंद्रक क्षेत्र होते हैं जो एक बहु फोकसी निकाय की तरह कार्य करते हैं और विभिन्न तरंगदैर्घ्यों के विभिन्न दूरियों से आने वाले प्रकाश को एक ही क्षण विशेष पर उनके रेटिना पर फोकसित कर देते हैं। इससे उनकी आँखों की सुग्राहिता भी मानव नेत्र की अपेक्षा 350 गुना अधिक हो जाती है। अब वैज्ञानिक गोह की नेत्र संरचना का अनुकरण कर ऐसे बहु फोकसी कैमरे और कॉन्टैक्ट लेंस विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं जो मानव की अवलोकन क्षमता को सैकड़ों गुना बढ़ा देंगे।
कंटीले बीजकोषों की संरचना से वेल्क्रो का आविष्कार
बच्चों और बुजुर्गों के जूतों में वेल्क्रो का प्रयोग आज एक आम बात है। जूतों की पट्टी कस कर चिपकाने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। आज जो वेल्क्रो सर्वव्यापक हो गया है 1940 के दशक में उसका आविष्कार स्वीडेन इंजीनियर जॉर्ज डे मेस्ट्रल ने अनायास ही किया था। 1941 में एक शिकार यात्रा से लौटे तो उनके कुत्ते के सारे शरीर पर अनके बर्डोक कंटक बीजकोष चिपके हुए थे। उनमें से एक को जब उन्होंने अपने माइक्रोस्कोप के नीचे रखा तो उनको उसमें बालों से चिपकने वाली हुक जैसी संरचनाएं नजर आईं। उसके आधार पर उन्होंने वेल्क्रो का आविष्कार किया जो यू.एस. पेटेंट संख्या 2, 717, 437 के रूप में अक्टूबर 1952 में उनके नाम दर्ज हुआ। बेनियस के अनुसार यह संभवतः बायोमिमिक्री का सर्वाधिक विख्यात और व्यावसायिक रूप से सफल अनुप्रयोग है। अभी वेल्क्रो जम्पिंग नामक एक खेल प्रचलन में आ गया है, जिसमें वेल्क्रो का पूरा सूट पहन कर खिलाड़ी दीवार पर जितना संभव हो उतना अधिक ऊँचा कूद कर चिपकते हैं।
हाथी की सूंड़ जैसी रोबोटी भुजा
हाथी की सूंड़ इसके शरीर का एक विशिष्ट बहु प्रकार्यी अंग है, जिसका एक काम भारी वजन उठाना है। इसके द्वारा हाथी लगभग 300 किलोग्राम का वजन आसानी से उठा लेता है। इस कार्य में उसकी सूंड़ की विशिष्ट संरचना का बड़ा हाथ है, जिसमें लगभग 40,000 पेशियों का योगदान रहता है।
रोबोटिकी में यंत्र मानव की गतियों को अधिकाधिक प्रभावी बनाने के प्रयास चलते रहते हैं। जर्मनी की एक अभियांत्रिकी कंपनी फस्टो ने हाथी की सूंड़ की संरचना के अनुकृतिकरण द्वारा एक भार ढोने वाले इंजन का आविष्कार किया है, जिसके हाथ हाथी की सूंड़ की तरह खंड-खंड नैनो ट्यूब थैलियों से मिल कर बने हैं, जिनमें हवा भर कर इन्हें फुलाया और निकाल कर पिचकाया जा सकता है। ये हाथ हाथी की सूंड़ की दक्षता से ही भार को ऊपर उठाकर रख सकते हैं और चाहे तो इनके द्वारा सामान उठा कर दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता है। ये एक ओर स्वयं बहुत हल्के हैं किंतु स्टील की तरह मजबूत हैं। इस तरह के नैनो ट्यूबों के बने कपड़े पहनकर एक दिन बूढ़े लोग अपनी कमजोर मांसपेशियों के बावजूद दक्षता से काम कर सकेंगे।
जलीय खरपतवार से जल-सह्य पृष्ठ का निर्माण
सालविनिया मोलेस्टा नाम का एक सामान्य खरपतवार जलमार्गों में बहुत परेशानी का कारण बनता है। मूलतः दक्षिण-पूर्व ब्राजील का यह जलीय फर्न मुक्त रूप से पानी पर तैरता है, जिसके लिये इसके पत्तों की शूकमय सतह, जो सिरों पर अंडे फेंटने के यंत्र की आकृति ग्रहण कर लेते हैं, महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये पत्तों पर एक जल सह्य परत बना देते हैं। पौधे की इस विशेष जल सह्य संरचना का उपयोग करके वैज्ञानिकों ने एक ऐसी कृत्रिम सतह निर्मित की है जो न केवल वस्तुओं को तैरने में मदद करती है, बल्कि उनको जल के संपर्क में आने से भी बचाती है। नावों, जहाजों और पनडुब्बियों के जल के संपर्क में रहने वाले भाग पर इस पृष्ठ का आवरण उनकी प्लवनता और आयु में वृद्धि कर सकेगा।
वास्तुशास्त्रियों द्वारा प्रकृति से प्रेरणा लेकर बनाए गए डिजाइन
दीमकों की वाल्मियां भूरी मिट्टी का ढेर सा दिखाई पड़ती है, किंतु वे अभियांत्रिकी का कमाल कही जा सकती हैं। इनमें वायु का आवागमन इस प्रकार होता है कि जब बाहर का ताप 30 डिग्री फारेनहाइट से 100 डिग्री फारेनहाइट के बीच होता है तब भी इनके अंदर का ताप नियत (लगभग 87 डिग्री फारेनहाइट) बना रहता है। जिम्बाबवे में ईस्ट गेट केंद्र, हरारे के वास्तुशास्त्री मिक पियर्स ने दीमक वाल्मियों की चिमनियों और सुरंगों का अध्ययन करके सीखे गए पाठ लागू करके इस विशाल भवन को इस प्रकार अभिकल्पित किया है कि इसमें वातानुकूलन का खर्च 90 प्रतिशत तक कम हो गया है।
जापान में टोकियो और हकाता के बीच लगभग 300 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन की आकृति और बाह्य पृष्ठ किंगफिशर पक्षी की चोंच तथा उल्लूओं की एक प्रजाति से प्रेरणा प्राप्त कर अभिकल्पित किए गए हैं। ये पक्षी अपने शिकार पर क्योंकि बिना आवाज किए हमला कर सकते हैं इसलिये इसकी आकृतियों की संरचना के आधार पर निर्मित यह ट्रेन भी अपनी तेज गति के बावजूद वायु में कम घर्षण के कारण अधिक सरसराहट की ध्वनि उत्पन्न नहीं करती और सुरंग से बाहर भी बिना विस्फोटक ध्वनि के निकल आती है।
बकमिंस्टर फुलर एक वास्तुशास्त्री थे। जिन्होंने प्रकृति से प्रेरणा लेकर अपने अधिकांश भवन डिजाइन अभिकल्पित किए। रडियोलैथ्रकया नाम के समुद्री सूक्ष्म जीव की शरीर रचना से प्रेरित होकर उन्होंने मोंट्रियल के एक्सपो 76 में यू.एस. मंडप का गुम्बद निर्मित किया। यह संरचना अपनी दीवारों के पतलेपन, कम भार के साथ-साथ अप्रतिम दृढ़ता और लचीलेपन के गुणों से संपन्न है।
स्टटगार्ट विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट फॉर कंप्यूटेशनल डिजाइन (आईसीआई) एवं इंस्टीट्यूट ऑफ बिल्डिंग स्ट्रक्चर्स एंड स्ट्रक्चरल डिजाइन (आईटीकेई) ने संयुक्त रूप से सैंड डॉलर ना की सी आर्चिनों की एक उप प्रजाति की संरचना का अनुसरण कर फ्रीफोर्म बुडन रिसर्च पैविलियन निर्मित किया है। 6.5 मिलीमीटर मोटी प्लाईवुड की चादरों से बनी यह बायोनिक गुम्बद शानदार तो है ही साथ ही एक प्राकृतिक वातावरण और दृढ़ संरचना का प्रतीक भी है।
ये केवल कुछ उदाहरण हैं, वास्तव में नवाचारों की प्रेरणा प्रकृति के जीव मात्रा में विद्यमान है। बस आप तो अपनी समस्या पहचानिए कि उस समस्या का हल प्रकृति ने किस जीव में किस प्रकार विकसित किया है।
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राम शरण दास
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