प्रकृति का महाभाष्य

Submitted by birendrakrgupta on Wed, 09/24/2014 - 10:45
Source
कादम्बिनी, जुलाई 2014
मेघ जड़ रूप नहीं है। जिसे हम जड़ समझते हैं वह वास्तव में प्रकृति का चेतन पुरुष है। वह कामरूप है जिसे कवि-कल्पना ने महाकाव्य का रूप दे दिया है। काले-काले मेघों की ऊंची उड़ान में विश्वव्यापी परिवर्तन की एक सच्चाई है जो प्रकृति के साथ-साथ मनुष्यों के मन को भी मस्त कर देती हैमेघ अनेक कौतुकों के आघात का हेतु है। उसके आने से प्रकृति में न जाने कितनी नवीन अभिलाषाओं का उदय होता है, कितनी तीव्र विश्वतोमुखी चेतना सब जगह फूट पड़ती है। सब ही मेघ के साथ अपना संबंध स्थापित करते हैं। किंतु सामान्यतया मेघ को जड़ समझा जाता है। उसके स्वरूप में ऐसी कौन-सी बात है जो चेतन-अचेतन सभी प्राणी मेघ का स्वागत करने पर उतारू हो जाते हैं? वर्षा ऋतु के नए खिलते हुए सौंदर्य को जिसने एक बार भी देखा है और मननपूर्वक देखकर उस आनंद की बहिया में अपने आपको बह जाने दिया है, वह अनुभव के साथ कह सकता है कि सावन-भादों का उमड़ा हुआ जीवन कवि की कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि जामुनों के रस-निर्भर होने, बलाकाओं के काले-काले बादलों में ऊंची उड़ान भरने और गंभीरा के इतराने में एक विश्वव्यापी परिवर्तन और सच्चाई है, जो प्रकृति के साथ-साथ मनुष्यों के मन को भी मस्त कर देती है। इनके स्रोत का खोजी प्रत्येक सहृदय है, वह प्रकृति की पाठ्य-पुस्तक में से ही मेघ के नाना-स्वरूपों का अध्ययन कर लेता है। उसके लिए मेघदूत का सारा वर्णन एक खंड-काव्य में कैसे समा सकता है? मेघ-काव्य की व्याख्याएं अनंतकाल तक होती रहेंगी। प्रकृति स्वयं ही हर वर्ष मेघदूत पर महाभाष्यों की रचना करती है।

मेघ के वर्णन कितने प्रकार के हो सकते हैं, इसे कोई कवि कहां तक कहकर बताएगा? कज्जल के पहाड़ और चिकने घुटे अंजन (1/59) की आभा रूप जो उपमान हैं, वे मेघ की सार्वभौम वर्षाकालीन श्री के वर्णन के लिए प्रतीक मात्र हैं। पर्वतों में घाटियों में, वनों में, गांवों में, आठ पहर के भीतर सदा बदलने वाली कांति का अध्ययन तो प्रकृति का निरीक्षक सहृदय पाठक ही कर सकता है। इसी प्रकार बिजली के चमकने और बादल के गरजने को भी जहां तक कहते बना कवि ने कहा है। नदी तीरों के उपांत भाग में जो सुभग स्तनित होता है, पर्वत-कंदराओं में आमंद्र प्रतिध्वनि के कारण जो मुरज ध्वनि होती है तथा जो श्रवण परुष और स्निग्ध गंभीर घोष हैं, उनका वर्णन करके भी कालिदास ने मेघ के स्तनयित्नुरूप के सामने विरामचिन्ह नहीं लगा दिया है जब तक प्रकृति में मेघ गरजेंगे, तभी तक कविनिर्दिष्ट वर्णनों की नई-नई व्याख्याएं होती रहेंगी। मेघदूत के संपूर्ण रहस्य को व्याख्याओं द्वारा प्रकाशित कर देना दक्षिणावर्तनाथ, अरुणगिरिनाथ और मल्लिनाथों के बस की बात नहीं है।

यह तो मेघ के स्थूल रूप की बात हुई, अभिलाषाओं के नए-नए बीज बोने वाला उसका स्वरूप तो और भी गंभीर और अज्ञेय है। यथार्थ में कवि को मेघ के कौतुकाधान रूप से ही विशेष प्रयोजन है। उसी के सहारे वह चेतनाचेतन के भेद को भुलाकर प्रकृति-व्यापी एकता का दिग्दर्शन कराना चाहता है। हमारा यक्ष पहले आंख उठाकर मेघ को वप्रकीड़ा में लगे हुए हाथी के समान ही देख पाया। इस दर्शन में मनोभावों का बिल्कुल संयोग न था, वह केवल इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान था। लेकिन मेघ मनोभावों पर भी प्रभाव डालने वाला है। उसके कौतुकाधान हेतु रूप के सामने कुछ देर खड़े रहने पर यक्ष की जागरूकता बढ़ी। पहले केवल इंद्रियां काम करती थीं, अब मन में उथल-पुथल हुई। यक्ष की उन्हीं आंखों में आंसू भर आए-अंतर्वाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ

जड़ देह को ही आत्मा मानने वाले के समक्ष कवि दो बातें रखता है- एक तो जड़ में प्राणसंयुक्त प्राणी कैसे हो सकता है और दूसरे ज्ञान-विज्ञान में समर्थ अंतःकरण की उत्पत्ति जड़-सन्निपात में कहां से आई? इस विवाद का अंतिम निर्णय केवल अनुभव की शरण में जाने से हो सकेगा। रामगिरि के आश्रम में बैठे-बैठे उसके मन ने अलका की दौड़ लगाई। दूरंगम और वेगशाली मन के लिए समय की अपेक्षा नहीं होती। शरीर स्थूल है, वहीं भर्ता के शाप से बंध सकता है, मन तो सात की दशा में ही स्वतंत्र है, फिर वह मन आठ महीनों की साधना में तप चुका है, उसकी अनुभव-योग्यता और स्फुरण-प्रतिभा बहुत उत्कृष्ट हो गई है। उसने पहले इस शाश्वत नियम का आविष्कार किया-
मेघालोके भवति सुखिनोSन्यथावृति चेतः

अर्थात् मेघ के देखने पर संयोगीजनों का चित्त भी दूसरी तरह का हो जाता है, फिर उनका तो कहना ही क्या जो वियोगी हैं-

कंठाश्लेषप्रणयिनि जने कि पुर्नदूरसंस्थे

अर्थात् जिन्होंने अपने सहचर जन से दूर बसेरा लिया है उनके लिए तो वर्षाकाल अति दूभर है। यक्ष को जैसी ही कंठालिंगन प्रणयवती भार्या का स्मरण हुआ, उसकी विह्वलता बढ़ी और देश का व्यवधान उसके लिए असह्य हो उठा। हां, कौन-सा ऐसा अपराध है जिसके कारण उसे निम्नलिखित दंड मिले- सोSतिक्रांतः श्रवण विषयं लोचनाभ्यामद्दष्टः। देश की बाधा पर विजय पाने का एक मार्ग तो यह था-

यो वृंदानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानाम्।
मंद्रस्निधैर्ध्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि।

मेघ. 2/36

अर्थात् मेघ का शब्द सुनकर जैसे विप्रोषित पथिकों के समूह अपनी पतिव्रता भार्याओं की कर्कश-रुक्ष, वेणी-मोक्ष करने की इच्छा से घरों को लौट पड़ते हैं, वैसे ही यक्ष भी अलका को वापस चला जाता, परंतु यह महीना सावन का था, यक्ष का शापांत होने में चार मास की देरी थी। यक्ष की मुक्ति तो तब होगी जब शार्ङ्गपाणि विष्णु शेष की शय्या से उठेंगे (शापांतोमे भजगशयनादुत्थिते शार्ङ्पाणौ) इसलिए उसके सामने एक ही उपाय रह गया। उसके द्वारा यद्यपि प्रत्यक्ष सम्मिलन तो नहीं हो सकता था, किंतु कुछ-कुछ वैसे ही आनंद की अनुभूति संभव थी-कांतोदंतः सुहृदुपनतः संगमात्किंचिदूनः।

अर्थात् उसके जी में यह आया कि दयिता के प्राणों की रक्षा के लिए अपने किसी मित्र के द्वारा संदेश वार्ता सुदूर अलका में भेजे। इसी प्रवृत्तिहारक की हैसियत से मेघ के जिस स्वरूप का ज्ञान कवि ने हमें कराया है वह बहुत ही उच्च, साभिप्राय और सच्चा है।

शरीर को ही आत्मा मानने वाले जड़वादियों की युक्तियों का उपसंहार ही वैज्ञानिक का मेघ है। हमने वैज्ञानिक की मेघ-विषयक नीरस कल्पना के दर्शन किए। धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः -अर्थात् मेघ में है ही क्या? धुएं ने सलिल का वस्त्र पहन लिया है, जिसके साथ ज्योति और वायु भी आन मिली हैं। जिसे हम मेघ-मेघ पुकारते हैं उसमें आत्मा तो है ही नहीं। क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा की भांति कुछ तत्वों के एक जगह मिल जाने से मेघ संज्ञक विलक्षण पदार्थ उत्पन्न हो जाता है। उसमें कैसे मनोभाव और कहां की आत्मा? शरीर को ही आत्मा मानने वाले जड़वादियों की युक्तियों का उपसंहार ही वैज्ञानिक का मेघ है। पृथ्वी, जल, वायु नामक चार तत्वों से ही जिनके यहां शरीर और आत्मा सब कुछ बन जाती है, उसके लिए अमरपन की कल्पना वज्र उपहास के अतिरिक्त और क्या है? आधुनिक विज्ञानान्वेषी शरीर-शास्त्री भी इस देह में भौतिक और रासायनिक द्विविध कार्यों के अतिरिक्त किसी चैतन्य कार्य को मानते हुए बड़े हिचकिचाते हैं, यद्यपि केवल भौतिकी और रसायन के बल पर शरीर के समस्त चैतन्य कार्यों की व्याख्या उनके निकट भी दुष्कर है। इस प्रकार के जड़वादी सदा से रहे हैं। ज्ञात होता है कवि की उस शताब्दी में उनको बहुत बल प्राप्त हो गया था। उनकी खरी आलोचना कवि ने की है और उनके जड़ ‘सन्निपात’ को निकम्मा और बेसूझ कहकर उसका तिरस्कार किया है। कवि को जड़ भूतों की आवश्यकता नहीं, वह तो संदेश पहुंचाना चाहता है, जिसके लिए चतुर प्राणियों की अपेक्षा होती है-

धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः।
संदेशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयः।


अर्थात्, कहां धुएं आग, पानी और हवा का जमघट, और कहां विचक्षण इंद्रियों वाले प्राणियों से ले जाने योग्य संदेश-वार्ताएं! जड़ देह को ही आत्मा मानने वाले के समक्ष कवि दो बातें रखता है- एक तो जड़ में प्राणसंयुक्त प्राणी कैसे हो सकता है और दूसरे ज्ञान-विज्ञान में समर्थ अंतःकरण की उत्पत्ति जड़-सन्निपात में कहां से आई? इस विवाद का अंतिम निर्णय केवल अनुभव की शरण में जाने से हो सकेगा। अनुभव उन लेागों का पक्का है जो सर्वत्र चैतन्य के ही दर्शन करते हैं, जिनको अपने चारों ओर आनंद का महाम्बुधि भरा हुआ दिखाई देता है। ऐसे लोग प्रत्यक्ष अनुभव से कहते हैं कि जिसे तुम जड़ समझते हो वह वास्तव में प्रकृति का चेतन पुरुष है। ऐसे विशुद्ध अनुभव के आगे प्रत्यक्षानुमनादि प्रमाण सब निम्न कोटि के हैं। इस प्रकार देहात्मवाद और चैतन्यात्मवादरूप विवाद का अंत करके प्रकृति प्रसंग से संबंध रखने वाले मेघ के कामरूप स्वरूप को आगे देखना चाहिए।

(मेघदूत, राजकमल से प्रकाशित पुस्तक से संपादित अंश)