Nature’s Gift; Rain water and its harvesting-a technical analysis
सारांश
प्रकृति का सबसे अमूल्य उपहार है वर्षाजल, जो कि विभिन्न कार्यों में उपयोगी है। जल मानव जीवन का मूलभूत अधिकार है, प्रकृति प्रदत्त वरदान स्वरूप जल को एकत्रित कर उसका उपयोग किसी लाभकारी एवं फलदायी कार्य के लिये करने की पद्धति को वर्षाजल संग्रहण कहते हैं। इस संग्रहित जल को कृषि, पेयजल, भूगर्भ जल प्रबंधन, अपशिष्ट जल प्रबंधन इत्यादि में प्रयोग किया जा सकता है। प्रस्तुत लेख में वर्षाजल के संचयन एवं संग्रहण पर प्रकाश डाला गया है तथा इसकी प्रबंधन विधि का भी उल्लेख किया गया है।
Abstract
Nature’s most valuable gift is Rains, which is useful in numerous ways. Water is the fundamental right of human life. Storage of rain-water, the natural gift and its utilization in purposeful better direction is called water harvesting. The harvested water may be used for drinking, management of earth water level, waste water management, etc. Present note embodies techniques of water management and various methods of its harvesting.
1. प्रस्तावना
देश में पेयजल की कमी के कारणों का यदि विश्लेषण किया जाए तो जो कारण होंगे बढ़ती जनसंख्या, जलवायु परिवर्तन एवं अनियंत्रित और अनियोजित जल उपयोग। जल संकट से उबरने का सबसे सस्ता, सरल और सहज उपाय है वर्षाजल संग्रहण। वर्षाजल को एकत्रित एवं संग्रहित करके उसका उपयोग किसी लाभदायी कार्य करने की पद्धति को वर्षाजल संग्रहण कहते हैं। इस संग्रहित जल को हम सिंचाई में, पेयजल के रूप में प्रयोग में ला सकते हैं। किसी भी वर्षाजल संग्रहण के तीन घटक होते हैं; पानी को एकत्रित करना, उसे किसी स्थान तक ले जाना, एवं उसका संग्रह करना।
विश्व भर में पेयजल की कमी एक संकट बनती जा रही है, उसका कारण पृथ्वी जल के स्तर का लगातार नीचे गिरता जाना भी है, इसके लिये अधिशेष मानसून अपवाह जो बहकर सागर में मिल जाता है, उसका संचालन और पुनर्भरण किया जाना अति आवश्यक है, ताकि भूजल भण्डारण का संवर्धन हो पाए। अकेले भारत में ही व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आंकलन 214 बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप किया गया है, जिसमें से 160 बिलियन घन मी. (बीसीएम) की पुन: प्राप्ति हो सकती है। इस समस्या का समाधान जल-संचयन है। पशुओं के पीने के पानी की उपलब्धता, फसलों की सिंचाई के विकल्प के रूप में जल-संचयन प्रणाली को विश्व व्यापी तौर पर अपनाया जा रहा है। वर्षाजल के संचयन एवं संग्रहण से भारत में कृषि में काफी सहायता मिल सकती है, चूँकि कृषि भारत का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसमें कि पूरे देश में प्रयोग किए जाने वाले जल में से लगभग 80 प्रतिशत पानी की खपत होती है और कृषि में अच्छा जल प्रबंधन करना भविष्य की दृष्टि से अति आवश्यक है, क्योंकि इससे हमें अच्छी फसल तो मिलेगी साथ ही साथ कुल उपज में बढ़ोत्तरी भी होगी, और वर्षाजल संग्रहण इसका सबसे उत्तम विकल्प है।
वहीं पेयजल मानव जीवन का मूलभूत अधिकार है। तथापि जलस्रोतों के अनुचित प्रबंधन के कारण देश के कई भागों में पीने के जल की समस्या काफी गंभीर बन गई है। भारत वर्ष के लोग सदियों से भविष्य में इस्तेमाल करने की दृष्टि से जल संग्रहित करते आ रहे हैं। किन्तु जब से पानी सीधे हमारे घरों में आने लगा है तब से हम इन पारंपरिक जलस्रोतों की उपेक्षा करने लगे हैं। नगरीय क्षेत्रों में बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण शहर के सभी लोगों को नियंत्रित रूप से जल उपलब्ध कराना शासन के लिये एक कठिन चुनौती बनता जा रहा है। एक भविष्य वाणी के अनुसार ‘‘अगला विश्वयुद्ध का कारण पानी ही होगा’’ ये वाक्य सत्य ही होगा यदि जल का प्रबंधन ठीक प्रकार से नहीं किया गया। प्रकृति हमें भरपूर देती है तो उतना ही छीन भी लेती है। संपदा प्रदत्त प्रकृति को धन्यवाद देते हुए उसके वर्षा रूपी उपहार को हमें संरक्षित, संचित और संवर्धित करना होगा।
भारत वर्ष के अति शुष्क क्षेत्र बुन्देलखण्ड में गत वर्ष 372 एमएम के स्थान पर औसत 1,072 एमएम वर्षा हुई है, लेकिन बारिश संबंधी इन सूचनाओं को हम खुशखबरी की तरह नहीं ले सकते, क्योंकि जल-प्रबंधन के दक्ष जनों के अनुसार हम सिर्फ 10 प्रतिशत जल का ही उपयोग कर पाएंगे। विकास के नाम पर सड़कें और इमारते बनाते समय हम पानी के आवागमन के मार्ग बंद करते जा रहे हैं। अव्वल तो तालाब व पोखर बचे नहीं हैं और जो शेष हैं उनमें पानी के पहुँचने की मार्ग में विभिन्न प्रकार की बाधाएं खड़ी होती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में हर वर्ष पृथ्वी जल स्तर 70 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। राजधानी दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्रों में भूजल सतर 50 से 150 सीएम तक नीचे चला गया है। ये सभी स्थितियाँ चिंता जनक है। विकास के लिये नए तरीकों को अपनाने में जल के उपयोग के बीच हम यह भूलते जा रहे हैं कि भविष्य के दिनों में पानी आएगा कहाँ से? लगातार हैण्डपम्प लगवाने से तात्कालिक समस्या तो दूर हो जाएगी परन्तु इसी रास्ते भूजल स्तर के और नीचे चले जाने से एक बड़ी तबाही भी अपने आने का संकेत दे सकती है। देश के अलग-अलग हिस्सो में पृथ्वी फटने की लगातार घटनाएं हमारे इस प्रकृति दोहन का कुफल ही है।
प्रकृति जब कुपित होती है, तो उसके कोप से जूझने की हमारी तैयारी अक्सर कम पड़ जाती है। बाढ़, सूखा और अकाल इसी की परिणति है। वहीं प्रकृति जब कुछ देना चाहती है, तो हमारे हाथ छोटे पड़ जाते हैं और हम उस उपहार को समेट नहीं पाते। परन्तु जल-संग्रहण एक ऐसी सफल विधि है जिसके द्वारा हम प्रकृति प्रदत्त जल को एकत्रित कर उसका संग्रहण कर सकते हैं।
पुरातन काल के समय में देश के जिस हिस्से में जल की जितनी समस्या थी उतने ही पुख्ता इंतजाम भी थे, इसीलिये देश के हर क्षेत्र में पानी के संचयन और सदुपयोग की एक से एक बेहतरीन व्यवस्थाएं रही हैं। पहले जितने धार्मिक, सामाजिक स्थान विकसित किए गए, सब जगह तालाब या बड़े-बड़े जल-कुण्ड का निर्माण किया गया, लेकिन यात्रिंक गति से बढ़ती विकास की गति ने प्रकृति से लेने के तो हजारों तर्क बना डाले परन्तु उसे लौटाने की व्यवस्था न तो सामाजिक और न ही सरकारी तौर पर ही प्रभावी हो पाई। पुराने समय से वर्षाजल को संग्रह करके उपयोग में लाने की पद्धति विशेष कारगर रही है। पहले लोग बड़े-बड़े मटके जैसे उपकरणों में वर्षाजल को संग्रहित करके उसको विभिन्न कार्यों में उपयोग में लाते थे।
2. विधि
जल संचयन में घर की छतों, स्थानीय कार्यालयों की छतों या फिर विशेष रूप से बनाए गए क्षेत्र से वर्षाजल एकत्रित किया जाता है, इसमें दो तरह के गड्ढे बनाए जाते हैं, एक गड्ढा जिसमें दैनिक प्रयोग के लिये पक्के गड्ढे, सीमेंट व ईंट से निर्मित करते हैं और इसकी गहराई सात से दस फीट व लम्बाई तथा चौड़ाई लगभग चार फीट होती है। इन गड्ढों को नालियों व नालियों द्वारा छत की नालियों और टोटियों से जोड़ दिया जाता है, जिससे वर्षाजल सीधे इन गड्ढों में पहुँच सके और दूसरे गड्ढों को ऐसे ही कच्चा रखा जाता है, इसके जल से खेतों की सिंचाई की जाती है। घरों की छत से जमा किए गए जल को तुरंत ही प्रयोग में लाया जा सकता है। विश्व में कुछ ऐसे इलाके हैं जैसे न्यूजीलैण्ड जहाँ लोग जल संचयन प्रणाली पर ही निर्भर रहते हैं और वर्षा होने पर अपने घरों की छत पर जल एकत्रित करते हैं। वर्षा संग्रहित जल का शुद्ध रूप हमें काफी कुछ तभी प्राप्त होने लगता है जब वह अति वेग से पाईप के जरिए उपकरणों में एकत्रित होता है, जिसके लिये पाइपों व नालियों में बारीक जालियों का प्रयोग किया जाता है।
कई स्थानों पर वर्षाजल को सीधे छतों के जरिए न एकत्रित करके वर्षा तश्तरियों का जोकि उल्टे छाते की तरह प्रतीत होती है उनका प्रयोग वर्षाजल संग्रहण में किया जाता है, जोकि वर्षाजल को सीधे आसमान से अपने तश्तरी नुमा उपकरण में एकत्रित करते हैं, ये विधि अधिक कारगर व प्रचलित है। इस मुक्त वर्षीय जल का उपयोग बागवानी एवं सिंचाई में काफी सहजता से किया जाता है। आजकल वर्षाजल का संग्रहण कार्य क्षमता के साथ करने के लिये मूल एवं नवीनतम विधियाँ अपनाई जा रही हैं। वर्षाजल को संग्रहित कर उसे उपयोग में लाने के लिये हमारी सरकार सतत प्रयासरत है। राजस्थान के थार रेगिस्तान में हर घर में वर्षाजल का संचयन एक परम्परा के रूप में किया जाता है, सरकार ने भी इसे अधिकृत रूप से अपनाने पर जोर दिया है। राजस्थान में ही लोग अपने घरों की छतों पर ढकी हुई नालियों के जरिये वर्षाजल को अपने रसोईघर तक लाते हैं और उन्हीं नालियों द्वारा जल रसोई में रखे हुए बड़े-बड़े ढक्कन दार पात्रों में एकत्रित होता रहता है, इस तरह के जल संग्रहण को चौका-प्रणाली कहते हैं। पुणे, महाराष्ट्र में अब घर बनाने से पूर्व वर्षाजल संग्रहण के लिये पंजीकरण अनिवार्य प्रक्रिया हो गई है। सरकार द्वारा पुरजोर प्रयास इस विधि को दैनिक उपयोग में लाने के लिये लगातार किए जा रहे हैं। अपनी पृथ्वी पर जल की कमी न होने पाए इस लिये हम सबको राजस्थान वासियों की तरह सजग एवं जागरूक होने की आवश्यकता है।
3. निष्कर्ष
वर्षाजल के संग्रहण का मुख्य उद्देश्य, कम खर्च में अधिक से अधिक जल संचय और उसका विभिन्न कार्यों जैसे सिंचाई, पशु के लिये जल, पेयजल इत्यादि में उपयोग है। आजकल नवीन उपकरणों व प्रयोगों के माध्यम से वर्षाजल का संग्रहण किया जा रहा है विदेशों में तो प्रकृति के इस अमृत को संचित कर उसका सदुपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जा रहा है। बीजिंग (चीन) में तो लोग अपने घरों की छतों पर वर्षाजल को संग्रहित करके तथा उसका शुद्धि करण करने के पश्चात उसे पीने के लिये प्रयोग में लाते हैं। भारत वर्ष के तमिलनाडु में किसी भी इमारत के निर्माण के लिये संग्रहित जल का ही प्रयोग किया जाता है ताकि भूमिगत जल का क्षरण न हो। वर्षाजल संग्रहण एक ऐसी पद्धति है जिसके प्रयोग का ज्ञान जन सामान्य को होना आवश्यक है क्योंकि यदि हम जल संग्रह व संचय के प्रति जागरूक नहीं हुए तो बढ़ती हुई जनसंख्या, जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित जल प्रयोग हमारे भविष्य के लिये अति घातक सिद्ध हो सकता है, अत: जो वरदान हमें प्रकृति के द्वारा वर्षाजल के रूप में प्राप्त होता है उसे व्यर्थ न जाने देने के बजाय भविष्य के लिये संचित, संग्रहित एवं सवंर्धित करें, इसी में हम सब का कल्याण है।
रचना मिश्रा तथा अलका निवेदन
वनस्पति विज्ञान विभाग, भारतीय विद्या भवन गर्ल्स डिग्री कॉलेज, गोमतीनगर, लखनऊ-226010, यूपी, भारत misharachna@gmail.com
Rachna Mishra and Alka Nivedan
Department of Botany, Bhartiya Vidya Bhavan Girl’s Degree College, Gomti Nagar, Lucknow- 226010, U.P., India, misharachna@gmail.com