सारांश
सतही जल प्रबन्धन से लेकर अभियांत्रिकी अभिकल्पन तक में जल विभाजक के गणितीय निर्देशनों का वृहत इतिहास है। क्षेत्रीय पैमाने पर निर्देशों का प्रयोग मृदा संरक्षण पद्धतियों की योजना एवं अभिकल्पन, सिंचाई जल प्रबन्धन, नम जमीन पुनरोद्धार सरिता पुनरोद्धार एवं जल स्तर प्रबन्धन इत्यादि के लिये किया जा रहा है। वृहत पैमाने पर निर्देशों का प्रयोग बाढ़ बचाव परियोजनाओं, उम्रदराज बाँधों का पुनर्वास, बाढ़ प्रबन्धन, बाढ़ गुणवत्ता मूल्यांकन एवं बाढ़ आपूर्ति पूर्वानुमान के लिये किया जा रहा है। इन विषयों का केन्द्र बिन्दु सतही जल प्रबन्धन है जो वर्षा-अपवाह निदर्शन की समस्याओं पर प्रकाश डालता है। विशिष्ट रूप से संसाधन निर्धारण, बाढ़ एवं सूखा बचाव, सिंचाई एवं निकासी अभियांत्रिकी एवं जल संसाधन योजना एवं प्रबन्धन में किया जाता है।
एस.सी. एस. वक्र संख्या का विकाश वर्ष 1954 में किया गया था तथा इसे 1956 में मृदा संरक्षण सेवा (वर्तमान में प्राकृतिक संसाधन संरक्षण सेवा के रूप में प्रचलित) यू.एस. कृषि विभाग द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय अभियांत्रिकी हस्त पुस्तिका (NEH-4) के खण्ड 4 में प्रलेखित किया गया था। इस प्रलेख को 1964, 1965, 1971, 1972, 1985, एवं 1993 में संशोधित किया गया। यह लघु कृषि वन एवं शहरी जल विभाजकों से प्राप्त वर्षा घटक के लिये सतही अपवाह के आयतन की गणना करता है (SCS 1986)। अगस्त 1954 में जल विभाजक बचाव एवं बाढ़ निरोधक अधिनियम (लोक अधिनियम 83-566) से केन्द्रीय स्तर पर पद्धति को मान्यता प्राप्त हुई एवं इस पद्धति को सम्पूर्ण विश्व में असंख्य अनुप्रयोगों में प्रयोग किये जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
अपनी सरलता के कारण SCS-CN पद्धति का अनुप्रयोग जल विज्ञान एवं जल संसाधनों की अनेकों समस्याओं के समाधान में किया जा रहा है इसका प्रयोग पुनः समस्याओं के समाधान के लिये भी किया रहा है जिनके समाधान हेतु मूलतः इस पद्धति का अन्वेषण नहीं किया गया था। इस पद्धति में प्रत्यक्ष अपवाह आयतन के आंकलन के लिये मूल वर्णात्मक अंतरदेश, जिन्हें अंकीय मानों में परिवर्तित किया गया है, कि आवश्यकता होती है। वक्र संख्या जो जल विभाजक के अपवाह सम्भावना का वर्णनात्मक प्राचलन है, के एक मात्र प्राचल होने के कारण आकलन किये जाने की आवश्यकता है। इस पद्धति का विस्तृत उपयोग अभियंताओं, जल वैज्ञानिकों एवं जल विभाजक प्रबन्धकों द्वारा एक सरल जल विभाजक निदर्श के रूप में एवं अधिक जटिल जल विभाजक निर्देशों में अपवाह आंकलन घटक के रूप में किया गया है।
अपने प्रारम्भ से ही जल विज्ञान के क्षेत्र में SCS-CN पद्धति के प्रयोग द्वारा अनगिनत अनुप्रयोगों में किये जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं में सिंह एवं फ्रेवर्ट (2002) द्वारा ‘‘लघु जल विभाजक जल विज्ञान एवं अनुप्रयोगों के गणितीय निदर्श” विषय पर पुस्तक का सम्पादन किया गया है जिसमें 22 अध्यायों में से न्यूनतम 6 अध्याय SCS-CN पद्धति पर आधारित जल विभाजक जल विज्ञान के गणितीय निर्देशों पर आधारित हैं। SCS-CN पद्धति आनुभविक, आंकड़ों पर आधारित वर्षा वृष्टि के जल विज्ञानीय अलगाव का संकल्पनीय निदर्श हैं इसका उद्देश्य वक्र संख्या पर आधारित वर्षा वृष्टि की गहराई से प्रत्यक्ष आयतन का आंकलन करना है। प्रस्तुत प्रपत्र जल विज्ञान, जल संसाधन पर्यावरण एवं अवसादन अभियांत्रिकी के विभिन्न क्षेत्रों में SCS-CN पद्धति की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि, इसकी सामर्थ्य एवं कमियों, इस क्षेत्र में प्रगति एवं अनुप्रयोगों को वर्णित करता है।
Abstract
Mathematical modelling of watershed responses is employed to address a wide range of environmental and water resources related problems ranging from watershed management to engineering design. At the field scale, models are used for planning and designing soil conservation practices, irrigation, water management, wetland restoration, stream restoration and water-table management. On a large scale, models are used for flood protection projects, rehabilitation of aging dams, floodplain management water-quality evaluation and water-quality evaluation and water-supply forecasting. Central to addressing these issues is surface water management which in turn largely focuses on the problem of rainfall-runoff modeling which, in particular is used in water resources assessment, flood and drought mitigation, irrigation and drainage engineering and water resources planning and management.
The Soil Conservation Service Curve Number method is one of the most widely used rainfall-runoff models. The SCS-CN method was developed in 1954 and it is documented in Section 4 of the National Engineering Handbook (NEH-4) published by the Soil Conservation Service (now called as Natural Resources Conservation Service), U.S. Department of Agriculture in 1956. The document has since been revised in 1964, 1965, 1971, 1972, 1985 and 1993. it computes the volume of surface runoff for a given rainfall event from small agricultural, forest, and urban watersheds (SCS, 1986). The passage of Watershed Protection and Flood Prevention Act (Public Law 83-566) in August 1954 led to the recognition of the method at the Federal level and the method has since witnessed myriad applications all over the world.
Because of its simplicity, the SCS-CN method has been applied for handling a number of problems in hydrology and water resources, even for the problems it was not originally intended to solve. The method requires basic descriptive inputs that are converted to numeric values for estimation of direct runoff volume. Curve number which is descriptive of watershed's runoff potential is required to be estimated as its only parameter. The method is widely used by engineers and hydrologists and watershed managers as a simple watershed model, and as a runoff estimating component in more complex watershed models. Since its inception, the SCS-CN method has witnessed myriad applications in realm of hydrology. Recently, singh and Frevert (2002) edited a book titled ‘Mathematical Models of Small Watershed Hydrology and Applications, in which at least of the 22 chapters have mathematical models of watershed hydrology based on SCS-CL approach.
This reflects the robustness and ever lasting popularity of the SCS-CN technique. The SCS-CN method is a conceptual model of hydrologic abstraction of storm rainfall, supported by empirical data. It objective is to estimate direct runoff volume from storm rainfall depth, based on a curve number CN. Its popularity is rooted in convenience, simplicity, authoritative origin responsiveness to four readily grasped catchment properties viz.,soil type, land use/treatment, surface condition and antecedent moisture condition. This paper describes the existing SCS-CN method,its theoretical background, strengths and weaknesses, its recent advancements and applications in various fields of hydrology, water resources, environmental and sedimentation engineering.
सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि
SCS-CN पद्धति दो मूल परिकल्पनाओं सहित जल संतुलन समीकरण पर आधारित है। प्रथम परिकल्पना के अनुसार प्रत्यक्ष सतही अपवाह (Q) एवं कुल वर्षा (P) (या अधिकतम सम्भाव्य सतही अपवाह) का अनुपात वास्तविक अन्तःस्मंदन (F) एवं सम्भाव्य अधिकतम अपरोधन (S) के अनुपात के बराबर होता है। द्वितीय परिकल्पना के अनुसार प्रारम्भिक पृथक्करण (Ia) सम्भाव्य अधिकतम अवरोधन (S) (या पश्च प्रारम्भिक पृथक्करण सम्भाव्य अधिकतम अपरोधन) के किसी घटक के बराबर होता है।
P, Q एवं S के मान गहराई या आयतनात्मक विभाग के पदों में है जबकि प्रारम्भिक पृथक्करण नियतांक () वमाहीन है। विशिष्ट जटिल स्थितियों में वर्षा की एक निश्चित मात्रा को अपवाह के प्रारम्भ होने से पूर्व अपरोधन, वाष्पन, अन्तःस्मंदन एवं सतही संचयन के रूप में प्रारम्भ में पृथक्कीकृत किया गया। सतही अपवाह के प्रारम्भ में इन चार तत्वों (अपरोधन, वाष्पन, अन्तःस्मंदन एवं सतही संचयन) के योग को ‘‘प्रारम्भिक पृथक्करण’’ के पदों में सामान्यतः व्यक्त किया गया।
समीकरण (1) एवं (2) के युग्मन द्वारा (2) के मान को निम्नवत व्यक्त किया जा सकता है।
जहाँ S को मिमी. में व्यक्त किया गया है। S एवं CN में मुख्य अन्तर यह है कि S की विमा (L) है जबकि CL एक विमाहीन राशि है। CN = 100 का उच्चतम सम्भावित अंकीय मान शून्य सम्भाव्य अधिकतम अवरोधन (S = 0) की स्थिति को प्रदर्शित करती है जोकि एक अपारगम्य जल विभाजक में वास्तविक भौतिक स्थिति को प्रस्तुत करता है। इसके विपरीत CN का निम्नतम सम्भाव्य अंकीय मान, उच्चतम संभाव्य अधिकतम अपरोधन (S=∞) को दर्शाता है जोकि एक अन्नत पृथक्कृत जल विभाजक की भौतिक स्थिति को दर्शाता है। (क्योंकि Ia=λ S की परिकल्पना के अनुसार जो वास्तविक स्थितियों में असमान स्थितियों को प्रदर्शित करता है)। अनेक अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगात्मक अभिकल्प मानों को अपने अनुभव द्वारा एक वास्तविक सीमा (40, 98) में मान्यकृत करने का प्रयास किया है। CN का कोई तात्विक अर्थ नहीं है। यह S को 0-100 स्केल पर स्थापित करने का एक सुविधाजनक रूपान्तरण है। अपने प्रारम्भ से वर्तमान तक इस पद्धति को सीमाओं एवं अनुप्रयोगों के आधार पर नवीनीकृत पुनः संरचनात्मक एवं आधुनिकीकृत किया गया है।
इस पद्धति में केवल अज्ञात प्राचल CN है, जिसे विभिन्न पद्धतियों द्वारा आंकलित किया जा सकता है। CN का मान पूर्ववर्ती 5 दिन की वर्षा सूचकांक के आधार पर CNI, CNII, CNI के रूप में परिवर्तनीय है। प्रत्येक वृष्टि को पूर्ववर्ती 5 दिन की वर्षा मात्रा के आधार पर एक CN मान प्रदान किया गया है तथा समीकरण (6) से अनुरूप S मान का प्रयोग समीकरण (5) द्वारा अतिरिक्त वर्षा या प्रत्यक्ष सतही अपवाह के मान की गणना के लिये किया गया। सरल पद्धति को NEH-4 में दर्शाया गया है (SCS, 1972)। उदाहरणार्थः जैसे चित्र 1 में दर्शाया गया है। NEH-4 P:Q CN चित्र पर वार्षिक बाढ़ P:Q आँकडों को अध्यारोपण CN के दृष्टिय चयन को अनुमति प्रदान करता है। चित्र 1 में वर्तमान SCS-CN पद्धति के द्वारा AMC-III & AMC-I के लिये CN का निर्धारण किया जा सकता है।
मुख्य लाभ एवं हानियाँ
मुख्य लाभ
- यह एक सरल, भविष्यवाणी किये जाने योग्य, स्थायी एवं पिण्डित संकल्पनात्मक निदर्श है।
- यह केवल एक प्राचल CN पर आधारित है तथा अनगेज्ड स्थितियों के लिये अत्यधिक उपयुक्त है।
- संगणक आधारित नवीनतम जल विज्ञानीय अनुकरण निदर्शों की अधिकता में वृहत्त अनुप्रयोगों के लिये यह एकल उपलब्ध तकनीक है।
- यह चार आवाह गुणधर्मों मृदा प्रकार, भूमि उपयोग/उपचार, सतही स्थितियों एवं पूर्ववर्ती आर्द्रता स्थितियों को निदर्शन में शामिल करता है।
इसके प्रयोग के लिये केवल कुछ मूल विवरणात्मक निवेशों की आवश्यकता होती है जो प्रत्यक्ष सतही अपवाह के आंकलन के लिये अंकीय मानों में परिवर्तनीय है।
- इस पद्धति का श्रेष्ठतम प्रयोग कृषि आधारित स्थलों (जिसके लिये इसे मूलतः अन्वेषित किया गया है) के लिये किया जाता है परन्तु साथ ही यह शहरी य वनीय स्थलों पर भी समान रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- इस तकनीक में पर्यावरण एवं जल गुणवत्ता निदर्शन के लिये अत्यधिक क्षमताएं उपलब्ध हैं।
- जल विज्ञानीय अनुप्रयोगों में नवीनतम भौगोलिक सूचना तंत्र एवं सुदूर संवेदी सॉफ्टवेयर के साथ यह पद्धति उपयोग हेतु पूर्णतः अनुकूल है।
मुख्य हानियाँ
- परिवर्तनीय पूर्ववर्ती आर्द्रता स्थितियों को समायोजित करने के लिये उपयुक्त मार्गदर्शन की कमी।
- भू-गर्भीय एवं जलवायु स्थितियों पर आधारित पूर्ववर्ती प्रादेशिकता पर प्रारम्भिक पृथक्करण नियतांक λ=0.2 को नियत करने का विकल्प।
- इस पद्धति में CN जो अपवाह को उच्च संवेदनशीलता एवं वास्तविकता के साथ संचालन करता है के स्थानिक स्केल प्रभावों के लिये कोई सुनिश्चित प्रावधान नहीं है।
- यह पद्धति समय की अभिव्यक्ति नहीं करती है तथा वर्षा तीव्रता एवं इसके कालिक वितरण की उपेक्षा करती है।
- इस पद्धति के अंतर्गत पूर्ववर्ती आर्द्रता, जो अपवाह जनित प्रक्रम के संचालन में विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है, की अभिव्यक्ति मे कमी पाई जाती है।
मुख्य संशोधन
(अ). मिश्रा एवं सिंह (1999) ने सुस्थित विश्लेषणात्मक वातावरण में वर्तमान SCS-CN पद्धति के मूल एवं वंशानुक्रम पर विचार-विमर्श किया एवं आनुभाविक मोकुस (1949) पद्धति से वर्तमान SCS-CN को विश्लेषणात्मक पद्धति से व्युत्क्रमित किया। उन्होंने संशोधन SCS-CN पद्धति के सामान्य रूप के साथ-साथ एक संशोधित SCS-CN पद्धति को प्रस्तावित किया। संशोधित SCS-CN पद्धति के संशोधित रूप की अभिव्यक्ति निम्न समीकरण द्वारा की गई है। ...(7)
उसके पश्चात CN मानों को 50-100 की सीमा को निर्धारित करने के क्रम में एक नवीन प्राचल SB को प्रस्तावित करने के लिये एक आधुनिक S-CN मानचित्र को विकसित किया गया। नवीन S-CN सम्बंध को निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
मिश्रा एवं अन्य निदर्श
विभिन्न विषयों को सम्बोधित किया है जैसे आंशिक क्षेत्र अंशदायी संकल्प, प्रेक्षित वर्षा-अपवाह आंकड़ों से CN का आंकलन, पूर्ववर्ती आर्द्रता के साथ CN की परिवर्तनीयता एवं वर्षा की स्थानिक एवं कालिक परिवर्तन के कारण परिवर्तनीयता। उन्होंने C=Sr सिद्धांत के आधार पर एक संशोधित SCS-CN पद्धति को प्रस्तावित किया जो अन्तःस्मंदन एवं पूर्ववर्ति आर्द्रता के स्थायी अंश की गणना करता है (जहाँ C=अपवाह नितांक एवं Sr = संतृप्तता की मात्रा) तथा P एवं Q आंकड़ों एवं 5 दिवसीय पूर्ववर्ती अवक्षेपण (P5) की सहायता से सम्भाव्य अधिकतम अपरोधक S के लिये एक सरल स्प्रैड शीट आंकलन प्रदान करता है। संशोधित SCS-CN पद्धति को निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया गया है।
जहाँ Fc अन्तःस्मंदन का स्थाई अंश है। समीकरण 10 को P=P5, F=Vo एवं S=SI के लिये वर्तमान SCN-CN पद्धति द्वारा व्युत्क्रमित किया जा सकता है। यह पद्धति समान आंकड़ों से NEH में उपयोग SCS-CN पद्धति से श्रेष्ठ निष्पादन करती है (SCS, 1971)। एक अन्य प्रयत्न में मिश्रा एवं सिंह (2004 अ) ने दीर्घावधि जल विज्ञानीय अनुकरण के लिये SCS-CN पद्धति के वर्तमान निर्दशों के साथ सम्बद्ध अनियमितताओं एवं जटिलताओं को पृथक्कृत करने के लिये चार प्राचल ‘बहुमुख SCS-CN निदर्श’ को प्रस्तावित किया। निदर्श CN मानों में आकस्मिक परिवर्तनों का निराकरण करता है एवं विशष्ट रूप से नियमित आधार पर मृदा आर्द्रता, वाष्पन वाष्पोत्सर्जन एवं जल विभाजक मार्ग परिवर्तन पद्धतियों के संशोधित बजट पर विचार करता है।
निचले एवं अन्य निदर्श
निचले एवं अन्य (2005) ने मृदा आर्द्रता गणना पद्धति (SMA) पर आधारित संशोधित SCS-CN पद्धति को विकसित किया एवं पैरामीटाइजेशन को परिवर्तित किया। SMA पद्धति इस सिद्धान्त पर आधारित कि आर्द्रता संचयन स्तर का मान यदि अधिक होगा तो अपवाह में परिवर्तित होने वाली वर्षा का मान भी उसी अनुपात में अधिक होगा। उदाहरणार्थ यदि आर्द्रता संचयन पूर्ण है तो सम्पूर्ण वर्षा, अपवाह में परिवर्तित हो जाएगी। संशोधित SCS-CN पद्धति को निम्न स्वरूप में व्युत्वुमित किया जा सकता है।
साहू एवं अन्य विमर्श
साहू एवं अन्य 2010 ने मिश्रा एवं सिंह (2002) निदर्श में पूर्ववर्ती आर्द्रता के लिये निरन्तर घटक को सम्मिलित करके SME निदर्श के नाम से SCS-CN पद्धति का एक संशोधित स्वरूप विकसित किया जिसे निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
समीकरण 17-19 SME निदर्श को प्रदर्शित करते हैं। प्रस्तावित SME निदर्श क्षेत्रीय अनुप्रयोगों के लिये मूल SCS-CN पद्धति, मिश्रा एवं सिंह (2002) निदर्श का अधिक विकल्प है।
जैन एवं अन्य निदर्श
जैन एवं अन्य (2006) द्वारा एक संशोधित SCS-CN निदर्श का सुझाव प्रस्तुत किया गया। इसे निम्न स्वरूप में अभिव्यक्त किया गया है।
समीकरण 20 एवं 21 (a,b,c) वृष्टि अवधि, एक अरेखीय (Ia-S) संबंध एवं अपवाह आकलन में पूर्ववर्ती आर्द्रता मात्रा को सम्मिलित करते हुए अपवाह वक्र संख्या पद्धति के विस्तृत स्वरूप को प्रदर्शित करता है।
अनुप्रयोग
SCS-CN पद्धति के प्रारम्भ में अनगेज्ड (Ungauged) जल विभाजकों के लिये घटक आधारित वर्षा अपवाह निदर्शन के लिये अन्वेषित किया गया था तथापि इसका प्रयोग जल विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जल विभाजक प्रबन्धन, एवं पर्यावरण अभियांत्रिकी में किया जा रहा है जिसके लिये विलियम्स एवं लासुरु (1976), हाकिन्स (1978), मिश्रा एवं सिंह (1999), 2002ए, 2004ए, बी) मिश्रा एवं अन्य (2004 b,c), मिचेल एवं अन्य (2005) एवं चुंग एवं अन्य (2010) द्वारा दिये गये विशिष्ट योगदान उल्लेखनीय है। दीर्घावधि अनुकरण, धातु विभाजन अवसाद लार्ब्ध-निदर्शन इत्यादि अनुप्रयोगों के लिये इस पद्धति का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। वितरित जल विभाजक निदर्शन के लिये भी इस पद्धति का प्रयोग किया गया है। SCS-CN पद्धति इतना अधिक लोकप्रिय हो गया है कि अनेक अनुसंधानकर्ताओं ने इसके प्रत्यक्ष प्रयोग के साथ-साथ अपने नवीन जल विज्ञानीय निदर्शों में इसे शामिल किया है। निम्न खण्डों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में संशोधित एवं मूल पद्धति के अंतर को दर्शाया गया है।
जलालेख अनुकरण
मिश्रा एवं सिंह (2004 b) ने SCS-CN पद्धति की उपयोगिता को स्थापित किया है एवं SCS-CN पद्धति पर आधारित एक समय वितरित ‘‘जलालेख अनुकरण’’ निदर्श को विकसित करने के लिये SCS-CN पद्धति का विस्तारीकरण किया है जिसे निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
समीकरण 22 से प्राप्त वर्षा अधिक दर मानों को बेसिन के निकास द्वार पर बहिः प्रवाह की गणना के लिये एकल रेखीय जलाशय यांत्रिकी द्वारा मार्गाविभाजित किया गया। इसी क्रम में उन्होंने एक SCS-CN पर आधारित एक अन्तःस्मंदन निदर्श को विकसित किया जिसे निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
दीर्घवधि जल विज्ञानीय अनुकरण
विलियम एवं लासुर निदर्श
विलियम एवं लासुर (1976) ने वर्तमान SCS-CN पद्धति पर आधारित जल लब्धि निदर्ष को विकसित करने के लिये मृदा आर्द्रता गणना के सिद्धांत को प्रस्तावित किया। CN को मृदा आर्द्रता के साथ निरंतर परिवर्तनीय पाया गया। निदर्श द्वारा मृदा आर्द्रता सूचकांक प्राचल का आंकलन किया गया जो मापित एवं सम्भावित औसत वार्षिक अफवाह के मध्य एक अनुबंध पर बल देता है। विकसित निदर्ष एक AMC से दूसरे AMC के मध्य परिवर्तन के दौरान CN मानों में अकस्मात परिवर्तन नहीं करता है तथा सरल निवेशों जैसे CN आंकलन मापित मासिक अपवाह, दैनिक वर्षा एवं औसत मासिक झील वाष्पन के लब्धि अपवाह आयतन की मांग करता है। निदर्श का प्रयोग गेज्ड (Gauged) जल विभाजक के लिये AMC II वक्र संख्या एवं औसत सम्भाव्य वक्र संख्या के अनुपात एवं अनगेज्ड (Ungauged) जलविभाजकों के लिये वक्र संख्या के समानुपात के लिये किया जा सकता है। यद्यपि इस निदर्श की कुछ सीमाएं एवं हानियाँ हैं क्योंकि यह निरपेक्ष सम्भाव्य अधिकतम अपरोधन (SB) के लिये केवल 20 इन्च विवेकाधीन मानों का प्रयोग करता है तथा झील वाष्पन सहित मृदा आर्द्रता के भौतिक अविश्वसनीय अपक्षय को कल्पित करता है। हाकिन्स (1978) ने CN एवं AMC संबंध के साथ सम्बद्ध कुछ महत्त्वपूर्ण कमियों की ओर संकेत किया है जैसा कि NEH-4 सारणी में दर्शाया गया है। जिनमें से कुछ निम्न हैं (i) CN एवं AMC वर्ग के मध्य पृथक संबंध CN में है एवं आंकलित अपवाह में उसके सापेक्ष क्वान्टम परिवर्तन को प्रदर्शित करता है। (ii) NEH-4 सारणी के विकास के लिये कल्पनाओं में कमियाँ हैं अतः वास्तविकता के साथ कोई सामंजस्य नहीं है।
पण्डित एवं गोपालकृष्णन निदर्श
पण्डित एवं गोपालकृष्ण (1996) ने वास्तविक वृष्टि अपवाह नियतांक (ASRC) एवं जल विभाजक की पारगम्यता/अपारगम्यता की कोटि पर आधारित वार्षिक प्रदूषण भार की गणना के लिये उपलब्ध SCS-CN पद्धति के प्रयोग द्वारा नियमित अनुकरण निदर्श को विकसित किया है यह निदर्श अत्यधिक सरल हैं एवं इसका प्रयोग विशिष्ट रूप में अपारगम्यता के प्रतिशत द्वारा लघु शहरी जल विभाजकों के विशिष्टकरण के लिये उपयोगी है। तथपित यह निदर्श CN मानों में आकस्मिक परिवर्तन को स्वीकार करता है तथा वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन जल निकासी अंश एवं जल विभाजक मार्गाभिगामन की उपेक्षा करता है।
गीता एवं अन्य निदर्श
गीता एवं अन्य (2008) ने दीर्घकालिक जल विज्ञानीय अनुकरण के लिये पूर्ववर्ती प्रभाव की गणना हेतु संशोधित SCS-CN पद्धति पर आधारित लम्पड निदर्श को विकसित किया। विकसित निदर्श वर्षा-अफवाह प्रक्रम के नियमित अनुकरण में उपयोगी पाया गया तथा इसके परिणाम पाँच भारतीय जल विभाजकों पर मिश्रा एवं अन्य 2005 के परिवर्तनीय स्रोत क्षेत्र सिद्धांत पर आधारित अन्य लम्पड संकलपनात्क निदर्श से श्रेष्ठ पाये गये। संशोधित SCS-CN पर आधारित लम्पड निदर्श अपवाह जनन प्रयोग में सम्मिलित विभिन्न जल विज्ञानीय घटकों पर विचार करता है एवं वक्र संख्या के कालिक परिवर्तन की गणना करता है।
धातु विभाजन
पर्यावरणीय प्रदूषण दीर्घकाल से विचारणीय विषय रहा है। इसने सम्पूर्ण विश्व में, विशिष्ट रूप में विगत दो दशकों से अधिक समय में आधुनिक जीवन के लगभग समस्त चरणों को प्रभावित किया है। परिणामतः इसने सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों, अभियन्ताओं, जल वैज्ञानिकों, योजनाविदों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों एवं पर्यावरणविदों को अपनी ओर आकर्षित किया है। शहरी अबिन्दु स्रोत, सतही जल पिडों के प्रदूषण के महत्त्वपूर्ण स्रोत चिन्हित किये गये हैं। कांग्रेस प्रतिवेदन (1988) (यू.एस.ई.पी.ए.1990) ने यह दर्शाया है कि देश में झीलों की जल गुणवत्ता के अपक्षय के लिये सतही जल अपवाह चतुर्थ प्रमुख कारण है। आवासीय भवन, व्यवसायिक भूमि उपयोग, औद्योगिक उपयोग, खुली भूमि जैसे पार्क, गोल्फ मैदान इत्यादि ऐसे शहरी भूमि उपयोग है जो प्रदूषण वृद्धि में अंशदान करते हैं। मिश्रा एवं अन्य (2004 अ) ने SCS-CN पद्धति के अनुरूप एक विभाजित वक्र संख्या पद्धति को प्रस्तावित किया है।
SCS-CN पद्धति के मूल अनुपात सिद्धांत (समीकरण-2) का प्रयोग करके मिश्रा एवं अन्य (2004 अ) ने घुलित एवं विभक्ति सीमा स्वरूप के मध्य 12 धातु तत्वों Zn, Cd, Pb, Ni, Mn, Fe, Cr, Al, Mg, Ca, Cu एवं Na विभाजन के लिये एक निदर्श विकसित किया। इसके लिये उनहोंने SCS-CN पद्धति के क्रमशः S एवं CN प्राचलों के अनुरूप दो प्राचलोंः सम्भाव्य अधिकतम डिजोपर्शन (Desorption) (Ψ) एवं विभाजन वक्र संख्या (PCN) की अभिधारणा की जैसा कि निम्नतम दर्शाया गया है।
जहाँ CT कुल धातु मात्रा, Cd = संचयी घुलित धातु मात्रा एवं Cp = संचयी विविक्त सीमा धातु मात्रा को व्यक्त करते हैं। Ψ प्राचल SCS-CN प्राचल सामान्य, अधिकतम धारण (S) के अनुरूप है। समीकरण 24 यह दर्शाता है कि विभक्ति सीमा सान्द्रता एवं कुल सान्द्रता का अनुपात घुलित सान्द्रता एवं सम्भाव्य अधिकतम डिजॉर्प्शन के बराबर है। वक्र संख्या CN = [F/Sx100] पर (मिश्रा एवं अन्य 2003 अ) के समान ही विभाजित वक्र संख्या (PCN) को निम्न रूप से परिभाजित कर सकते हैं।
अतः PCN अधिशोषण की प्रतिशत डिग्री या डिजॉर्प्शन की प्रतिशत डिग्री को प्रदर्शित करता है। PCN को अधिशोषण वक्र संख्या के रूप में परिभाषित किया गया था। PCN का मान अधिक होने पर विविक्त सीमा धातु का उत्पादन अधिक होगा। तथा इसके विपरीत PCN का मान कम होने पर विविक्त सीमा धातु के उत्पादन में कमी होगी। समीकरण 25 को निम्न रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है।
समीकरण को पुनः निम्न रूप में व्यक्त कर सकते हैं।
जहाँ Kd (10), Ct की 10 इकाइयों के लिये विभाजन प्रचाल Kd को दर्शाता है अतः PCN को धातु की 10 इकाइयों के लिये अधिशोषण के प्रतिशत मान के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। धातु विभाजन के लिये इस प्रकार विकसित वक्र संख्या का उपयोग है कि PCN धातु प्रजाति की 10 इकाइयों के अधिशोषण क्षमता को परिभाषित करता है एवं विलेय माध्यम की अधिशोषण क्षमता के आधार पर एक धातु में दूसरी के मतःअन्तर को स्पष्ट कर सकता है।
PCN का मान अधिक होने पर अधिशोषण क्षमता का मान कमी एवं इसके विपरीत PCN के मान में कमी होने पर अधिशोषण क्षमता के मान में वृद्धि होगी। Kd एवं PCN के मध्य विशिष्ट अन्तर यह है कि Kd 0 से ∞ तक परिवर्तनीय है जबकि SCN-CN प्राचल में CN के अनुसार PCN के मान की सीमा 0-100 तक होती है। अन्ततः SCN-CN पद्धति (समीकरण-4) के समान Cp को निम्नवत व्यक्त किया जा सकता है।
वर्तमान SCS-CN पद्धति की द्वितीय परिकल्पना (समीकरण 3) के समान ही प्रारम्भिक प्रवाह (if) को निम्न रूप में व्यक्त कर सकते हैंः
जहाँ λ1 प्रारम्भिक अलगाव नियतांक; λ के समान ही प्रारम्भिक प्रवाह नियतांक है। मिश्रा (2004 c) ने s SCS-CN पद्धति पर आधारित अन्तःस्मंदन एवं धातु अधिशोषण प्रक्रम के मध्य सामंजस्य के आधार पर शहरी हिमगलन, वर्षा/अपवाह एवं नदी प्रवाह वातावरण के घुलित एवं विविक्त सीमा स्वरूप में भारी धातु विभाजन के लिये PCN पद्धति को विकसित किया।
अवसाद लार्ब्ध निदर्शन
अवसाद लब्धि के आंकलन की आवश्यकता अनेक समस्याओं के समाधान जैसे बाँध एवं जलाशयों का अभिकल्पन, प्रदूषकों का परिवहन, नदी आकारिकी, मृदा संरक्षण पद्धति की योजना एवं अभिकल्पन, स्थिर वाहिकाओं के अभिकल्प, बेसिन प्रबन्धन के प्रभाव का निर्धारण एवं अरेशीय स्रोत प्रदूषण आंकलनों के लिये आवश्यक है। पर्यावरण गुणवत्ता की बढ़ती जागरूकता एंव बिन्दु रहित स्रोत प्रदूषण के नियन्त्रण की इच्छा ने अवसाद लब्धि-आंकलनों की आवश्यकता में विशिष्ट वृद्धि की है।
अवसाद लब्धि आंकलन एवं इसके कालिक परिवर्तन की विधियों को अनुभाविक, संकल्पनात्मक एवं प्रक्रम आधारित निदर्शों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। आनुभाविक पद्धतियों मूलतः समस्त मृदा कटान नियंत्रण प्रक्रमों को एक समीकरण में सम्मिलित करती है। जो वर्षा विशिष्टताओं, मृदा गुणधर्मों, भू-आच्छादन स्थितियों इत्यादि के लिये आनुभाविक नियतांको/गुणकों का उपयोग करता है। इन पद्धतियों में सार्वभौम मृदा हानि समीकरण (USLE) (मुसग्रेव 1947; विस्चनियर एवं स्मिथ 1978), संशोधित सार्वभौम मृदा हानि समीकरण (MUSLE) (विलयम्स 1978 एवं पुनरीक्षित सार्वभौम मृदा हानि समीकरण (RUSLEX) (रेनार्ड एवं अन्य 1991) सम्मिलित है। ये निदर्श उपयोग में सरल हैं एवं इनका निरन्तर प्रयोग विश्व के विभिन्न भागों में किया जाता है। प्रकम आधारित निदर्श जल प्रवाह एवं अवसाद परिवहन की प्रारम्भिक समीकरण को हल करने का प्रयास करते हैं। अनेक लोकप्रिय संगणक आधारित अपवाह एवं कटान अनुकरण निदर्श जैसे AGNPS (यंग एवं अन्य 1989), CREAMS (निसल 1980), SWAT (निटसच एवं अन्य 2002), EPIC (शारपले एवं विलियम्स 1990) एवं GWLF (हैथ एवं शूमेकर 1987) SCS-CN पद्धति का प्रयोग अपवाह घटक निदर्श के रूप में करते हैं।
उपरोक्त वर्णित निदर्शों में अधिकांश का विस्तृत वर्णन मेरिट एवं अन्य (2003) एवं अक्सोय व कब्बास 2005 द्वारा किया गया है। गैरेन एवं मूरे 2005 तथा वाल्टर एवं स्टीफन 2005 ने जल गुणवत्ता निदर्शन में वक्र संख्या प्रौद्योगिकी की उपयोगिता की सम्भाव्यता का अन्वेषण किया है। यह अन्वेषण पर्यावरण एवं अवसाद अभियांत्रिकी में SCS-CN प्रौद्योगिकी की उपयोगिता को दर्शाता है।
लम्पड निदर्शन
मिश्रा एवं अन्य निदर्श
वर्षा अफवाह निदर्शन एवं कटान व अवसादन निदर्शन अध्ययनों में USLE में SCS-CN प्रौद्योगिकी के महत्व को स्वीकार करते हुए मिश्रा एवं अन्य (2006) ने USLE सहित SCS-CN पद्धति के समीकरण (3) मूल आनुपातिक संकल्प के युग्मीकरण के द्वारा अवसाद लब्धि निदर्श को प्रस्तावित किया। यह युग्मीकरण तीन परिक्लपनाओं पर आधारित है।
(1) अपवाह नियतांक, संतृप्तता की डिग्री के बराबर।
(2) सम्भाव्य अधिकतम अपरोधन को USLE प्राचलों के पदों में व्यक्त किया जा सकता है। एवं
(3) अवसाद वितरण अनुपात, अपवाह नियतांक के समान है।
युग्मन एक विश्लेषणात्मक पद्धति को दर्शाता है जो C=Sr=Dr संकल्पना का उपयोग करता है, (जहाँ C = अपवाह नियतांक, Sr = संतृप्तता की डिग्री एवं Dr= अवसाद वितरण अनुपात है), एवं वर्षा वृष्टि एवं जल विभाजक विशिष्टताओं के आँकडों की मांग करता है। C=Sr=Dr संकल्पना के आधार पर विकसित अवसाद लब्धि निदर्शों को निम्न स्वरूप में व्यक्त किया जा सकता है।
निदर्श में क्षेत्र अनुप्रयोगों हेतु विचारणीय सम्भाव्यता पाई गई।
समय वितरण निदर्शन
सिंह एवं अन्य निदर्श
किसी दिये गये स्थल पर वृष्टि के दौरान समय के गुणक के रूप में अवसाद प्रवाह को अवसादन ग्राफ के निर्धारण हेतु सरल संकल्पनीय निदर्शों का प्रयोग किया गया। नैश 1957 निदर्श आधारित क्षणिक इकाई अवसाद ग्राफ (IUSG), SCS-CN पद्धति (SCS,1956) एवं शक्ति नियम (निवोटनी एवं ओलेम 1994) पर आधारित एक संकल्पनात्मक अवसाद ग्राफ निदर्श (SGM) को सिंह एवं अन्य (2008) द्वारा प्रस्तावित किया गया। प्रस्तावित SGM निम्न परिकल्पनाओं पर आधारित है।
(1) कुल अवसाद लब्धि द्वारा तल भार अंशदान को नगण्य माना गया क्योंकि उसका मान सामान्यतः अत्यधिक सूक्ष्म है। अतः निलम्बित अवसाद लब्धि को जल विभाजक के लिये कुल अवसाद लब्धि के रूप में स्वीकार किया गया।
(2) वर्षा (P) का मान समय के साथ रेखीय रूप से बढ़ता है। अर्थात P=iot
जहाँ io= समान वर्षा तीव्रता।
(3) अंतर्वाह को क्षणिक स्वीकार किया गया तथा यह सम्पूर्ण जल विभाजक पर समान रूप से घटित होता है। परिणामतः संचारित अवसाद का एक इकाई मान उत्पादित करता है।
(4) प्रक्रम रेखीय एवं समय के साथ अपरिवर्तनीय है।
निदर्श के अंतर्गत अपवाह उत्पन्न करने वाली प्रमुख विशिष्टताएं एवं जल विभाजक विशिष्टताएं जैसे मृदा, प्रकार, जल विज्ञानीय स्थितियों, पूर्ववर्ती आर्द्रता एवं वर्षा तीव्रता विचारणीय है। यह सामान्य सांख्यिकीय संबंधों की तुलना में भौतिक रूप से अधिक युक्तिपूर्ण है। इस प्रकार के निर्देषों का प्रयोग जल गुणवत्ता निदेर्शों में गतिकीय प्रदूषण भार की गणना के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। यदि अवसाद ऐसे प्रदूषकों को अपने साथ प्रवाहित करता है जोकि उच्च सान्द्रता पर विषाक्त है तथा जिनमें औसत अवसाद प्रवाह दर की तुलना में चरम प्रवाह दर के निर्धारण की आवश्यकता है। प्रस्तावित निदर्श को निम्न स्वरूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
V0 = 0 यह दर्शाता है कि जल विभाजक प्रारम्भ में पूर्णतः खाली है इसका अनुभव क्षेत्र में किया जा सकता है। यदि पूर्ववर्ती अवक्षेपण (5 या अधिक दिनों के लिये) शून्य है। दूसरी ओर Ia=0 एक प्रारम्भिक तालीय अवस्था (चेन, 1982) को दर्शाता है। जो यह अभिव्यक्त करता है कि विचारणीय वृष्टि द्वारा प्रारम्भ में ताल के समान स्थित उत्पन्न की है, जबकि प्रारम्भिक अलगाव आवश्यकता शून्य है दोनों स्थितियाँ एक दूसरे से भिन्न होने के कारण, अर्थात प्रथम अवक्षेपण की पूर्ववर्ती मात्रा पर निर्भर है तथा दूसरा विचारणीय समय में वृष्टि पर निर्भर है, वास्तविक स्थिति का निर्धारण क्षेत्र में किया जा सकता है। यह निदर्श अवसाद ग्राफ की गणना एवं कुल अवसाद वर्हिप्रवाह के लिये उपयुक्त पाया गया।
त्यागी एवं अन्य निदर्श
वर्षा अधिक दर की गणना के लिये SCS-CN आधारित अन्तःस्पंदन निदर्श एवं अवसाद -अधिकता की गणना के लिये SCS-CN आनुपातिक सिद्धान्त की सहायता से त्यागी एवं अन्य (2008) द्वारा एक समय वितरित अवसाद लब्धि निदर्श विकसित किया गया। अन्त में समय वितरण अवसाद की गणना के लिये अवसाद अधिक को एकल रेखीय जलाशय तकनीक के प्रयोग द्वारा जल विभाजक के आउटलेट पर मार्गाभिगमित किया गया। गणितीय रूप से निदर्श को निम्न रूप में अभिव्यक्त किया गया है।
जहाँ A= मृदा गुणधर्मों एवं संचयन क्षमता P के आधार पर जल विभाजक के लिये अधिकतम सम्भाव्य कटान को व्यक्त करता है
P△t =△t समय अन्तराल के दौरान वर्षा की मात्रा, i = वर्षा तीव्रता एवं fc =अन्तिम अन्तःस्मंदन दर
उपसंहार
जल विज्ञान एवं जल संसाधन के क्षेत्र में देश एवं विदेशों में अनुसंधानकर्ताओं, क्षेत्रीय अभिन्यताओं एवं शिक्षाविदों द्वारा विभिन्न जल विज्ञानीय निदर्शन पद्धतियों में SCS-CN पद्धति का अत्यधिक उपयोग किया गया है तथा इस पद्धति को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। प्रस्तुत प्रपत्र में वैज्ञानिकों द्वारा किये गये, अन्वेषणों, गणितीय एवं सैद्धांतिक पृष्ठभूमि लाभ एवं हानियों, CN आंकलन पद्धतियों, प्रमुख संशोधनों एवं सतही जल विज्ञान एवं जल संसाधन प्रबन्धन के विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयोगों पर विचार विमर्श करने का प्रयास किया गया है।
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सम्पर्क
सुरेन्द्र कुमार मिश्रा, पुष्पेन्द्र कुमार सिंह एवं पी.के. अग्रवाल
जल संसाधन विकास एवं प्रबन्धन विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की-247 667 (उत्तराखण्ड)
मृदा एवं जल अभियांत्रिकी विभाग कृषि अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी कालेज, गोधरा- 389 001 (गुजरात)
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रुड़की (उत्तरांचल)
S K Mishra, P.K. Singh, P.K. Agarwal
Deptt. Of water Resources Development and Management, Indian Institute of Technology Roorkee-247667, (UK)
Deptt. Of Soil and Water Engineering College of Agricultural Engineering and Technology, Anand Agricultural University, Godhra-389001, (Gujarat) India
National Institute of Hydrology, Roorkee-247667 (UK)