पर्वतों की हानि

Submitted by Hindi on Sat, 09/10/2011 - 12:59

हसन जावेद खान


हमने यह समझ ही लिया है कि किस प्रकार पर्वत का अस्तित्व हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। अपने में यह अपार जैव विविधता समेटे रहते हैं और संभवतः विश्व की किसी भी पारिस्थितिकी की तुलना में यह अधिक जटिल, लेकिन जीवन के लिए नितांत आवश्यक भी है। इनका विशेष पारिस्थितिकी जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों की विशेष प्रजातियों को शरण देता है जिनका कहीं अन्य जगह पाया जाना लगभग असंभव हैं। पांडा, हिम तेंदुए, पर्वतीय गौरिल्ला और चश्मा पहने हुए का आभास देने वाला भालू - इन सब पशुओं की बहुमूल्य जातियां पर्वतों की देन है तथा हमारी पृथ्वी की अमूल्य धरोहर है।

संसार की अधिकांश जल आपूर्ति का मुख्य स्रोत पर्वत ही हैं। पर्वत बहती हुई हवाओं का दिशा परिवर्तन तो करते हैं साथ ही उचित दबाव स्थापित कर हवाओं को ऊपर की ओर धकेलते हैं, जहां वे बादलों में परिवर्तित होती हैं और वर्षा/हिमपात करने में सफल रहती हैं। विश्व की मुख्य जल धाराएं पर्वतों से ही निकलती हैं। संसार के लगभग 3 अरब लोग पर्वतों के जल स्रोतों पर ही निर्भर हैं।

हमने यह भी देखा है कि पर्वत विभिन्न लवण-खनिज, लकड़ी, वन की अन्य वस्तुएं, औषधियां व अनेक कृषि उपयोगी उत्पादों का स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त पर्वत अपने में अनेक वर्षों से जनजातियों की विभिन्न सभ्यताएं समेटे हुए हैं जो कि निश्चय ही मानवता की अमूल्य धरोहर है। सारांश में पर्वत अपनी विशेष पारितांत्रिकी, जीव जन्तु तथा वनस्पति का संग्रहालय तथा मानवता की विशेष सांस्कृतिक विविधता के कारण अति महत्वपूर्ण है।

पर्वतों का नाजुक, भंगुर व कमजोर मिजाज


पर्वत निश्चय ही चट्टानी शक्ति का प्रतीक है और इसी कारण उसकी विशालता व शक्ति संसार की किसी भी संस्कृति व भाषा में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जाती है।

पर्वतों की विभिन्न जन-जातियां, पशु-पक्षी, वनस्पति आदि वहां की विचित्र तथा विकट परिस्थितियों जैसे कि चट्टानों का गिरना, भूस्खलन, अत्यधिक, आकाशीय विद्युत् की तीव्रता, जलवायु की चरम स्थितियां, अत्यधिक तापमान व नमी आदि से अपने अस्तित्व के लिए निरंतर समझौता किए हुए हैं।

कैसे कहा जाए कि पर्वतों का पारिस्थितिकी बेहद नाजुक व भंगुर होता है। किसी भी तंत्र अथवा संस्थान का विकास उसकी इकाईयों द्वारा प्रतिक्रिया व उत्पादन शक्ति पर निर्भर करता है। इस विषय में पर्वत कमजोर रहते हैं। उनमें स्थित जीवों में तीव्र प्रतिक्रिया का अभाव तो होता ही है साथ ही वहां उत्पादन क्षमता भी बहुत सीमित होती है। इसका प्रभाव पर्वतों को अति भंगुर व नाजुक बनाता है। इसके अतिरिक्त वहां की विभिन्न ऊंचाइयां व भांति-भांति की जलवायु भी जीवों की प्रतिक्रिया व विकास सीमित ही रखती है। पर्वतों को जलवायु परिवर्तन की प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली भी कहते हैं, क्योंकि इनमें ऊंचाई के कारण विभिन्न जलवायु की पट्टी होती है।

पर्वतीय परिस्थितियों के अनुकूल प्रजातियों ने कई शताब्दियों तक अपने को सफलतापूर्वक ढाला है। परन्तु आज हम अभूतपूर्व रुप से हो रहे तीव्र बदलाव को देख रहे हैं। पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र पर तेजी से मंडराते जोखिम इसी तीव्रता तथा अभूतपूर्व बदलावों का नतीजा हैं, जिसकी गति से पर्वतीय पारिस्थितिकी अपने को ढालने में असमर्थ हैं। यह तीव्र बदलाव प्रत्यक्ष रुप से मानवीय गतिविधियों का ही परिणाम है।

मानव के अत्यधिक हस्तक्षेप से पर्वत का परितंत्र भी अप्रत्याक्षित रूप से प्रभावित हुआ है, जो कि अब तक एक संतुलन बनाए हुए था। मानव की असीमित इच्छाएं, विशेष रूप से आधुनिकीकरण व औद्योगीकरण ने पर्वतीय पारिस्थितिकी को गहरी क्षति पहुंचाई है।

संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) के अनुसार एशिया स्थित पर्वतीय क्षेत्र का लगभग आधा भाग मानव विकास द्वारा प्रभावित हुआ है और सन् 2030 तक अनुमानतः 70 प्रतिशत भाग के प्रभावित होने की संभावना है। यह स्थिति पाकिस्तान, उत्तरी भारत, बांग्लादेश, म्यंमार तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया स्थित पर्वतों पर तो अति भयावह हो गई है। बढ़ती हुई जनसंख्या का दबाव तथा अत्यधिक विकास, असीमित निर्माण कार्य तथा वनोन्मूलन की प्रक्रिया पर्यावरण की जैव विविधता पर विशेष प्रभाव डालती है। साथ ही मानसूनी वर्षा पर भी विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। इन विभिन्न देशों में लगभग 80 प्रतिशत भूभाग का उत्पादन योग्य क्षेत्र सन् 2030 तक मानव निर्माण कार्य अथवा विकास कार्य की भेंट चढ़ जाएगा।

ऐसी अनेक क्षतियां हैं जिनमें से कुछ का ज्ञान तो हमें है लेकिन कुछ का नहीं। उदाहरण के रूप में धरती के मूल उपयोग में परिवर्तन, वनोन्मूलन, लुप्त होती जैव विविधताएं, जल का अभाव, ‘ग्लोबल वार्मिंग’ तथा उससे प्रभावित पिघलते ग्लेशियर और पर्वत के स्थानीय निवासियों की विलुप्त होती संस्कृति आदि।

धरती के उपयोग में परिवर्तन


धरती के परंपरागत उपयोग की विधियों में परिवर्तन हो रहे हैं। वनों का तेजी से कटाव, दो नदियों के बीच के स्थान से वृक्षों का निरंतर कटान, कृषि तथा जंगलों के परंपरागत उपयोग के स्थान पर नई फसलों का उत्पादन जैसे कि मध्य एशिया से लेकर दक्षिणी अमेरिकी क्षेत्रों में औषधि के उत्पादन से संबंधित पैदावार इत्यादि धरती के उपयोग में परिवर्तन का सूचक है।

अनेक पर्वतीय लोगों ने अपनी परंपरागत खेती को त्याग आधुनिक शैली में नकदी फसल (जो तुरंत अर्थ लाभ करा सके) लगाना आरंभ किया, लेकिन विक्रय की जानकारी के अभाव तथा बाजार की अनुभवहीनता के कारण अपने प्रयास में सफलता अर्जित न कर पाए। अनेक लोगों द्वारा पर्वतों के ढाल पर बनी चैरस भूमि पर परंपरागत खेती छोड़ देने से मृदा अपरदन अधिक होने लगा तथा उपज भी कम हो गई।

तेजी से विकसित यातायात हेतु सड़कों के जाल ने भी पर्वतों का दोहन ही किया है। यातायात के अभाव में सुदूर क्षेत्र के पर्वतीय भाग अपना अस्तित्व तो बनाए हुए थे लेकिन भारी विकास कार्य ने दूरियां तो निश्चय ही कम कर दी किन्तु पर्वत का अस्तित्व भी दांव पर लगा दिया। बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां, कारखाने, बांध, जल-विद्युत् परियोजनाओं ने एक तरफ जहां स्पष्ट लाभ पहुंचाया तो दूसरी ओर पर्वतों का प्राकृतिक सम्मोहन तथा जैव विविधताओं को गहरी क्षति भी पहुंचाई है।

वनोन्मूलन


खाद्य तथा कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार उष्णकटिबंधीय पर्वतीय क्षेत्रों (भूमध्य रेखा के पास) में वनों का कटान अन्य जीवोम की अपेक्षा तीव्र गति से हुआ है। पर्यटन क्षेत्र का विकास तथा पर्यटनों की निरंतर यात्राओं से उत्पन्न प्रदूषण ने पर्वतों की अनछुई सुंदरता को निश्चय ही क्षति पहुंचाई है। आंकड़े गवाह हैं कि जितनी क्षति प्रदूषण ने पर्वतों को पहुंचाई है उतनी संभवतः किसी अन्य ने नहीं। उदाहरण के लिए प्रदूषण के बढ़ते स्तर के कारण मध्य यूरोप के महा पर्वत से लेकर अमेरिका के एडिरॉनडेक्स के जंगल खत्म हो चुके हैं। खनिजों की प्राप्ति के लिए होती अंधाधुध खुदाई ने भी अनेक पर्वतीय भागों का विनाश किया है। पिछले कुछ समय से अनेक युद्ध भी पर्वतों के ही क्षेत्र में लड़े गए हैं जिसने पर्वतों के स्थानीय वातावरण तथा परितंत्रिकी पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।

ऐसा समझा जाता है कि वनोन्मूलन के फलस्वरूप अनेक आपदाएं जैसे बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति से पर्वतीय क्षेत्र के अनेक भाग प्रभावित होंगे। इसके साथ ही यह स्थिति मानव के स्वास्थ्य के हित में भी नहीं है क्योंकि बाढ़ व सूखा अनेक आर्थिक तथा स्वास्थ्य परेशानियां पैदा करते हैं।

जल उपलब्धता पर संकट


वनोन्मूलन तथा धरती के दुरुपयोग ने पर्वत क्षेत्र से जल की उपलब्धता पर भारी संकट पैदा कर दिया है। अंधाधुंध विकास की प्रक्रिया ने वनोन्मूलन, प्रदूषण, मृदा अपरदन जैसी विकट स्थितियों को उत्पन्न किया है। बढ़ती आबादी के लिए सिंचाई की आवश्यकता पूरी करने से नदियां सूखनी शुरू हो गई हैं। ऐसे में वन के जीव-जन्तु भी प्रभावित हो रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन आई.यू.सी.एन. एवं यू.एन.ई.पी. ने अपनी रिपोर्ट ‘जल की कमी’ में कहा है कि विशेष रूप से हिमालय क्षेत्र में मानसूनी वर्षा का अभाव तथा ग्लेशियर के सिकुड़ने के कारण जल की आपूर्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इस कारण एशिया में करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। यह क्षेत्र विश्व की जनसंख्या के लगभग 50 प्रतिशत भाग को जल की आपूर्ति करता है परन्तु यहां 3 प्रतिशत से भी कम जल भूमि में संरक्षित है तो निश्चय ही बड़ी संख्या में मानव तथा पशु जल की घटती हुई आपूर्ति से प्रभावित होंगे क्योंकि हर दिन भारी मात्रा में जल का उपयोग विद्युत् परियोजनाओं, औद्योगिक क्षेत्र तथा आधुनिक सिंचाई के रूप में हो रहा है।

उपग्रहों से प्राप्त चित्रों के अनुसार वनोन्मूलन तथा धरती के अत्यधिक दोहन ने नदियों का पानी तो कम किया ही है साथ ही साथ नदियों में भारी मात्रा में तलछट व रेत भी जमा हो गया है। इसके अतिरिक्त जल में घुलनशील पदार्थों की मात्रा भी अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक हो गई है।

पर्वत के ऊपरी भागों में जलापूर्ति पर पड़े अत्यधिक दबाव के कारण पर्वत क्षेत्र में नीचे के स्थानों पर जल की कमी हो जाती है जो पशुओं के चारागाह, वन्यजीवन व पर्यटन को भी प्रभावित करती है। जनसंख्या के बढ़ने पर निश्चय ही जल की आपूर्ति के लिए भीषण संघर्ष होने की संभावना है।

विलुप्त होती जैव विविधता


मानव के अत्यधिक विकास और वनोन्मूलन का ही प्रभाव है कि पर्वतों की जैव विविधता पर भारी संकट छाया है। अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में पर्वतों पर पशुओं व वनस्पतियों की संख्या में भारी प्रभाव पड़ेगा। अनेक प्रजातियां लुप्त हो सकती हैं। जिन क्षेत्रों में इन प्रजातियों के विलुप्त होने का संकट है उनमें से अधिकांश पर्वतीय क्षेत्र ही हैं। 25 से 16 प्रजातियों के विलुप्तता वाले हॉट स्पाट यानि वह क्षेत्र जिनमें अत्यधिक जैव विविधता पाई जाती है, पर्वतों पर ही स्थित हैं। उदाहरण के रूप में मैडागास्कर की पहाडि़यां, पश्चिमी एमेज़ोनिया के पर्वतीय क्षेत्र, पूर्वी हिमालय के अनेक क्षेत्र, फिलीपीन्स के पर्वतीय क्षेत्र, तंजानिया के मोटाने के वनीय क्षेत्र, तथा ब्राजील व अमेरिकी पर्वतीय क्षेत्रों से अनेक जीव-जन्तु व वनस्पतियों की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।

यू.एन.ई.पी. (यूनेप) के अनुसार यदि आधुनिकीकरण और निर्माण कार्यों की गति इसी प्रकार रहती है तो काराकोरम, पाकिस्तान, हिमालय की भारतीय सीमा, दक्षिण-पूर्वी तिब्बत तथा दक्षिण-पश्चिमी चीन के सिचूआन क्षेत्रों में आगमी 3 दशकों में वन्य जीवन पर भारी प्रभाव दृष्टिगोचर होगा। कुछ राष्ट्रों में वन्य जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ने की आशंका है। जाकिस्तान और भूटान जैसे देशों में वन्य जीवन की भूमि का 20 प्रतिशत भाग निर्माण कार्य तथा विकास कार्यों के कब्जे में ले लिया गया है, जिसकी सन् 2030 तक 30 तथा 2060 तक 40 प्रतिशत तक हो जाने की संभावना है।

पर्वतीय क्षेत्रों तथा ऊंचाई पर स्थित अनेक भागों में वन्य जीवों द्वारा घेरी गई भूमि में 20-40 प्रतिशत कमी होने की संभावना है जबकि निचले भागों में यह 80 प्रतिशत तक हो सकता है। कुछ विशेष प्रजातियों का अस्तित्व निस्संदेह संकट में है जैसे कि हिम तेंदुए, काली गर्दन वाले सारस तथा हिरन की विशेष प्रजाति जिसे कि ‘पशावलिस्की हिरन’ कहते हैं। जल भराव के अधिकांश भागों में जानवरों बहुतायत के कारण बत्तख विशेष रूप से ‘बोलने वाली बत्तख’ भी लुप्त हो रही है।

मानव बसाव की बढ़ती हुई दर के कारण अनेक क्षेत्र चारागाह में परिवर्तित हो चुके हैं और इस प्रकार पर्वतों का वनीय क्षेत्र विघटित हो रहा है। अफ्रीका के पर्वतीय क्षेत्रों के अधिकांश भागों में खेती के लिए हल चल चुके हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अमेरिका पर्वतीय क्षेत्र भी पीछे नहीं हैं।

यू.एन.ई.पी. के अनुसार कॉकेसस के भाग और उत्तरी पश्चिमी एंडीस के मुख्यतः केलिफोर्निया के मध्य कोलंबिया के कुछ पर्वतीय क्षेत्रों का पारिस्थितिकी, निस्संदेह संकट की स्थिति में है।

पर्वतीय खदानें


पर्वतीय क्षेत्र की चट्टानें अपने गर्भ में बहुमूल्य धातुएं तथा खनिज पदार्थों का भंडार संजोए हुए हैं जैसे सोना, चांदी, तांबा, लोहा और जस्ता आदि। मानव की इन्हें पाने की ललक ने पर्वतों को छलनी कर दिया है। आधुनिकीकरण के अंधाधुंध अनुकरण तथा आधुनिक कार्य शैली के कारण इन धातुओं की भारी मात्रा में मांग ने सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों की भी खुदाई कर पर्वतों के अस्तित्व को मिटाया है।धातु तथा खनिजों की खुदाई विशेष रूप से विकासशील देशों में अधिक हो रही है, किंतु विकसित देश ही इन धातुओं तथा बहुमूल्य खनिजों का आयात अधिक करते हैं। भारत में हिमालय प्रदेश के खनियारा क्षेत्र में स्लेट की लगभग 1,000 छोटी-बड़ी खदानों से खुदाई के कारण वन का 60 प्रतिशत भाग समाप्त हो चुका है। परिणामस्वरूप भूस्खलन जैसी आपदाओं का भी प्रकोप बढ़ा है। उत्कृष्ट स्टील बनाने में टंगस्टन धातु के भारी उपयोग के कारण संसार के टंगस्टन की लगभग आधी मात्रा दक्षिणी चीन के पर्वतीय क्षेत्रों से खुदाई कर निकाली जाती है। अमेरिका में भारी औद्योगीकरण के फलस्वरुप निकिल, क्रोमियम तथा टिन जैसी धातुओं का 70 प्रतिशत भाग आयात किया जाता है।

इस खुदाई के कारण पर्वतीय शिखर के अनेक भाग ध्वस्त हो चुके हैं तथा जल धाराएं प्रदूषित होकर पर्वतीय तथा निचले क्षेत्रों में पीने के पानी तथा कृषि के लिए भारी संकट पैदा कर रही हैं। इन खानों से निष्कासित जल प्रायः भारी धातुओं तथा अम्ल से युक्त होता है, जो जीव-जंतुओं तथा वनस्पति के लिए अत्यंत हानिकारक है। अफ्रीका के पर्वतीय क्षेत्रों की खानों से निष्कासित जल में आर्सेनिक धातु की मात्रा मापदण्ड द्वारा मान्य मात्रा से 1000 गुना अधिक पायी गई है। अमेरिका में भी नदियों व जलधाराओं के अनेक भागों में खानों द्वारा निष्कासित अम्लीय जल की मात्रा अधिक पायी गई है।

खदानों से जीव-जन्तुओं व वनस्पतियों को भी भारी क्षति होती है। जिस भाग में खुदाई कार्य चलता है वहां पर पेड़ों की कटाई होती ही है, जो मृदा अपरदन तथा बाढ़ जैसी आपदाओं को आमंत्रित करता है। खदानों से बारुदी सुरंगे बनाने में फैली धूल वातावरण को प्रदूषित करती है। पर्वतीय क्षेत्रों की खदानों में कार्यान्वित प्रक्रियाएं मानव के लिये भी हानिकारक हैं। एक ओर बाहर से आए श्रमिक पर्वत की स्थानीय संस्कृति को असंतुलित करते हैं तो दूसरी तरफ खदानों का नम तथा ठंडा वातावरण और साथ ही धातु खनिजों का निरंतर फेफडों में अतिक्रमण शरीर को गहरी हानि पहुंचाता है। यूनेस्को द्वारा दर्जन से भी ज्यादा ऐसी विश्व धरोहरों को चिन्हित किया गया है जिन पर खनन के चलते संकट मंडरा रहा है।

भूमंडलीय तापीकरण


धरती का बढता तापमान आज पहले से अधिक तथा प्रबल खतरे के रुप में उभरा है। वायुमंडल में कुछ गैसों की अधिक मात्रा में उपस्थित सूर्य की गर्मी को परिवर्तित होने से रोकती है। फलस्वरुप धरती अधिक गर्म हो जाती है। इसके अनेक दुष्प्रभाव हैं जिसका मुख्य रूप से प्रभाव पर्यावरण/पर्वतीय पारिस्थितिकी पर पड़ता है। तेल, कोयला तथा अन्य जीवाश्म ईंधन को जलाने से पर्वतीय पारिस्थितिकी के और बिगड़ने की संभावना है। इससे मौसम का चक्र बदल जाता है, ग्लेशियर पिघलते हैं, मानसूनी वर्षा प्रभावित होती है और फसलों तथा अन्य पैदावार को क्षति होती है तथा बढ़ता तापमान मानव व अन्य जन्तुओं के जीवन चक्र को भी प्रभावित करता है।

ग्लेशियर जो पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी में अदभुत संतुलन बनाए रखते हैं तथा जल का स्थायी भंडार संजोए रहते हैं, इस तापीकरण से पिघलने लगे है। पिछले एक दशक में 3-30 मीटर प्रति वर्ष ग्लेशियर की बर्फ पिघलने से संतुलन बिगड़ गया है। परिणामस्वरूप एक करोड़ लोगों की जल आपूर्ति प्रभावित हुई है। संसार के अनेक भागों में ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं जो कि गहन चिन्ता का विषय है। इक्वाडाट, वेनेजुएला, यूरोपीय एल्प्स, न्यू गिनी अमेरिका के पर्वतीय क्षेत्रों तथा भारत में हिमालय पर्वतों के ग्लेशियर विशेष रूप से प्रभावित हो सिकुड़ रहे हैं।

ग्लेशियर के पिघलने व सिकुड़ने से जल का प्रभाव प्रभावित हो रहा है। अनेक नदियां व जल धाराएं अनेक वर्षों से मानव को खुशहाली व कृषि संपदा प्रदान करती चली आ रही हैं, अब संतुलन चक्र बिगड़ने के कारण मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में असमर्थ हो रही हैं। भारत की लगभग आधी जनसंख्या जो कि जलापूर्ति लिये इडंस तथा गंगा पर निर्भर थी अब जल के अभाव के कारण संकट में आ गयी है।

ग्लेशियर के पिघलने से पर्वतीय झीलों पर भी दबाव पड़ता है और कभी-कभी तो अत्यधिक भराव के कारण यह जल नीचे के क्षेत्रों में बाढ़ का रूप धारण कर विनाश का कारण बन जाता है। सन् 1985 में नेपाल की ”डिगा शो ग्लेशियल झील’’ के अतिभराव से नीचे के क्षेत्रों में उत्पन्न बाढ़ ने विद्युत् जल-ऊर्जा गृह परियोजना तथा पुलों का विनाश किया। इसके 6 वर्ष बाद एक और हिमझील ने तबाही मचाई यू.एन.ई.पी. (यूनेप) के अनुसार नेपाल और भूटान क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने से लगभग 50 नई झीलें बन गई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यह झीलें जो पत्थर व मिट्टी के सहारे टिकी हुई हैं, यदि ध्वस्त हो र्गइं तो नीचे के क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में विनाश लीला कर जान तथा माल की हानि कर सकती हैं।

जलवायु बदलाव पर अन्तर्राष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) ने बताया है कि एल्प्स पर्वत पर किस प्रकार बढ़ता तापमान हिम पर प्रभाव डालता है और उसका दुरगामी प्रभाव पर्यटन, जल आपूर्ति, वनस्पति व वन्य जीवों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। इस पैनल ने आगे कहा है कि सन् 2015 तक तापक्रम में 0.07 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से स्विस के 19 प्रतिशत एल्पाइन ग्लेशियर पिघल जाएंगे और सन 2080 तक आश्चर्यजनक रूप से नुकसान में तेजी आएगी।

अपनी नई गणना के अनुसार चीन विज्ञान एकेडमी ने कहा है कि पर्वतों पर ग्लेशियर जितना सिकुड़ रहे हैं उसी अनुपात में ‘पीली नदी’ में पानी भी निरंतर कम हो रहा है। एकेडमी के अनुसार चीन के ग्लेशियर प्रति वर्ष 7 प्रतिशत सिकुड़ रहे हैं। अनुमान है कि सन् 2050 तक वहां के 64 प्रतिशत ग्लेशियर विलुप्त हो जाएंगे। इसे ग्लेशियर लेक आउटबसर्ट फ्लड भी कहते हैं। इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि चीन में लगभग 30 करोड़ लोग ग्लेशियर से प्राप्त जल पर ही आश्रित हैं।

भूमंडलीय तापीकरण का प्रभाव अफ्रीका के सबसे ऊंचे पर्वत ‘किलीमनजारो’ पर देखा जा रहा है और अनुमान है कि 20 वर्ष से कम के अंतराल पर वहां की पूरी हिम पट्टिकाएं समाप्त हो जाएंगी और यह विभीषिका वहां के किसानों को गहरे संकट में डाल सकती हैं जो अनेक शताब्दियों से उन पर्वतों के ढलान पर रह रहे हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार यदि पर्वतों की हिम संपदा समाप्त होती है तो हो सकता है कि निकट भविष्य में लोगों को बाढ़ की आपदा का सामना करना पड़े किन्तु दूरगामी प्रभाव निश्चित रुप से सूखे की स्थिति का ही है। बढ़ता तापक्रम रोगों तथा बीमारियां को फैलाने में सहायक होगा क्योंकि तब पर्वतों की ऊंचाई पर भी रोग के कीटाणु जीवित रह सकेंगे।

पर्वतीय पर्यटन


पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन निश्चित रुप से उस देश की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान करता है किन्तु यह भी सत्य है कि यदि पर्यटन की सीमा को तय नहीं किया गया तो पर्वतीय पारिस्थितिकी पर दुष्प्रभाव पड़ेंगे। पर्वतीय पर्यटन तेजी से बढ़ती एक आद्यौगिक इकाई का रुप ले रही है (करीब 15 से 20 प्रतिशत की दर से) और अनुमानतः विश्व स्तर पर पर्यटन से लगभग 70-90 अरब अमरीकी डालर की आय होती है।

विश्व पर्यटन संगठन (डब्ल्यूटओ) के अनुमान के अनुसार सन् 2010 तक एक अरब पर्यटकों से प्रतिवर्ष 1,500 अरब अमरीकी डालर की आय होगी।

पर्वतीय पर्यटन में निरन्तर वृद्धि भूमंडलीय अथवा स्थानीय स्तर पर वहां के वातावरण, अर्थव्यवस्था व सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर विशेष प्रभाव डालते हैं। पर्वतीय रास्तों पर कूड़ा-करकट के ढेर यही दर्शाते हैं। ठंडा तापक्रम होने के कारण कूडा-करकट काफी मात्रा में सड़ नहीं पाता। सन् 1999 में सुप्रसिद्ध पर्वतारोही केन नगूची ने अपने 4 साल के माउंट एवरेस्ट के सफाई अभियान में 7.7 टन कूड़ा हटाया जिसमें मुख्य रूप से टूटे हुए तम्बू, सीढि़यां, भोजन संचय करने के डिब्बे तथा 423 ऑक्सीजन की बोतलें थीं।

पर्यटन के कारण पर्वतों की सांस्कृतिक विरासत, उसकी पहचान व विविधताओं को गहन क्षति पहुंचती है। पर्वतीय पर्यटन के बढ़ते प्रभाव व मांग के कारण नए-नए आरामदायक होटलों के निर्माण हुए, दूर-दूर से श्रमिक वहां आए और उसका निश्चित रुप से पर्वतों की स्थायी सभ्यता पर गहरा प्रभाव पड़ा। अनेक व्यसन जैसे कि जुआ खेलना, नशीली दवाओं का सेवन, मदिरा पान इत्यादि ने वहां की मान्यताएं, स्वस्थ परम्पराएं तथा धार्मिक आस्थाएं जिन्होंने स्थानीय समाज को बांध के एकजुट रखा था, उन्हें गहरी क्षति पहुंचाई। इसके अलावा पहाड़ के अलग-थलग पड़े लोग तथा सीमित पहुंच होने के कारण पर्वतीय निवासियों को पर्यटन का लाभ पूरी तरह नहीं मिल पाता।

अनेक देशों में आज पर्यावरण-मित्र पर्यटन का दौर प्रारम्भ हो चुका है। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यटन को उत्साहित करना है लेकिन इसके साथ ही स्थानीय जातियों को लाभ हो और पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव न हो, यह भी सुनिश्चित करना है। अमेरिका स्थित अन्तर्राष्ट्रीय इकोटूरिज्म सोसायटी के अनुसार अमेरिका, ब्रिटेन व आस्ट्रेलिया के 90 प्रतिशत लोग पर्यावरण की रक्षा करने तथा स्थानीय लोगों की सहायता करने के लिये कटिबद्ध हैं। पिछले एक दशक में पर्यावरण में भी पर्यटन का विस्तार आश्चर्यजनक रूप से अधिक हुआ है (करीब 34 प्रतिशत से भी ज्यादा) जो मानव का पर्यावरण के प्रति सम्मान का सूचक है।

पर्वतीय सांस्कृतिक विविधता पर आघात


पर्वतीय जातियों का पर्वतों पर निवास, उसकी खाद्य एवं कृषि संबंधी सुविधाएं, पशुओं का चारागाह आदि जल के स्रोतों पर निर्भर करता है। उनकी वास्तुकला तथा संस्कृति पूर्वजों से चली आ रही है और यही उनकी धरोहर होती है। धर्म सम्बन्धी नियम, उनके जीवन में महत्वपूर्ण होते हैं। उनको स्थानीय वातावरण व पर्यावरण जो भूमंडलीय पारिस्थितिकी के लिये अति आवश्यक है, इसका उन्हें अद्भुत ज्ञान होता है जो उनके जीवन के लिए अति आवश्यक है।

पर्यटन के विकास के कारण पर्वत के स्थानीय जनजीवन पर अनेक प्रभाव पड़े हैं। उनका सादगी भरा जीवन अब बदलाव के रास्ते पर है। शहरी जीवन की बदलती जीवनशैली, बाजार की गहन जानकारी, नकदीकरण आधारित कृषि की अर्थव्यवस्था आदि ने भी पर्वत के लोगों को प्रभावित किया है और परिणामस्वरूप उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक जीवनशैली पर प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनके जीवन यापन के स्त्रोत भी धीरे-धीरे कम हो रहे हैं।

पर्यावरण के बिगड़ने के फलस्वरूप पर्वतीय क्षेत्र जो कभी खाद्य, जल आदि के भरपूर स्त्रोत थे अब धीरे-धीरे निर्जीव हा चले हैं। यह भी सत्य है कि संसार के लगभग 80 करोड़ लोग पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हैं।

क्षति की कीमत


पर्वत के पारिस्थितिकी में जो बदलाव आ रहे हैं उनकी कीमत केवल पर्वतवासियों को ही नहीं अपितु हम सबको भी चुकानी पड़ेगी। हममें से अनेक जो पर्वतों पर नहीं रहते, फिर भी कहीं न कहीं पर्वत के स्रोतों पर निर्भर रहते हैं। पर्वतों की वन सम्पदा, चारागाह, अथवा जल स्रोत जो हमारी नदियों, झीलों आदि को जल की पूर्ति करते हैं हमे निश्चय ही पर्वतों से जोड़ते हैं। पर्वतों के ग्लेशियर हमारी नदियों के जल के स्रोत हैं तथा हमारी पेयजल आपूर्ति तथा कृषि संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। वहां के वनों से हमें बेशकीमती औषधियां, फलों व वनस्पतियों से लेकर आलू की विशेष प्रजाति से लेकर इथोपिया के कॉफी की फसले मिलती हैं।

अंधाधुंध मानवीय विकास ने दुर्भाग्यवश पर्वतीय पारिस्थितिकी को भारी क्षति पहुंचाई है। बढ़ती जनसंख्या तथा अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की चाहत पर्वतीय लोगों को कृषि तथा पशुपालन से निर्वाह करने के लिये और ऊपर के क्षेत्रों तथा दूरस्थ भागों में ले जा रही है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि वनों का उन्मूलन, मृदा अपरदन आदि पारिस्थितिकी के संतुलन के लिये संकटप्रद स्थिति है। भारत के पर्वत भी इन प्रभावों से अछूते नहीं हैं।

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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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