हसन जावेद खान
सन् 2004 में ताईवान में ताईपेई-101, जो ताईपेई वित्तीय केन्द्र भी कहलाता है, की 101 मंजिला इमारत का निर्माण हुआ। यह इमारत तब तक की संसार की सबसे ऊंची इमारत पेट्रोनास टावर से भी ऊंची बनी थी। इसकी ऊंचाई 1,671 फीट (509 मीटर) है और इसके निर्माण में 5 वर्ष का समय लगा। माउंट एवरेस्ट जिसकी ऊंचाई 29,028 फीट है और जहां तक मानव ने अपनी पहुंच बनाई है, उसे बनने में निश्चय ही लाखों वर्ष का समय लगा होगा।
पर्वतों का निर्माण अनन्त काल से चल रहा है। बड़े-बड़े पर्वत सम्भवतः वायु अथवा जल द्वारा जमा की गई मिट्टी, पत्थर से अथवा धरती की तह के उत्थान का ही परिणाम हो सकते हैं। अनेक पर्वत सागर में से ही निर्मित हुए हैं। करोड़ों वर्ष पहले माउंट एवरेस्ट पर्वत स्वरूप न होकर सागर के अन्दर ही समाया हुआ था। ऐसे भी पर्वत हैं जिनको बनने में थोड़ा ही समय लगता है जैसे कि ज्वालामुखी पर्वतों का निर्माण यकायक हो जाता है।
पर्वत क्या है?
पर्वत भूमि का पांचवां भाग घेरते हैं और ये प्रत्येक महाद्वीप में उपस्थित हैं। पर्वतों के बिना संसार की कल्पना निश्चय ही आकर्षण व सम्मोहन से विहीन होती है। लेकिन पर्वत क्या है और इसकी परिभाषा क्या है?
पर्वत किसी भी पहाड़ी से ऊंचा व सीधी चढ़ाई वाला मिट्टी व चट्टानों का ढांचा होता है। सामान्यतः पर्वत धरती के एक निश्चित स्थान पर लगभग 600 मीटर ऊंचा धरती का उभार होता है। पर्वतों की परिभाषा यह हो सकती है कि वह खड़ी व सीधी ढलान, ऊपरी चपटा भाग तथा गोलाई लिये हुए या नुकीली चोटियों वाले उभार होते है। भूविज्ञानी किसी सीधे खड़े क्षेत्र को तभी पर्वत मानते है जब वहां विभिन्न ऊंचाईयों पर दो या अधिक प्रकार की जलवायु तथा वनस्पति की विविधता हो।
अनेक पर्वतों की पारस्परिक निकटतम स्थिति पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है। ऐसी ही अनेक समानान्तर पर्वत श्रृंखलाएं और बडी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण करती हैं। उत्तरी अमेरीकी काडीलेरा, हिमालय, एल्प्स आदि विशाल पर्वतीय श्रृंखलाओं के उदाहरण हैं।
गतिशील पृथ्वी
पर्वत कैसे बनते हैं? पर्वत धरती की संरचना व विन्यास में अहम भूमिका रखते हैं। गतिशील बल धरती की सतह के समान इसके आंतरिक भाग पर भी प्रभाव डालकर पर्वतों की बनावट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्वतों की श्रृंखला जानने से पहले हमें यह जानना होगा कि धरती के अन्दर क्या है? धरती की बनावट क्या है तथा उसके अंदर तथा उसकी सतह पर कौन-कौन सी स्थिर व गतिमान शक्तियां कार्य कर रही हैं?
पृथ्वी की बाहरी सतह से उसके केन्द्र तक का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि बाहरी सतह में ठोस सिलीकेट की मोटी तह होती है उसके पश्चात एक गाढ़ी तरल पदार्थ की तह फिर द्रव्य तरल पदार्थ की परत और अंत में केन्द्रीय भाग ठोस पदार्थ द्वारा निर्मित होता है।
धरती का केन्द्र यानी क्रोड मुख्यतः लोहा व निकिल धातुओं से बना होता है। जो पृथ्वी के कुल भार का करीब 30 (31.5) प्रतिशत होता है। बाहरी क्रोड, जो अधिकांश द्रव्य के रूप में होती है, की मोटाई लगभग 2,200 किलोमीटर जबकि आंतरिक क्रोड 1,270 किलोमीटर मोटी ठोस परत होती है।
धरती की बाहरी परत तथा उससे सटा हुआ आवरण, जो 2,800 किलोमीटर से अधिक की मोटाई लिये होता है, धरती के भार का करीब 70 प्रतिशत (68.1%) होता है। यह मुख्य रूप से सिलिकन, एल्यूमिनियम, लोहा तथा ऑक्सीजन से निर्मित होता है। ऊपरी सतह (भूपटल) पृथ्वी के भार का लगभग 1 प्रतिशत से भी कम (0.4%) होता है तथा इसकी गहराई 5-70 किलोमीटर होती है। भूपटल में एल्यूमिनियम, लोहा, सिलिकान और ऑक्सीजन के अतिरिक्त कैल्शियम, सोडियम, पोटैशियम तथा लोहा भी समूचित मात्रा में उपस्थित रहता है। प्रावार के बाहरी आवरण में भूपटल के नीचे का भाग ठंडा होता है और उसमें मजबूत चट्टानें होती हैं। धरती के इस बाहरी आवरण (भूपटल के नीचे का आवरण) को स्थलमंडल यानी लिथोस्फियर कहते है जिसकी मोटाई विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग होती है। यह साधारणतः 100 किलोमीटर या थोड़ा अधिक मोटी होती है। लिथोस्फियर के नीचे के आवरण को दुर्बलतामंडल यानी ऐस्थेनोस्फियर कहते हैं जो कि बाहरी आवरण से अधिक द्रवीय अवस्था मे होता है।
स्थलमंडल (बाहरी आवरण) दुर्बलतामंडल के ऊपर लगभग तैरती हुई अवस्था में रहता है। स्थलमंडल ही वह आवरण है जो महाद्वीपों तथा महासागरों को सहारा देता है। इस आवरण की महाद्वीप में मोटाई लगभग 35 किलोमीटर तथा समुद्रतल पर 7 किलोमीटर तक होती है। स्थलमंडल की बनावट में अनेक शक्तिशाली चट्टानी भाग होते है, जो गतिमय भी हो जाते हैं। उन्हें विवर्तनिक यानी टैक्टोनिक प्लेट कहते हैं। इसके फलस्वरूप जिन महाद्वीपों में यह प्लेटें होती हैं, वह निरन्तर गतिशील रहते हैं। इन स्थलमंडलीय प्लेटों की गतिविधियों को प्लेट विवर्तनिकी कहते हैं।
महाद्वीप के खिसकने अथवा महाद्वीपीय विस्थापन के मूल सिद्धांत (कांटीनेन्टल ड्रिफ्ट थियोरी) के अनुसार आज के अनेक द्वीप एक बड़े द्वीप पेंजिया के रूप में स्थापित थे तथा करीब 20 करोड़ वर्ष पहले टूट कर कई भागों में अलग-अलग द्वीपों में बदल गए। सम्भवतः यह बडे़ द्वीप धरती के अन्दर की भीषण गर्मी का ही परिणाम थे। सागर के जल में इन छोटे छोटे बने अनेक महाद्वीपों के मध्य स्थापित हो, इन द्वीपों का अलग ही अस्तित्व बन गया। आज भी अनेक महाद्वीप गतिशील हो अपना स्थान परिवर्तन करते रहते हैं।
प्लेट विवर्तनिकी का स्पष्ट कारण अज्ञात है लेकिन एक परिपक्व विचारधारा के अनुसार धरती के गर्भ में ताप संचरण की क्रियाएं धरती के आवरणों (प्लेट) को गतिशील बनाती हैं।एक अन्य विचारधारा के अनुसार गहरे महासागर का तल, हलके महासागर तल के विरूद्ध ठंडी व पुरानी तैलीय पर्तों को गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे की ओर खींच कर गतिशीलता उत्पन्न करता है।
लेकिन जो भी कारण हो यह निश्चित ही है कि आज भी “विवर्तनिक प्लेटें” निरन्तर गतिशील हो एक दूसरे से टकराती रहती हैं। इसी कारण इन प्लेटों के निकटतम भूभाग में भूकम्प जैसी आपदाएं आती रहती हैं। इसी प्रकार इन क्षेत्रों में विशेष आकृतियों जैसे पर्वत, ज्वालामुखी अथवा समुद्र की खाईयां आदि की संरचना निर्मित होती रहती है। संसार के अधिकतम ज्वालामुखी इन्हीं प्लेटों के नजदीकी भूभागों में अधिकतर देखे जाते हैं। इनमें से प्रशांत प्लेट की ‘अग्नि वलय’ यानी ‘रिंग आफ फायर’ सबसे सक्रिय स्थल है।
विवर्तनिक प्लेटों की गतिशीलता के कारण मुख्य रूप से तीन विभिन्न प्रकार की सीमाओं के अस्तित्व, जो विभिन्न प्रकार की सतही परिघटनाओं से संबंद्धित होती हैं, के कारण होता है। यह तीन मुख्य सीमाएं हैं:
(1) रूपांतरित सीमा का निर्माण रूपांतरित भ्रंशों पर हल्के से टकराने या रगड़ने के कारण होता है। प्लेटों के एक दूसरे से रगड़ने अथवा टकराने से असीमित तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो किसी भी समय भीषण झटकों के साथ तनाव को सामाप्त कर देती है। ऐसे ही समय भूकंप पैदा होता है।
(2) यदि प्लेटें एक दूसरे से दूर हटती हैं जैसे कि मध्य महासागरीय कटक व महासागर में किसी शीर्ष स्थान का उभरने पर दिखाई देती है, तो इस प्रकार अपसारी सीमा का निर्माण होता हैं (उदाहरण के लिए पूर्वी-अफ्रीका का उभार)।
(3) यदि प्लेटें एक दूसरे की ओर खिसके अथवा अपने स्थान से ऊपर नीचे गतिशील होकर एक साथ आ जायें तो वह अभिसारी सीमा का निर्माण करती हैं।
पर्वतों की संरचना
पर्वतों की संरचना के बारे में कोई निश्चित विधि मान्य नहीं है। यह भी ज्ञात नहीं है कि पर्वत की रचना में कितना समय लगता है। पृथ्वी के गर्भ में अनेक बल ही पर्वतों का निर्माण करने में मुख्य भूमिका अदा करते हैं। पर्वत बनने में लम्बा समय लगता है और इस प्रक्रिया को “ओरोजेनी” कहते हैं जिसका “ग्रीक” भाषा में अर्थ उपर उठने की प्रक्रिया होता है।
लम्बे समय से पर्वत बनने की प्रक्रिया में अनेक विधियां जुड़ती गई हैं। विविर्तनिक प्रक्रिया के अतिरिक्त भी अनेक कारण होते हैं जो पर्वतों का आकार तय करते हैं। पर्वतों की उत्पत्ति के अनुसार उनका निम्न वर्गीकरण किया जा सकता है।
1. ज्वालामुखीय
2. धरती के आवरण के गति स्वरूप
3. धरती के ऊपरी सतह के कटाव (मृदा अपरदन)
4. अवसादी निक्षेप
विवर्तनिक प्लेटेटों की गतिविधियां
ज्वालामुखी पर्वर्ततः
धरती के गर्भ में जब अत्यधिक ताप के कारण चट्टानों के पिघलने से लावा ऊपर की ओर तेजी से उठता है तो ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण होता है। अधिकतर यह ज्वालामुखी क्रियाएं सागर की सतह के नीचे होती हैं और कभी-कभी कुछ सागर की सतह के नीचे के ज्वालामुखी ऊपर की सतह पर आ जाते हैं। अमेरिका में माउन्ट रेनियर और माउन्ट सेंट, हेलन्स, फिलीपाइन्स का माउन्ट पिनाटूबो, इटली का माउन्ट विसुवियस तथा जापान का माउन्ट फूजी, ज्वालामुखी पर्वतों के स्पष्ट उदाहरण माने जाते हैं।
एक विचार के अनुसार ज्वालामुखी पर्वतों की रचना सागर तथा महाद्वीप के बाहरी आवरण सतहों के उथल पुथल तथा टकराव के ही कारण हुई हैं। सामान्यतः महाद्वीपों की धरती की आवरण सतह कम घनत्व वाली होने के कारण सागर की आवरण सतह पर आकृष्ट होकर जा मिलती है, इसे सबडक्शन यानी अवरोहण कहते हैं। इसके फलस्वरूप सागर की सतही पर्त तथा महाद्वीपों के नीचे ऊपरी प्रावार स्थलमंडल, महाद्वीपों और सागर के मध्य भाग में गहराई तक पहुंच कर, ताप और दबाव के कारण पिघलती है। पिघला हुआ लावा ऊपरी सतह पर फटता है और जब ठंडा होता है तो चट्टान उभर कर स्पष्ट रुप ले लेती है। ऐसे ही अनेक ज्वालामुखी ठंडे होकर बड़ी चट्टानें बन पर्वत का निर्माण करती हैं।
सम्भवतः इस विधि के अनुसार ही बड़ी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाओं का धरती पर अथवा सागर में उदय हुआ होगा। जहां-जहां सागर अथवा धरती के अन्दर लावा का भंडार होता है वह गर्म होकर ज्वालामुखी पर्वतों का निर्माण करता है। उदाहरण के रूप में सागर के गर्म स्थलों पर अनेक ज्वालामुखी पर्वतों की रचना के फलस्वरूप हवाई द्वीप की स्थापना हुई।
इसी प्रकार प्रशांत महासागर में दक्षिणी अमेरिका के छोटे से कैसकेड पर्वतों तथा अलास्का के एल्यूशियन द्वीपों से जापान के दक्षिणी भाग से होते हुए दक्षिण पूर्वी एशिया तथा न्यूजीलैंड के दक्षिणी क्षेत्र में चक्राकार रुप में पर्वतों की रचना हुई जिसे ‘रिंग आफर फायर’ कहा गया।
पृथ्वी की सबसे बडी ज्वालामुखी श्रृंखलाएं तथा सबसे लंबी पर्वतीय श्रृंखलाएं मध्य महासागरीय कटक हैं। समुद्र की सतह के अन्दर टेक्टोनिक प्लेटों के भीषण अलगाव से लम्बी दरारें और फिर लावा के गर्म होकर उभरने के फलस्वरूप ये लम्बी श्रृंखलाएं निर्मित हुई हैं। इस प्रक्रिया को ‘सी फ्लोर स्प्रेडिंग’ यानी ‘समुद्री अधस्तल फैलाव’ कहते हैं।
भूपटल संचलन
महाद्वीपीय भूपटल तथा समुद्री भूपटल के बीच जब टकराव से घर्षण होता है तो ज्वालामुखी पर्वत बनते हैं। लेकिन यदि महाद्वीपीय भूपटल का महाद्वीपीय भूपटल से टकराव व घर्षण हो तथा दोनों के घनत्व भी समान हों तो विवर्तनिक प्लेटों के परस्पर टकराव व एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाने की प्रक्रिया से ऊंचे-ऊचें पर्वतों का निर्माण होता है।
प्रायः ऐसे पर्वत समुद्र के बहुत ऊंचे उठ जाते हैं और अनेक अवसरों पर इन पर्वतीय चोटियों पर समुदी जीवों के अवशेषों का पाया जाना इन पर्वतों का समुद्र के गर्भ से निकलना दर्शाता है। माउन्ट एवरेस्ट की चोटियों पर भी समुद्री सीप (जीव का आवरण) का मिलना इसी तथ्य की पुष्टी करता है। हिमालय पर्वत की संरचना महाद्वीपीय-महाद्वीपीय सतह के ही टकराव का अद्वितीय उदाहरण है। इण्डियन प्लेट तथा यूरेशियन प्लेट के टकराव से उत्पन्न दबाव से हिमालय का निर्माण हुआ है और इसी प्रकार यूरोप के एल्प्स पर्वत तथा जूरा पर्वतों की रचना भी अफ्रीकन तथा यूरेशियन प्लेट के टकराने से हुई।
महाद्वीपीय प्लेटों के टकराव से उत्पन्न पर्वतों का वर्गीकरण प्लेट के टकराव की विधि तथा उसके पश्चात हुई स्थितियों पर निर्भर करता है। इसका वर्गीकरण प्रायः त्रुटीय शिलाखंड पर्वत, सीधे ऊंचे पर्वत, मुड़े हुए अनियमित रुपी, गुम्बदाकार आकृति आदि के रूप में किया जाता है।
वलन या मुड़वा पर्वत (Fold Mountain)
जब प्लेट के एक दूसरे से टकराने से भूपटल वलित रूप में ऊपर उभर कर पर्वत के आकार में आ जाती है तो उसे वलन पर्वत कहते हैं। प्लेटों के टकराव की स्थिति से उत्पन्न शक्तिबल बड़ी-बड़ी चट्टानों को अनियमित रूप से मोड़ कर ऊपर उभार कर पर्वत का आकार देती है। ऐसे पर्वत अधिकतर किसी महाद्वीप के किनारे पर होते हैं क्योंकि सम्भवतः धरती के नीचे अवसादी चट्टानों का समूह महाद्वीप के किनारे पर ही स्थित होता है। यदि किसी मेज पर स्थित किसी मेजपोश को एक तरफ ढकेल दिया जाये तो किनारों पर मेजपोश से उत्पन्न जो आकृति बनती है लगभग वैसी ही इन पर्वतों की महाद्वीप के किनारे निर्मित होती है।
वलन पर्वत दो प्रकार के होते हैं। पहले युवा वलन पर्वत (1 से 2.5 करोड़ वर्ष पुराने पर्वत, उदाहरण के लिए रॉकी तथा हिमालय पर्वत) तथा पुराने वलित पर्वत (20 करोड़ वर्ष से अधिक पुराने उदाहरण के लिए अमेरिका की यूराल तथा अपैलाकाईन्स पर्वत)।
भ्रंश खंड पर्वत (Fault block Mountains)
धरती की सतह में जब बड़ी-बड़ी दरारें बन जाएं और विशाल चट्टानें भी टूट कर ऊपर उभरने के बाद कटी-फटी रेखा में स्थापित हो पर्वताकार हो जायें, तो उन्हें भ्रंश खंड पर्वत कहते हैं। उत्तरी अमेरिका के सीरा निवादा पर्वत तथा जर्मनी के हर्ज पर्वत ऐसे ही निर्मित भ्रंश खंड पर्वत श्रृंखलाओं के उदाहरण हैं। पश्चिमी अमेरिका के बेसिन तथा रेंज क्षेत्रों में मुडे़ हुए खंड काफी सामान्य है। भ्रंश-खंड पर्वत स्तरीय खंड द्वारा भी बन सकती है जैसा कि उत्तरी यूरोप के हॉर्स्ट तथा ग्रबन क्षेत्रों में देखा जाता हैं। यह एक सीधी-भुजाओं वाले पर्वत है जिनका निर्माण दो समान्तर दरारों के टकराने के कारण धरती की सतह के ऊपर की ओर मुड़ने पर हुआ।
गुम्बदाकार पर्वत (Dome Mountains)
यदि विवर्तनिक प्लेटों के टकराने से धरती की सतह विशाल गुम्बद के रूप में ऊपर उठ कर पर्वत का निर्माण करे तो उसे गुम्बदाकार पर्वत कहते हैं। अमेरिका के दक्षिणी डकौटा में स्थित “ब्लैक हिल” इसका स्पष्ट उदाहरण है। प्रायः यह स्थिति तब आती है जब धरती के अन्दर लावा, चट्टानों को ऊपर धकेल कर स्वयं नीचे ही बना रहता है। ऐसे गुम्बदाकार पर्वतों पर भारी कटाव के कारण घाटियां व पर्वत शिखर निर्मित होते हैं। वर्गीकरण के अनुसार यह पर्वत निम्न प्रकार के होते हैं।
लेकोलिथ- लावा के धरती की सतह के नीचे रह जाने के कारण यह मशरूम के आकार के हो जाते हैं।
बैथोलिथ- बहुत विशाल क्षेत्र में घटित प्रचंड ज्वलन घटनाओं के परिणामस्वरूप निर्मित विशाल पर्वत क्षेत्र या श्रृंखला बैथोलिथ पर्वत श्रृंखला कहलाती है। यह 40 वर्ग मील से भी अधिक लम्बी हो सकती है।
लवणीय गुम्बद- सहत के नीचे अनेक मील लंबी नमक की मोटी और विशाल परत, जिसकी मोटाई कभी-कभी एक मिल तक और क्षेत्रफल हजारों मिल तक हो सकता है। उदाहरण के रूप में भूमध्य सागर में भारी मात्रा में नमक का जमाव है।
गैर विवर्तनिक संचलन
जैसा कि हमने जाना है कि विवर्तनिक प्लेटों की गतिविधियां चट्टानों को शक्तिपूर्वक दबाकर ऊपर उठाती हैं, मोड़ती हैं और बलपूर्वक झटके देकर बड़ी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाओं की रचना करती है। लेकिन कुछ अन्य छोटे पर्वतों की रचना विवर्तनिक गतिविधियों के अतिरिक्त भी होती है जैसा कि धरती के कटाव व मृदा अपरदन अथवा वायु-जल द्वारा लाया गया तलछट भी पर्वत का निर्माण करने में सहायक होते हैं।
अपरदन पर्वत (Erosion Mountains)
अपरदन पर्वत को पठार पर्वत भी कहा जाता है क्योंकि वास्तव में यह पठार ही होता है जो विभिन्न अपरदन की क्रियाओं के कारण पहाड़ों का आकार ग्रहण कर लेता है। अपरदन की घटना हवा, जल और बर्फ के कारण हो सकती है। न्यूयार्क स्थित केटस्किल पर्वत (अमेरिका) की रचना विशाल अवसादी चट्टानों के अपरदन से ही हुई है। जब वायु, जल, हिम, अथवा बहती हुई नदियों की धाराएं अनेक चरणों में पठारों का अपरदन करती हैं तो वे पहाड़ी तथा घाटियों का आकार ले लेते हैं।
पर्वतों की संरचना के साथ ही अपरदन की भी क्रिया निरंतर होती रही है। लाखों वर्षों के दौरान हिम, हवा अथवा वर्षा के निरंतर प्रभाव ने पर्वतों को तराशा, जिससे घाटियों तथा चोटियों की रचना हुई है।
अवसादी पर्वत (Sediment Mountains)
अवसादी चट्टानों की क्रमिक पर्तो के जमाव या उथले सागर के तल या सिकुड़ते भूभाग के चैड़े गर्त (जिसे भू अभिनति से भी जाना जाता है) से उठने वाले पर्वत को अवसादी पर्वत कहते हैं। पूर्वी अमेरिका का एप्लेचियन पर्वत अवसादी पर्वत का उदारहण है।
पर्वत की आयु का आकलन
पर्वतों की आयु तथा उनके निर्माण की विभिन्न समयावधि का आकलन लगाने वाली कुछ विधियों में से एक विधि कुछ पर्वतों पर उपस्थित समुद्री जीवाश्मों से संबंधित है। ये जीवाश्म दीर्घकालीन विकास प्रक्रिया के परिणाम होते हैं। इन जीवाश्मों का पाया जाना पर्वतों की आयु के आकलन में सहायक सिद्ध होता है।
जीवाश्मों से प्राप्त सूचना पर्वतों की संघटक चट्टानों के रेडियोएक्टिव तत्वों के निर्धारण में भी सहायक होती हैं। चट्टानों में उपस्थित अनेक रेडियो सक्रिय धातुओं की एक्टिविटी एक निर्धारित समय सीमा के भीतर ठीक एक भूविज्ञानी घड़ी की तरह विघटित होती रहती है जो पर्वतों की आयु की पुष्टि करता है।
लाखों वर्षों के अंतराल में पर्वत का विघटन अथवा टूट जाना नियमित प्रक्रिया है। वायु, जल, हिम आदि लगातार पर्वतों का अपरदन करते रहते हैं। फलस्वरूप बड़ी-बड़ी पर्वत चोटियां गोलाकार हो जाती हैं, घाटियां संकुचित हो जाती हैं तथा पर्वतों के ढलान परिवर्तित हो जाते हैं। जल भी अनेक घुलनशील पदार्थों को चट्टानों से निकाल कर उनका विघटित कर देता है। कुछ चट्टानों के अवशेष गोल-गोल पत्थर के आकार में बदल जाते हैं तो कहीं पवर्तीय चट्टानों के अवशेष धरती, समुद्र अथवा समुद्री तटों पर रेत के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
लेकिन जब तक विशाल पर्वतों का अस्तित्व रहता है निश्चय ही यह अपने आप में अनेक जीवों एवं वनस्पतियों की शरण स्थली बने रहते हैं। साथ ही अनेक पर्वतीय जनजातियां भी पर्वतों पर आश्रित रहती हैं क्योंकि यह जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों का भंडार होते हैं। पर्वत स्थानीय तथा भूमंडलीय जलवायु को भी प्रभावित करते हैं।
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अन्य स्रोतों से
संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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