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अमर उजाला, 29 जून, 2018
कई बार मुझे तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। अनेक अवसर आए, जब मोटरसाइकिल सवारों ने मेरा पीछा किया, मुझे छेड़ा। मैंने हिम्मत से ऐसी परिस्थितियों का सामना किया, क्योंकि मैं इन सभी चीजों के लिये तैयार थी। कुछ ऐसी घटनाएँ भी घटीं, जिनके लिये मैं तैयार नहीं थीं, जैसे एक जगह एक कुत्ता मेरा जूता मुँह में दबाकर भाग गया। काफी भाग दौड़ करने के बाद मुझे मेरा जूता वापस मिला। नंगे पाँव यात्रा कर पाना मेरे लिये और मुश्किल भरा होता।
धर्म के लिये जैन साध्वियाँ सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल सकती हैं, तो समाज में जागरुकता फैलाने की खातिर मैं क्यों नहीं। वैसे भी बदलाव के लिये किसी दूसरे का मुँह क्यों ताकना? गुरुवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी तो एकता चलो रे का नारा दिया था। वड़ोदरा से दिल्ली तक पदयात्रा पूरी करने से पहले मेरे जेहन में यही ख्याल आये थे।मैं वड़ोदरा में रहने वाली बत्तीस वर्षीया एक सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। मैं हमेशा से समाज हित में अनेक रचनात्मक कार्यों में आगे रहती हूँ। गरीब बच्चों के लिये एक एनजीओ चलाती हूँ। प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग लम्बे वक्त से मुझे परेशान कर रहा है। प्लास्टिक का उपयोग रोकने और पर्यावरण के प्रति लोगों की जिम्मेदारी का एहसास कराने के लिये मैंने पिछले दिनों एक रचनात्मक मुहिम चलाने की ठानी। मैंने तय किया कि मैं पैंतालीस दिनों में वड़ोदरा से दिल्ली तक पदयात्रा पूरी करूँगी और रास्ते में लोगों का पर्यावरण के प्रति जागरूक करूँगी। मेरी लड़ाई प्लास्टिक के विरुद्ध थी, इसलिये जरूरी था कि मैं खुद ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करती, जिससे लोगों पर मेरी बातों का प्रभाव पड़े।
अपनी पदयात्रा के लिये मैंने तय किया कि मैं किसी भी ऐसी वस्तु को अपने साथ नहीं रखूँगी, जो प्लास्टिक से बनी हो। पानी की बोतल तक नहीं। पूरे डेढ़ महीने तक मैंने मटके में पानी रखने वालों की मदद से अपनी प्यास बुझाई। इस दौरान मुझे एक और खास अनुभव हुआ। यदि मैं सीलबंद बोतल वाला पानी खरीदकर पीती, तो मैं अपने देश के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग स्वाद वाले पानी से कभी परिचित नहीं हो पाती। मेरा रास्ता राजस्थान के गर्म इलाकों से गुजरता था, इसलिये मैं हर सुबह साढ़े चार बजे उठकर पैदल चलती। दोपहर में आराम करती फिर शाम को चलती। इस तरह हर दिन तीस से पैंतीस किलोमीटर का सफर तय करती। इसी वर्ष विश्व पृथ्वी दिवस से शुरू हुई मेरी यात्रा विश्व पर्यावरण दिवस पर समाप्त हुई। इस दौरान मैने गुजरात, राजस्थान और हरियाणा राज्यों में एक हजार से भी ज्यादा किलोमीटर की यात्रा पैदल पूरी की। इस दौरान रास्ते में पड़ने वाले गाँवों और कस्बों के लोगों से मिलकर मैंने उनसे प्लास्टिक के उपयोग को कम या हो सके तो खत्म करने की गुजारिश की। ठहरने के लिये मैंने ज्यादातर सरकारी विश्राम स्थलों का उपयोग किया। जो लोग मेरी बातों से इत्तेफाक रखते, कई बार वे कुछ दूरी तक मेरा साथ देते। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता।
मैंने लम्बे-लम्बे रास्ते अकेले नापे हैं। मेरी यात्रा हमेशा मेरी योजनाओं के मुताबिक नहीं रही। कई बार मुझे तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। अनेक अवसर आये, जब मोटरसाइकिल सवारों ने मेरा पीछा किया, मुझे छेड़ा। मैंने हिम्मत से ऐसी परिस्थितियों का सामना किया, क्योंकि मैं इन सभी चीजों के लिये तैयार थी। कुछ ऐसी घटनाएँ भी घटीं, जिनके लिये मैं तैयार नहीं थीं, जैसे एक जगह एक कुत्ता मेरा जूता मुँह में दबाकर भाग गया। काफी भाग-दौड़ करने के बाद मुझे मेरा जूता वापस मिला। नंगे पाँव यात्रा कर पाना मेरे लिये और मुश्किल भरा होता।
हालांकि अब कई शहरों/राज्यों में प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने की पहल हो रही है। अनेक लोग जागरूक भी हो रहे हैं और वे अपनी दिनचर्या में बदलाव भी कर रहे हैं। मगर यह पर्याप्त नहीं है, यह तो बस शुरुआत भर है। मैं मानती हूँ कि हर कोई अपनी छोटी-छोटी आदतों से समाज में बड़ा बदलाव कर सकता है।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित