पर्यावरण, पारिस्थितिकी और पर्यटन

Submitted by Hindi on Fri, 08/07/2015 - 11:36
Source
योजना, मई 2015

सामान्यतः मनुष्य की हर गतिविधि पर्यावरण पर कुछ-न-कुछ प्रभाव जरूर छोड़ता है और पर्यटन भी इससे अछूता नहीं है। इन दिनों इको-टूरिज्म के प्रयोग जोर-शोर से हो रहे हैं लेकिन उनमें भी जोर प्रकृति के बीच सान्निध्य पर ज्यादा है और उसके संरक्षण पर कम। फिलहाल, आवश्यकता है एक ऐसी सन्तुलित दृष्टि विकसित करने की जो सभी श्वेत-श्याम पक्षों पर समानता से विचार करे और पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी से साम्य बनाए रखकर पर्यटन की सम्भावनाओं का फायदा भी उठा सके।

पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तन्त्र तीन ऐसे शब्द हैं जिनका इस आलेख में कई स्थानों पर उपयोग होगा। साथ ही इन शब्द को हम अपने दैनिक जीवन में भी विभिन्न सन्दर्भों में सुनते रहते हैं। सर्वप्रथम इन तीनों शब्दों में विभेद आवश्यक है।

पर्यावरण (परि+आवरण) शब्द का शाब्दिक अर्थ है हमारे चारों ओर का घेरा अर्थात हमारे चारों ओर का वातावरण जिसमें सभी जीवित प्राणी रहते हैं और अन्योन क्रिया करते हैं। पर्यावरण का अंग्रेजी शब्द एनवॉयरमेंट है जो फ्रेंच भाषा के शब्द एनवॉयरनर से बना है, जिसका अर्थ है ‘घेरना।’ अतः पर्यावरण के अन्तर्गत किसी जीव के चारों ओर उपस्थित जैविक तथा अजैविक पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है।

पारिस्थितिकी शब्द का अंग्रेजी शब्द इकॉलोजी है जो ग्रीक भाषा के शब्द ओइकस (Oikos) एवं लॉगस (Logos) के मिलने से बना है। ओइकस का अर्थ है आवास एवं लॉगस का अर्थ है अध्ययन। अर्थात जीवों का मूल आवास में अध्ययन। वर्तमान में जीवों एवं वनस्पतियों के आपसी सम्बन्ध तथा उन पर पर्यावरण के प्रभाव को पारिस्थितिकी कहा जाता है।

पारिस्थितिकी तंत्र (अंग्रेजी शब्द ईकोसिस्टम) की संकल्पना सर्वप्रथम एजी टैन्सले ने 1935 में प्रस्तुत की थी। टैन्सले के अनुसार “वातावरण के जैविक एवं अजैविक कारकों के अन्तर्सम्बन्धों से बना तंत्र ही इकोसिस्टम है।”

वर्तमान समय में पर्यावरण, पारिस्थितिकी, पारिस्थितिकी तंत्र एवं पर्यटन आपस में जुड़े हुए हैं। भारत के प्राचीनकाल के शैक्षिक एवं धार्मिक पर्यटन से वर्तमान के पारिस्थितिकीय पर्यटन का विकास कई कालखण्डों में हुआ है। प्राचीन से लेकर वर्तमान भारत में लगभग हर काल में पर्यटकों की सुविधा का ख्याल रखा गया है। अशोक सम्राट ने भी पथिकों के आश्रय की व्यवस्था की थी। बाद में समुद्रगुप्त के काल में और उसके बाद शेरशाह के काल में भी इन यात्री सुविधाओं का ध्यान रखा गया था। आधुनिक काल में पर्यटन को लेकर पहला वास्तविक प्रयास 1945 में हुआ जब तत्कालीन शिक्षा सलाहकार सर जॉन सर्रेन्ट के अध्यक्षता में पर्यटन विकास के लिये समिति बनाई गई। स्वतंत्रता के बाद इस क्षेत्र में पहला कदम 1956 में दूसरी पंचवर्षीय योजना के समय उठाया गया। जब एकाकी योजना के रूप में एक इकाई सुविधाओं के विकास की बात की गई। छठी पंचवर्षीय योजना ने भारत में पर्यटन के क्षेत्र में एक नए युग का प्रारम्भ किया जब पर्यटन को सामाजिक समरसता, सामाजिक एकता एवं आर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना गया।

आधुनिक भारत में पर्यटन का वास्तविक विकास 1980 के दशक से प्रारम्भ हुआ। 1980 के दशक और उसके बाद के सरकारों ने पर्यटन के विकास के लिये कई कदम उठाए। पर्यटन को लेकर राष्ट्रीय पर्यटन नीति की घोषणा 1982 में हुई। पर्यटन के क्षेत्र में 1988 में सतत विकास के लिये व्यापक योजना बनाने के लिये एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया। राष्ट्रीय कार्य योजना 1992 में तैयार की गई। पर्यटन के संवर्धन के लिये एक राष्ट्रीय कार्यनीति 1996 में तैयार की गई थी। नई पर्यटन नीति 1997 में आई जिसमें केन्द्र एवं राज्य सरकारों सार्वजनिक उपक्रमों एवं निजी उपक्रमों की भूमिका तय की गई, साथ ही पंचायती राज संस्थाओं, स्थानीय संस्थाओं, गैर सरकारी संस्थाओं एवं स्थानीय युवाओं की सहभागिता को आधिकारिक रूप से स्वीकृत किया गया। इसके अतिरिक्त 1966 में भारतीय पर्यटन विकास निगम की स्थापना की गई जिसका लक्ष्य है भारत को एक पर्यटन गन्तव्य के रूप में विकसित करना एवं उसका संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार करना। 1989 में पर्यटन निगम की स्थापना की गई ताकि पर्यटन सम्बन्धी कार्यों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जा सके। इनके सरकारी दक्षता संस्थानों की स्थापना की गई ताकि पर्यटन के क्षेत्र में उपयुक्त कार्मिक उपलब्ध हो सकें।

पर्यटन, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर्यटन


पिछले कुछ वर्षों में पर्यटन का लगातार विकास हुआ है और आधुनिक युग में मानव कार्यकलापों में पर्यटन महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। आज पर्यटन उद्योग राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यटन उद्योग बहुत तीव्रता से विकसित हो रहा है और एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। पर्यटन में इतनी शक्ति है कि यह देशों के भविष्य को परिवर्तित कर सकता है। आधुनिक पर्यटन काफी हद तक पर्यावरण आधारित है। हम कह सकते हैं कि पर्यटन में दो अन्योन्य क्रियाशील घटक सम्मिलित हैं- पर्यटक और पर्यावरण। पर्यटन एक ऐसा शब्द है जो कुछ विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर लोकजन यात्रा और देश-विदेश के विभिन्न भागों के भ्रमण से जुड़े सभी प्रक्रमों एवं सम्बन्धी को निरुपित करता है।

पर्यटन का उद्देश्य कितना भी सौम्य क्यों न हो फिर भी स्थानीय पर्यावरण पर उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। पर्यटक यदि कहीं भी जाकर भू-दृश्यों एवं वन्यजीवों का अवलोकन कर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं तो सामान्यतः वहाँ जाकर रुकते भी हैं।

आवश्यक है कि हम पर्यटन एवं पर्यावरण के मध्य अन्योन्य क्रियाओं को ठीक से समझें और उसके अनुसार अपने क्रियाकलापों में परिवर्तन करें। इस पहलू पर काफी समय से विचार किया जा रहा है। प्रारम्भिक अध्ययन में पर्यटकों द्वारा किये गए कार्यों का पर्यावरण के विशेष अंगों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया। इससे पर्यटन की क्रियाओं द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों को उजागर किया गया।

पर्यटकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कुछ मूलभूत सुविधाओं जैसे आवास, परिवहन सुगमता एवं सम्पूर्ण आपूर्ति से सम्बन्धित अवसंरचना की उचित व्यवस्था आवश्यक है। पर्यटकों के व्यवहार सहित ये सभी प्रक्रियाएँ पर्यावरण पर किसी-न-किसी प्रकार का दबाव डालती हैं। अतः प्रयास यह होना चाहिए कि इस दबाव के स्तर को न्यूनतम रखा जा सके ताकि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में स्थायी परिवर्तन न होने पाए। अतः यह आवश्यक है कि हम पर्यटन एवं पर्यावरण के मध्य अन्योन्य क्रियाओं को ठीक से समझें और उसके अनुसार अपने क्रियाकलापों में परिवर्तन करें। इस पहलू पर काफी समय से विचार किया जा रहा है। प्रारम्भिक अध्ययन में पर्यटकों द्वारा किये गए कार्यों का पर्यावरण के विशेष अंगों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया। इससे पर्यटन की क्रियाओं द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों को उजागर किया गया और क्षति के स्तर को रिकॉर्ड किया गया, किन्तु क्षति पहुँचाने वाले प्रक्रमों का विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ। इस प्रकार के अध्ययन की एक कमी और रही कि पर्यटन स्थल के केवल एक ही घटक का अकेले, अध्ययन किया जाता है और सम्पूर्ण पर्यावरण के विभिन्न घटकों के आपसी सम्बन्धों एवं अन्योन्याश्रम की उपेक्षा की जाती रही। इनमें से अधिकांश अध्ययन प्रतिक्रियात्मक हैं अर्थात किसी घटना के होने के बाद उसका विश्लेषण इसको समझने के लिये हम अग्रलिखित उदाहरणों का सहारा ले सकते हैं-

1. कई विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों द्वारा शिक्षा के उद्देश्य से यात्राएँ आयोजित की जाती हैं। कई बार इन यात्राओं के कुछ प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ते हैं। जैसे- अध्ययन की दृष्टि से ही कुछ पौधों को जमीन से बाहर निकालना एवं अनजाने में ही कुछ छोटे महत्त्वपूर्ण पौधों को कुचला जाना। इस प्रकार की गतिविधियाँ जैव-विविधता को नुकसान पहुँचाती हैं।

2. नदी अथवा समुद्र के किनारे अवस्थित पर्यटक सुविधाओं से निकलने वाला संसाधित विषाक्त मल-जल इन जल जल स्रोतों को प्रदूषित करता है जिसका सीधा प्रभाव जलीय जीवों, तटीय क्षेत्रों तथा उस जलस्रोत के आसपास निवास करने वालों पर पड़ता है।

3. पर्यटक स्थलों पर कचरे एवं अपशिष्ट का निपटान भी बहुत बड़ी समस्या है। कई स्थानों पर यह समस्या इतनी गम्भीर है कि उन स्थानों का स्वरूप ही बिगड़ गया है।

4. पर्यटकों द्वारा वन्य जीवन का अवलोकन उनके दैनिक कार्यकलापों में बाधा पहुँचाता है, विशेषकर उनके चारण एवं प्रजनन में।

5. इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हमारे आसपास उपलब्ध हैं। भविष्य में पर्यटन के और विस्तार के साथ ऐसे और उदाहरण बढ़ते जाएँगे, इसलिये पर्यटन एवं पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों का अवलोकन आवश्यक है। पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तंत्रो के लिये एक विशिष्ट योजना तथा प्रबन्धन की आवश्यकता है जो इन समस्याओं को नियंत्रित कर सके।

पारिस्थितिकी पर्यटन (ईको टूरिज्म)


यह विशुद्ध रूप से जैव-विविधता से जुड़ा हुआ है। यह जैव-विविधता के अपार सौन्दर्य पर आधारित है। साथ ही प्रकृति के अजैविक घटकों की सुन्दरता पर भी। सामान्य तौर पर पर्यटक जीवों एवं प्रकृति के सौन्दर्य प्रेम के कारण ही मीलों दूर पर्यटन के लिये जाते हैं अर्थात जैव-विविधता उन्हें आकर्षित करती है। पर्यटन का सतत एवं स्थायी विकास सीधे तौर पर जैव-विविधता के सतत उपलब्धता से जुड़ा हुआ है। जैव-विविधता की सतत उपलब्धता जैव-विविधता के संरक्षण से सम्बन्धित है। पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तंत्र के बिना जैव-विविधता की सतत उपलब्धता सम्भव नहीं है। अतः इनका सीधे शब्दों में कहें तो प्रकृति का संरक्षण पर्यटन के विकास के लिये आवश्यक है। विशेष रूप से पर्यटन एवं पर्यावरण के मध्य उपस्थित विशिष्ट अन्तर्सम्बन्धों के दृष्टिकोण से संरक्षण का तात्पर्य जैव-विविधता का इस सीमा तक संरक्षण है जो पारिस्थितिकी और मानवजाति के अस्तित्व के लिये अनिवार्य है। जैव-विविधता संरक्षण की तुलना सम्पूर्ण विश्व की सम्पूर्ण जातियों की सुरक्षा से नहीं की जा सकती और न ही यह पर्यावरण को पूर्व स्थिति में बनाए रखने का एक प्रयास ही है। वर्तमान में चिन्ता का मुख्य विषय तीव्रगति से हो रहा संसाधन दोहन और प्राकृतिक वास में होने वाला परिवर्तन है जो जैव-विविधता के तेजी से लोप का कारण बन सकता है। पर्यावरणवादी पर्यावरणीय व्यवस्थाओं और जातियों की विविधता को सुरक्षित रखना चाहते हैं। उन्हें विकास की प्रक्रिया से मोहभंग पाये लोगों का समर्थन भी हासिल है। संरक्षण को लेकर विकसित एवं विकासशील देशों के बीच विभेद हैं। इस विभेद के मूल में संरक्षण को लेकर दोनों के दृष्टिकोण हैं।

संरक्षण का पश्चिमी दृष्टिकोण प्रकृति को लेकर यहूदी ईसाई दर्शन के अनुसार है। यह दो विचारों पर आधारित है अर्थात

1. दोहन का अधिकार तथा
2. प्रबन्ध का दायित्व
यह दो विचार संरक्षण के वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी एवं भौगोलिक तत्वों के लिये रास्ता तैयार करते हैं जबकि संरक्षण का दार्शनिक एवं प्रायोगिक पक्ष भारतीय संस्कृति में है। प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में ऋषियों ने वृक्षों को परमात्मा के विभिन्न गुणों का प्रतीक माना है जैसे- निम्नलिखित मंत्र से हम ऋग्वेद में वृक्षों को दिये गए महत्व को समझ सकते हैं-

आप औषधिरूप नोड्वस्तु, दयोर्वना गिरयो वृक्षकेश। श्रणेत न उर्जा परिगिरं, स नम्सतरीयां उषिरःपरिज्मा। शृन्वन्त्वायः पुरान शुभ्राः, परि स्रुचो बवृहाण स्योद्रः।

अर्थात “वनस्पतियाँ, जलधाराएँ, आकाश, वन और वृक्षादित पर्वत हमारी रक्षा करें। ताजगी भर देने वाला पवन जो आकाश के बादलों में तेजी से दौड़ता है, हमारे गान सुनें और छिन्न-भिन्न पर्वतों में आगे बढ़ती स्फटिक-सी स्वच्छ जलधाराएँ हमारी प्रार्थना सुनें।”

उपनिषद का कथन रक्षय प्रकृतिवातुं लोकाः अर्थात मानव की रक्षा के लिए प्रकृति की रक्षा की जाए। प्राचीन भारतीय समाज इस सत्य से पूर्णतः अवगत था कि पौधों एवं वनों का विनाश मानव जाति के विनाश के दरवाजे खोल देगा। भारतीय संस्कृति में प्रकृति एवं पशुओं से मानव का सम्बन्ध प्रभुत्व एवं दमन का नहीं बल्कि परस्पर आदर एवं जीवों के सहभागिता का सम्बन्ध है। प्राचीनकाल में जिन पर्यावरणीय नियमों का प्रतिपादन किया गया था, उनका पालन न केवल साधारण व्यक्ति बल्कि शासन वर्ग भी करता था। भारतीय जीवनशैली के मूल में यही नियम एवं सिद्धान्त हैं।

वर्तमान के पारिस्थितिकी पर्यटन के सतत विकास के लिये हमें पश्चिम एवं पूर्व दोनों के संरक्षण सम्बन्धी विचारों का सम्मान करना होगा एवं दोनों को एक साथ एक नए स्वरूप में अपनाना होगा।

पारिस्थितिकी पर्यटन में उत्तरदायी पर्यटन बहुत महत्त्वपूर्ण है। पर्यटन के उत्तरदायी होने के लिये, पर्यटन के परिमाण एवं पर्यटन गतिविधियों तथा उपभोग में लाए जा रहे और विकसित किये जा रहे संसाधनों की संवेदनशीलता और वहन क्षमता के बीच सन्तुलन अवश्य स्थापित होना चाहिए। इसमें भौतिक एवं जैविक पर्यावरण दोनों के संसाधन सम्मिलित होते हैं। इस विषय में वहन क्षमता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। संसाधनों पर हानिरहित प्रभाव, पर्यटक सन्तुष्टि को कम किये बिना या उस क्षेत्र के समाज, अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना किसी स्थान का अधिकतम उपयोग में लाया जाना उस स्थान की वहन क्षमता कहलाती है। उत्तरदायी पर्यटन एक ऐसा पर्यटन है जो यात्रा के अनुभवों की रक्षा करने के अतिरिक्त लोगों के मध्य आपसी समझ को भी बढ़ाता है, पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक ह्रास और इनसे भी अधिक स्थानीय जनसंख्या के शोषण और मानवीय मूल्यों के ह्रास को रोकता है। इसे हम वैकल्पिक पर्यटन भी कहते हैं। वैकल्पिक या उत्तरदायी पर्यटन के द्वारा पर्यटन से पैदा हुई समस्याओं को नियंत्रित किया जा सकता है।

विश्वस्त पर्यटन विकसित करते समय पर्यावरण की उत्कर्षता बनाए रखना न केवल वांछनीय है अपितु पर्यटक का सन्तोष कायम रखने के लिये भी आवश्यक है। यदि पर्यटन उत्पाद के स्तर में गिरावट आती है तो वह अन्ततोगत्वा पर्यटन अर्थव्यवस्था में ही गिरावट लाएगा।

पर्यावरणीय पर्यटन या पारिस्थितिकी पर्यटन प्रकृति पर आधारित पर्यटन है जो प्रकृति से सीधे लिये जा सकने वाले आनन्द अर्थात प्रकृति के अवलोकन से मिलने वाले आनन्द से सम्बन्धित है। इसके पर्यावरणीय उत्तरदायित्व के लिये स्थान विशेष की उपयुक्तता आवश्यक है। साथ ही इसे प्राकृतिक पर्यावरण में स्थाई ह्रास का साधन नहीं बनना चाहिए।

पारिस्थितिकीय पर्यटन का अर्थशास्त्र


उत्तरदायी पर्यटन एक ऐसा पर्यटन है जो यात्रा के अनुभवों की रक्षा करने के अतिरिक्त लोगों के मध्य आपसी समझ को भी बढ़ाता है, पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक ह्रास और इनसे भी अधिक स्थानीय जनसंख्या के शोषण और मानवीय मूल्यों के ह्रास को रोकता है। इसे हम वैकल्पिक पर्यटन भी कहते हैं।

पारिस्थितिकीय पर्यटन पूरे संसार में बहुत बड़े उद्योग के रूप में विकसित हो रहा है। कई राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था में इसका बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे विदेशी मुद्रा का अर्जन होता है जिसका उपयोग प्रकृति तथा वन्य प्राणियों की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्र के विकास में भी उपयोग किया जा सकता है। पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तंत्र किसी भी स्थान की जैव-विविधता को सुनिश्चित करते हैं और जैव-विविधता का सौन्दर्य पर्यटकों को आकर्षित करती है। पारिस्थितिकी पर्यटन की भारत में सम्भावनाओं की बात करें तो यह असीम है। इस प्रकार के पर्यटन के आर्थिक महत्त्व को अगले कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। साथ ही इन्हीं उदाहरणों के आधार पर हम भारत में इसके विकास के सम्भावनाओं की चर्चा भी करेंगे।

1. एक शेर अपने जीवनकाल में अपने सौन्दर्य के आधार पर लगभग एक जीवनकाल अर्थात 7 वर्षों में पर्यटन से 5,15,000 डॉलर की विदेशी मुद्रा अर्जित करता है (अफ्रीका)।
2. केन्या का एक हाथी अपने जीवनकाल में लगभग 10 लाख डॉलर की विदेशी मुद्रा अर्जित करता है।
3. रवांडा में पाये जाने वाले पहाड़ी गोरिल्ले प्रतिवर्ष 40 मिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं।
4. हर्वी तट एवं क्वींसलैंड तट पर ह्वेल मछलियाँ प्रतिवर्ष एक करोड़ बीस लाख डॉलर अर्जित करने का साधन है।
5. आस्ट्रेलिया के ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ (कोरल रीफ) से प्रतिवर्ष 20 लाख डॉलर की आमदनी होती है।

भारत की जैव विविधता


इन सबकी तुलना हम भारत की जैव-विविधता से कम कर सकते हैं। भारत दुनिया के 12 समृद्ध जैव-विविधता वाले देशों में से एक है। दुनिया के 34 में से दो हॉट-स्पॉट, पूर्वी हिमालय, भारत-बर्मा तथा पश्चिमी घाट श्रीलंका-भारत में है। विश्व की लगभग 60 प्रतिशत जैव-विविधता भारत में पाई जाती है। विश्व में वनस्पति विविधता के आधार पर भारत दसवें, क्षेत्र सीमित (इण्डेमिक) प्रजातियों के आधार पर ग्यारहवें एवं फसलों के उद्भव तथा विकास के आधार पर एवं विविधता केन्द्र के आधार पर छठवें स्थान पर है। छिपकलियों की लगभग 50 प्रतिशत प्रजातियों केवल भारत में पाई जाती हैं, जबकि 5,000 फूल वाले पौधों की उत्पत्ति भारत में हुई है।

भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ दो सबसे बड़ी बिल्लियाँ शेर तथा बाघ जंगलों में मिलते हैं। सबसे बड़े स्थलीय स्तनपायी जीव हाथी की लगभग 55 प्रतिशत वैश्विक आबादी भारत में है। एक सींग वाले गैंडे का मुख्य आवास भारत में है। इसी प्रकार और भी बहुत-से जीवों की प्रजातियाँ जैसे- घड़ियाल केवल भारत में पाए जाते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा उड़ने वाला पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भारत में पाया जाता है। भारत कस्तूरी मृग, काले मृग, रेड पांडा जैसी प्रजातियों का भी घर है। भारत में बन्दरों एवं लंगूरों की भी अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जैसे हूलॉक शिबॉन, शेर पूछ बन्दर, नीलगिरी लंगूर, टोपीवाला लंगूर, सुनहरा बन्दर इत्यादि। भारत स्नोलेपर्ड और थामिन मृगों का भी निवास स्थल है।

मीठे पानी की डॉल्फिनों में से एक सोंस या गंगेटिक डॉल्फिन भारत में पाई जाती है। सर्पों की अनेक प्रजातियाँ भी भारत में है। दुनिया के विशालतम जहरीले सर्प किंग कोबरा का निवास स्थल भी भारत है। सालामंडर की कई प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। पौधों की लगभग 47,000 प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं, जिनमें 7,000 केवल भारत में सीमित हैं। भारत में लगभग 62 प्रतिशत वनस्पति सीमित हैं जो हिमालय, खासी की पहाड़ियों एवं पश्चिमी घाट में पाई जाती हैं। भारत की लगभग 7500 किमी लम्बी तटरेखा, नदी मुहानों और डेल्टा में जैव-विविधता के अपार भण्डार हैं। विश्व की लगभग 340 कोरल प्रजातियाँ भारत में मिलती हैं। भारत में मैंग्रोव वन की भी बहुतायत है। नीतरबनिका (ओड़िशा) एशिया का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है। भारत में लगभग 93 झीलें, रीफ एवं मैंग्रोव हैं जिनका अभी तक पर्याप्त अन्वेषण नहीं हुआ है। भारत में लगभग 60.4 मिलियन हेक्टेयर भूभाग पर वन पाए जाते हैं जो जैव-विविधता के महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं।

भारत प्रवासी पशु-पक्षियों का भी महत्त्वपूर्ण आवास है। यहाँ साइबेरियन क्रेन, चित्तीदार पेलिकन जैसे पक्षी प्रवास पर आते हैं तो समुद्री कछुवे भी दक्षिण अमरीका जैसे सुदूर स्थान से यहाँ प्रवास करने आते हैं।

उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि भारत में पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तन्त्र आधारित पारिस्थितिकी पर्यटन की अपार, सम्भावनाएँ उपलब्ध हैं। आवश्यकता है केवल उनके समुचित विकास की।

सन्तुलित पारिस्थितिकीय पर्यटन के प्रयास


इसके लिये केन्द्र सरकार ने कई कदम भी उठाए हैं, जिसमें शामिल हैं-

1. पर्यावरणीय समेकन का अनुरक्षण
2. स्थानीय समुदाय को शामिल करना ताकि क्षेत्र का समग्र आर्थिक विकास हो सके
3. इको पर्यटन के लिये संसाधनों का उपयोग और स्थानीय निवासियों का आजीविका के मध्य सम्भावित संघर्ष की पहचान करना एवं ऐसे संघर्षों को न्यून करना
4. पारिस्थितिकी पर्यटन के विकास के प्रकार एवं पैमाने पर्यावरण तथा स्थानीय समुदाय की सांस्कृतिक-सामाजिक विशेषताओं के अनुरूप करना
5. इसका नियोजन समग्र क्षेत्र विकास नीति के रूप में करना

पारिस्थितिकी पर्यटन से लाभ


आर्थिक लाभ : ऊपर दिये गए उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी पर्यटन से सीधा आर्थिक लाभ हो सकता है, जिसका उपयोग जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र के संवर्धन एवं संरक्षण के लिये किया जा सकता है। प्रत्यक्ष लाभ में सरकार को विदेशी मुद्रा की आमदनी तो होती ही है साथ ही अप्रत्यक्ष लाभ में विभिन्न प्रकार के करों एवं शुल्कों के द्वारा भी आमदनी होती है। अर्थात इको पर्यटन न केवल पर्यावरण के संवर्धन एवं संरक्षण में योगदान देता है बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी सीधा योगदान देता है।

बेहतर पर्यावरण प्रबन्धन एवं योजना:

इसके द्वारा समय से प्रबन्धन योजना बनाकर भविष्य में आने वाली समस्याओं को रोका जा सकता है जैसे हाल ही में माननीय न्यायालय द्वारा गिर वन के पास ताज होटल को बन्द करने का आदेश जारी किया गया। अगर पहले से इको पर्यटन को ध्यान में रखते हुए योजना बनाई गई होती तो यह समस्या नहीं आती।

पर्यावरणीय चेतना का विकास : इको पर्यटन के द्वारा लोगों में पर्यावरणीय चेतना का विकास किया जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा जन एवं पर्यावरण को पास लाने का प्रयास हो सकता है, जिससे लोगों में पर्यावरण से होने वाले लाभों की जानकारी होगी और वे ज्यादा बेहतर ढंग से संरक्षण कार्यों में सहयोग कर पाएँगे।

पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण : अपने आकर्षण के कारण प्रकृति एवं पर्यावरण का संरक्षण महत्त्वपूर्ण होगा क्योंकि इससे इनके अमूल्य होने की वास्तविकता सामने आएगी और संरक्षण के प्रयास ज्यादा तेज होंगे। साथ ही इसमें जन भागीदारी भी सुनिश्चित की जा सकेगी।

तालिका 1: पर्यटन गतिविधियों का प्रभाव


 

जल

कूड़े-कचरे और मलजल की निकासी झीलों, नदियों और समुद्री तटों में।

सन्दूषण, स्वास्थ्य के लिये संकट, समुद्री पौधे और जीव-जन्तु का विनाश।

 

पर्यटन पोत या नौकाओं से तेल की निकासी आदि।

जलाशयों में विशाक्तता की वृद्धि, समुद्री खाद्य में सन्दूषण आदि।

वायुमण्डल

पर्यटन स्थल की ओर यात्रा में वृद्धि 1 मोटर, कार, जहाज, ट्रेन (वायुयान)।

वायु और ध्वनि प्रदूषण, पौधों के जीवन पर हानिकारक प्रभाव, मनोरंजन के मूल्यों की क्षति।

वनस्पति

मनोरंजन स्थल के निर्माण हेतु वृक्षों की कटाई, उद्यानों और वनों में आग का विचारहीन इस्तेमाल, उद्यानों और वनों में बढ़ता यातायात, फूलों और पौधों और कवक का संग्रहण।

वन्य सम्पदा की क्षति, पौधों का निरन्तर विनाश, वन्य क्षेत्रों में अग्निकाण्ड, पौधों के जीवन पर प्रभाव।

मानव बस्तियाँ

होटलों, दुकानों आदि का निर्माण और विस्तार।

जनविस्थापन, यातायात का संकुलन, बढ़ा हुआ प्रदूषण आदि।

स्मारक

मनोरंजन के उद्देश्यों के लिये इस्तेमाल, पर्यटकों को देखने महत्त्वपूर्ण स्थानों का अत्यधिक उपयोग।

अतिसंकुलता, विरूपण सुरक्षा के लिए बाधा आदि।

 



पर्यटन से पर्यावरण को होने वाले नुकसान


इसको समझने के लिये हम तालिका 1 का सहारा ले सकते हैं-

पर्यटन के पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को उपरोक्त सारणी से समझा जा सकता है। इस सारणी की व्याख्या करने के लिये हम अग्रलिखित बिन्दुओं का सहारा ले सकते हैं-

प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास :

पर्यटन का विकास प्राकृतिक संसाधन के ऊपर दबाव डालता है। यह उन क्षेत्रों में प्रकृतिक संसाधनों के उपयोग दर को बढ़ा देता है जहाँ इन संसाधनों की कमी है।

जलस्रोत :

पेयजल एक बेहद महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। सामान्यतौर पर पर्यटन व्यवसाय पेजल का आवश्यकता से अधिक उपभोग करता है, जिसके कारण पानी की कमी हो सकती है और पानी की गुणवत्ताओं में भी कमी आती है। साथ ही बहुत बड़ी मात्रा में अपशिष्ट जल निर्गत होता है।

स्थानीय संसाधन : पर्यटन स्थानीय संसाधनों जैसे भोजन, ऊर्जा एवं अन्य अनिर्मित सामग्रियों पर भी बहुत दबाव डालता है। विशेषकर उन संसाधनों पर जिनकी पूर्ति में पहले से ही कमी होती है। पर्यटन एक प्रकार से मौसमी उद्योग है। अत: पर्यटन के समय पर्यटन केन्द्रों में सामान्य से 10 गुने से भी ज्यादा व्यक्ति हो सकते हैं। इस स्थिति में वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाला दबाव भी बढ़ जाता है।

भूमि अपकर्षण : पर्यटन उद्योग का सीधा प्रभाव भूमि संसाधनों पर भी पड़ता है। महत्त्वपूर्ण भूमि संसाधन जैसे खनिज, जीवाश्म ईंधन, जंगल, आर्द्र भूमि एवं वन्य जीव सभी इससे प्रभावित होते हैं। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये एवं पर्यटक सुविधाओं का विस्तार करने के लिये भूमि संसाधनों का दोहन होता है।

प्रदूषण : पर्यटन कई प्रकार के प्रदूषणों से भी बढ़ता है- उदाहरणस्वरूप वायु, ध्वनि, ठोस अपशिष्ट, तेल एवं रसायन इत्यादि।

वायु प्रदूषण : पर्यटकों की सुविधा के लिये यातायात सुविधाओं का उपयोग होता है जिसके द्वारा वायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण दोनों होता है। इसका प्रभाव पर्यटक केन्द्रों एवं वन्य जीवों दोनों पर देखा जा सकता है।

ठोस अपशिष्ट एवं कचरा : ठोस अपशिष्ट एवं कचरे का निपटान पर्यटन स्थलों की महत्त्वपूर्ण समस्या है। कचरे के कारण जल एवं स्थल दोनों प्रदूषित होते हैं।

मलजल की समस्या : होटलों के निर्माण, मनोरंजन एवं अन्य सुविधाओं के कारण मलजल (सीवेज) प्रदूषण की समस्या भी बढ़ जाती है। समुद्र में मलजल का प्रवाह समुद्री जन्तुओं एवं कोरल सभी पर असर डालता है।

पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव एवं उसका विनाश : पर्यटन गतिविधियों के कारण पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं। जैसे- रामेश्वरम के पास का कुरोडेई द्वीप, जो किसी समय समुद्री जीव वैज्ञानिकों के लिये स्वर्ग माना जाता था। आज वह द्वीप किसी भी प्रकार के शैक्षिक एवं शोध गतिविधि के लायक नहीं बचा, क्योंकि अत्यधिक पर्यटक आगमन के कारण वहाँ के कोरल एवं अन्य समुद्री जीवन समाप्त हो गया।

इन सबके अतिरिक्त पर्यटन गतिविधियों के कारण जन्तु के जीवन एवं आदतों पर भी असर पड़ता है।

समाधान


प्राकृतिक पर्यावरण को क्षति पहुँचाए बिना उत्तरदायित्वपूर्ण पर्यटन के विकास हेतु निम्नांकित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-

1. वहन क्षमता के आधार पर पर्यटन को प्रोत्साहन देना।
2. पर्यावरणीय परिस्थितियों अर्थात पारिस्थितिकी के अनुसार एवं स्थानीय लोगों की जीवनशैली को प्रभावित किये बिना पर्यटन को बढ़ावा देना।
3. पर्यटन के अविवेकपूर्ण विकास पर प्रतिबन्ध और संवेदनाशील क्षेत्रों जैसे संरक्षित अभयारण्यों, पहाड़ी ढालों इत्यादि में पर्यटन के नियमों को सही प्रकार लागू करना।
4. पर्यटकों में जागरुकता बढ़ाना।
5. पर्यावरणीय समाधानों के लिये समर्थन जुटाना।
6. व्यक्तिगत व्यवहार में परिवर्तन

सन्दर्भ


1. इग्नू के पर्यटन शिक्षा की पुस्तकें
2. पर्यावरण अध्ययन : कौशिक एवं कौशिक (न्यू एज इंटरनेशनल)
3. Ecology, Environment Science and Conservation, Singh T.S., Singh S.P. and Gupta S.R. (S.Chand Publication)
4. UNWTO Tourism Highlight 2014 Edition
5. वार्षिक रिपोर्ट- 2014-2015, पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार
6. www.gdrc.org/uem/eco_tow/envi/index.html
7. www.ibef.org
8. www.incredibleindia.org
9. www.pib.ni.in/feature.html