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दैनिक जागरण, 27 मई, 2016
निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है। मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरह से हिंसा से मुक्त हो जाये, फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारे शरीर तन्दुरुस्त रहने लगे। स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्धों को रेखांकित करते हुए गाँधी ने निरोग रहने के लिये ग्राम स्वराज में कुछ नियम सुझाएँ हैं, जैसे- हमेशा शुद्ध विचार कीजिए और तमाम गन्दे और निकम्मे विचारों को मन से निकाल दीजिए। जब से मानव की उत्पत्ति हुई है तभी से खुद को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी उस पर रही है। बदलते समय के साथ-साथ स्वास्थ्य की चुनौतियाँ भी बदलती रही हैं। वर्तमान में किसी भी राष्ट्र के लिये सबसे बड़ी चुनौती है राष्ट्र के जनसंख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराना। इस समस्या से हम भारतीय भी अछूते नहीं है।
यदि हम भारत की बात करें तो 2011 की जनगणना के हिसाब से मार्च, 2011 तक भारत की जनसंख्या का आँकड़ा एक अरब 21 करोड़ पहुँच चुका था व निरन्तर इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि जनसंख्या की स्वच्छता और स्वास्थ्य कि औसत वार्षिक घातीय वृद्धि दर तेजी से गिर रही है। यह 1981-91 में 2.14 फीसद, 1991-2001 में 1.97 फीसद था वहीं 2001-11 में यह 1.64 फीसद है।
बावजूद इसके जनसंख्या का यह दबाव भारत सरकार के लिये स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्थित व्यवस्था करने में बड़ी मुश्किलों को पैदा कर रहा है। ठीक से देखें तो कई ऐसी बीमारियाँ हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध साफ-सफाई की आदतों से है। मलेरिया, डेंगू, डायरिया और टीबी जैसी बीमारियाँ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
समाचारों के अनुसार अकेले देश की 2014 में प्रकाशित एक खबर के अनुसार मुम्बई में पिछले छह वर्षों में टीबी से 46,606 लोगों की जाने जा चुकी थी। अर्थात देश की आर्थिक राजधानी में केवल टीबी से प्रत्येक दिन 18 लोग अपना दम तोड़ रहे हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर, यूपी के गोरखपुर क्षेत्र व पश्चिम बंगाल के उत्तरी क्षेत्रों में जापानी बुखार लगातार बच्चों की मौत का कारण बनता रहा है।
इसी तरह 2 वर्ष पूर्व त्रिपुरा में मलेरिया से मरने वालों की संख्या में इजाफा हुआ था। ये सभी बीमारियाँ ऐसी हैं जिनसे बचाव स्वच्छता में अन्तनिर्हित है। यह सर्वविदित है कि साफ-सफाई मानव स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती है। जिन बीमारियों के मामले ज्यादातर सामने आते हैं और जिनसे ज्यादा मौतें होती हैं, अगर उनके आँकड़ों पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि शरीर की तथा परिवेश की वह अचूक माँग है जिसके माध्यम से न सिर्फ स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है बल्कि बीमारियों से लड़ने पर देश भर में हो रहा अरबों का सालाना खर्च बचाया जा सकता है।
स्वस्थ शरीर में निवसित स्वस्थ मस्तिष्क की उत्पादकता बढ़ने से देश की उत्पादकता जो बढ़ेगी, सो अलग ही है। इतना ही नहीं शरीर के स्वस्थ रहने के लिये हर स्तर पर स्वच्छता आवश्यक है और इस तथ्य को हमारे महापुरुषों ने भी लगातार स्वीकारा है। जिन महात्मा गाँधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया वही महात्मा स्वास्थ्य का नियम बताते हुए कहते हैं, मनुष्य जाति के लिये स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा तो शरीर भी चंगा है।
निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है। मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरह से हिंसा से मुक्त हो जाये, फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारे शरीर तन्दुरुस्त रहने लगे। स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्धों को रेखांकित करते हुए गाँधी ने निरोग रहने के लिये ग्राम स्वराज में कुछ नियम सुझाएँ हैं, जैसे- हमेशा शुद्ध विचार कीजिए और तमाम गन्दे और निकम्मे विचारों को मन से निकाल दीजिए।
दिन-रात ताजी-से-ताजी हवा का सेवन करें। शरीर और मन के काम का तौल बनाए रखें, यानी दोनों को बेमेल न होने दें। आप जो पानी पिएँ, जो खाना खाएँ और जिस हवा में साँस लें, वे सब बिल्कुल साफ होने चाहिए। आप सिर्फ अपनी निज की सफाई से सन्तोष न मानें, बल्कि हवा, पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिये रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आस-पास के वातावरण में भी फैलाएँ।
गाँधी स्वास्थ्य को न केवल भौतिक स्वच्छता से जोड़ते हैं बल्कि वह आन्तरिक स्वच्छता के पहलू को भी यहाँ रेखांकित करते हैं। उनका यह विचार निम्न पंक्तियों में प्रतिबम्बित होता है। मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक्ताहार और योग्य व्यायाम हो, वहाँ कम-से-कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो तब तो कहा जा सकता है कि बीमारी असम्भव हो जाती है। राम नाम के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती। अगर ग्रामवासी इतनी बात समझ जाये, तो उन्हें वैद्य, हकीम या डॉक्टर की जरूरत न रह जाये। इस सन्दर्भ में घर-घर शौचालय बनाने की सरकारी पहल सराहनीय है।
(लेखक पर्यावरण एवं स्वास्थ्य विषयों के जानकार हैं)