सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (centre for science and environment) द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार बिना सीवर सिस्टम के यदि और भी शौचालय बनाए गए तो ये राज्य को भारी संकट में डाल देंगे।
उत्तर प्रदेश के शहरी हिस्से के 80 प्रतिशत लोग शौचालय का प्रयोग करते हैं। परन्तु साफ-सफाई की पूरी व्यवस्था नहीं होने के कारण इन शौचालयों से निकलने वाले मल-मूत्र का 87 प्रतिशत हिस्सा राज्य के जल निकायों के साथ ही खेतों में जमा हो रहा है। ये बातें हाल में ही सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट द्वारा राज्य के 30 शहरों में शौचालयों की स्थिति जानने के लिये किये गए एक अध्ययन में सामने आई हैं।
संस्थान के अपशिष्ट और अपशिष्ट जल प्रबन्धन निदेशक सुरेश रोहिला बताते हैं कि 2019 तक राज्य में शौचालयों के साथ ही स्वच्छता को ध्यान में रखकर विकसित किये जा रहे ऑनसाइट सेनिटेशन सिस्टम (onsite sanitation system) की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिसके कई खतरे हैं। उनके अनुसार यदि इन शौचालयों से निकलने वाले मलयुक्त कीचड़ का प्रबन्धन वैज्ञानिक तरीकों के साथ ही टिकाऊ रूप से नहीं किया गया तो ये पूरे राज्य में कीचड़ की बाढ़ ला देंगे।
संस्थान द्वारा किया गया यह अध्ययन दर्शाता है कि राज्य के प्रमुख शहरों के केवल 28 प्रतिशत घरों में ही सीवरेज कनेक्शन मौजूद है। यदि इस स्थिति में सुधार नहीं किया गया तो राज्य में तेजी से बढ़ते शौचालय, पर्यावरण और स्वच्छता के लिये काफी गम्भीर स्थिति पैदा करेंगे। इतना ही नहीं ये हाथ से मैला साफ करने की प्रथा को भी बढ़ावा देने की स्थिति पैदा करेंगे।
राज्य के विभिन्न शहरों में ऑनसाइट सेनिटेशन सिस्टम यानि स्रोत के समीप ही मल प्रबन्धन की व्यवस्था जैसे सेप्टिक टैंक और पिट लैट्रिन का इस्तेमाल करने वाले घरों की संख्या तुलनात्मक दृष्टिकोण से ज्यादा है। कुल 47 प्रतिशत घरों में इन टैंकों का इस्तेमाल होता है।
हाथ से मलमूत्र की सफाई
सीवरेज की समुचित व्यवस्था न होने के कारण सेप्टिक टैंक से निकलने वाला मलमूत्र, रसोई और स्नानघर से निकलने वाले गन्दे पानी के साथ खुली नालियों में जाता है। सेप्टिक टैंक से मलयुक्त कीचड़ की सफाई के लिये वैक्यूम वाले ट्रकों के साथ ही श्रमिकों का भी इस्तेमाल किया जाता है। अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि यांत्रिक साधनों के मौजूद रहने के बावजूद भी इन शहरों के कुल सेप्टिक टैंकों में से लगभग आधे की सफाई मानव श्रमिकों के द्वारा ही की जाती है जबकि ऐसा किया जाना कानूनन अपराध है।
इस अध्ययन के अनुसार इन शहरों में मलयुक्त कीचड़ के प्रबन्धन के लिये किसी चिन्हित स्थल की गैरमौजूदगी के कारण इसे खुले नालों के साथ ही खेतों में बहा दिया जाता है। ऐसा किये जाने के कारण गंगा के साथ ही अन्य नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। इतना ही नहीं इसके कारण सतही जल के अन्य स्रोत भी जैसे तालाब आदि भी प्रदूषित हो रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने मल के प्रवाह का पता लगाने के लिये जनसंख्या के आधार पर चार हिस्सों में विभाजित किया और लगातार छह महीने तक उनका अध्ययन किया। प्रदेश के लखनऊ, कानपुर और आगरा जैसे शहर जहाँ की आबादी 10 लाख से ज्यादा है उनमें सीवरेज सिस्टम आबादी के मात्र 44 प्रतिशत हिस्से को ही कवर करता है। वहीं, मात्र 28 प्रतिशत अपजल का शुद्धिकरण किया जाता है।
इसके अलावा इन शहरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा वैसे सेप्टिक टैंक पर आश्रित है जो खुले नालों से जुड़े हुए हैं। अर्थात, मलयुक्त कीचड़ के साथ जल भी उनमें बिना किसी रोक-टोक के बहाया जाता है। आपको यह जानकर भी अचम्भा होगा कि शहरों में निवास करने वाली 4 प्रतिशत आबादी ऐसी भी है जो खुले में शौच करती है। अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि इन शहरों में पैदा होने वाले अपशिष्ट की मात्रा के केवल 44 प्रतिशत हिस्से को ही शोधित किया जाता है।
राज्य के छोटे शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है। पाँच से दस लाख जनसंख्या वाले इन शहरों के 70 प्रतिशत लोग ऐसे शौचालयों पर आश्रित हैं जो खुले नालों से जुड़े हैं। इनसे निकलने वाला मल डायरेक्ट इन नालों में जाता है। इन शौचालयों में मुश्किल से आधे ऐसे होंगे जो सेप्टिक टैंक की आहर्ता को पूरा करते होंगे। इस श्रेणी में आने वाले राज्य के कुल पाँच शहरों में केवल झाँसी में मलयुक्त कीचड़ के निष्पादन के लिये निर्धारित स्थल है। यहाँ शहर में पैदा होने वाले कुल अपशिष्ट के 18 प्रतिशत हिस्से को निष्पादित किया जाता है।
राज्य के वैसे शहर जिनकी आबादी 1.2 लाख से 5 लाख के बीच है उनमें पैदा होने वाले अपशिष्ट और कीचड़ के केवल 9 प्रतिशत हिस्से का प्रबन्धन किया जाता है। जबकि वैसे शहर जिनकी जनसंख्या 1.2 लाख से कम है वहाँ केवल 4 प्रतिशत अपशिष्ट का ही प्रबन्धन किया जाता है।
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