सेनिटेशन की समस्या से जूझता भारत

Submitted by Shivendra on Sun, 08/31/2014 - 13:54
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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 30 अगस्त 2014
खुले में शौच करना शर्म की बात हो या न हो, लेकिन इतना जरूर है कि इससे स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसका डायरिया और अन्य मलजनित रोगों से सीधा संबंध है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, खुले में शौच, असुरक्षित पानी, साफ-सफाई की कमी से होने वाली डायरिया जैसी बीमारियां दुनिया में हर रोज पांच वर्ष से कम उम्र के करीब दो हजार बच्चों की जान ले लेती हैं। इनमें से एक चौथाई मौतें अकेले भारत में होती हैं। गत वर्ष यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हम खुले में शौच के मामलों में विश्व में अग्रणी हैं। विश्व में खुले में शौच करने वाली आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है, जो हमारे लिए शर्म की बात है। वहीं मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में शौचालयों की आवश्यकता पर जोर दिया।

इससे पहले भी उन्होंने अपने चुनाव अभियान के दौरान कहा था कि देश को देवालय की नहीं, शौचालय की जरूरत है। इन्हीं बातों की पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनीसेफ की संयुक्त रिपोर्ट प्रोग्रेस ऑन ड्रिंकिंग वाटर एंड सेनिटेशन-2014 अपडेट कर रही है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्वभर में खुले में शौच करने वाले एक अरब लोगों में से 82 प्रतिशत लोग केवल 10 देशों में हैं। वैश्विक स्तर पर भारत ऐसा देश बना हुआ है, जहां सबसे अधिक यानी तकरीबन 60 करोड़ खुले में शौच करने वाले लोग रहते हैं। देश के लगभग 130 मिलियन घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है।

ग्रामीण इलाकों के लगभग 72 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। अलबत्ता, इसी बीच अच्छी बात यह हुई है कि पिछली 10 जुलाई को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि 2019 तक इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का सरकार का लक्ष्य है।

खुले में शौच करना शर्म की बात हो या न हो, लेकिन इतना जरूर है कि इससे स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसका डायरिया और अन्य मलजनित रोगों से सीधा संबंध है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, खुले में शौच, असुरक्षित पानी, साफ-सफाई की कमी से होने वाली डायरिया जैसी बीमारियां दुनिया में हर रोज पांच वर्ष से कम उम्र के करीब दो हजार बच्चों की जान ले लेती हैं।

इनमें से एक चौथाई मौतें अकेले भारत में होती हैं। हालांकि अन्य अनुमानों के मुताबिक इससे मृत्यु के आंकड़े काफी ज्यादा हैं। वहीं विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अपर्याप्त साफ-सफाई के कारण भारत को हर साल 5400 करोड़ डॉलर मतलब तकरीबन 3.2 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होता है। यह रकम भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की करीब छह फीसदी ठहरती है।

भारत में कुपोषण के लिए साफ-सफाई या सेनिटेशन की खराब हालत भी जिम्मेदार है। देश में पांच साल से कम उम्र के 6.2 करोड़ बच्चों के उचित शारीरिक और मानसिक विकास के अनुकूल साफ-सफाई वाला वातावरण नहीं मिल पाता। यह कितनी गंभीर समस्या है, इसी बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 2012 में सेव द चिल्ड्रेन के एक अनुमान के अनुसार, देश में 43 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के और कुपोषित थे।

गौरतलब है कि बच्चों के जन्म के बाद दो वर्ष का समय उनके शारीरिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है। इस अवधि में खुले में शौच के कारण विभिन्न बीमारियों के कीटाणु बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। बच्चों के सामान्य कद में आ रही कमी, जिसे जनस्वास्थ्य की शब्दावली में स्टंटिंग कहते हैं, का सीधा नाता खुले में शौच से है।

अमेरिका स्थित प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के हेल्थ-इकोनॉमिस्ट डीन स्पेयर्स ने अपने अध्ययन में इस बात का खुलासा किया है कि खुले में शौच की बुराई के कारण भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और वे स्टंटिंग से ग्रसित हैं।

शौचालयों की अनुपलब्धता न सिर्फ एक जनस्वास्थ्य समस्या है, बल्कि इसका नाता लैंगिक हिंसा और यौन हिंसा से भी है। विभिन्न प्रदेशों में महिलाओं से दुष्कर्म अथवा बलात्कार की ऐसी घटनाओं की खबरें सामने आई हैं, जो उनके शौच के लिए घर से बाहर कहीं जाने के दौरान हुईं।

ऐसी घटनाएं साफ बताती हैं कि भारत में घरों में शौचालय की कमी की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं किस तरह होती हैं। जो कि महिलाओं पर हो रही लैंगिक हिंसा का एक बड़ा कारण महज खुले में शौच करना ही नहीं है, बल्कि इसकी वजहें पितृसत्तात्मक सोच की जड़ों में पिन्हा हैं। फिर भी खुले में शौच बलात्कारी दरिंदों को कन्डूसिव अवसर उपलब्ध कराता है।

खुले में शौचभारत ही नहीं, केन्या और युगांडा जैसे अन्य देशों में खुले में शौच के लिए जाने वाली महिलाओं के साथ भी यौन हिंसा की अक्सर वारदातें होती रहती हैं।

इस समस्या के सांस्कृतिक कारण भी हैं। हमारे देश में घर के अंदर ही शौचालय बनाने की परंपरा नहीं रही है। आज भी गांवों में रहने वाले बहुतेरे लोग घरों में शौचालय की सुविधा होने के बावजूद खुले में जाते हैं। सो निश्चित ही यह गंभीर समस्या है और इससे छुटकारा हासिल करने के लिए इसके सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर भी विचार करना होगा।

सांस्थानिक प्रयास के साथ-साथ वैयक्तिक स्तर पर भी प्रयास जरूरी हैं। तभी तो गांधीजी ने भी कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक महत्वपूर्ण है, अत: हमें खुले में थूकने व शंका निवारण आदि से संकोच करना चाहिए। दूसरी ओर संस्थागत प्रयास भी बहुत ही अच्छे नतीजे देते हैं।

डब्लूएचओ के एक अध्ययन के अनुसार, साफ-सफोई पर खर्च किया गया एक रुपया सामाजिक-आर्थिक फायदे के लिहाज से नौ गुना प्रतिफल देता है। संक्रमण और बीमारी का स्तर घटता है, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं पर कम खर्च तो होता ही है, एक स्वस्थ व्यक्ति की उत्पादकता निश्चित रूप से अधिक होती है।

यों बीते दशकों में हमने शौचालय का दायरा 27.5 करोड़ लोगों तक बढ़ाया है, लेकिन यह फिर भी नाकाफी है। एसोसिएटेड प्रेस के एक आकलन के अनुसार, लगभग 64 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, जिससे रोजाना 72 हजार टन मल का ढेर लगता है। इससे दस एफिल टावर बनाए जा सकते हैं। यानी राष्ट्रीय शर्म का यह एक ऐसा संग्रहालय है, जो सभ्य समाज के हमारे दावे को तार-तार कर रहा है।

उल्लेखनीय है कि निर्मल भारत अभियान के तहत सन् 2022 ई. तक इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन इसकी प्राप्ति अभी तक दूर की कौड़ी बनी हुई है। तिस पर तुर्रा यह कि 2014 के बजट में वित्त मंत्री ने प्रत्येक घर को 2019 तक स्वच्छता सुविधा उपलब्ध कराने के लिए स्वच्छ भारत अभियान चलाने की घोषणा कर रखी है। अब देखना यही है कि सरकार कितनी प्रतिबद्धता से इस राष्ट्रीय शर्म को दूर कर पाती है।

ईमेल : csrdian@gmail.com

(लेखक जेएनयू, नई दिल्ली में अर्थशास्त्र के शोधार्थी हैं)