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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 3 दिसंबर 2014
मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। विश्व बैंक ने 2009 में अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में मनरेगा को विकास के लिए बाधा कहा था। लेकिन इस मामले में 2014 तक आते-आते वर्ल्ड बैंक की राय बदल गई। मनरेगा के बहुआयामी विकास योगदान को देखते हुए इसने 2014 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में इसे स्टेलर एक्जैंपल ऑफ रुरल डेवलपमेंट की संज्ञा दी है। कुल मिलाकर, मनरेगा के न तो सामाजिक-आर्थिक लाभ कम है और न ही यह अर्थव्यवस्था पर भार है। अगर कमी है तो मौजूदा हुक्मरानों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की।केंद्र सरकार मनरेगा का दायरा सिकोड़ना चाहती है। पूरे देश में चल रही इस योजना को मौजूदा सरकार महज जनजातीय या पिछड़े जिलों तक ही सीमित करना चाहती है। साथ ही, सरकार की योजना मनरेगा एक्ट में संशोधन कर इसमें वर्णित श्रम और सामग्री के मौजूदा अनुपात 60-40 से घटाकर 51-49 करने की है। इस दिशा में सरकार ने राज्यों से कहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष के शेष महीनों में वे मनरेगा पर अपना खर्च सीमित करें।
उल्लेखनीय है कि इस अधिकार आधारित योजना के मद में किया जाने वाला बजटीय आवंटन पिछले कई वर्षों से लगातार कम हो रहा है। वित्त वर्ष 2014-15 के लिए मनरेगा के मद में आवंटन महज 34,000 करोड़ रुपए का है, जो राज्यों द्वारा इस मद में मांगी गई राशि से 45 फीसदी कम है। जहां तक मनरेगा-जीडीपी अनुपात की बात है, वर्ष 2009-10 में देश की जीडीपी में मनरेगा के मद में हुए आवंटन का हिस्सा 0.87 प्रतिशत था, जो 2013-14 में घट कर 0.59 फीसदी हो गया। मनरेगा के अंतर्गत खर्च की गई राशि का सालाना औसत 38 हजार करोड़ रुपए का रहा है, जबकि सालाना आवंटन औसतन 33 हजार करोड़ रुपए का हुआ है।
अगर सरकार मनरेगा को संकुचित करने के एजेंडे पर अमल-दर-आमद न करे तब भी मुद्रास्फीति के बढ़ने और आवंटित राशि की कमी के दोतरफा दबाव में मनरेगा का क्रियान्वयन लगातार बाधित होता रहा है। आवंटन में हो रही कमी को ध्यान में रखें तो समझ में आता है कि सौ दिन की जगह क्यों अभी तक मनरेगा में गरीब ग्रामीण परिवारों को सालाना औसतन 50 दिन का भी रोजगार नहीं दिया जा सका।
मनरेगा के अंतर्गत 2013-14 में कुल 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। वहीं अगर श्रम और सामग्री पर खर्च की जाने वाली राशि का अनुपात बदला जाता है तो मनरेगा के अंतर्गत रोजगार सृजन की मौजूदा दर कायम रखने के लिए अतिरिक्त 20 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। चूंकि सरकार मनरेगा का बजट आवंटन बढ़ाने की जगह घटा रही है, तो इसका सीधा प्रभाव यह पड़ेगा कि मनरेगा के रोजगार सृजन की क्षमता में 40 फीसदी की कमी आएगी। वहीं अगर श्रम-सामग्री अनुपात घटाने के साथ-साथ मनरेगा को 200 पिछड़े जिलों तक किया जाता है तो ढाई करोड़ परिवार इससे प्रभावित होंगे।
मनरेगा का बजट जीडीपी का केवल 0.3 फीसदी है, जबकि अमीर कंपनियों को कर में जो छूट मिलती है, वह जीडीपी का तीन फीसदी है। मतलब साफ है कि जितना मनरेगा पर खर्च किया जा रहा है, उससे दस गुना ज्यादा पैसा तो अमीरों को छूट देने में खर्च हो रहा है।मनरेगा के विरोध में प्रबल तर्क है कि इस योजना से राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और देश की अर्थव्यवस्था इस स्थिति में नहीं कि वह इतना वित्तीय भार सहन कर सके। यह सिर्फ सिक्के का एक रुख है। दूसरे रुख की तरफ भी जरा गौर करिए, मनरेगा का बजट जीडीपी का केवल 0.3 फीसदी है, जबकि अमीर कंपनियों को कर में जो छूट मिलती है, वह जीडीपी का तीन फीसदी है। मतलब साफ है कि जितना मनरेगा पर खर्च किया जा रहा है, उससे दस गुना ज्यादा पैसा तो अमीरों को छूट देने में खर्च हो रहा है। सरकार ने पिछले नौ सालों में कंपनियों को 365 खरब रुपए की टैक्स छूट दी है। इस साल के बजट के दस्तावेजों के मुताबिक 2013-14 में जरूरतमंद कॉरपोरेट और अमीरों को 5.32 लाख करोड़ रुपए दिए गए हैं। इस 5.32 लाख करोड़ रुपए से 105 साल तक मनरेगा की योजना बड़े आराम से चलाई जा सकती है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने भी अपनी किताब 'एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शंस' में इस विसंगति की तरफ इशारा किया है कि भारत का सब्सिडी ढांचा कितना पक्षपातपूर्ण है। जहां पैसे की जरूरत वहां तो मितव्ययिता से काम चलाया जा रहा है जबकि गैरजरूरी क्षेत्रों में बिलादरेग पैसे खर्च किए जा रहे हैं। कमी संसाधनों की नहीं प्राथमिकताओं में है।
अफसोस की बात है कि सरकार संसाधनों की कमी का रोना तो रोती है लेकिन सरकारी आय बढ़ाने पर चर्चा बिलकुल नहीं करती। मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और नैन्सी कियान की शोध रिपोर्ट इनकम इनएक्वालिटी एंड प्रोग्रेसिव इंकम टैक्सेशन इन चाइना एंड इंडिया 1986-2015 के अनुसार, 1986 से 2008 के बीच चीन में कर देने वाली जनसंख्या 0.1 से बढ़कर 20 फीसदी तक पहुंच गई जबकि इस दौरान भारत में यह दो से तीन प्रतिशत के बीच अटकी हुई है।
गौरतलब है कि भारत ही सिर्फ एक ऐसा देश नहीं है जो मनरेगा जैसी योजनाओं पर इतना व्यय कर रहा है। लातिन अमेरिकी देश भी अपने-अपने देशों में गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन समेत स्वास्थ्य के विभिन्न कार्यक्रमों में अपने जीडीपी का अच्छा-खासा हिस्सा व्यय कर रहे हैं। मसलन, ब्राजील 'बॉल्सा फेमेलिया' और मेक्सिको 'अपाचरुनिदादिसष्क' जो गरीबी उन्मूलन व रोजगार सृजन से संबंधित कार्यक्रम हैं, में दोनों देश क्रमश: 0.3 और 0.5 प्रतिशत व्यय कर रहे हैं। बेशक इसका असर इस देशों के मानव विकास सूचकांक पर पड़ता है। भारत इस सूचकांक में इन देशों से पीछे है।
यह याद करना समीचीन होगा कि 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार थी और बीजेपी सरकार ने भारत उदय, इंडिया शाइनिंग का भ्रमजाल पूरे मनोयोग से फैलाया था। उस दौरान वास्तविक मजदूरी में प्रति वर्ष वृद्धि का स्तर सिर्फ 0.1 प्रतिशत ही था। लेकिन अगर वर्ष 2005-06 से 2010-11 तक की बात करें तो इस दौरान कुछ हद तक बेहतर बातें हुईं। इस दौरान सभी ग्रामीण श्रमिकों (मनरेगा श्रमिकों) की वास्तविक मजदूरी में इजाफा हुआ। खास बात तो यह है कि इस दौरान महिलाओं की वास्तविक मजदूरी में वृद्धि की रफ्तार पुरुषों की तुलना में ज्यादा रही है।
मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। विश्व बैंक ने 2009 में अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में मनरेगा को विकास के लिए बाधा कहा था। लेकिन इस मामले में 2014 तक आते-आते वर्ल्ड बैंक की राय बदल गई। मनरेगा के बहुआयामी विकास योगदान को देखते हुए इसने 2014 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में इसे स्टेलर एक्जैंपल ऑफ रुरल डेवलपमेंट की संज्ञा दी है।
कुल मिलाकर, मनरेगा के न तो सामाजिक-आर्थिक लाभ कम है और न ही यह अर्थव्यवस्था पर भार है। अगर कमी है तो मौजूदा हुक्मरानों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की। सवाल आर्थिक व्यवहार्यता (इकोनॉमिक वायबिलिटी) का नहीं बल्कि प्राथमिकताओं से भटकने का है। अलबत्ता इतना जरूर है कि मनरेगा योजना के क्रियान्वयन में कई झोल हैं, जिसे गवर्नेंस के जरिए दूर किया जा सकता है। गुड मवर्नेंस का कलमा पढ़-पढ़ कर केंद्र में आने वाली मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह गवर्नेंस को दुरुस्त करेगी। लेकिन वह तो आर्थिक भार और राजकोषीय घाटा का बहाना लेकर गरीब आदमी की रोजी-रोटी पर लात मारने को आमदा है। यही देश का दुर्भाग्य है।
लेखक का ई-मेल : csrdian@gmail.com
उल्लेखनीय है कि इस अधिकार आधारित योजना के मद में किया जाने वाला बजटीय आवंटन पिछले कई वर्षों से लगातार कम हो रहा है। वित्त वर्ष 2014-15 के लिए मनरेगा के मद में आवंटन महज 34,000 करोड़ रुपए का है, जो राज्यों द्वारा इस मद में मांगी गई राशि से 45 फीसदी कम है। जहां तक मनरेगा-जीडीपी अनुपात की बात है, वर्ष 2009-10 में देश की जीडीपी में मनरेगा के मद में हुए आवंटन का हिस्सा 0.87 प्रतिशत था, जो 2013-14 में घट कर 0.59 फीसदी हो गया। मनरेगा के अंतर्गत खर्च की गई राशि का सालाना औसत 38 हजार करोड़ रुपए का रहा है, जबकि सालाना आवंटन औसतन 33 हजार करोड़ रुपए का हुआ है।
अगर सरकार मनरेगा को संकुचित करने के एजेंडे पर अमल-दर-आमद न करे तब भी मुद्रास्फीति के बढ़ने और आवंटित राशि की कमी के दोतरफा दबाव में मनरेगा का क्रियान्वयन लगातार बाधित होता रहा है। आवंटन में हो रही कमी को ध्यान में रखें तो समझ में आता है कि सौ दिन की जगह क्यों अभी तक मनरेगा में गरीब ग्रामीण परिवारों को सालाना औसतन 50 दिन का भी रोजगार नहीं दिया जा सका।
मनरेगा के अंतर्गत 2013-14 में कुल 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। वहीं अगर श्रम और सामग्री पर खर्च की जाने वाली राशि का अनुपात बदला जाता है तो मनरेगा के अंतर्गत रोजगार सृजन की मौजूदा दर कायम रखने के लिए अतिरिक्त 20 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। चूंकि सरकार मनरेगा का बजट आवंटन बढ़ाने की जगह घटा रही है, तो इसका सीधा प्रभाव यह पड़ेगा कि मनरेगा के रोजगार सृजन की क्षमता में 40 फीसदी की कमी आएगी। वहीं अगर श्रम-सामग्री अनुपात घटाने के साथ-साथ मनरेगा को 200 पिछड़े जिलों तक किया जाता है तो ढाई करोड़ परिवार इससे प्रभावित होंगे।
मनरेगा का बजट जीडीपी का केवल 0.3 फीसदी है, जबकि अमीर कंपनियों को कर में जो छूट मिलती है, वह जीडीपी का तीन फीसदी है। मतलब साफ है कि जितना मनरेगा पर खर्च किया जा रहा है, उससे दस गुना ज्यादा पैसा तो अमीरों को छूट देने में खर्च हो रहा है।मनरेगा के विरोध में प्रबल तर्क है कि इस योजना से राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और देश की अर्थव्यवस्था इस स्थिति में नहीं कि वह इतना वित्तीय भार सहन कर सके। यह सिर्फ सिक्के का एक रुख है। दूसरे रुख की तरफ भी जरा गौर करिए, मनरेगा का बजट जीडीपी का केवल 0.3 फीसदी है, जबकि अमीर कंपनियों को कर में जो छूट मिलती है, वह जीडीपी का तीन फीसदी है। मतलब साफ है कि जितना मनरेगा पर खर्च किया जा रहा है, उससे दस गुना ज्यादा पैसा तो अमीरों को छूट देने में खर्च हो रहा है। सरकार ने पिछले नौ सालों में कंपनियों को 365 खरब रुपए की टैक्स छूट दी है। इस साल के बजट के दस्तावेजों के मुताबिक 2013-14 में जरूरतमंद कॉरपोरेट और अमीरों को 5.32 लाख करोड़ रुपए दिए गए हैं। इस 5.32 लाख करोड़ रुपए से 105 साल तक मनरेगा की योजना बड़े आराम से चलाई जा सकती है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने भी अपनी किताब 'एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शंस' में इस विसंगति की तरफ इशारा किया है कि भारत का सब्सिडी ढांचा कितना पक्षपातपूर्ण है। जहां पैसे की जरूरत वहां तो मितव्ययिता से काम चलाया जा रहा है जबकि गैरजरूरी क्षेत्रों में बिलादरेग पैसे खर्च किए जा रहे हैं। कमी संसाधनों की नहीं प्राथमिकताओं में है।
अफसोस की बात है कि सरकार संसाधनों की कमी का रोना तो रोती है लेकिन सरकारी आय बढ़ाने पर चर्चा बिलकुल नहीं करती। मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और नैन्सी कियान की शोध रिपोर्ट इनकम इनएक्वालिटी एंड प्रोग्रेसिव इंकम टैक्सेशन इन चाइना एंड इंडिया 1986-2015 के अनुसार, 1986 से 2008 के बीच चीन में कर देने वाली जनसंख्या 0.1 से बढ़कर 20 फीसदी तक पहुंच गई जबकि इस दौरान भारत में यह दो से तीन प्रतिशत के बीच अटकी हुई है।
गौरतलब है कि भारत ही सिर्फ एक ऐसा देश नहीं है जो मनरेगा जैसी योजनाओं पर इतना व्यय कर रहा है। लातिन अमेरिकी देश भी अपने-अपने देशों में गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन समेत स्वास्थ्य के विभिन्न कार्यक्रमों में अपने जीडीपी का अच्छा-खासा हिस्सा व्यय कर रहे हैं। मसलन, ब्राजील 'बॉल्सा फेमेलिया' और मेक्सिको 'अपाचरुनिदादिसष्क' जो गरीबी उन्मूलन व रोजगार सृजन से संबंधित कार्यक्रम हैं, में दोनों देश क्रमश: 0.3 और 0.5 प्रतिशत व्यय कर रहे हैं। बेशक इसका असर इस देशों के मानव विकास सूचकांक पर पड़ता है। भारत इस सूचकांक में इन देशों से पीछे है।
यह याद करना समीचीन होगा कि 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार थी और बीजेपी सरकार ने भारत उदय, इंडिया शाइनिंग का भ्रमजाल पूरे मनोयोग से फैलाया था। उस दौरान वास्तविक मजदूरी में प्रति वर्ष वृद्धि का स्तर सिर्फ 0.1 प्रतिशत ही था। लेकिन अगर वर्ष 2005-06 से 2010-11 तक की बात करें तो इस दौरान कुछ हद तक बेहतर बातें हुईं। इस दौरान सभी ग्रामीण श्रमिकों (मनरेगा श्रमिकों) की वास्तविक मजदूरी में इजाफा हुआ। खास बात तो यह है कि इस दौरान महिलाओं की वास्तविक मजदूरी में वृद्धि की रफ्तार पुरुषों की तुलना में ज्यादा रही है।
मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। विश्व बैंक ने 2009 में अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में मनरेगा को विकास के लिए बाधा कहा था। लेकिन इस मामले में 2014 तक आते-आते वर्ल्ड बैंक की राय बदल गई। मनरेगा के बहुआयामी विकास योगदान को देखते हुए इसने 2014 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में इसे स्टेलर एक्जैंपल ऑफ रुरल डेवलपमेंट की संज्ञा दी है।
कुल मिलाकर, मनरेगा के न तो सामाजिक-आर्थिक लाभ कम है और न ही यह अर्थव्यवस्था पर भार है। अगर कमी है तो मौजूदा हुक्मरानों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की। सवाल आर्थिक व्यवहार्यता (इकोनॉमिक वायबिलिटी) का नहीं बल्कि प्राथमिकताओं से भटकने का है। अलबत्ता इतना जरूर है कि मनरेगा योजना के क्रियान्वयन में कई झोल हैं, जिसे गवर्नेंस के जरिए दूर किया जा सकता है। गुड मवर्नेंस का कलमा पढ़-पढ़ कर केंद्र में आने वाली मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह गवर्नेंस को दुरुस्त करेगी। लेकिन वह तो आर्थिक भार और राजकोषीय घाटा का बहाना लेकर गरीब आदमी की रोजी-रोटी पर लात मारने को आमदा है। यही देश का दुर्भाग्य है।
लेखक का ई-मेल : csrdian@gmail.com